Monday, May 16, 2011

आमतौर पर वोटर नाराज़गी का वोट देता है



भारतीय राजनीति के एक्टर, कंडक्टर, दर्शक, श्रोता और समीक्षक लम्बे अर्से से समझने की कोशिश करते रहे हैं कि वोटर क्या देखकर वोट देता है। व्यक्ति महत्वपूर्ण होता है या पार्टी, मुद्दे महत्वपूर्ण होते हैं या नारे। जाति और धर्म महत्वपूर्ण हैं या नीतियाँ। कम्बल, शराब और नोट हमारे लोकतंत्र की ताकत है या खोट हैं? सब कहते हैं कि भारतीय लोकतंत्र पुष्ट, परिपक्व और समझदार है। पर उसकी गहराई में जाएं तो नज़र आएगा कि लोकतांत्रिक व्यवस्था कुछ घाघ लोगों के जोड़-घटाने पर चलती है। जिसका गणित सही बैठ गया वह बालकनी पर खड़ा होकर जनता की ओर हाथ लहराता है। नीचे खड़ी जनता में आधे से ज्यादा पार्टी कार्यकर्ता होते हैं जिनकी आँखों में नई सरकार के सहारे अपने जीवन का गणित बैठाने के सपने होतें हैं।
 

कुछ साल पहले शिल्पा शेट्टी ने कहीं कहा था, मेरे विचार से राजनीति वाहियात चीज़ है। हिन्दी फिल्मों में अब राजनेता विलेन के रूप में नज़र आते हैं। मध्य वर्ग के घरों में गांधी टोपी मज़ाक का विषय है। अब उसे पूजा करते वक्त सिर पर कुछ रखने के लिए या होली पर खोपड़ी को रंगों से बचाने के लिए पहना जाता है। पर राजनीति बदनामी से राजनीति महत्व कम नहीं हुआ। बल्कि उसका आकर्षण बढ़ा है। बॉलीवुड, बिजनेस, क्रिकेट और राजनीति की चौकड़ी जिसपर कृपालु हो उसके वारे-न्यारे हैं। आज़ादी के 64 साल में भारतीय राजनीति का जबर्दस्त रूपांतरण हुआ है। एक ज़माने तक राजनेता ग्रुप फोटो खिंचवाते वक्त सावधान रहते थे कि आस-पास कोई अपराधी या आर्थिक हितों से जुड़ा व्यक्ति तो नहीं खड़ा है। अब ऐसा नहीं है।

इस बार के चुनाव परिणामों के दो निष्कर्ष निकलते हैं। असम में गोगोई, बंगाल में ममता और तमिलनाडु में वोटर ने जय ललिता के पक्ष में मैंडेट दिया है। या वाम मोर्चा और डीएमके की अहंकारी, जन-विमुख राजनीति को खारिज किया है। बड़े बहुमत का अर्थ हमेशा सकारात्मक वोट माना जाता है। जबकि उसके पीछे किसी को खारिज करने की भावना भी उतनी ही बलवती होती है। जैसे 1971 में इंदिरा गांधी को मिला वोट था। पर क्या वह भी नाराज़गी का वोट नहीं था? बेशक जनता बदलाव चाहती थी। उसे लगा कि इनका नारा गरीबी हटाने का है। इन्हें भी देख लो। पर गुस्सा उनपर था जो सरकार चला रहे थे। इंदिराजी का नारा क्या था? वे कहते हैं इंदिरा हटाओ, मैं कहती हूँ गरीबी हटाओ। आप ही तय करें। उस जबर्दस्त मैंडेट की हवा तीन साल में निकल गई।  1977 का मैंडेट भी ऐसा ही था। उसकी हवा तीन साल में निकल गई।

देश की जनता आमतौर पर नाराज़ रहती है। उसे इंतज़ार रहता है किसी ताकत का जो उसकी वेदना को कम करे। ऐसी ताकत राजनीति में ही होनी चाहिए। दुर्भाग्य है कि इस राजनीति ने वोट पाने के फॉर्मूले खोजे, जनता को खुश करने के फॉर्मूलों की तरफ ध्यान नहीं दिया। इस साल जब मार्च के महीने में पाँच राज्यों में चुनाव कराने की घोषणा की गई तो पहली आपत्ति डीएमके की ओर से आई। आदर्श संहिता लागू होने के कारण जनता के बीच बाँटने के लिए जो टीवी सेट लाए गए थे उनका वितरण नहीं हो पाया। इस बार भी दोनों प्रमुख गठबंधनों ने मुफ्त में मिक्सर-ग्राइंडर, टीवी, साइकिल और लैपटॉप से लेकर मंगलसूत्र तक देने के वादे किए हैं। वास्तव में क्या यह परिपक्व राजनीति है? जनता क्या यही चाहती है?  

मीडिया का एक बड़ा हिस्सा यह साबित करना चाहता है कि इस बार के चुनाव में सिविल सोसायटी के आंदोलन का कोई असर नहीं था। थोड़ी देर के लिए इसे मान लेते हैं। अन्ना हजारे के आंदोलन के बाद से सिविल सोसायटी शब्द बार-बार उछल कर सामने आ रहा है। सिविल सोसायटी पर अन्ना हजारे का कॉपीराइट नहीं है। सिविल सोसायटी जागरूक जनमत का प्रतिनिधि शब्द है। इसकी संवैधानिक व्याख्या संभव नहीं है। पर इसका मज़ाक बनाने का प्रयास नहीं होना चाहिए। शेखर गुप्ता ने चुनाव परिणाम आने के बाद लिखा, जंतर, छूमंतर। और पूछा क्या अब हम लोग गरीब वोटरों से माफी माँगने जाएंगे? इस सवाल का जवाब देने के पहले पूछा जाना चाहिए कि क्या अन्ना हजारे का आंदोलन गरीब वोटर के खिलाफ था? क्या उसके पीछे लोकतांत्रिक प्रतिनिधित्व का विरोध था?

चुनाव हो या न हो, अनुभव बताता है कि आम किसी आम व्यक्ति से बात करें तो वह व्यवस्था से नाराज़ मिलेगा। वास्तव में सबको संतुष्ट नहीं किया जा सकता, यह बात भी सामान्य व्यक्ति समझता है। पर ऐसी व्यवस्था बन सकती है, जो बड़े तबके को संतुष्ट करे। आज़ादी के बाद से अब तक भारतीय व्यवस्था ने तमाम चुनौतियों का सामना किया है। हमने भुखमरी की स्थिति नहीं आने दी। शिक्षा, आवास, स्वास्थ्य, रोजगार वगैरह के तमाम कार्यक्रम शुरू किए। सत्ता के शांतिपूर्ण बदलाव की लोकतांत्रिक व्यवस्था कायम की। यह सब सकारात्मक बातें हैं। पर इन सब सफलताओं के साथ-साथ नाकामियों, विफलताओं, घोटालों और कुराज के काले धब्बे भी लगे हैं। जनता उनसे नाराज़ है। हमारी राजनीति इस नाराज़गी को ध्यान में रखेगी तो शिकायतें कम होंगी। पर इस राजनीति में पाखंड है।

पेट्रोल के दाम बढ़ाने हैं तो चुनाव होने के बाद बढ़ाना। यह धारणा जनता को बेवकूफ साबित करती है। सत्ता और राजनीति की इसी समझ से जनता नाराज रहती है। जिस राज-समाज में जनता का गुस्सा कम और भरोसा ज्यादा होगा वही व्यवस्था खुशहाल होगी। यह काम जिम्मेदार राजनीति कर सकती है। क्या गलत कहा?

जनसंदेश टाइम्स में प्रकाशित

1 comment:

  1. बिलकुल सच, आम आदमी नाराजगी में ही वोट देता है, लेकिन नेता और राजनीतिक दल इन वोटों की अहमियत समझते नहीं, समझना नहीं चाहते। जिस बंगाल को लाल किला कहा जाता था, वही लाल किले हरी आंधी में ढह-ढनमना गया। इसके पीछे ममता के विकास के वायदे से ज्यादा वाम मोर्चे का एरोगेंट विहेबियर था। 2009 में जड़ पड़ी...2011 ने उसे पूरा किया। लेकिन इसके आगे ममता के लिए राह कठिन होगी। अब वाम असली व्यवस्था विरोधी शक्ल में सामने आएगा।

    ReplyDelete