Sunday, June 23, 2013

प्रकृति के बारे में वैज्ञानिक दृष्टि बनाएं

हालांकि हम प्रकृति के साथ छेड़छाड़ के खतरों के बारे में एक अरसे से बहस करते रहे हैं, पर उत्तराखंड के हादसे ने पहली बार इतनी गम्भीरता से इस सवाल को उठाया है। और उतनी ही गम्भीरता से इस बात को रेखांकित किया है कि व्यवस्था ऐसे हादसों का सामना करने को तैयार नहीं है।

इस साल मॉनसून समय से काफी पहले आ गया है। मॉनसून आने के ठीक पहले महाराष्ट्र सहित देश के कुछ हिस्से सूखे का सामना कर रहे थे। अचानक पता लगा है कि भारतीय उप महाद्वीप में औसत तापमान चार डिग्री बढ़ गया है। ये बातें इशारा कर रहीं हैं कि अपने आर्थिक विकास और प्राकृतिक संतुलन पर गम्भीरता सेविचार करें।

उत्तराखंड का हादसा क्या केवल अतिवृष्टि के कारण हुआ? अतिवृष्टि तो पहले भी होती रही है। और भविष्य में भी होगी। अतिवृष्टि ने मौसम के बदलाव की ओर संकेत किया है तो भारी संख्या में मौतों ने आपदा प्रबंधन की पोल खोली है। हादसे में मरने वालों की संख्या अभी तक बताई जा रही आधिकारिक संख्या से कहीं ज्यादा और कई गुना ज्यादा है। इसका दुष्प्रभाव सारे अनुमानों से ज्यादा भयावह है।

मदद करने वाली एजेंसियों और सरकार ने इसकी शिद्द्त को समझने में देर की। फिर भी जल्दबाज़ी में निष्कर्ष निकालने के बजाय हमें उन बातों पर ध्यान देने की कोशिश करनी चाहिए जो इसके पीछे हो सकती हैं। साथ ही उन कदमों पर विचार करना चाहिए जो उठाए जाने चाहिए।

उत्तराखंड में बादल फटने के कारण नदियों में बाढ़ और भूस्खलन एक साथ हुआ। इस साल बारिश कुछ जल्दी शुरू हो गई। पर्यटन का सामान्य सीज़न चल ही रहा था। चारधाम यात्रा के साथ हेमकुंड साहब की तीर्थ की यात्रा भी चल रही थी। पूरे इलाके में पचास साठ हजार से ज्यादा यात्री आए हुए थे। अप्रत्याशित बाढ़ के कारण यात्रियों ने भागना शुरू किया तो उन्हें रास्ता नहीं मिला। भूस्खलन के कारण रास्ते बंद हो गए। केदारनाथ मंदिर के इलाके में मंदाकिनी नदी में आई बाढ़ के साथ बड़े-बड़े पत्थर भी आए। यहाँ बनी इमारतें भी बह गई। तबाही का विवरण अभी मिल ही रहा है। 

भूगर्भवेत्ता वीके जोशी के अनुसार मंदिर समेत पूरी घाटी चौदहवीं से सत्रहवीं सदी तक बर्फ में पूरी तरह दबी रही। पिछले हजार साल में कई भूकम्प इस इलाके में आए, पर यह मंदिर अपनी जगह स्थिर रहा। इसे बनाने वाले आधुनिक विशेषज्ञ नहीं थे, पर उन्होंने इसके लिए सुरक्षित जगह तलाशी थी। आज हमारे पास वैज्ञानिक जानकारी है। हम इसकी सुरक्षा के बेहतर तरीके खोज सकते हैं। यह मंदिर अब कम से कम साल-दो साल बंद रहेगा। चार धाम यात्रा भी। इस दौरान हमें मंदिर और इस घाटी के बारे में सोचना चाहिए।

कुछ साल पहले शोध परिणाम आए थे कि केदारनाथ के पास के चोराबारी ग्लेशियर पर ग्लोबल वॉर्मिंग का असर पड़ा है। इस घटना का ग्लोबल वॉर्मिंग से कोई रिश्ता है या नहीं कहना मुश्किल है। पर केदारनाथ सहित पूरे उत्तराखंड में पानी के साथ मिट्टी और पत्थरों के आने, नदियों के किनारों के बुरी तरह कटने और भूस्खलन के कारण कुछ सवाल ज़रूर खड़े होते हैः-
क्या यह असामान्य पर सहज प्राकृतिक आपदा है जो सैकड़ों साल में घटित होती है?
क्या यह मनुष्य की नासमझी के कारण पेड़ों की अंधाधुंध कटाई से पैदा हुए पर्यावरणीय असंतुलन का परिणाम है?
क्या यह असंतुलित नगर नियोजन और कंक्रीट की इमारतों के निर्माण का परिणाम है?
क्या उत्तराखंड सरकार की बेरुखी इसके लिए जिम्मेदार है?

एक बार को मान लेते हैं कि चार धाम की यात्रा न हो रही होती तो इतनी बड़ी संख्या में मौतें न होतीं। पर केदारनाथ में जिस प्रकार की विनाशलीला हुई वह तो अभूतपूर्व है। उसके कारणों को समझना होगा। इस इलाके के पहाड़ों में मिट्टी नरम है। माना जा सकता है कि पेड़ों का कटाई के कारण मिट्टी को रोकने की व्यवस्था कमज़ोर हो गई। नदियों के आसपास निर्माण हुए थे तो वैज्ञानिक तरीके से तटबंध भी बनने चाहिए थे। कंक्रीट की बहुमंजिला इमारतें ताश के पत्तों की तरह ढहती हमने टेलीविजन पर देखीं। लगता नहीं कि वे अनुमति लेकर बनाई गई होंगी। यह भी लगता है कि नदियों के प्रवाह क्षेत्र से रेत और पत्थरों को साफ करने का काम नहीं हुआ है। ऐसा क्यों हुआ इसका पता समय आने पर लगेगा। पर इतना साफ है कि जल स्रोतों के प्रबंधन में कमी है। उत्तराखंड में पर्यटन, रेत, बजरी और पत्थरों की माइनिंग का कारोबार चलता है। सरकारें चाहे कांग्रेस की हों या भाजपा की उन्हें पर्यावरणीय खतरों की फिक्र नहीं रही।  

सन 2011 में केन्द्र सरकार ने उत्तराखंड में इको-सेंसिटिव ज़ोन बनाने की अधिसूचना ज़ारी की थी। पर उत्तराखंड सरकार ने इसे लागू नहीं किया। सरकार का कहना है कि इससे विकास रुकेगा। इस ज़ोन के बनने से गोमुख से उत्तरकाशी तक 130 किलोमीटर के दायरे में पन बिजली परियोजनाएं नहीं लग सकेंगी। नदियों के आसपास निर्माण तथा अनुरक्षण के काम भी बगैर विशेष अनुमति के सम्भव नहीं होंगे। सन 2010 में सीएजी ने भगीरथी और अलकनंदा पर बनी जल विद्युत परियोजनाओं को लेकर इस इलाके में तबाही का अंदेशा व्यक्त किया था। पर्यावरण से जुड़ी संस्थाओं के अंदेशों की सूची काफी लम्बी है।

नदियों पर बने बांधों को लेकर दो तरह की राय हैं। आज भी कहा नहीं जा सकता कि नदियों में बाढ़ इन बांधों के कारण आई है। कहा यह जा रहा है कि इन बांधों के कारण नदियों का पानी काबू में रहा। अन्यथा मैदानों में तबाही मच जाती। फिर भी अंदेशा है कि कभी बांध टूट जाएं तो क्या होगा। भूस्खलन का खतरा बढ़ाने में इन बांधो की भूमिका हो सकती है। यह पानी पहाड़ों को कमज़ोर करता है। इसमें पेड़ों के कटान की भूमिका को खारिज नहीं किया जा सकता। फैसले जो भी हों, वैज्ञानिक दृष्टि से और प्रकृति के व्यापक संरक्षण की दृष्टि से होने चाहिए।

आपदा आई सो आई, सरकारी सुस्ती ने समस्या को और बढ़ा दिया। लगता नहीं कि उत्तराखंड सरकार किसी बड़ी आपदा से निपटने के लिए तैयार है। ऐसी आपदाओं के वक्त राहतें के लिए बने नेशनल डिज़ास्टर रेसपांस फोर्स के लिए स्थायी ज़मीन तक आबंटित नहीं हो पाई है। फिलहाल आपदा प्रबंधन पहली प्राथमिकता होनी चाहिए और उसके बाद पर्यावरण प्रबंधन पर नए दृष्टिकोण को बनाना होगा। ताकि प्रकृति हमारे विमर्श के केन्द्र में रहे। 

सतीश आचार्य का कार्टून


5 comments:

  1. बिलकुल.. सही बात..

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  2. बिलकुल सही कहा आपने ....यह प्राकृतिक आपदा नहीं बल्कि इंसान द्वारा खुद अपने लिए तैयार की गयी आपदा है ....

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  3. सच ऐसी आपदाओं के लिए हम इंसान ही जिमेदार रहते हैं ....बस यह बात हम बहुत देर से समझकर भी नहीं समझ पाते हैं!
    ..सटीक सामयिक चिंतन

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  4. सही कहा आपने।इन्सान अब भी नहीं सुधरा तो देश के अन्य क्षेत्र भी इसी तरह ध्वंस हो जायेंगे ….

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  5. प्रस्तुति के साथ दिया गया चित्र बहुत सही है, सटीक है .... ये सब दुश्मन ही हैं और इनका इलाज किया जाना अत्यंत आवश्यक है ....प्रकृति के साथ साथ हम स्वयं भी इस आपदा के लिए जिम्मेदार हैं .. लेखक ने सभी विचारणीय बिन्दुओं का गहन विश्लेषण किया है।

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