Friday, August 8, 2014

पानी में फँसा नौजवान, नीतीश कुमार और टाटा

बारिश कम हो तो परेशानी और ज्यादा हो तो और ज्यादा परेशानी। आज के भास्कर के पहले सफे पर एक पिलर के सहारे लटके एक युवक की तस्वीर है, जो तेज बहते पानी के बीच फँसा है। इन दिनों ऐसे दृश्य देश भर से देखने को मिल रहे हैं। मोबाइल फोनों में लगे कैमरों ने अब ऐसी खबरें लेना आसान बना दिया है। राजस्थान पत्रिका ने जयपुर के महिला कॉलेजों में चल रहे छात्रसंघ चुनाव में सोशल मीडिया की बढ़ती भूमिका पर रोचक फीचर छापा है। ऐसी ही कुछ और तस्वीरें दूसरे अखबारों में हैं। एक रोचक खबर बंगाल के वित्त मंत्री अमित मित्र और रतन टाटा के बीच शाब्दिक जिरह को लेकर है। रतन टाटा ने एक रोज पहले कहा था कि मैं दो साल बाद कोलकाता आया हूँ और मुझे राजरहाट इलाके में औद्योगिक विकास नजर नहीं आया। इस पर अमित मित्र ने कहा कि टाटा का दिमाग फिर गया है। सिंगुर मामले के कारण नैनो परियोजना को बंगाल से गुजरात ले जाने वाले टाटा के मन में खलिश है। मित्रा-टाटा संवाद पर आज के टेलीग्राफ ने जोरदार कवरेज की है। आज की एक रोचक खबर बिहार से है जहाँ के मुख्यमंत्री जीतन राम माँझी ने कहा है कि चुनाव के बाद हम जीते तो मुख्यमंत्री  नीतीश कुमार बनेंगे। जेडीयू, राजद और कांग्रेस के गठबंधन ने बिहार में गठबंधन की योजना बना ली है। चुनाव अभी दूर है। आज की कुछ कतरनें



Wednesday, August 6, 2014

जितना महत्वपूर्ण है इतिहास बनना, उतना ही जरूरी है उसे लिखा जाना

संजय बारू के बाद नटवर सिंह की किताब का निशाना सीधे-सीधे नेहरू-गांधी परिवार है। देश का सबसे महत्वपूर्ण राजनीतिक परिवार आज से नहीं कई दशकों से राजनीतिक निशाने पर है। इसका सबसे बड़ा कारण यही है कि इस परिवार ने सबसे ज्यादा समय तक सत्ता में भागीदारी की। केवल सत्ता का सामान्य भोग ही नहीं किया, काफी इफरात से किया। इस वक्त कांग्रेस इस परिवार का पर्याय है। अब मनमोहन सिंह की बेटी दमन सिंह की किताब 'स्ट्रिक्टली पर्सनल : मनमोहन एंड गुरशरण' आने वाली है। दमन सिंह ने यह किताब मनमोहन सिंह पर एक व्यक्ति के रूप में लिखे जाने का दावा किया है, प्रधानमंत्री मनमोहन पर नहीं। अलबत्ता 5 अगस्त के टाइम्स ऑफ इंडिया में सागरिका घोष के साथ इंटरव्यू में कही गई बातों से लगता है कि मनमोहन सिंह के पास भी कहने को कुछ है। दमन सिंह ने मनमोहन सिंह के पीवी नरसिम्हाराव और इंदिरा गांधी के साथ रिश्तों पर तो बोला है, पर सोनिया गांधी से जुड़े सवाल पर वे कन्नी काट गईं और कहा कि यह सवाल उनसे (यानी मनमोहन सिंह से) ही करिेेए। इससे यह भी पता लगेगा कि नेहरूवादी आर्थिक दर्शन से जुड़े रहे मनमोहन सिंह ग्रोथ मॉडल पर क्यों गए और भारत के व्यवस्थागत संकट को लेकर उनकी राय क्या है। इस किताब को मैने भी मँगाया है। रिलीज होने के बाद मिलेगी। फिलहाल जो दो-तीन किताबें सामने आईं हैं या आने वाली हैं, उनसे  भारत की राजनीति के पिछले ढाई दशक पर रोशनी पड़ेगी। इनसे देश की राजनीतिक संस्कृति और सिस्टम के सच का पता भी लगेगा। यह दौर आधुनिक भारत का सबसे महत्वपूर्ण दौर रहा है।  नीचे मेरा लेख है, जो मुंबई से प्रकाशित दैनिक अखबार एबसल्यूट इंडिया में प्रकाशित हुआ है।


ऐसे ही तो लिखा जाता है इतिहास
यूपीए सरकार के दस साल, उसमें शामिल सहयोगी दलों की करामातें, सोनिया गांधी का त्याग, मनमोहन सिंह की मजबूरियाँ और राहुल गांधी की झिझक से जुड़ी पहेलियाँ नई-नई शक्ल में सामने आ रही हैं। संजय बारू ने 'एक्सीडेंटल पीएम लिखकर जो फुलझड़ी छोड़ी थी उसने कुछ और किताबों और संस्मरणों को जन्म दिया है। इस हफ्ते दो किताबों ने कहानी को रोचक मोड़ दिए हैं। कहना मुश्किल है कि सोनिया गांधी किताब लिखने के अपने वादे को पूरा करेगी या नहीं, पर उनके लिखे जाने की सम्भावना ने ही माहौल को रोचक और जटिल बना दिया है। अभी तक कहानी एकतरफा थी। यानी लिखने वालों पर कांग्रेस विरोधी होने का आरोप लगता था। पर मनमोहन सिंह की बेटी दमन सिंह ने भी माना है कि पार्टी के भीतर मनमोहन सिंह का विरोध होता था।

Tuesday, August 5, 2014

आमिर को चीप पब्लिसिटी की क्या जरूरत?

आमिर को चीप पब्लिसिटी की क्या जरूरत? इस बार नकल में अकल नहीं लगाई...

प्रमोद जोशी
वरिष्ठ पत्रकार
फिल्‍म ‘पीके’ के पोस्टर में आमिर खान का निर्वस्त्र होकर फोटो खिंचाना उन्हें विवादास्पद और एक हद तक अभद्र साबित करता है। वे मार्केटिंग विशेषज्ञ के रूप में सफल साबित हुए हैं। पर उनके सम्मान को ठेस लगने का खतरा भी पैदा हो रहा है। कहा जा रहा है कि उनकी प्रेरणा स्रोत पूनम पाण्डेय हैं। क्या आमिर खान को पब्लिसिटी चाहिए? क्या उनका अंतिम ध्येय व्यावसायिक सफलता ही हासिल करना है? इससे उनकी उस गम्भीर छवि को धक्का लगेगा, जो ‘सत्यमेव जयते’ के कारण बनी है। यह उसी तरह है जैसा क्रिकेट खिलाड़ी सचिन तेंदुलकर का भारत रत्न बनने के बाद भी कारोबारी विज्ञापनों में नजर आना अच्छा नहीं लगता।
आप कह सकते हैं कि आखिर उन्हें धंधा भी करना है। सच है कि धंधे में आमिर सफल हैं। चूंकि वे सफल हैं तो वे जो भी करेंगे, वह सफल होता जाएगा। ‘थ्री ईडियट्स’ और ‘गजनी’ फिल्मों की मार्केटिंग के लिए उन्होंने जिन फॉर्मूलों को अपनाया, उन्हें धूम-3 में उल्टा कर दिया। फिल्म के रिलीज होने के एक साल पहले फेडोरा हैट पहने आमिर की तस्वीर जारी की गई। कोई इंटरव्यू नहीं, कोई टीवी रियलिटी शो नहीं, फिल्म के संगीत को भी रहस्य बनाकर रखा गया।
पिछले साल शाहरुख खान की ‘चेन्नई एक्सप्रेस’ रिलीज होने के पहले प्रचार की झड़ी लग गई थी। इसका फायदा भी मिला और फिल्म ने शुरुआती दिनों में ढाई सौ करोड़ से ऊपर का बिजनेस कर लिया। उसके छह महीने बाद ‘धूम-3’ ने एक प्रकार के सन्नाटे की रचना की और पांच सौ से ऊपर का बिजनेस कर लिया। आमिर खान ने ही टीवी रियलिटी शो, पात्रों की पहचान की प्रतियोगिताएं, वाराणसी में रिक्शे से घूमना, चंडीगढ़ की शादी में शामिल होने वगैरह का काम किया था।
पर कलात्मकता के लिहाज से यह पोस्टर कोई मौलिक रचना नहीं है। सन 1973 में पुर्तगाली संगीतकार किम बैरीरोज़ के पोस्टर की नकल भी लगता है, जिसमें पियानो एकॉर्डियन ने अंग को ढकने का काम किया है। आमिर ने इसके लिए स्टीरियो सिस्टम की मदद ली है। आरोप तो उनकी पुरानी फिल्मों के पोस्टरों पर भी है। पिछले साल ही जब 'धूम-3' का पोस्टर सामने आया तो कहा गया कि यह तो हॉलिवुड की फिल्म 'डार्क नाइट' के पोस्टर की नकल है। 
 

Sunday, August 3, 2014

अमेरिकी रिश्तों में गर्मजोशी

नरेंद्र मोदी सरकार ने हालांकि अपनी राजनयिक मुहिम अपने पड़ोसी देशों के साथ शुरू की है, पर उसकी असली परीक्षा अब शुरू हो रही है। अमेरिकी विदेश मंत्रि जॉन कैरी ने शुक्रवार को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से मुलाकात की। इसके एक दिन पहले भारत-अमेरिका पांचवीं रणनीतिक वार्ता के तहत विदेश मंत्री सुषमा स्वराज से मुलाकात की थी। मोदी के प्रधानमंत्री बनने के पहले ही अमेरिकी सरकार ने उनसे सम्पर्क कर लिया था। इस चक्कर में अमेरिकी राजदूत नैंसी पॉवेल को इस्तीफा भी देना पड़ा। कहीं बदमज़गी थी भी तो वह खत्म हो चुकी है। अमेरिका ने मोदी के और मोदी ने अमेरिका के महत्व को स्वीकार कर लिया है। जॉन कैरी ने भारत यात्रा शुरू करने के पहले 'सबका साथ सबका विकास' दृष्टिकोण का हिंदी में स्वागत करके माहौल को खुशनुमा बना दिया था।
वॉशिंगटन और दिल्ली में एकसाथ जारी किए गए भारत-अमेरिका संयुक्त वक्तव्य में लश्करे तैयबा को अल-कायदा जैसा खतरनाक बताया गया और संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में भारत की स्थायी सदस्यता का समर्थन किया गया। दोनों देशों के बीच यों तो सहमतियों के बिंदु असहमतियों के मुकाबले कहीं ज्यादा हैं। पर इधर डब्ल्यूटीओ पर असहमति ज्यादा बड़ा मुद्दा बनी है। कैरी की यात्रा के बाद भी वह असहमति बनी हुई है। इधर सुषमा स्वराज ने अमेरिका द्वारा भारतीय नेताओं की जासूसी का मुद्दा उठाया और कहा कि मित्रता में यह स्वीकार नहीं किया जाएगा।

Saturday, August 2, 2014

मोदी समर्थकों का उत्साह क्या ठंडा पड़ रहा है?

 शनिवार, 2 अगस्त, 2014 को 12:57 IST तक के समाचार
नरेंद्र मोदी
नरेंद्र मोदी की सरकार ने पहले दो महीनों में अपने विरोधियों को जितने विस्मय में डाला है, उससे ज़्यादा भौचक्के उनके कुछ घनघोर समर्थक हैं. ख़ासतौर से वे लोग जिन्हें बड़े फ़ैसलों की उम्मीदें थीं.
सरकार बनने के बाद मोदी की रीति-नीति में काफ़ी बदलाव हुआ है. सबसे बड़ा बदलाव है मीडिया से बढ़ती दूरी.
मीडिया की मदद से सत्ता में आए क्लिक करेंमोदी शायद मीडिया के नकारात्मक असर से घबराते भी हैं.
फुलझड़ियों की तरह फूटते उनके बयान गुम हो गए हैं. पर सबसे रोचक है उन विशेषज्ञों को लगा सदमा जो भारी बदलावों की उम्मीद कर रहे थे.
कोई बात है कि कुछ महीने पहले तक बेहद उत्साही मोदी समर्थकों की भाषा और शैली में ठंडापन आ गया है.

पढ़िए पूरा आकलन

शुरुआत मोदी की कट्टर समर्थक मानी जाने वाली मधु किश्वर ने की थी. उन्होंने क्लिक करेंस्मृति ईरानी को मानव संसाधन मंत्री बनाए जाने का खुलकर विरोध किया.

Friday, August 1, 2014

सोनिया, त्याग की प्रतिमूर्ति या बात कुछ और थी

श्रीमती सोनिया गांधी ने कहा है कि अब मैं किताब लिखकर स्थिति साफ करूँगी। 18 मई 2004 की रात में देर तक चले नाटकीय घटनाक्रम के बाद 19 मई की सुबह के अखबारों ने श्रीमती गांधी को त्याग की प्रतिमूर्ति करार दिया। 18 मई को संसद भवन के केंद्रीय हॉल में उन्होंने कांग्रेस संसदीय दल के सामने कहा, "Today my inner voice is telling me that I should politely refuse to accept the post of Prime Minister.” भारतीय समाज त्याग का सम्मान करता है। सत्ता के परित्याग से बड़ी बात क्या हो सकती है? पर अब सोनिया जी के कभी करीबी रहे नटवर सिंह ने इस त्याग की मूल अवधारणा पर सवालिया निशान लगाया है। सोनिया जी नटवर सिंह की बात को किस तरह गलत साबित करेंगी? या नटवर सिंह अपनी बात को कैसे साबित करेंगे? 

इस एक घटना के कारण कांग्रेस पार्टी के आधिकारिक इतिहास में सोनिया गांधी की तुलना महात्मा गांधी से की गई है। इस इतिहास से जुड़ी एक रपट के अंश इस प्रकार हैं

कांग्रेस ने अपने 125 वर्षों का इतिहास लिखते हुए वर्तमान अध्यक्ष सोनिया गांधी की तुलना महात्मा गांधी से की है.  हाल ही में कांग्रेस से सवा सौ साल पूरे होने पर जारी किताब 'कांग्रेस एंड द मेकिंग ऑफ़ द इंडियन नेशन' में कहा गया है कि प्रधानमंत्री का पद स्वीकार न करने का त्याग महात्मा गांधी के त्याग की तरह से याद किया जाता है. इस किताब में कांग्रेस में इंदिरा गांधी और राजीव गांधी की हत्या को महात्मा गांधी की तरह ही देश के लिए बलिदान बताया गया है. कांग्रेस का कहना है कि इस किताब को कई इतिहासकारों ने मिलकर तैयार किया है और इसे पार्टी की सहमति से प्रकाशित किया गया है. इसके मुख्य संपादक प्रणब मुखर्जी हैं और संयोजक आनंद शर्मा हैं.
 त्याग की तुलनादो खंडों में प्रकाशित इस किताब के पहले खंड के पृष्ठ 156 पर 'सोनिया गांधी का यादगार त्याग' शीर्षक के अंतर्गत प्रकाशित सामग्री में प्रधानमंत्री पद स्वीकार न करने के सोनिया गांधी के फ़ैसले का ज़िक्र किया गया है. इसमें 18 मई, 2004 को कांग्रेस संसदीय दल की बैठक में सोनिया गांधी के संबोधन का ज़िक्र किया गया है जिसमें उन्होंने कहा था कि प्रधानमंत्री बनना कभी उनका लक्ष्य नहीं रहा, उन्हें सत्ता ने कभी आकर्षित नहीं किया और कोई पद पाना कभी उनका लक्ष्य नहीं रहा. उल्लेखनीय है कि 15 मई को सोनिया गांधी को कांग्रेस संसदीय दल का नेता चुना गया था और अगले दिन यानी 16 मई को संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन यानी यूपीए ने भी उन्हें नेता चुना और प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार भी. बीबीसी हिंदी में पूरी रपट पढ़ें

इस साल 3 जनवरी को मनमोहन सिंह ने अपने आखिरी संवादाता सम्मेलन में कहा था, मेरे कार्यकाल के बारे में इतिहासकार फ़ैसला करेंगे। उन्होंने कहा मीडिया या संसद में विपक्ष की अपेक्षा इतिहास मेरे प्रति ज्यादा उदार रहेगा। ...राजनीतिक परिस्थितियों को देखते हुए मैने सर्वश्रेष्ठ किया है। मैं नहीं मानता कि मैं एक कमजोर प्रधानमंत्री रहा हूं ….इतिहास मेरे प्रति उदार रहेगा …. राजनीतिक बाध्यताओं को देखते हुए मैंने बेहतरीन किया है जो मैं कर सकता था।…मैंने किया है और साथ ही साथ परिस्थितियों के अनुसार मैं जो कर सकता था …यह इतिहास तय करेगा कि मैंने क्या किया और मैंने क्या नहीं किया। 
इसके कुछ महीने बाद संजय बारू की किताब में मनमोहन सिंह को कमजोर प्रधानमंत्री साबित करने वाले कुछ हालात का विवरण दिया गया। और अब सोनिया जी के करीबी राजनेता ने जो जानकारी दी है, वह इतिहास में दर्ज हो गई है। सवाल है कि क्या यह राजनीतिक प्रतिशोध है या एक सहज सूचना। क्या सोनिया गांधी इससे बेहतर कोई जानकारी देने की स्थिति में हैं? 

राजनेताओं के संस्मरण देश के हालात और राजनीतिक व्यवस्था को समझने में मददगार होते हैं। मनमोहन सिंह ने जिसे इतिहास कहा, वह भी इसी प्रकार लिखा जाएगा। बेहतर हो कि इसपर जल्द से जल्द रोशनी डाली जाए। बहरहाल 19 मई की सुबह भारतीय अखबारों की कवरेज का जो विवरण बीबीसी ने दिया था, उसे पढ़ना भी रोचक होगा। नीचे पढें उस रपट के अंशः-
Newspapers across India have lauded Congress party leader Sonia Gandhi's decision not to accept the position of the prime minister.The general view is that the move is in the Indian tradition of renunciation and that she has emerged with more stature.

Newspapers also attack the campaign of the defeated Hindu nationalist Bharatiya Janata Party (BJP) against Mrs Gandhi's foreign origins, one of the reasons thought to be behind her decision to opt out.

Most of the newspapers gave the thumbs up to Mrs Gandhi for deciding not to accept the position of the prime minister.

Amazing Grace was the headline verdict of the Hindustan Times.
The Asian Age chimed in with Sonia Switch Turns Off Power, Turns on Hearts.
Renouncing power, going for glory, was the opinion voiced in a front-page story in the Times of India.

'Standing tall'Most newspapers said Mrs Gandhi's decision was in the "true Indian tradition" of renunciation.
Read full BBC report here  







Tuesday, July 29, 2014

बाली पैकेज पर भारत की गुगली

अपने खाद्य सुरक्षा कार्यक्रम को लेकर विश्व व्यापार संगठन (डब्ल्यूटीओ) से पंगा लेकर क्या मोदी सरकार कोई बड़ी गलती करने जा रही है? क्या वह वैश्विक बिरादरी में अलग-थलग पड़ने को तैयार है? या यह देश की आंतरिक राजनीति के कारण है? सरकार क्या यह साबित करना चाहती है कि हम यूपीए सरकार की गलती को दुरुस्त कर रहे हैं? पिछले साल संसद में खाद्य सुरक्षा कानून को पास कराकर उसका सारा श्रेय कांग्रेस ने लिया था. अब कुछ श्रेय भाजपा भी लेना चाहेगी. उस कानून को पास कराने में भाजपा ने संसद में सरकार का साथ दिया था. पर पिछले साल दिसम्बर में जब वाणिज्य मंत्री आनन्द शर्मा बाली में व्यापार सुगमता करार (टीएफए) को स्वीकार करके आए थे, तब अरुण जेटली ने आलोचना करते हुए कहा था कि भारत सरकार विकसित देशों के दबाव में आ गई है. तब आनन्द शर्मा का कहना था कि हमने चार साल तक के लिए मोहलत ले ली है और इस बीच इस मसले का कोई स्थायी समाधान खोज लिया जाएगा.

Sunday, July 27, 2014

भँवर में फँसी कांग्रेस

कांग्रेस अपनी तार्किक परिणति की ओर बढ़ रही है। देश-काल से कदम-ताल न कर पाना यानी इतिहास के कूड़ेदान में चले जाना। कांग्रेस क्या कूड़ेदान जाने वाली है? या बाउंसबैक करेगी जैसा कि तीन मौकों पर उसने किया है? उत्तराखंड से आए तीन उपचुनाव परिणामों को पार्टी अपनी सफलता मान सकती है। पर यह पार्टी का पुनरोदय नहीं है। ज्यादा से ज्यादा भाजपा की विफलता है। पिछले हफ्ते कांग्रेस को एक के बाद एक कई झटके लगे हैं। असम के विधायकों ने बग़ावत कर दी। स्वास्थ्य मंत्री हेमंतो बिसवा सर्मा के नेतृत्व में विधायकों ने राज्यपाल को इस्तीफ़ा सौंपा। महाराष्ट्र के उद्योग मंत्री नारायण राणे ने इस्तीफ़ा दिया। हरियाणा में चौधरी वीरेन्द्र सिंह ने भूपेंद्र सिंह हुड्डा के नेतृत्व में विधानसभा चुनाव लड़ने से इनकार कर दिया। बंगाल में भी भगदड़ मची है। तीन और विधायकों ने पार्टी छोड़ी। सन 2011 से अब तक सात विधायक पार्टी छोड़ चुके हैं। पार्टी के विधायकों की संख्या 42 से घटकर 35 रह गई है। जम्मू-कश्मीर में चुनाव के साल भगदड़ मची है। नेशनल कॉन्फ्रेंस ने पांच साल पुराना रिश्ता तोड़ लिया है। पूर्व सांसद लाल सिंह का पार्टी छोड़ना कंगाली में आटा गीला होने की तरह है। झारखंड में भी पार्टी के भीतर बगावत के स्वर हैं।

Saturday, July 26, 2014

कांग्रेसी आत्म मंथन माने रायता फैलाना

बेताल फिर डाल पर
कांग्रेस को इंतज़ार है फिर किसी चमत्कार का 
इस हफ्ते कांग्रेस को कई झटके लगे हैं। असम के विधायकों ने बग़ावत की। स्वास्थ्य मंत्री हेमंतो बिसवा सर्मा के नेतृत्व में विधायकों ने राज्यपाल को इस्तीफ़ा सौंपा। महाराष्ट्र के उद्योग मंत्री नारायण राणे ने इस्तीफ़ा दिया। हरियाणा में चौधरी बीरेन्द्र सिंह ने भूपेंद्र सिंह हुड्डा के नेतृत्व में विधानसभा चुनाव लड़ने से इनकार कर दिया। बंगाल में तीन और विधायक पार्टी छोड़ गए। सन 2011 से अब तक सात विधायक पार्टी छोड़ चुके हैं। पार्टी के विधायकों की संख्या 42 से घटकर 35 रह गई है। जम्मू-कश्मीर में नेशनल कॉन्फ्रेंस ने कांग्रेस से पांच साल पुराना रिश्ता तोड़ लिया है। झारखंड में भी पार्टी के भीतर बगावत के स्वर हैं। इस साल अक्तूबर नवम्बर में महाराष्ट्र, जम्मू-कश्मीर, हरियाणा और झारखंड में चुनाव होने वाले हैं। शायद दिल्ली में भी हों। तरुण गोगोई, पृथ्वीराज चह्वाण और भूपेंद्र सिंह हुड्डा के खिलाफ बगावत सीधे-सीधे राहुल गांधी के खिलाफ बगावत है, भले ही इसे साफ न कहा जाए।

Monday, July 21, 2014

किस तरह एक भ्रष्ट जज अपने पद पर बना रहा!

सीएनएन-आईबीएन में जस्टिस काटजू
प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के पूर्व मीडिया सलाहकार संजय बारू की किताब 'एक्‍सीडेंटल पीएम' के कुछ अंशों की वजह से हंगामा शुरू हो गया था। संजय बारू ने लिखा कि मनमोहन सिंह अपनी मर्जी से फैसले नहीं कर पाते थे। यह हंगामा शांत होने के पहले ही पूर्व कोयला सचिव पीसी पारख की किताब 'क्रूजेडर आर कांस्पिरेटर: कोलगेट एंड अदर ट्रूथ' ने दूसरा हंगामा खड़ा किया। इस किताब में पारख ने बताने की कोशिश की है कि कैसे कोयला मंत्रालय के कामकाज को प्रधानमंत्री असहाय प्रधानमंत्री की तरह देखते थे। वह कड़े फैसले लेने में कमजोर थे और साथ ही कोयला मंत्रालय में जारी ब्‍लैकमेलिंग का जिक्र भी पारख ने अपनी किताब में किया। पारख ने अपनी इस किताब में दावा किया है कि अक्‍सर नेता कई बड़े फैसलों को बदलने और उन्‍हें प्रभावित करने की कोशिश करते हैं। और अब सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश मार्कंडेय काटजू ने मद्रास हाइकोर्ट के एक जज के बारे में लिखा है कि गठबंधन राजनीति के कारण उस जज को लगातार संरक्षण मिलता रहा, बावजूद इसके कि उसपर भ्रष्टाचार के आरोप थे। आज सुबह टाइम्स ऑफ इंडिया ने जस्टिस काटजू के आलेख को अपनी लीड बनाया है। उन्होंने अपने आलेख में लिखा है कि मेरा उद्देश्य यह बताना है कि सिस्टम किस तरह काम करता है, I have related all this to show how the system actually works, whatever it is in theory. In fact, in view of the adverse IB report the judge should not even have been allowed to continue as additional judge. न्यायपालिका में राजनीतिक हस्तक्षेप का इससे बेहतर उदाहरण और क्या हो सकता है। जस्टिस काटजू अपने ब्लॉग में इन दिनों मद्रास हाइकोर्ट के अनुभवों को लिख रहे हैं। उनके इस आलेख ने भारतीय राजनीति के भीतर के एक गहरे अंतर्विरोध को उभारा है। हमारे यहाँ न्यायाधीशों ने अपने इस किस्म के संस्मरण नहीं लिखे हैं। यह आलेख मौके पर सामने आया है। जस्टिस काटजू ने अपने लेख की शुरूआत इस तरह की हैः-

There was an additional judge of the Madras high court against whom there were several allegations of corruption. He had been directly appointed as a district judge in Tamil Nadu, and during his career as district judge there were as many as eight adverse entries against him recorded by various portfolio judges of the Madras high court. But one acting chief justice of Madras high court by a single stroke of his pen deleted all those adverse entries, and consequently he became an additional judge of the high court, and he was in that post when I came as chief justice of Madras high court in November 2004.
That judge had the solid support of a very important political leader of Tamil Nadu. I was told that this was because while a district judge he had granted bail to that political leader.
Since I was getting many reports about his corruption, I requested the Chief Justice of India, Justice RC Lahoti, to get a secret IB inquiry made about him. A few weeks thereafter, while I was in Chennai, I received a call from the secretary of the CJI saying that Justice Lahoti wanted to talk to me. The CJI then came on the line and said that what I had complained about had been found true. Evidently the IB had found enough material about the judge's corruption.

टाइम्स ऑफ इंडिया में पढ़ें पूरा आलेख 

जस्टिस काटजू के ब्लॉग को पढ़ें

Sunday, July 20, 2014

फलस्तीन पर असमंजस

पिछले हफ्ते यूक्रेन में मलेशिया एयरलाइंस के विमान को मार गिराया न गया होता तो फलस्तीन की ग़ज़ा पट्टी पर इसरायली हमले ज्यादा बड़ी खबर थी। संयोग से जिस समय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ब्रिक्स सम्मेलन में भाग लेने गए थे, उसी समय दोनों घटनाएं चर्चा में आईं। इस दौरान संसद का बजट अधिवेशन चल रहा है। स्वाभाविक रूप से विपक्ष सरकार को अर्दब में लेना चाहेगा। इसरायली कार्रवाई पर सरकार की चुप्पी से विपक्ष को एक मौका मिला भी है। विदेश मंत्री सुषमा स्वराज ने राज्यसभा के सभापति से अनुरोध किया था कि वे इस विषय पर चर्चा न कराएं क्योंकि हमारे दोनों पक्षों के साथ अच्छे रिश्ते हैं और इस सिलसिले में की गई कोई भी असंतुलित टिप्पणी रिश्तों पर असर डाल सकती है। बहरहाल सभापति को विपक्ष की माँग में कोई दोष नज़र नहीं आया और अंततः सरकार ने इस पर चर्चा को स्वीकार कर लिया, जो सोमवार को होगी। यह चर्चा नियम 176 के तहत होगी, जिसमें वोटिंग नहीं होगी, इसलिए इसका राजनीतिक निहितार्थ नहीं है। अलबत्ता यह देखना रोचक होगा कि कांग्रेस पार्टी का रुख इस मामले पर क्या होगा। उसका उद्देश्य केवल भाजपा पर हमले करना है या वह इसरायल के बाबत भी कुछ कहेगी?

Thursday, July 17, 2014

अब अति हो रही है मिस्टर अर्णब गोस्वामी

अपने तेवरों पर ध्यान दीजिए मिस्टर अर्णब गोस्वामी!

प्रमोद जोशी
वरिष्ठ पत्रकार
लोकसभा चुनाव के पहले अमेरिकी कॉमेडी शो ‘लास्टवीक टुनाइट विद जॉन ओलीवर’ में होस्ट जॉन ओलीवर ने कई बार अर्णब गोस्वामी को अपना निशाना बनाया। अर्णब के शो की शोर और निरर्थक शोर से जुड़ी क्लिपिंग उस शो में दिखाई गईं। खासतौर से मीनाक्षी लेखी के साथ चला लम्बा संवाद जिसमें अर्णब लगातार ‘हाउ डेयर यू से आय टेक मनी’ दोहराते चले गए। अर्णब के शो में हर तीसरे-चौथे दिन ‘शट-अप’ होता रहता है।
सबसे ताज़ा प्रकरण है वेद प्रताप वैदिक प्रकरण जिसमें सारी बातचीत विमर्श के निम्नतम स्तर पर पहुंच गई। वैदिक जी की पाकिस्तान यात्रा का विवाद, उनकी पत्रकारिता को लेकर हमारी राय इस प्रकरण से जुड़े नैतिक और राजनीतिक मसले अपनी जगह हैं। सार्वजनिक विमर्श के स्वर, भाषा और तौर-तरीकों की कोई सीमा तो तय होनी चाहिए। क्या कारण है कि इलेक्ट्रॉनिक मीडिया पर विमर्श मछली बाज़ार में तबदील हो गया है? क्या कारण है कि एंकरों के स्वर सड़क पर मजमा लगाने वालों और पुराने बादशाहों की मुनादी लगाने वालों से भी ज्यादा कर्कश हो गए हैं? क्या कारण है कि इस विमर्श में से विचार गायब हो गए हैं?

Tuesday, July 15, 2014

बंगाल की खाड़ी में उम्मीदों के मेघदूत

मार्च 2010 में बंगाल की खाड़ी में एक छोटा सा द्वीप समुद्र में डूब गया। ऐसा जलवायु परिवर्तन और समुद्र की सतह में बदलाव के कारण हुआ. यह द्वीप सन 1971 में हरियाभंगा नदी के मुहाने पर उभर कर आया था. यह नदी दोनों देशों की सीमा बनाती है, इसलिए इस द्वीप के स्वामित्व को लेकर विवाद खड़ा हो गया. यह विवाद अपनी जगह था, पर इसके प्रकटन और लोपन से इस बात पर रोशनी पड़ती है कि आने वाले समय में जलवायु परिवर्तन के कारण समुद्री सीमा को लेकर कई तरह के विवाद खड़े हो सकते हैं. नदियों की जलधारा अपना रास्ता बदलती रहती है. ऐसे में हमें पहले से ऐसी व्यवस्थाएं करनी होंगी कि मार्ग बदलने पर क्या करें.

Thursday, July 10, 2014

आर्थिक संवृद्धि के लिए जरूरी है ऐसा बजट

 गुरुवार, 10 जुलाई, 2014 को 17:54 IST तक के समाचार
अरुण जेटली, वित्त मंत्री, भारत
भारतीय जनता पार्टी गठबंधन सरकार का पहला बजट कमोबेश सकारात्मक रहा.
हालांकि सरकार ने रक्षा और बीमा क्षेत्र में एफडीआई की सीमा 26 प्रतिशत से 49 प्रतिशत करने के सिवाय अन्य कोई बड़े नीतिगत फ़ैसले नहीं किए.
सरकार ने आम करदाताओं को थोड़ी राहत ज़रूर दी है. वहीं युवा उद्यमियों को प्रोत्साहित करने पर भी सरकार का ज़ोर रहा.
चुनावी वादे के अनुरूप सरकार ने गंगा की सफ़ाई के लिए भी अच्छा ख़ासा बजट आबंटित किया है.

पढ़िए प्रमोद जोशी का विश्लेषण विस्तार से

मोदी सरकार ने अपने उस कार्यक्रम को आगे बढ़ाया है, जिसकी घोषणा संसद के संयुक्त अधिवेशन में राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने की थी.
लगातार दो साल से पाँच फीसदी के नीचे चली गई अर्थव्यवस्था को इस साल पाँच फीसदी के ऊपर जाने का मौका मिलने जा रहा है.
वित्त मंत्री का यह बजट भाषण सामान्य भाषणों से ज्यादा लंबा था और इसमें सपनों की बातें हैं.
सरकार को अभी यह बताना होगा कि वह राजस्व प्राप्तियों के लक्ष्यों को किस प्रकार हासिल करेगी.
उससे बड़ी चुनौती है कि वह जीडीपी की तुलना में राजकोषीय घाटे को 4.1 प्रतिशत के भीतर कैसे रखेगी, जिसे वह खुद मुश्किल काम मानती है.