Wednesday, July 31, 2019

गौरव की प्रतीक भारतीय सेना


गत 25 फरवरी को प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने राष्ट्रीय युद्ध-स्मारक का उद्घाटन करके देश की एक बहुत पुरानी माँग को पूरा कर दिया। करीब 40 एकड़ क्षेत्र में फैला यह स्मारक राजधानी दिल्ली में इंडिया गेट के ठीक पीछे स्थित है। इसमें देश के उन 25,942 शहीद सैनिकों को श्रद्धांजलि दी गई है, जिन्होंने सन 1962 के भारत-चीन युद्ध और पाकिस्तान के साथ 1947, 1965, 1971 और 1999 के करगिल तथा आतंकियों के खिलाफ चलाए गए विभिन्न ऑपरेशनों तथा श्रीलंका और संयुक्त राष्ट्र के अनेक शांति-स्थापना अभियानों में अपना सर्वस्व बलिदान कर दिया।
इस युद्ध-स्मारक की स्थापना को आप एक सामान्य घटना मान सकते हैं, पर एक अर्थ में यह असाधारण स्मारक है। अभी तक देश में कोई राष्ट्रीय युद्ध-स्मारक नहीं था। इंडिया गेट में जो स्मारक है, वह अंग्रेजों ने पहले विश्व-युद्ध (1914-1918) के शहीदों से सम्मान में बनाया था। बेशक भारतीय सैनिकों की कहानी हजारों साल पुरानी है। कम से कम 1947 के काफी पहले की, पर आधुनिक भारत का जन्म 15 अगस्त 1947 को हुआ। विडंबना है कि शुरू से ही हमें अपने अस्तित्व की रक्षा के लिए युद्ध लड़ने पड़े हैं। आश्चर्य है कि हमारे पास पहले विश्वयुद्ध की स्मृति में स्मारक था, आधुनिक भारत की रक्षा के लिए लड़े गए युद्धों का स्मारक नहीं।
स्वाभिमान के प्रतीक
देशभर में दासता के तमाम अवशेष पड़े हैं, हमें राष्ट्रीय स्वाभिमान के प्रतीकों को भी स्थापित करना होगा। भारतीय सेना की गौरव गाथाओं के रूप में हमारे पास हजारों-लाखों प्रतीक मौजूद हैं। उन्हें याद करें। हर साल 15 जनवरी को हम सेना दिवस मनाते हैं। सन 1949 में 15 जनवरी को सेना के पहले भारतीय कमांडर-इन-चीफ लेफ्टिनेंट जनरल केएम करियप्पा ने आखिरी ब्रिटिश सी-इन-सी जनरल सर फ्रांसिस बूचर से कार्यभार संभाला था।  सेना दिवस मनाने के पीछे केवल इतनी सी बात नहीं है कि भारतीय जनरल ने अंग्रेज जनरल के हाथों से कमान अपने हाथ में ले ली। देश स्वतंत्र हुआ था, तो यह कमान भी हमें मिलनी थी। महत्वपूर्ण था भारतीय सेना की भूमिका में बदलाव।

Monday, July 29, 2019

हर साल बाढ़ झेलने को अभिशप्त क्यों है बिहार?


बिहार में बाढ़ की विभीषिका विकराल रूप ले रही है. इसकी वजह से कई गाँवों का अस्तित्व समाप्त हो गया है. सवा सौ से ज्यादा लोगों की मृत्यु की पुष्टि सरकार ने की है. न जाने कितनों की जानकारी ही नहीं है. पिछले हफ्ते जारी सूचना के अनुसार, आकाशीय बिजली गिरने से बिहार के अलग-अलग जिलों में 39 और झारखंड में 12 लोगों की मौत हुई है. करीब 82 लाख की आबादी बाढ़ से प्रभावित है. विडंबना है कि उत्तर बिहार और सीमांचल के 13 जिले बाढ़ से प्रभावित हैं, तो 20 जिलों पर सूखे का साया है. दोनों आपदाओं के पीड़ितों को राहत पहुंचाने की चुनौती है. पानी उतरने के बाद बीमारियों का खतरा ऊपर से है.
असम और उत्तर प्रदेश से भी बाढ़ की विभीषिका की खबरें हैं. असम राज्य आपदा प्रबंधन प्राधिकरण के मुताबिक 33 जिलों में से 20 जिलों में बाढ़ से 38.82 लाख लोग प्रभावित हैं. केंद्रीय जल आयोग के अनुसार बिहार में बूढ़ी गंडक, बागमती, अधवारा समूह, कमला बलान, कोसी, महानंदा और परमान नदी अलग-अलग स्थानों पर खतरे के निशान से ऊपर बह रही हैं. पश्चिम बंगाल के निचले इलाकों में भी भारी बारिश के कारण बाढ़ जैसे हालात बन रहे हैं.
बिहार के बाढ़ प्रभावित इलाकों में राहत और बचाव के काम चल रहे हैं. अभी पीड़ित परिवारों को छह-छह हजार रुपये की मदद सीधे खातों में भेजी जा रही है. इसके बाद खेती से नुकसान का आकलन होगा और किसान फसल सहायता और कृषि इनपुट सब्सिडी के जरिए मदद की जाएगी. आपदा प्रबंधन विभाग के अनुसार सीतामढ़ी, शिवहर, मधुबनी, दरभंगा, मुजफ्फरपुर, पूर्वी और पश्चिमी चंपारण, सहरसा, सुपौल, अररिया, किशनगंज, पूर्णिया और  कटिहार जिलों में बाढ़ है. सीतामढ़ी में सबसे ज्यादा 37 लोगों की मौत हुई है.

Sunday, July 28, 2019

राजनीतिक ‘मॉब लिंचिंग’ क्यों?

सन 2014 में मोदी सरकार के आगमन के पहले ही देश में पत्र-युद्ध शुरू हो गया था। चुनाव परिणाम आने के एक साल पहले अमेरिका में कुछ भारतीय राजनेताओं के नाम से चिट्ठी भेजी गई कि नरेन्द्र मोदी को अमेरिका का वीजा नहीं मिलना चाहिए। लंदन के गार्डियन में भारत के कुछ बुद्धिजीवियों के नाम से लेख छपा जिसमें कहा गया कि मोदी आया तो कहर बरपा हो जाएगा। गार्डियन, इकोनॉमिस्ट, वॉशिंगटन पोस्ट और न्यूयॉर्क टाइम्स जैसे प्रतिष्ठित अखबारों में मोदी के आगमन के साथ जुड़े खतरों को लेकर सम्पादकीय टिप्पणियाँ लिखी गईं।

सरकार बनने के एक साल बाद अवॉर्ड वापसी का एक दौर चला और यह जारी है। शुरू में इन पत्रों का जवाब कोई नहीं दे रहा था, पर हाल के वर्षों में जैसे ही ये पत्र सामने आते हैं, कुछ दूसरे लेखकों, कलाकारों, संगीतकारों, इतिहासकारों की तरफ से पत्र जारी होने लगे हैं। कहना मुश्किल है कि आम नागरिक इन पत्रों की तरफ ध्यान देते हैं या नहीं, पर इनसे जुड़ी राजनीति का बाजार गर्म है। आमतौर पर ये पत्र, लेख या टिप्पणियाँ एक खास खेमे से निकल कर आती हैं। यह खेमा लम्बे अरसे तक देश के कला-संस्कृति जगत पर हावी रहा है।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को 49 हस्तियों की ओर से ‘मॉब लिंचिंग’ की घटनाओं को रोकने के लिए लिखे गए पत्र के जवाब में 61 सेलिब्रिटीज ने खुला पत्र जारी किया है। इन्होंने पीएम को लिखे गए पत्र को ‘सिलेक्टिव गुस्सा’ और ‘गलत नैरेटिव’ सेट करने की कोशिश करने वाला बताया है। इसके पहले पीएम को संबोधित करते हुए चिट्ठी में लिखा गया था कि देश भर में लोगों को ‘जय श्रीराम’ के नारे के आधार पर उकसाने का काम किया जा रहा है। साथ ही दलित, मुस्लिम और दूसरे कमजोर तबकों की ‘मॉब लिंचिंग’ को रोकने के लिए तत्काल कदम उठाने की मांग की गई है।

संसद या सड़क? कांग्रेस के धर्मसंकट


राज्यसभा में सरकार ने गुरुवार को विपक्षी एकजुटता के चक्रव्यूह को तोड़कर कांग्रेस सहित समूचे विपक्ष के सामने चुनौती पैदा कर दी है।  इसके एक दिन पहले ही कांग्रेस ने सूचना के अधिकार (आरटीआई) संशोधन और तीन तलाक सहित सात विधेयकों का रास्ता राज्यसभा में रोकने की रणनीति तैयार की थी। यह रणनीति पहले दिन ही धराशायी हो गई। सत्तारूढ़ दल ने विरोधी-एकता में सेंध लगाने में कामयाबी हासिल कर ली।
लोकसभा चुनाव में भारी पराजय का सामना करने के बाद विरोधी, दलों खासतौर से कांग्रेस के सामने चुनौती है कि अब क्या किया जाए। पार्टी के पास संसद के भीतर आक्रामक मुद्रा अपनाने का मौका है, पर कैसे? दूसरी तरफ उसके सामने संसद से बाहर सड़क पर उतरने का विकल्प है, पर कैसे? सवाल नेतृत्व का है और विचारधारा का। पार्टी के सामने केवल नेतृत्व का संकट नहीं है। उससे ज्यादा विचारधारा का संकट है। पार्टी अब ट्विटर के भरोसे है।
राज्यसभा में घटता रसूख
लोकसभा में कुछ किया नहीं जा सकता। केवल राज्यसभा में ही संख्याबल के सहारे सत्तारूढ़ दल पर एक सीमा तक अंकुश लगाया जा सकता है, पर इसके लिए क्षेत्रीय दलों के साथ सहमति तैयार करनी होगी। फिलहाल लगता है कि कांग्रेस को इसमें सफलता नहीं मिल रही है। बीजू जनता दल, तेलंगाना राष्ट्र समिति, अद्रमुक और वाईएसआर कांग्रेस का रुझान केन्द्र सरकार के पक्ष में नजर आ रहा है। यह समर्थन लोकसभा चुनाव के दौरान भी नजर आ गया था।

Friday, July 26, 2019

कारगिल युद्ध ने बदली भारतीय रक्षा-नीति की दिशा


इस साल फरवरी में हुए पुलवामा कांड के ठीक बीस साल पहले पाकिस्तानी सेना कश्मीरी चरमपंथियों की आड़ में कारगिल की पहाड़ियों पर कब्जा जमा रही थी। यह एक अप्रत्याशित प्रयास था, धोखाधड़ी का। भारतीय सेना ने उस प्रयास को विफल किया और कारगिल की पहाड़ियों पर फिर से तिरंगा फहराया, पर इस युद्ध ने भारतीय रक्षा-नीति को आमूल बदलने की प्रेरणा दी। साथ ही यह सीख भी दी कि भविष्य में पाकिस्तान पर किसी भी रूप में विश्वास नहीं करना चाहिए।
कारगिल के बाद भी भारत ने पाकिस्तान के प्रति काफी लचीली नीति को अपनाया था। परवेज मुशर्रफ को बुलाकर आगरा में उनके साथ बात की, पर परिणाम कुछ नहीं निकला। सन 1947 के बाद से पाकिस्तान ने कश्मीर को हथियाने के कम से कम तीन बड़े प्रयास किए हैं। तीनों में कबायलियों, अफगान मुजाहिदों और कश्मीरी जेहादियों के लश्करों की आड़ में पाकिस्तानी फौज पूरी तरह शामिल थी। कारगिल की परिघटना भी उन्हीं प्रयासों का एक हिस्सा थी।
बालाकोट में नई लक्ष्मण रेखा
कारगिल के बाद मुम्बई, पठानकोट, उड़ी और फिर पुलवामा जैसे कांडों के बाद पहली बार भारत ने 26 फरवरी को बालाकोट की सीधी कार्रवाई की है। यह नीतिगत बदलाव है। बालाकोट के अगले दिन पाकिस्तानी वायुसेना ने नियंत्रण रेखा को पार किया। यह टकराव ज्यादा बड़ा रूप ले सकता था, पर अंतरराष्ट्रीय प्रभाव और दबाव में भारत ने अपने आप को रोक लिया, पर अब एक नई रेखा खिंच गई है। भारत अब कश्मीर के तथाकथित लश्करों, जैशों और हिज्बों के खिलाफ सीधे कार्रवाई करेगा।
3 मई, 1999 को पहली बार हमें कारगिल में पाकिस्तानी कब्जे की खबरें मिलीं और 26 जुलाई को पाकिस्तानी सेना आखिरी चोटी से अपना कब्जा छोड़कर वापस लौट गई। करीब 50 दिन की जबर्दस्त लड़ाई के बाद भारतीय सेना ने इन चोटियों पर कब्जा जमाए बैठी पाकिस्तानी सेना को एक के बाद एक पीछे हटने को मजबूर कर दिया। इसके साथ ऑपरेशन विजय पूरा हुआ।
पाकिस्तानी सेना ने अपने नियमित सैनिकों को नागरिकों के भेस में नियंत्रण रेखा को पार करके इन चोटियों पर पहुँचाया और करीब दस साल से चले आ रहे भारत-विरोधी छाया युद्ध को एक नया आयाम दिया। ऊंची पहाड़ियों पर यह अपने किस्म का सबसे बड़ा युद्ध हुआ है। इसमें विजय हासिल करने के लिए हमें  युद्ध ने भारतीय रक्षा-प्रतिष्ठान को एक बड़ा सबक दिया।
इस युद्ध में भारतीय सेना के 500 से ज्यादा सैनिक शहीद हुए। चोटी पर बैठे दुश्मन को हटाने के लिए तलहटी से किस तरह वे ऊपर गए होंगे, इसकी कल्पना करना भी आसान नहीं है। वायुसेना के लड़ाकू विमानों और हेलिकॉप्टरों ने भी इसमें भाग लिया। सरकार ने 25 मई को इसकी अनुमति दी, पर ऑपरेशन सफेद सागरके पहले ही दिन 26 मई को  परिस्थितियों का अनुमान लगाने में गलती हुई और एक मिग-21 विमान दुश्मन की गोलाबारी का शिकार हुआ। एक मिग-27 दुर्घटनाग्रस्त हुआ। इसके अगले रोज 27 मई को हमारा एक एमआई-17 हेलिकॉप्टर गिराया गया।
वायुसेना का महत्व
इन विमानों के गिरने के बाद ही यह बात समझ में आ गई थी कि शत्रु पूरी तैयारी के साथ है। उसके पास स्टिंगर मिसाइलें हैं। हेलिकॉप्टरों को फौरन कार्रवाई से हटाया गया। वायुसेना ने अपनी रणनीति पर फिर से विचार करना शुरू किया। 30 मई के बाद वायुसेना ने मिरा-2000 विमानों से लेजर आधारित गाइडेड बमों का प्रयोग शुरू किया। काफी ऊंचाई से ये विमान अचूक निशाना लगाने लगे।
दुर्भाग्य से मिराज-2000 के साथ आई लेजर बमों की किट कारगिल के ऑपरेशन के लिए उपयुक्त नहीं पाई गई। ऐसे में वायुसेना के तकनीशियनों ने अपने कौशल से उपलब्ध लेजर किटों का इस्तेमाल किया। जून के महीने में इन हवाई हमलों की संख्या बढ़ती गई और भारतीय विमानों ने दूर से न केवल चोटियों पर जमे सैनिकों को निशाना बनाया, साथ ही नियंत्रण रेखा के दूसरी तरफ बनाए गए उनके भंडारागारों को भी ध्वस्त करना शुरू कर दिया।
जुलाई आते-आते स्थितियाँ काफी नियंत्रण में आ गईं। भारत के बहादुर इनफेंट्री सैनिकों ने एक-एक इंच करते हुए पहाड़ियों पर फिर से कब्जा कायम किया, जिसमें उनकी सहायता तोपखाने की जबर्दस्त गोलाबारी ने की। कश्मीरी उग्रवाद की आड़ में इस घुसपैठ को बढ़ावा देने के पीछे पाकिस्तानी सेना का सामरिक उद्देश्य हिंसा को भड़काना था, जिसे वे जेहाद कहते हैं, ताकि दुनिया का ध्यान कश्मीर के विवाद की ओर जाए।
द्रास, मुश्कोह घाटी और काक्सर सेक्टर में उनका फौजी लक्ष्य था, श्रीनगर-लेह राष्ट्रीय मार्ग 1ए को कारगिल जिले से अलग करना ताकि भारत को लेह से जोड़ने वाली जीवन-रेखा कट जाए और सियाचिन ग्लेशियर के पश्चिम में स्थित साल्तोरो रिज की रक्षा करने वाली भारतीय सेना को रसद मिलना बंद हो जाए।
एक और सैनिक लक्ष्य था, कश्मीर घाटी और पीर पंजाल पर्वत माला के दक्षिण के डोडा क्षेत्र में अमरनाथ की पहाड़ियों तक घुसपैठ का एक नया रास्ता खोला जा सके। सियाचिन ग्लेशियरों की पट्टी से लगी बटालिक और तुर्तक घाटी में पाकिस्तानी सेना एक मजबूत बेस बनाना चाहती थी, जिससे कि श्योक नदी घाटी के रास्ते से बढ़ते हुए वह भारत की सियाचिन ब्रिगेड से एकमात्र सम्पर्क को काट दे।
निशाना था सियाचिन
इन लक्ष्यों के अलावा पाकिस्तानी सेना यह भी चाहती थी कि कारगिल जिले में नियंत्रण रेखा के भारतीय क्षेत्र पर कब्जा कर लिया जाए, ताकि इसके बाद मोल-भाव किया जा सके। खासतौर से सियाचिन क्षेत्र से भारतीय सेना की वापसी सुनिश्चित की जा सके। कारगिल अभियान के पीछे सबसे बड़ी कामना था सियाचिन को हथियाना, जो 1984 से भारतीय सेना के नियंत्रण में है। तत्कालीन सेनाध्यक्ष जनरल वेद प्रकाश मलिक ने अपनी पुस्तक कारगिल-एक अभूतपूर्व विजय में लिखा है कि पाकिस्तानी सेना की घुसपैठ का एक प्रमुख कारण और सैन्य उद्देश्य सियाचिन ग्लेशियर पर फिर से कब्जा जमाना था।

Wednesday, July 24, 2019

लाखों बेटियों की प्रेरणा हैं हिमा और दुती


हिमा दास और दुती (या द्युति) चंद दो एकदम साधारण घरों से निकली लड़कियाँ हैं, पर उनकी उपलब्धियाँ असाधारण हैं. दोनों की चर्चा इन दिनों खेल के मैदान में है. हिमा दास भारत की पहली एथलीट हैं, जिन्होंने आईएएएफ की अंडर 20 प्रतियोगिता में स्वर्ण पदक जीता है. हाल में यूरोप की प्रतियोगिताओं में लगातार पाँच स्वर्ण पदक जीतकर वे खबरों में हैं. दुती चंद ने वर्ल्ड यूनिवर्सिटी गेम्स में स्वर्ण पदक जीता. हिमा 400 और 200 मीटर में दौड़ती हैं और दुती चंद 100 और 200 मीटर में.
छोटी दूरी की ये रेस बहुत मुश्किल मानी जाती हैं और इनके खास तरह की ट्रेनिंग और शारीरिक गठन की दरकार होती है. एथलेटिक्स के मैदान में हरेक प्रतियोगिता का अपना महत्व होता है. छोटी रेस की अपनी जरूरत है और लम्बी रेस की अपनी. इतना ही नहीं, 100 मीटर 400 मीटर की तकनीक भी अलग है. दोनों खिलाड़ी रिले टीम की सदस्य के रूप में अपनी विशेषज्ञता से बाहर जाकर भी दौड़ती हैं, ताकि देश को पदक मिले.
दोनों उदीयमान खिलाड़ी हैं और उनसे देश को काफी उम्मीदें हैं. जो बात महत्वपूर्ण है वह यह कि दोनों कई तरह की परेशानियों से लड़ते हुए आगे बढ़ी हैं. दुति चंद ने खेल के मैदान के अलावा अंतरराष्ट्रीय खेल अदालत में जो लड़ाई लड़ी, वह महत्वपूर्ण है. हिमा ने असम में धान के खेतों में प्रैक्टिस करके खुद को निखारा. दुति चंद ने उड़ीसा के ग्रामीण इलाकों में. उनका परिवार गरीबी की रेखा के नीचे परिवार है. दोनों भारत की स्त्री-शक्ति को रेखांकित करती हैं और बदलते भारत की कहानी भी कहती हैं. खेल के मैदान में भारतीय लड़कियों की उपलब्धि के साथ-साथ अक्सर यह बात पीछे रह जाती है कि वे कितने किस्म की विपरीत परिस्थितियों का सामना करके सामने आती हैं.

Tuesday, July 23, 2019

प्रकृति को मत कोसो, प्रबंधकों से पूछो


असम और बिहार के काफी बड़े हिस्से में बाढ़ आई हुई है। बिहार के 12 जिलों के 102 प्रखंडों में बाढ़ का पानी फैला हुआ है, जिससे 66 लाख से ज्यादा की जनसंख्या प्रभावित है। इस साल बारिश देर से हुई है, जिसकी वजह से बाढ़ की खबरें कुछ देर से मिल रही हैं, वर्ना ये खबरें हर साल की हैं। कुछ दिन पहले सूखे की खबरें थीं, बल्कि आज भी हैं। कुछ दिन पहले मुम्बई शहर के लोग गर्मी से परेशान थे। मना रहे थे कि बारिश जल्द से जल्द हो। और जब हुई, तो शहर पानी में डूब गया।
एक टीवी चैनल दिल्ली की खबर दिखा रहा था, जिसमें एक ट्रैक्टर वाला 10-10 रुपये सवारी के रेट से पानी से भरी सड़क पार करा रहा था। देश की राजधानी और कोसी की बाढ़ के दर्द अलग-अलग हैं, पर दर्द है जो खत्म होकर नहीं दे रहा। इस साल समुद्र के किनारे बसे चेन्नई शहर में पीने का पानी खत्म हो गया। स्पेशल ट्रेन से वहाँ पानी भेजा गया। 2015 में वहाँ भारी वर्ष के कारण पूरा शहर पानी में डूब गया था। इस साल गर्मी वहाँ की सवा करोड़ आबादी को पानी का महत्व समझा गई।

Sunday, July 21, 2019

कर्नाटक में गुब्बारा फूटने की घड़ी


कर्नाटक में अब धैर्य की प्रतीक्षा है। सत्तारूढ़ गठबंधन के अंतर्विरोध बढ़ते जा रहे हैं और गुब्बारा किसी भी समय फूट सकता है। पर इस दौरान कुछ सांविधानिक प्रश्नों को उत्तर भी मिलेंगे। बड़ा सवाल दल-बदल कानून को लेकर है, जो अंततः अब और ज्यादा स्पष्ट होगा। यह काम सुप्रीम कोर्ट में ही होगा, पर उसके पहले राजनीतिक अंतर्विरोध खुलेंगे। चुनाव-पूर्व और चुनावोत्तर गठबंधनों की उपादेयता पर भी बातें होंगी। प्रतिनिधि सदनों में सदस्यों की भूमिका राजनीतिक दलों के प्रतिनिधियों के रूप में है। यह भूमिका बनी रहेगी, पर सवाल यह तो उठेगा कि दो राजनीतिक दल जो जनता के सामने वोट माँगने गए, तब एक-दूसरे के विरोधी थे। वे अपना विरोध मौका पाते ही कैसे भुला देते हैं?
सन 2006 में जब मधु कोड़ा झारखंड के मुख्यमंत्री बने थे, तबसे यह सवाल खड़ा है कि जनादेश की व्याख्या किस तरह से होगी? यही सवाल अब कर्नाटक में है कि 225 के सदन में 37 सदस्यों का नेता मुख्यमंत्री कैसे बन सकता है? जो लोग इस वक्त बागी विधायकों को लेकर नैतिकता के सवाल उठा रहे हैं उन्हें यह भी देखना चाहिए कि राजनीतिक नैतिकता अंतर्विरोधी है। पिछले साल मई के महीने में जब कांग्रेस-जेडीएस सरकार बन रही थी, तब प्रगतिशील विश्लेषक उसे साम्प्रदायिकता के खिलाफ वैचारिक लड़ाई के रूप में देख रहे थे। वे नहीं देख पा रहे थे कि राजनीतिक सत्ता अपने आप में बड़ा प्रलोभन है। उसे किसी भी तरीके से हथियाने का नाम विचारधारा है।

Saturday, July 20, 2019

बाढ़ और सूखा, दोष प्रकृति का नहीं हमारा है


एक महीने पहले मुम्बई के निवासी गर्मी से परेशान थे. इस साल बारिश भी देर से हुई. इस वजह से मुम्बई में ही नहीं समूचे भारत के उन इलाकों में जहाँ गर्मी पड़ती है, परेशानियाँ बढ़ गईं. समुद्र के किनारे बसे चेन्नई शहर में पीने का पानी खत्म हो गया. स्पेशल ट्रेन से वहाँ पानी भेजा गया. 2015 में चेन्नई में भयानक बाढ़ आई थी. लेकिन इस साल गर्मी में वहाँ की 1.10 करोड़ आबादी पानी की किल्लत से जूझना पड़ा. दुनिया में सबसे ज्यादा वर्षा वाले इलाकों में चेरापूंजी का नाम है. वहाँ पिछले कुछ साल से सर्दियों के मौसम में सूखा पड़ रहा है. दिल्ली और बेंगलुरु में तो अगले कुछ साल में जमीन के नीचे का पानी खत्म होने की चेतावनी दी गई है.
पिछले 18 में से 13 साल देश में वर्षा सामान्य से कम हुई है. देश का करीब 40 फीसदी क्षेत्र सूखा पीड़ित है, यानी करीब 50 करोड़ आबादी इससे प्रभावित होती है. बहरहाल पिछले महीने गर्मी से परेशान मुम्बई शहर बारिश होते ही पानी में डूब गया. यह स्थिति दो साल पहले चेन्नई शहर की हुई थी. देश का काफी बड़ा इलाका या तो सूखा पीड़ित रहता है, या फिर बाढ़ पीड़ित. केवल बाढ़ या केवल सूखे की समस्या नहीं है.

हंगामा है क्यों बरपा…यानी कांग्रेस को हुआ क्या है?


कांग्रेस पार्टी के संकट को दो सतहों पर देखा जा सकता है। राज्यों में उसके कार्यकर्ता पार्टी छोड़कर भाग रहे हैं। दूसरी तरफ पार्टी केन्द्र में अपने नेतृत्व का फैसला नहीं कर पा रही है। कर्नाटक में सांविधानिक संकट है, पर उसकी पृष्ठभूमि में कांग्रेस का भीतर का असंतोष है। पार्टी छोड़कर भागने वाले ज्यादातर विधायक कांग्रेसी हैं। वे सामान्य विधायक भी नहीं हैं, बल्कि बहुत सीनियर नेता हैं। यह कहना सही नहीं होगा कि वे पैसे के लिए पार्टी छोड़कर भागे हैं। ज्यादातर के पास काफी पैसा है। यह समझने की जरूरत है कि रोशन बेग जैसे कद्दावर नेताओं के मन में संशय पैदा क्यों हुआ। रामलिंगा रेड्डी जैसे वरिष्ठ नेता अपना रुख बदलते रहते हैं, पर इतना साफ है कि उनके मन में पार्टी नेतृत्व को लेकर कोई खलिश जरूर है। कांग्रेस से हमदर्दी रखने वाले विश्लेषकों को भी अब लगने लगा है कि पार्टी ने इच्छा-मृत्यु का वरण कर लिया है।
केवल कर्नाटक की बात नहीं है। इसी गुरुवार को गुजरात में कांग्रेस के पूर्व विधायक अल्पेश ठाकोर और धवल सिंह जाला गुरुवार को भाजपा में शामिल हो गए। दोनों ने राज्यसभा उपचुनाव में कांग्रेसी उम्मीदवारों के खिलाफ वोट देने के बाद 5 जुलाई को ही विधायक पद से इस्तीफ़ा दे दिया था। कर्नाटक में कांग्रेस के साथ जेडीएस के विधायकों ने भी इस्तीफे दिए हैं, पर बड़ी संख्या कांग्रेसियों की है। इसके पहले तेलंगाना में कांग्रेस के 18 में से 12 विधायक केसीआर  की पार्टी टीआरएस में शामिल हो गए। ये विधायक दो महीने पहले ही जीतकर आए थे। गोवा में तो पूरी पार्टी भाजपा में चली गई। यह दल-बदल है, पर इसके पीछे के कारणों को भी समझने की जरूरत है। ज्यादातर कार्यकर्ताओं के मन में असुरक्षा का भाव है।
संकट केन्द्र में है
राहुल गांधी के इस्तीफे के बाद केन्द्र में अराजकता का माहौल है। यह सब लोकसभा चुनाव परिणाम आने के बाद से शुरू हुआ है, पर वास्तव में इसकी शुरूआत 2014 के लोकसभा चुनाव के बाद ही हो गई थी। पार्टी को उम्मीद थी कि एकबार पराजय का क्रम थमेगा, तो फिर से सफलता मिलने लगेगी। उसकी सारी रणनीति राहुल को स्थापित करने के लिए सही समय के इंतजार पर केन्द्रित थी। वह भी हो गया, पर संकट और गहरा गया। 

Monday, July 15, 2019

न्याय-व्यवस्था को लेकर सवाल क्यों उठ रहे हैं?


अक्सर कहा जाता है कि भारत में न्यायपालिका ही आखिरी सहारा है। पर पिछले कुछ समय से न्यायपालिका को लेकर भी निराशा है। उसके भीतर और बाहर से कई तरह के सवाल उठे हैं। अक्सर लगता है कि सरकार नहीं सुप्रीम कोर्ट के हाथ में देश की बागडोर है, पर न्यायिक जवाबदेही और पारदर्शिता के सवाल है। कल्याणकारी व्यवस्था के लिए सार्वजनिक स्वास्थ्य और शिक्षा के साथ न्याय-व्यवस्था बुनियादी ज़रूरत है। इन तीनों मामलों में मनुष्य को बराबरी से देखना चाहिए। दुर्भाग्य से देश में तीनों जिंस पैसे से खरीदी जा रही हैं।
सबसे ज्यादा परेशान कर रही हैं न्याय-व्यवस्था में भ्रष्टाचार की शिकायतें। हाल में सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई ने प्रधानमंत्री को पत्र लिख कर इलाहाबाद उच्च न्यायालय के न्यायाधीश एसएन शुक्ला को हटाने की कार्यवाही शुरू करने का अनुरोध किया है। एक आंतरिक जांच समिति ने उक्त न्यायाधीश को कदाचार का दोषी पाया है। न्यायाधीश को हटाने की एक सांविधानिक प्रक्रिया है। सरकार उस दिशा में कार्यवाही करेगी, पर इस पत्र ने न्यायपालिका के भीतर बैठे भ्रष्टाचार की तरफ देश का ध्यान खींचा है।   
इस दौरान एक और पत्र रोशनी में आया है। इलाहाबाद हाईकोर्ट के जस्टिस रंगनाथ पांडेय ने जजों की नियुक्तियों पर गंभीर सवाल उठाए हैं। उन्होंने प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को पत्र लिखकर कहा है कि प्रचलित कसौटी परिवारवाद और जातिवाद से ग्रसित है। उन्होंने लिखा है कि 34 साल के सेवाकाल में मुझे हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के ऐसे जजों को देखने का अवसर मिला है, जिनकी कानूनी जानकारी संतोषजनक नहीं है।
सवाल तीन हैं। न्याय-व्यवस्था को राजनीति और सरकारी दबाव से परे किस तरह रखा जाए? जजों की नियुक्ति को पारदर्शी कैसे बनाया जाए? तीसरे और सबसे महत्वपूर्ण सवाल है कि सामान्य व्यक्ति तक न्याय किस तरह से उपलब्ध कराया जाए? इन सवालों के इर्द-गिर्द केवल न्याय-व्यवस्था से जुड़े मसले ही नहीं है, बल्कि देश की सम्पूर्ण व्यवस्था है। प्रशासनिक कुशलता और राजनीतिक ईमानदारी के बगैर हम कुछ भी हासिल नहीं कर पाएंगे।
मुकदमों में देरी क्यों?
नेशनल ज्यूडीशियल डेटा ग्रिड के अनुसार इस हफ्ते 10 जुलाई तक देश की अदालतों में तीन करोड़ बारह लाख से ज्यादा मुकदमे विचाराधीन पड़े थे। इनमें 76,000 से ज्यादा केस 30 साल से ज्यादा पुराने हैं। यह मान लें कि औसतन एक मुकदमे में कम से कम दो या तीन व्यक्ति पक्षकार होते हैं तो देश में करीब 10 करोड़ लोग मुकदमेबाजी के शिकार हैं। यह संख्या लगातार बढ़ रही है।
सामान्य व्यक्ति के नजरिए से देखें तो अदालती चक्करों से बड़ा चक्रव्यूह कुछ नहीं है। एक बार फँस गए, तो बरसों तक बाहर नहीं निकल सकते। कुछ साल पहले सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश ने लोअर कोर्ट में पांच और अपील कोर्ट में दो साल में मुकदमा निबटाने का लक्ष्य रखा था। यह तभी सम्भव है जब प्रक्रियाएं आसान बनाई जाएं। न्याय व्यवस्था का संदर्भ केवल आपराधिक न्याय या दीवानी के मुकदमों तक सीमित नहीं है। व्यक्ति को कारोबार का अधिकार देने और मुक्त वातावरण में अपना धंधा चलाने के लिए भी उपयुक्त न्यायिक संरक्षण की जरूरत है।

Sunday, July 14, 2019

कांग्रेस यानी धुरी से टूटा पहिया



कांग्रेस पार्टी का संकट बढ़ता जा रहा है। जिन राज्यों में कांग्रेस की सरकार है, संकट वहाँ है। कर्नाटक में सरकार अल्पमत में आ गई है। किसी तरह से वह चल रही है, पर कहना मुश्किल है कि मंगलवार के बाद क्या होगा। कर्नाटक में संकट चल ही रहा था कि गोवा में कांग्रेस के 15 में से 10 विधायक बीजेपी में शामिल हो गए। इसके बाद अल्पमत में बीजेपी सरकार मजबूत स्थिति में पहुंच गई है। मध्य प्रदेश और राजस्थान में गुनगुनाहट है।

हरियाणा, झारखंड और महाराष्ट्र में इसी साल चुनाव होने हैं। इन राज्यों में क्या पार्टी वापसी करेगी? वापसी नहीं हुई, तो इन वहाँ भी भगदड़ मचेगी। यों भगदड़ इस वक्त भी है। तीनों राज्यों में कांग्रेस अपने आंतरिक संकट से रूबरू है। तेलंगाना में पार्टी लगभग खत्म होने के कगार पर है। मजबूत हाईकमान वाली इस पार्टी का केन्द्रीय नेतृत्व इस वक्त खुद संकटों से घिरा है। पार्टी की सबसे बड़ी कमजोरी है सड़कों पर उतर पाने में असमर्थता। यह पार्टी केवल ट्विटर के सहारे मुख्यधारा में बनी रहना चाहती है। कार्यकर्ता कठपुतली की भूमिका निभाते रहे हैं। उनमें प्राण अब कैसे डाले जाएंगे?

पार्टी ने विचारधारा के स्तर पर जो कुछ भी किया हो, पर सच यह है कि वह परिवार के चमत्कार के सहारे चल रही थी। उसे यकीन था कि यही चमत्कार उसे वापस लेकर आएगा। परिवार अब चुनाव जिताने में असमर्थ है, इसलिए यह संकट पैदा हुआ है। धुरी फेल हो गई है और परिधि बेकाबू। संकट उतना छोटा नहीं है, जितना दूर से नजर आ रहा है। नए नेता की परीक्षा इस बात से होगी कि वह परिवार का वफादार है या नहीं। परिवार से अलग लाइन लेगा, तो संकट। वफादारी की लाइन पर चलेगा, तब भी संकट।

Saturday, July 13, 2019

राहुल की चिट्ठी के अंतर्विरोध


राहुल गांधी के जिस इस्तीफे पर एक महीने से अटकलें चल रही थीं, वह वास्तविक बन गया है। पहला सवाल यही है कि उसे इतनी देर तक छिपाने की जरूरत क्या थी? पार्टी ने इस बात को छिपाया जबकि वह एक महीने से ज्यादा समय से यह बात हवा में है। राहुल गांधी ने चार पेज का जो पत्र लिखा है उसे गौर से पढ़ें, तो उसकी ध्वनि है कि में इस्तीफा तो दे रहा हूँ, पर गलती न तो मेरी है और न मेरी पार्टी की। व्यवस्था ही खराब है। दोष आँगन का है नाचने वाले का नहीं। 

उन्होंने पत्र की शुरुआत में ही स्पष्ट कर दिया कि ‘कांग्रेस प्रमुख के तौर पर 2019 के लोकसभा चुनाव में हार की ज़िम्मेदारी मेरी है। भविष्य में पार्टी के विस्तार के लिए जवाबदेही काफ़ी अहम है। यही कारण है कि मैंने कांग्रेस पार्टी के अध्यक्ष पद से इस्तीफ़ा दिया है। पार्टी को फिर से बनाने के लिए कड़े फ़ैसले की ज़रूरत है। 2019 में हार के लिए कई लोगों की जवाबदेही तय करने की ज़रूरत है। यह अन्याय होगा कि मैं दूसरों की जवाबदेही तय करूं और अपनी जवाबदेही की उपेक्षा करूं।’

इसके बाद पत्र का काफी बड़ा हिस्सा इस बात को समर्पित है कि हार के पीछे उनकी जिम्मेदारी नहीं है। उन्होंने बीजेपी की विचारधारा को पहला निशाना बनाया है। उन्होंने लिखा है, ‘हमें कुछ कड़े फैसले करने होंगे और चुनाव में हार के लिए कुछ लोगों को जिम्मेदार ठहराना होगा। सत्ता के अपने मोह को छोड़े बिना और एक गहरी विचारधारा की लड़ाई लड़े बिना हम अपने विरोधियों को नहीं हरा सकते।’

Friday, July 12, 2019

हमारी बेरुखी से जन्मी है पानी की समस्या


विडंबना है कि मॉनसून के बादल घिरे होने के बावजूद देश में पानी सबसे बड़ी समस्या के रूप में उभर कर सामने आया है. इस संकट के शहरों और गाँवों में अलग-अलग रूप हैं. गाँवों में यह खेती और सिंचाई के सामने खड़े संकट के रूप में है, तो शहरों में पीने के पानी की किल्लत के रूप में. पेयजल की समस्या गाँवों में भी है, पर चूंकि मीडिया शहरों पर केन्द्रित है, इसलिए शहरी समस्या ज्यादा भयावह रूप में सामने आ रही है. हम पेयजल के बारे में ही सुन रहे हैं, इसलिए खेती से जुड़े मसले सामने नहीं आ रहे हैं, जबकि इस समस्या का वास्तविक रूप इन दोनों को साथ रखकर ही समझा जा सकता है.
शहरीकरण तेजी से हो रहा है और गाँवों से आबादी का पलायन शहरों की ओर हो रहा है, उसे देखते हुए शहरों में पानी की समस्या पर देश का ध्यान केन्द्रित है. हाल में चेन्नई शहर से जैसी तस्वीरें सामने आई हैं, उन्हें देखकर शेष भारत में घबराहट है. संयोग से हाल में पेश केन्द्रीय बजट में भारत सरकार ने घोषणा की है कि सन 2024 तक देश के हर घर में नल से जल पहुँचाया जाएगा. सरकार ने झल शक्ति के नाम से नया मंत्रालय भी बनाया है. सम्भव है कि हर घर तक नल पहुँच जाएं, पर क्या उन नलों में पानी आएगा?
नीति आयोग की पिछले साल की एक रिपोर्ट के अनुसार देश के क़रीब 10 करोड़ लोगों के पानी का संकट है. देश के 21 प्रमुख शहरों में ज़मीन के नीचे का पानी तकरीबन खत्म हो चुका है. इनके परम्परागत जल स्रोत सूख चुके हैं, कुएं और तालाब शहरी विकास के लिए पाटे जा चुके हैं. देश में पानी का संकट तो है ही साथ ही पानी की गुणवत्ता पर भी सवाल हैं. नीति आयोग की पिछले साल की रिपोर्ट में यह भी बताया गया था कि पानी की गुणवत्ता के वैश्विक सूचकांक में भारत का स्थान दुनिया के 122 देशों में 120 वाँ था. यह बात भी चिंताजनक है.

Sunday, July 7, 2019

कौन लाया कांग्रेस को मँझधार में?


राहुल गांधी के जिस इस्तीफे पर एक महीने से अटकलें चल रही थीं, वह अब जाकर वास्तविक बना। उसे छिपाने की जरूरत क्या थी? पार्टी ने इस बात को छिपाया जबकि वह एक महीने से ज्यादा समय से हवा में है। बहरहाल अब सवाल है कि इसके आगे क्या? क्या कांग्रेस परिवार-मुक्त हो गई या हो जाएगी? क्या भविष्य में उसका संचालन लोकतांत्रिक तरीके से होगा? इस्तीफा देने के बाद राहुल गांधी की भूमिका क्या होगी और उनके उत्तराधिकारी का चयन किस तरीके से होगा?
पार्टी के संविधान में व्यवस्था है कि किसी अनहोनी की स्थिति में पार्टी के वरिष्ठतम महासचिव को अंतरिम अध्यक्ष का काम सौंपा जा सकता है। अलबत्ता पार्टी ने संकेत दिया है कि जबतक कार्यसमिति इस्तीफे को स्वीकार नहीं करती, तबतक राहुल गांधी पार्टी अध्यक्ष हैं। इसके बाद नए अध्यक्ष की नियुक्ति की प्रक्रिया पूरा होगी। तमाम नाम सामने आ रहे हैं, पर अब सबसे पहले कार्यसमिति की बैठक का इंतजार है।  
राहुल गांधी के चार पेज के इस्तीफे में पार्टी की भावी दिशा के कुछ संकेत जरूर मिलते हैं। इस्तीफे के बाद यह नहीं मान लेना चाहिए कि पार्टी पर परिवार का वर्चस्व खत्म हो गया है, बल्कि उस वर्चस्व की अब औपचारिक पुष्टि होगी। उन्होंने लिखा है कि इस्तीफ़ा देने के तत्काल बाद मैंने कांग्रेस कार्यसमिति में अपने सहकर्मियों को सलाह दी कि वे नए अध्यक्ष को चुनने की ज़िम्मेदारी एक ग्रुप को दें। वही ग्रुप नए अध्यक्ष की खोज शुरू करे। मैं इस मामले में मदद करूंगा और कांग्रेस में नेतृत्व परिवर्तन बहुत ही आसानी से हो जाएगा।

Saturday, July 6, 2019

भविष्य के स्वप्नों की तस्वीर

मोदी सरकार के दूसरे दौर के पहले बजट में कुछ बातें अपने नएपन की वजह से ध्यान खींचती हैं। मसलन पहली बार वित्तमंत्री के हाथ में पश्चिमी परम्पराओं का प्रतीक चमड़े का काला बैग नहीं थी, बल्कि लाल रंग के मखमली कपड़े में लिपटा दस्तावेज था। दूसरे ऐसा पहली बार हुआ है कि वित्तमंत्री ने अपने भाषण में आँकड़ों को बहुत ज्यादा बताने से परहेज रखा। उन्होंने बड़े कार्यक्रमों की घोषणा भी नहीं की। नल से जल जैसी योजना को छोड़ दें, तो लोकलुभावन बातें भी नहीं थीं। इसके बावजूद बजट न केवल आकर्षक है, बल्कि भरोसा जगाता है।

इस बजट में भारतवर्ष के भविष्य की न केवल तस्वीर खींची गई है, उसे साकार बनाने के तरीकों की घोषणा की गई है। निर्मला सीतारमण का बजट भाषण सामान्य व्यक्ति को भी उतना ही समझ में आया, जितना कि विशेषज्ञों को। चूंकि बजट के ज्यादातर प्रावधान वही हैं, जो फरवरी में पेश किए गए बजट में थे। बल्कि फरवरी में ही यह भी कहा गया था कि हम भारत को पाँच साल में पाँच ट्रिलियन और आठ साल में दस ट्रिलियन डॉलर की अर्थ-व्यवस्था बनाएंगे। अलबत्ता निर्मला सीतारमण ने वहाँ तक जाने के रास्ते को स्पष्ट किया। इस साल की आर्थिक समीक्षा में कहा गया है कि यह काम तभी होगा, जब हमारी सालाना संवृद्धि कम से कम आठ फीसदी की दर से हो। इस बजट में उस दर को हासिल करने की दिशा नजर आती है।

वित्तमंत्री को भरोसा है कि हम इस साल तीन ट्रिलियन की सीमारेखा पार कर जाएंगे। वैश्विक अर्थव्यवस्था मंदी के दौर में है। हमारी उम्मीदों के तीन बड़े कारण हैं। पेट्रोलियम की कीमतों में गिरावट है, मुद्रास्फीति काबू में है और राजकोषीय घाटा 3.4 से घटकर 3.3 फीसदी पर आ गया है। यानी कि सरकार ने वित्तीय अनुशासन बनाए रखा। राजस्व के मामले में वित्तमंत्री ने आयकर में हो रही रिकॉर्ड वृद्धि का जिक्र किया है। जीएसटी पर अभी अंदेशे हैं। यों इस बजट का मुख्य जोर पूँजी निवेश और तरलता बढ़ाने पर है।

बजट में भविष्य के भारत की तस्वीर


मोदी सरकार के दूसरे दौर के पहले बजट में भविष्य की न केवल तस्वीर खींची गई है, उसे साकार बनाने के तरीकों की घोषणा की गई है. कई मायनों में निर्मला सीतारमण का बजट साफ-सुथरा और स्पष्ट है. फरवरी में पेश किए गए बजट में कहा गया था कि हम भारत को पाँच साल में पाँच ट्रिलियन और आठ साल में दस ट्रिलियन डॉलर की अर्थ-व्यवस्था बनाएंगे. पर इस साल की आर्थिक समीक्षा में कहा गया है कि यह काम तभी होगा, जब हमारी सालाना संवृद्धि कम से कम आठ फीसदी की दर से हो.

वित्तमंत्री को भरोसा है कि हम इस साल तीन ट्रिलियन की सीमारेखा पार कर जाएंगे. वैश्विक अर्थव्यवस्था मंदी के दौर में है. हमारी उम्मीदों के तीन बड़े कारण हैं. पेट्रोलियम की कीमतों में गिरावट है, मुद्रास्फीति काबू में है और राजकोषीय घाटा 3.4 से घटकर 3.3 फीसदी पर आ गया है. यानी कि सरकार ने वित्तीय अनुशासन बनाए रखा. राजस्व के मामले में वित्तमंत्री ने आयकर में हो रही रिकॉर्ड वृद्धि का जिक्र किया है. जीएसटी पर अभी अंदेशे हैं. वित्तमंत्री ने सार्वजनिक उद्यमों के विनिवेश के लिए इस साल का लक्ष्य एक लाख पाँच हजार करोड़ रुपये का रखा है. एयर इंडिया के विनिवेश का जिक्र भी उन्होंने किया. बीएसएनएल और एमटीएनएल के लिए बड़े पैकेज सरकार को देने हैं.

Friday, July 5, 2019

आर्थिक सूझबूझ और राजनीतिक चतुराई की परीक्षा


बजट पेश होने के ठीक पहले मोटर वाहनों की बिक्री में आ रही लगातार गिरावट की खबरों से सरकार परेशान थी कि यह खबर आई कि जून के महीने में सर्विस सेक्टर में भी गिरावट नजर आई है। निक्की पर्चेजिंग मैनेजर्स इंडेक्स (पीएमआई) के मुताबिक बिक्री कमजोर रहने और टैक्स की ऊँची दरों की वजह से ऐसा हुआ है। जून महीने में पीएमआई गिरकर 49.6 अंक पर पहुंच गया, जो मई में 50.2 था। सूचकांक का 50 से ऊपर रहना विस्तार के संकेत देता है और 50 से नीचे जाने का मतलब होता है कि अर्थव्यवस्था में गिरावट है।
हालांकि हाल में रोजगार की स्थिति बेहतर हुई है, पर लगता है कि उसका असर अभी नजर नहीं आया है। विनिर्माण के लिए पीएमआई में भी गिरावट आई है। मई में यह 52.7 था, जो जून में 52.1 रह गया है। विनिर्माण और सेवा का कंपोजिट पीएमआई आउटपुट इंडेक्स मई के 51.7 की तुलना में 50.8 रह गया है, जो इस साल का न्यूनतम स्तर है। 

Wednesday, July 3, 2019

बहस का आग़ाज़ तो ज़ायरा ने ही किया है

ज़ायरा वसीम ने फिल्में छोड़ने का फैसला बगैर किसी सार्वजनिक घोषणा के किया होता, तो शायद इतनी चर्चा नहीं हुई होती. गत 30 जून को उन्होंने अपने फेसबुक पेज पर इस घोषणा के साथ एक लम्बा बयान भी जारी किया, जिसमें उन्होंने अपने आध्यात्मिक अनुभवों का विवरण दिया है. इन अनुभवों पर भी किसी को कुछ भी कहने का हक नहीं बनता है. पर उनके लम्बे वक्तव्य से ध्वनि निकलती है कि वे ‘अनजाने में ईमान के रास्ते से भटक गई थीं.’ उनकी इसी बात पर बहस है. क्या फिल्मों में काम करना ईमान के रास्ते से भटकना है?

ज़ायरा ने लिखा है, ‘इस क्षेत्र ने मुझे बहुत प्यार, सहयोग और तारीफ़ दी, लेकिन यह मुझे गुमराही के रास्ते पर भी ले आया है. मैं ख़ामोशी से और अनजाने में अपने ईमान से बाहर निकल गई. मैंने ऐसे माहौल में काम करना जारी रखा जिसने लगातार मेरे ईमान में दखलंदाजी की. मेरे धर्म के साथ मेरा रिश्ता ख़तरे में आ गया.’ अगरचे उन्होंने यह लम्बा बयान नहीं दिया होता, तो इस बात पर किसी को एतराज नहीं होता. उन्होंने अपने भटकाव को फिल्मों के काम से जोड़ा, इसलिए यह बहस है. धर्म यदि व्यक्तिगत मामला है, तो इसे व्यक्तिगत रखतीं, तो बेहतर था. वे खामोशी से फिल्मों से हट जातीं. चूंकि उनकी सार्वजनिक पहचान है, इसलिए उनसे सवाल फिर भी किए जाते. वे कह सकती थीं कि यह मेरा निजी मामला है.

भारतीय समाज में लड़कियों का फिल्मों में काम करना शुरूआती वर्षों से ही पाप समझा गया. देश की पहली फिल्म में नायिका का रोल करने के लिए लड़के को चुना गया. दादा साहब फाल्के की फिल्म ‘राजा हरिश्चन्द्र’ में तारामती के रोल को निभाने के लिए तवायफें भी तैयार नहीं थीं, तब अन्ना सालुंके को यह रोल दिया गया. उस फिल्म के सौ साल से ज्यादा हो चुके हैं. इन सौ वर्षों में भारतीय जीवन और समाज में काफी बदलाव आए हैं. लड़कियाँ जीवन के हरेक क्षेत्र में आगे आईं हैं. सिनेमा भी एक कार्यक्षेत्र है. इस समझ को ठेस नहीं लगनी चाहिए. व्यक्तिगत कार्य-व्यवहार में जीवन के हर क्षेत्र से शिकायतें मिलती हैं, पर इसके जिम्मेदारी व्यवसाय की नहीं, व्यक्तियों की होती है.

हिन्दी फिल्मों में नर्गिस, मीना कुमारी, मधुबाला, वहीदा रहमान से लेकर शबाना आज़मी तक तमाम मुस्लिम महिलाएं काम करती रहीं हैं और सबका सम्मान है. भारत में ही नहीं तमाम मुस्लिम देशों में भी जहाँ फिल्में बनती हैं, फिल्मों में लड़कियाँ भी काम करती हैं. यह बात बहस का विषय कभी नहीं बनी. ज़ायरा वसीम भी चर्चा का विषय नहीं बनतीं. उनके निर्णय को चुनौती देने की कोई वजह नहीं है, पर एक अंदेशा है. कहीं उनको किसी ने धमकी तो नहीं दी थी?

Monday, July 1, 2019

संस्कृत के प्रति इस अनुराग के मायने क्या हैं?


हाल में नव-निर्वाचित लोकसभा सदस्यों के शपथ-समारोह में देखने को मिला कि हिंदी और संस्कृत में शपथ लेने वालों की संख्या बढ़ रही है और अंग्रेज़ी में शपथ लेने वालों की संख्या कम हो रही है। सन 2014 में जहाँ 114 सदस्यों ने अंग्रेज़ी में शपथ ली, वहीं इसबार 54 ने। सन 2014 में संस्कृत में शपथ लेने वालों की संख्या 39 थी, जो इसबार बढ़कर 44 हो गई। हिंदी और अंग्रेज़ी के बाद तीसरे स्थान पर सबसे ज्यादा शपथ संस्कृत में ली गईं।
इन बातों से क्या हम कोई निष्कर्ष निकाल सकते हैं? क्या संस्कृत भाषा की हमारे जीवन में कोई भूमिका है? संस्कृत ही नहीं देश में शास्त्रीय भाषाओं का महत्व क्या है? क्या इसे सांस्कृतिक-राजनीति मानें? शेष पाँच शास्त्रीय भाषाओं की जीवन के सभी क्षेत्रों में सक्रिय-भूमिकाएं हैं, क्योंकि वे जीवंत-भाषाएँ हैं। संस्कृत भाषा की क्या भूमिका है?


काफी लोग संस्कृत को मृत-भाषा मान चुके हैं। ऐसा नहीं मानें, तब भी आधुनिक ज्ञान-विज्ञान और शिक्षा के माध्यम के रूप में उसकी भूमिका दिखाई नहीं पड़ती। तब क्या केवल जन-भावनाओं के कारण उसे बढ़ावा दिया जा रहा है? भारतीय जनता पार्टी के राष्ट्रवाद की पृष्ठभूमि में उसकी क्या कोई भूमिका है? सवाल यह भी है कि संस्कृत भाषा की अनदेखी करके क्या आधुनिक भारतीय राष्ट्र-राज्य का विकास हो सकता है?