कोरोना महामारी, अमेरिका में चल रहे अश्वेत-प्रदर्शनों और भारत-चीन टकराव के बीच एक अच्छी खबर है कि अफग़ानिस्तान में शांति स्थापना के लिए सरकार और तालिबान के बीच बातचीत का रास्ता साफ हो गया है। पहली बार दोनों पक्ष दोहा में आमने-सामने हैं। केवल कैदियों की रिहाई की पुष्टि होनी है, जो चल रही है। क़तर के विदेश मंत्रालय के विशेष दूत मुश्ताक़ अल-क़ाहतानी ने अफ़ग़ान राष्ट्रपति अशरफ ग़नी से काबुल में मुलाकात के बाद इस आशय की घोषणा की।
पिछले कुछ हफ्तों में सबसे पहले अफ़ग़ानिस्तान सरकार के सत्ता संघर्ष में अशरफ ग़नी और अब्दुल्ला अब्दुल्ला के धड़ों के बीच युद्धविराम हुआ, फिर सभी पक्षों ने समझौते की दिशा में सोचना शुरू किया। गत 23 मई को तालिबान ने ईद के मौके पर तीन दिन के युद्धविराम की घोषणा की। हालांकि हिंसक घटनाएं उसके बाद भी हुई हैं, पर कहना मुश्किल है कि उनके पीछे तालिबान, इस्लामिक स्टेट या अल कायदा किसका हाथ है।
संदेह फिर भी कायम
अमेरिकी सेना ने भी कम से कम दो जगहों, पश्चिमी फराह और दक्षिणी कंधार क्षेत्र में हवाई हमलों की घोषणा की है। चूंकि अमेरिकी निगहबानी खत्म होने जा रही है, इसलिए सवाल यह भी है कि क्या अफीम की खेती का कारोबार फिर से शुरू होगा, जो कभी तालिबानी कमाई का एक जरिया था। इन सब बातों के अलावा तालिबान की सामाजिक समझ, आधुनिक शिक्षा और स्त्रियों के प्रति उनके दृष्टिकोण को लेकर भी संदेह हैं।
अब्दुल्ला अब्दुल्ला अब राष्ट्रीय सुलह-समझौता परिषद के अध्यक्ष हैं। पिछले साल हुए राष्ट्रपति चुनाव के बाद से वे भी खुद को राष्ट्रपति घोषित करके बैठे हुए थे। तालिबान के साथ बातचीत में अब वे सरकारी पक्ष का नेतृत्व करेंगे। दोहा में अनौपचारिक बातचीत चलने भी लगी है। इस लिहाज से शांति स्थापना की दिशा में उठाए गए कदम मंजिल की तरफ बढ़ते नजर आ रहे हैं।
अफ़ग़ान सरकार 5000 तालिबानी कैदियों की रिहाई के लिए तैयार हो गई और उसने करीब 3000 को रिहा कर भी दिया है। तालिबान ने भी 500 से ज्यादा सरकारी कैदियों को छोड़ा है। सरकार ने कैदियों की रिहाई इस शर्त के साथ की है कि वे दुबारा सरकार के खिलाफ हथियार नहीं उठाएंगे। उधर तालिबान की माँग है कि पूरे 5000 छूटेंगे, तभी बात होगी। अभी यह पुष्टि करने की व्यवस्था नहीं है कि तालिबान ने जिनके लिए कहा था, वही लोग छूटे हैं या कोई और।
कौन हारा, कौन जीता?
यह निष्कर्ष निकालने में जल्दबाजी नहीं करनी चाहिए कि यह अमेरिका की हार है या तालिबान की हार। शायद दोनों पक्षों ने व्यावहारिक सत्य को समय से पहचान लिया है, पर क्या अफगानिस्तान के लोग अपना भला-बुरा समझते हैं? क्या वे अपने लिए एक सुन्दर, सुखद भविष्य की रचना कर पाएंगे या उन्हें ऐसा करने दिया जाएगा? फिलहाल क्या किसी किस्म की अंतरिम व्यवस्था स्थापित होगी? यानी कि क्या तालिबान सरकार में शामिल होंगे? क्या विदेशी सेनाओं की पूरा वापसी होगी? तालिबान यदि सरकार में शामिल हुए, तो उनकी वैचारिक भूमिका क्या होगी? इस नई व्यवस्था में पाकिस्तान कहाँ होगा? और भारत कहाँ होगा?
अमेरिकी सेंट्रल कमांड के शीर्ष जनरल कैनेथ एफ मैकेंजी ने कहा है कि जब तक तालिबान यह स्पष्ट नहीं करता कि वे अब अल-कायदा लड़ाकों का समर्थन नहीं करते तब तक वह 2021 के मध्य तक अफगानिस्तान से पूरी तरह से अमेरिकी सेना की वापसी की सिफारिश नहीं करेंगे। अमेरिका और तालिबान के गत 29 फरवरी को हुए शांति समझौते के तहत जुलाई तक अमेरिका को अपने सैनिकों की संख्या को लगभग 8,600 तक लाना है। अमेरिकी सेना के समाचार स्रोत ‘स्टार्स एंड स्ट्राइप्स’ ने जनरल मैकेंजी को उधृत करते हुए कहा है कि अमेरिका को असली खतरा तालिबान से नहीं हैं, बल्कि उन गिरोहों से है, जो तालिबान की मदद से अपनी गतिविधियाँ चलाते हैं।
फरवरी के समझौते के अनुसार इन गिरोहों को तालिबान से मिलने वाली मदद खत्म होगी। ऐसा हुआ, तो मई 2021 तक सेना अफगानिस्तान से पूरी वापसी की सिफारिश कर देगी। राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप चाहते हैं कि अमेरिकी सेना 3 नवंबर के राष्ट्रपति चुनाव के पहले अफगानिस्तान से पूरी वापसी की योजना को अंतिम रूप दे दे। ये गतिविधियाँ चल ही रही थीं कि अमेरिकी दूत जलमय खलीलज़ाद इस इलाके का एक और दौरा करके वापस गए हैं। इस दौरान ही भारतीय भूमिका भी स्पष्ट हुई है।
भारत का अंदेशा
समझौते को लेकर भारत के कई तरह के अंदेशे हैं। भारत ने पिछले 20 साल में अफ़ग़ानिस्तान में अरबों रुपयों का निवेश किया है और अफ़ग़ानिस्तान ने भी भारत के साथ अपनी दोस्ती को हर मुमकिन तौर पर बनाए रखने की भरपूर कोशिश की है। अब क्या तालिबान के साथ भारत के रिश्ते कायम हो सकेंगे? अस्सी के दशक में जब अफगानिस्तान में पाकिस्तान की जमीन से संचालित युद्ध चल रहा था, तभी कश्मीर में हिंसक कार्रवाइयाँ शुरू हुईं थीं।
भारत को आशंका है कि पाकिस्तान अपनी सुरक्षा को गहराई प्रदान करने के लिए अफगानिस्तान का इस्तेमाल करेगा और दूसरे कश्मीर में आतंकवाद को बढ़ावा देने के लिए तालिबान का इस्तेमाल करेगा। सन 1999 में इंडियन एयरलाइंस के विमान के अपहरण में तालिबान ने पाकिस्तान की मदद की थी। इस शांति-वार्ता में पाकिस्तान की महत्वपूर्ण भूमिका है, जिसके कारण अमेरिका उसके प्रति नरम रवैया अपना रहा है।
दोहा की बातचीत में भी हाशिए पर पाकिस्तान खड़ा है। उसने शांति प्रक्रिया को आगे बढ़ाने के लिए अपने वरिष्ठ डिप्लोमैट मुहम्मद सादिक़ खान को विशेष दूत के रूप में नियुक्त किया है। सादिक़ खान सन 2008 से 2014 तक अफ़ग़ानिस्तान में पाकिस्तान के राजदूत के रूप में काम कर चुके हैं। पाकिस्तान के सेनाध्यक्ष जनरल कमर जावेद बाजवा और आईएसआई के चीफ ले जन फैज़ हमीद इस वार्ता के ठीक पहले अचानक काबुल पहुँचे और उन्होंने राष्ट्रपति अशरफ ग़नी से मुलाकात की।
इसका अर्थ यह भी नहीं कि अमेरिका ने सब कुछ पाकिस्तान पर छोड़ दिया है। अमेरिका को पाकिस्तान की भूमिका पर अब भी संदेह है। उसकी दिलचस्पी इसीलिए भारतीय भूमिका बढ़ाने में है। यह बात पाकिस्तान को पसंद नहीं। अब भारतीय डिप्लोमेसी की परीक्षा है। जलमय ख़लीलज़ाद ने पिछले दिनों भारतीय अखबार 'द हिन्दू' से एक इंटरव्यू में कहा कि भारत को तालिबान से सीधे बात करनी चाहिए। पहली बार किसी अमेरिकी स्रोत ने औपचारिक रूप से भारत को तालिबान के साथ सीधे बातचीत करने की पेशकश की है।
तालिबान से संपर्क
अफगानिस्तान के आसपास भारत अकेला ऐसा देश है, जिसके तालिबान के साथ औपचारिक संबंध नहीं हैं। हालांकि नब्बे के दशक में चीन, ईरान और रूस ने भी तालिबान सरकार को स्वीकार नहीं किया था, लेकिन अब तीनों देश तालिबान के संपर्क में हैं। रूस ने तो शांति प्रक्रिया के सिलसिले में नवंबर 2018 में अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन की मेजबानी भी की थी। अफगानिस्तान में रूस के विशेष दूत ज़मीर कबुलोव ने भी एक इंटरव्यू में कहा था कि भारत को अब तालिबान से राब्ता कायम करना चाहिए।
बीबीसी ने अमेरिकी लेखक बार्नेट आर रूबेन को उधृत किया है कि ख़लीलज़ाद ने यह नहीं कहा कि भारत तालिबान को अफ़ग़ानिस्तान सरकार की तरह मान ले, बल्कि उनका कहना है कि जिस तरह दूसरे देशों के तालिबान और दूसरे धड़ों के साथ संपर्क है इसी तरह भारत भी तालिबान के साथ संपर्क में रहे और उन्हें प्रेरित करे कि वे हथियार का रास्ता छोड़कर सक्रिय राजनीति में आएं। अब जब तालिबान अफ़ग़ानिस्तान की राजनीति में दाख़िल हो गया है तो यह भारत के लिए अच्छा यही होगा कि वह उनके साथ वैसे ही संबंध बनाए जैसे जमाते इस्लामी, जनरल दोस्तम या फिर पश्तो क़ौम परस्तों के साथ रखता है।
यों भी तालिबान के प्रति भारत की नीति पहले ही बदल चुकी है। जब भारत ने नवंबर 2018 में मॉस्को में होने वाली अंतरराष्ट्रीय कॉन्फ्रेंस में दो पूर्व राजदूत भेजे थे तभी इसका संकेत मिल गया था। आशा है कि भारत ने तालिबान के साथ या तो संपर्क कायम कर लिए हैं या उस दिशा में कदम बढ़ा दिए हैं। व्यावहारिक राजनय का तकाज़ा भी यही है। तालिबान को भी ‘पाकिस्तान परस्ती’ के बिल्ले को हटाना है, तो उसे भारतीय नजरिए को समझना होगा।
तालिबान और अफगान सरकार के बीच संपर्क कायम करने में भी भारत भूमिका निभा सकता है। भारत ने पश्चिम एशिया में इसरायल और फलस्तीनियों दोनों से अच्छे रिश्ते बनाकर रखे हैं। ईरान और सऊदी अरब के साथ हमारे रिश्ते अच्छे हैं। यह संतुलनकारी भूमिका अफगानिस्तान में मददगार होगी, बशर्ते वह सफल हो।
पिछले कुछ हफ्तों में सबसे पहले अफ़ग़ानिस्तान सरकार के सत्ता संघर्ष में अशरफ ग़नी और अब्दुल्ला अब्दुल्ला के धड़ों के बीच युद्धविराम हुआ, फिर सभी पक्षों ने समझौते की दिशा में सोचना शुरू किया। गत 23 मई को तालिबान ने ईद के मौके पर तीन दिन के युद्धविराम की घोषणा की। हालांकि हिंसक घटनाएं उसके बाद भी हुई हैं, पर कहना मुश्किल है कि उनके पीछे तालिबान, इस्लामिक स्टेट या अल कायदा किसका हाथ है।
संदेह फिर भी कायम
अमेरिकी सेना ने भी कम से कम दो जगहों, पश्चिमी फराह और दक्षिणी कंधार क्षेत्र में हवाई हमलों की घोषणा की है। चूंकि अमेरिकी निगहबानी खत्म होने जा रही है, इसलिए सवाल यह भी है कि क्या अफीम की खेती का कारोबार फिर से शुरू होगा, जो कभी तालिबानी कमाई का एक जरिया था। इन सब बातों के अलावा तालिबान की सामाजिक समझ, आधुनिक शिक्षा और स्त्रियों के प्रति उनके दृष्टिकोण को लेकर भी संदेह हैं।
अब्दुल्ला अब्दुल्ला अब राष्ट्रीय सुलह-समझौता परिषद के अध्यक्ष हैं। पिछले साल हुए राष्ट्रपति चुनाव के बाद से वे भी खुद को राष्ट्रपति घोषित करके बैठे हुए थे। तालिबान के साथ बातचीत में अब वे सरकारी पक्ष का नेतृत्व करेंगे। दोहा में अनौपचारिक बातचीत चलने भी लगी है। इस लिहाज से शांति स्थापना की दिशा में उठाए गए कदम मंजिल की तरफ बढ़ते नजर आ रहे हैं।
अफ़ग़ान सरकार 5000 तालिबानी कैदियों की रिहाई के लिए तैयार हो गई और उसने करीब 3000 को रिहा कर भी दिया है। तालिबान ने भी 500 से ज्यादा सरकारी कैदियों को छोड़ा है। सरकार ने कैदियों की रिहाई इस शर्त के साथ की है कि वे दुबारा सरकार के खिलाफ हथियार नहीं उठाएंगे। उधर तालिबान की माँग है कि पूरे 5000 छूटेंगे, तभी बात होगी। अभी यह पुष्टि करने की व्यवस्था नहीं है कि तालिबान ने जिनके लिए कहा था, वही लोग छूटे हैं या कोई और।
कौन हारा, कौन जीता?
यह निष्कर्ष निकालने में जल्दबाजी नहीं करनी चाहिए कि यह अमेरिका की हार है या तालिबान की हार। शायद दोनों पक्षों ने व्यावहारिक सत्य को समय से पहचान लिया है, पर क्या अफगानिस्तान के लोग अपना भला-बुरा समझते हैं? क्या वे अपने लिए एक सुन्दर, सुखद भविष्य की रचना कर पाएंगे या उन्हें ऐसा करने दिया जाएगा? फिलहाल क्या किसी किस्म की अंतरिम व्यवस्था स्थापित होगी? यानी कि क्या तालिबान सरकार में शामिल होंगे? क्या विदेशी सेनाओं की पूरा वापसी होगी? तालिबान यदि सरकार में शामिल हुए, तो उनकी वैचारिक भूमिका क्या होगी? इस नई व्यवस्था में पाकिस्तान कहाँ होगा? और भारत कहाँ होगा?
अमेरिकी सेंट्रल कमांड के शीर्ष जनरल कैनेथ एफ मैकेंजी ने कहा है कि जब तक तालिबान यह स्पष्ट नहीं करता कि वे अब अल-कायदा लड़ाकों का समर्थन नहीं करते तब तक वह 2021 के मध्य तक अफगानिस्तान से पूरी तरह से अमेरिकी सेना की वापसी की सिफारिश नहीं करेंगे। अमेरिका और तालिबान के गत 29 फरवरी को हुए शांति समझौते के तहत जुलाई तक अमेरिका को अपने सैनिकों की संख्या को लगभग 8,600 तक लाना है। अमेरिकी सेना के समाचार स्रोत ‘स्टार्स एंड स्ट्राइप्स’ ने जनरल मैकेंजी को उधृत करते हुए कहा है कि अमेरिका को असली खतरा तालिबान से नहीं हैं, बल्कि उन गिरोहों से है, जो तालिबान की मदद से अपनी गतिविधियाँ चलाते हैं।
फरवरी के समझौते के अनुसार इन गिरोहों को तालिबान से मिलने वाली मदद खत्म होगी। ऐसा हुआ, तो मई 2021 तक सेना अफगानिस्तान से पूरी वापसी की सिफारिश कर देगी। राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप चाहते हैं कि अमेरिकी सेना 3 नवंबर के राष्ट्रपति चुनाव के पहले अफगानिस्तान से पूरी वापसी की योजना को अंतिम रूप दे दे। ये गतिविधियाँ चल ही रही थीं कि अमेरिकी दूत जलमय खलीलज़ाद इस इलाके का एक और दौरा करके वापस गए हैं। इस दौरान ही भारतीय भूमिका भी स्पष्ट हुई है।
भारत का अंदेशा
समझौते को लेकर भारत के कई तरह के अंदेशे हैं। भारत ने पिछले 20 साल में अफ़ग़ानिस्तान में अरबों रुपयों का निवेश किया है और अफ़ग़ानिस्तान ने भी भारत के साथ अपनी दोस्ती को हर मुमकिन तौर पर बनाए रखने की भरपूर कोशिश की है। अब क्या तालिबान के साथ भारत के रिश्ते कायम हो सकेंगे? अस्सी के दशक में जब अफगानिस्तान में पाकिस्तान की जमीन से संचालित युद्ध चल रहा था, तभी कश्मीर में हिंसक कार्रवाइयाँ शुरू हुईं थीं।
भारत को आशंका है कि पाकिस्तान अपनी सुरक्षा को गहराई प्रदान करने के लिए अफगानिस्तान का इस्तेमाल करेगा और दूसरे कश्मीर में आतंकवाद को बढ़ावा देने के लिए तालिबान का इस्तेमाल करेगा। सन 1999 में इंडियन एयरलाइंस के विमान के अपहरण में तालिबान ने पाकिस्तान की मदद की थी। इस शांति-वार्ता में पाकिस्तान की महत्वपूर्ण भूमिका है, जिसके कारण अमेरिका उसके प्रति नरम रवैया अपना रहा है।
दोहा की बातचीत में भी हाशिए पर पाकिस्तान खड़ा है। उसने शांति प्रक्रिया को आगे बढ़ाने के लिए अपने वरिष्ठ डिप्लोमैट मुहम्मद सादिक़ खान को विशेष दूत के रूप में नियुक्त किया है। सादिक़ खान सन 2008 से 2014 तक अफ़ग़ानिस्तान में पाकिस्तान के राजदूत के रूप में काम कर चुके हैं। पाकिस्तान के सेनाध्यक्ष जनरल कमर जावेद बाजवा और आईएसआई के चीफ ले जन फैज़ हमीद इस वार्ता के ठीक पहले अचानक काबुल पहुँचे और उन्होंने राष्ट्रपति अशरफ ग़नी से मुलाकात की।
इसका अर्थ यह भी नहीं कि अमेरिका ने सब कुछ पाकिस्तान पर छोड़ दिया है। अमेरिका को पाकिस्तान की भूमिका पर अब भी संदेह है। उसकी दिलचस्पी इसीलिए भारतीय भूमिका बढ़ाने में है। यह बात पाकिस्तान को पसंद नहीं। अब भारतीय डिप्लोमेसी की परीक्षा है। जलमय ख़लीलज़ाद ने पिछले दिनों भारतीय अखबार 'द हिन्दू' से एक इंटरव्यू में कहा कि भारत को तालिबान से सीधे बात करनी चाहिए। पहली बार किसी अमेरिकी स्रोत ने औपचारिक रूप से भारत को तालिबान के साथ सीधे बातचीत करने की पेशकश की है।
तालिबान से संपर्क
अफगानिस्तान के आसपास भारत अकेला ऐसा देश है, जिसके तालिबान के साथ औपचारिक संबंध नहीं हैं। हालांकि नब्बे के दशक में चीन, ईरान और रूस ने भी तालिबान सरकार को स्वीकार नहीं किया था, लेकिन अब तीनों देश तालिबान के संपर्क में हैं। रूस ने तो शांति प्रक्रिया के सिलसिले में नवंबर 2018 में अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन की मेजबानी भी की थी। अफगानिस्तान में रूस के विशेष दूत ज़मीर कबुलोव ने भी एक इंटरव्यू में कहा था कि भारत को अब तालिबान से राब्ता कायम करना चाहिए।
बीबीसी ने अमेरिकी लेखक बार्नेट आर रूबेन को उधृत किया है कि ख़लीलज़ाद ने यह नहीं कहा कि भारत तालिबान को अफ़ग़ानिस्तान सरकार की तरह मान ले, बल्कि उनका कहना है कि जिस तरह दूसरे देशों के तालिबान और दूसरे धड़ों के साथ संपर्क है इसी तरह भारत भी तालिबान के साथ संपर्क में रहे और उन्हें प्रेरित करे कि वे हथियार का रास्ता छोड़कर सक्रिय राजनीति में आएं। अब जब तालिबान अफ़ग़ानिस्तान की राजनीति में दाख़िल हो गया है तो यह भारत के लिए अच्छा यही होगा कि वह उनके साथ वैसे ही संबंध बनाए जैसे जमाते इस्लामी, जनरल दोस्तम या फिर पश्तो क़ौम परस्तों के साथ रखता है।
यों भी तालिबान के प्रति भारत की नीति पहले ही बदल चुकी है। जब भारत ने नवंबर 2018 में मॉस्को में होने वाली अंतरराष्ट्रीय कॉन्फ्रेंस में दो पूर्व राजदूत भेजे थे तभी इसका संकेत मिल गया था। आशा है कि भारत ने तालिबान के साथ या तो संपर्क कायम कर लिए हैं या उस दिशा में कदम बढ़ा दिए हैं। व्यावहारिक राजनय का तकाज़ा भी यही है। तालिबान को भी ‘पाकिस्तान परस्ती’ के बिल्ले को हटाना है, तो उसे भारतीय नजरिए को समझना होगा।
तालिबान और अफगान सरकार के बीच संपर्क कायम करने में भी भारत भूमिका निभा सकता है। भारत ने पश्चिम एशिया में इसरायल और फलस्तीनियों दोनों से अच्छे रिश्ते बनाकर रखे हैं। ईरान और सऊदी अरब के साथ हमारे रिश्ते अच्छे हैं। यह संतुलनकारी भूमिका अफगानिस्तान में मददगार होगी, बशर्ते वह सफल हो।
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