Sunday, March 20, 2011

प्रकृति बगैर कैसी प्रगति?



उन्नीसवीं सदी के शुरू में यह आशंका पैदा हुई कि दुनिया की जनसंख्या जिस तेजी से बढ़ रही है, उसके अनुरूप अन्न का उत्पादन नहीं होता। अंदेशा था कि कहीं भुखमरी की नौबत न आ जाए। ऐसा नहीं हुआ। दुनिया में एक के बाद एक कई हरित क्रांतियां हुईं। भुखमरी का अंदेशा आज भी है। पर यह खतरा गरीबों के लिए है। और उनके लिए यह अंदेशा हमेशा रहा। औद्योगिक क्रांति की बुनियाद में थी भाप की ताकत। धरती के गर्भ में मौजूद पेट्रोलियम और कोयले ने उन्नीसवीं और बीसवीं सदी में दुनिया को कहां से कहाँ पहुँचा दिया। दोनों फॉसिल फ्यूल अब खत्म हो रहे हैं। पर इनका खत्म होना उतना महत्वपूर्ण नहीं है। खौफनाक है इनका खतरनाक हो जाना। जबर्दस्त कार्बन उत्सर्जन के कारण धरती का तापमान बढ़ता जा रहा है। कार्बन उत्सर्जन इंसान के विकास की देन है। विकास भी ऐसा जिसमें करोड़ों लोग आज भी भूखे सोते हैं।

Wednesday, March 16, 2011

भारतीय भाषाओं के मीडिया की ताकत और बढ़ेगी




पिछले दिनों इंडियन एक्सप्रेस में खबर थी कि आम बजट के रोज हर चैनल किसी न किसी वजह से नम्बर वन रहा। टैम के निष्कर्षों को सारे चैनल अपने-अपने ढंग से पेश करते हैं। कुछ ऐसा ही प्रिंट मीडिया के सर्वे के साथ होता है। औसत पाठक को एआईआर और टोटल रीडरशिप का फर्क मालूम नहीं होता। अखवार चूंकि सर्वेक्षण के नतीजों का इस्तेमाल अपने प्रचार के लिए करते हैं, इसलिए जो पहलू उनके लिए आरामदेह होता है वे उसे उठाते हैं। मसलन आयु वर्ग या आय वर्ग। किसी खास भौगोलिक क्षेत्र में या किसी खास शहर में।

पाठक सर्वेक्षणों के बारे में चर्चा करने के पहले यह समझ लिया जाना चाहिए कि ये अनुमान हैं, वास्तविक संख्या नहीं। इनकी निश्चित संख्या से यह नहीं मान लेना चाहिए कि पाठक संख्या यही है। अखबारों के प्रिट ऑर्डर के एबीसी ऑडिट के आधार पर निष्कर्ष अलग तरह के होते हैं। भारत में एनआरएस और फिर आईआरएस के पीछे मूल विचार विज्ञापन उद्योग के सामने मीडिया के प्रसार और प्रभाव की तस्वीर पेश करना है। इस प्रक्रिया को पाठक के सामने रखने का उद्देश्य सिर्फ यह बताना हो सकता है कि कौन सा अखबार लोकप्रिय है। यों भी पाठक अपनी मर्जी का अखबार पढ़ता है। वह यह देखकर अखबार नहीं लेता कि उसे कितने पाठक और पढ़ रहे हैं।

Tuesday, March 15, 2011

भारत से जुड़े विकीलीक्स हिन्दू में

भारत से जुड़े विकीलीक्स के केबल का गेट भी खुल गया है। चेन्नई के अखबार हिन्दू ने अमेरिकी दूतावास द्वारा भेजे गए केबल 15 मार्च के अंक से छापने शुरू कर दिए हैं।

हिन्दू द्वारा प्रकाशित केबलों के संदर्भ में आज अखबार के सम्पादक एन राम ने पहले सफे पर लिखा है कि विकीलीक्स के साथ हमारी बातचीत दिसम्बर में शुरू हुई थी। उन्होंने लिखा है-- 

The India Cables have been accessed by The Hindu through an arrangement with WikiLeaks that involves no financial transaction and no financial obligations on either side. As with the larger 'Cablegate' cache to which these cables belong, they are classified into six categories: confidential, confidential/noforn (confidential, no foreigners), secret, secret/noforn, unclassified, and unclassified/for official use only.

Our contacts with WikiLeaks were initiated in the second week of December 2010. It was a period when Cablegate had captured the attention and imagination of a news-hungry world.

नीचे मैने वह लिंक भी दिया है जहाँ से आप इन केबल्स को सीधे पढ़ सकते हैं। दरअसल इन्हें पढ़ने और समझने में समय लगाना पड़ेगा। हिन्दू में आज एन राम के अलावा पाँच वरिष्ठ पत्रकारों की आलोख और छपे हैं। इनके नाम हैं सुरेश नामबथ, निरुपमा सुब्रह्मण्यम, सिद्धार्थ वर्दराजन, पी साईनाथ और हसन सुरूर। हिन्दू का दृष्टिकोण आमतौर पर अमेरिका विरोधी होता है। और वह भारतीय विदेशनीति में अमेरिका-समर्थक तत्वों को पसंद नहीं करता। इसलिए उसके आलेख इसी किस्म के हैं, पर यह रोचक है कि भारत में विकीलीक्स का पहला शेयर हिन्दू को मिला. 


Monday, March 14, 2011

आपदाओं से निपटना जापान से सीखें


भूकम्प और सुनामी से तबाह हुए इलाके में किसी बालक को मिले पुरस्कार
 प्रमाणपत्र के चिथड़े को पढता एक बालक।

मैने यह लेख जब लिखा था तब न्यूक्लियर रिएक्टरों वाली बात उभरी नहीं थी। रेडिएशन के खतरे ने जापानी त्रासदी को इंसानियत के सामने सबसे बड़े खतरों की सूची में दर्ज कर दिया है। शायद अब यह सोचना होगा कि जिन इलाकों में भूकम्प इतने ज्यादा आते हों वहाँ नाभिकीय ऊर्जा का विकल्प खारिज करना चाहिए। इसमें दो राय नहीं कि आपदाओं से जूझने के मामले में हमें जापान से सीखना चाहिए। 

सुनामी से जूझते जापान पर नज़र डालें तो आपको उससे सीखने के लिए बहुत कुछ मिलेगा। दुनिया का अकेला देश जिसने एटम बमों का वार झेला। तबाही का सामना करते हुए इस देश के बहादुर और कर्मठ नागरिकों ने दूसरे विश्व युद्ध के बाद सिर्फ दो दशक में जापान को आर्थिक महाशक्ति बना दिया। तबाहियों से खेलना इनकी आदत है। सुनामी शब्द जापान ने दिया है। यह देश हर साल कम से कम एक हजार भूकम्पों का सामना करता है। सैकड़ों सुनामी हर साल जापानी तटों से टकरातीं हैं। पर इस बार उनके इतिहास का सबसे जबर्दस्त भूकम्प आया है।

Sunday, March 13, 2011

राष्ट्रीय धुलाई की बेला



पिछले महीने 16 फरवरी को टीवी सम्पादकों के साथ बातचीत के दौरान प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने कहा, मैं इस बात को खारिज नहीं कर रहा हूँ कि हमें गवर्नेंस में सुधार की ज़रूरत है। उसके पहले गृहमंत्री पी चिदम्बरम ने वॉल स्ट्रीट जर्नल को दिए एक इंटरव्यू में कहा था, बेशक कुछ मामलों में गवर्नेंस में चूक है, बल्कि मर्यादाओं का अभाव है। अभी 3 मार्च को सुप्रीम कोर्ट की एक बेंच ने हसन अली के मामले में सरकार पर कड़ी टिप्पणी करते हुए कहा, ऐसे उदाहरण हैं जब धारा 144 तक के मामूली उल्लंघन में व्यक्ति को गोली मार दी गई, वहीं कानून के साथ इतने बड़े खिलवाड़ के बावजूद आप आँखें मूँदे बैठे हैं। उसी रोज़ मुख्य न्यायाधीश एसएच कपाडिया की अध्यक्षता में तीन जजों की बेंच ने चीफ विजिलेंस कमिश्नर के पद पर पीजे थॉमस की नियुक्ति को रद्द करते हुए कि यह राष्ट्रीय निष्ठा की संस्था है। इसके साथ घटिया खेल मत खेलिए। 

Wednesday, March 9, 2011

बदली स्ट्रैपलाइन

टाइम्स ऑफ इंडिया समूह के अखबार ईटी ने पत्रकारीय मर्यादा तय की है साथ ही टाइम्स ऑफ इंडिया ने अपने डेल्ही टाइम्स, बॉम्बे टाइम्स और बेंग्लोर टाइम्स के मास्टहैड के नीचे की लाइन बदल दी है। नई लाइन है  Advertorial, Entertainment Promotional Feature. इसके पहले यह लाइन थी Entertainment & Advertising Feature.





अरुणा शानबाग


गिरिजेश कुमार का यह आलेख अरुणा शानबाग के ताज़ा प्रकरण पर है। इस सिलसिले में मैं केवल यह कहना चाहूँगा कि सुप्रीम कोर्ट ने दया मृत्यु को अस्वीकार करने के पीछे सबसे बड़ा कारण यह बताया कि मुम्बई के केईएम अस्पताल की नर्से और अन्य कर्मचारी उसे मरने देना नहीं चाहते। इन नर्सों ने पिछले 37 साल से अरुणा की पूरी जिम्मेदारी ले रखी है। इन नर्सों के जीवन में अरुणा का एक मतलब हो गया है। अरुणा उनकी एकता की एक कड़ी है। अदालत ने इन कर्मचारियों का उल्लेख करते हुए कहा है कि हर भारतीय को ऐसे कर्मचारियों पर फख्र होना चाहिए। 

अरुणा शानबाग: समाज ने जिसे जिंदा लाश बना दिया

इसे विडंबना कहे या संयोग कि जहाँ एक तरफ़ अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस के सौ साल पूरे होने पर महिलाओं की भागीदारी और हासिल की गई उपलब्धियों तथा पिछड़ेपन के कारणों पर चर्चा हो रही है वहीँ दूसरी तरफ़ एक महिला अरुणा शानबाग की दयामृत्यु याचिका सुप्रीम कोर्ट ने खारिज कर दी| हालाँकि सुप्रीम कोर्ट ने यह फैसला कई नैतिक, मानवीय, सामाजिक और क़ानूनी पहलुओं को ध्यान में रखकर किया है लेकिन फिर भी यह सवाल तो उठता ही है कि अरुणा की जिंदगी को जिंदा लाश में तब्दील कर देने का जो कलंक  कुछ पुरुषवादी मानसिकता वाले लोगों ने समाज के ऊपर लगाया  है, वह उसे ‘जीने का हक है’ कह देने भर से धुल जाएगा? 

Tuesday, March 8, 2011

पत्रकारीय मर्यादा की स्वर्णिम शपथ

देश के सबसे बड़े बिजनेस अखबार इकोनॉमिक टाइम्स या ईटी ने अपने 7 मार्च के अंक के पहले सफे पर अपने लिए पत्रकारीय मर्यादाओं की आचार संहिता घोषित की है। इसके पहले देश के एक दूसरे बिजनेस डेली मिंट ने भी अपनी आचार संहिता घोषित कर रखी है। कुछ अन्य अखबारों की आचार संहिताएं भी होंगी।
हिन्दी के अखबारों में से किसी ने अपनी आचार संहिता बनाई है इसकी जानकारी मुझे नहीं है। इसी तरह इलेक्ट्रॉनिक मीडिया की आचार संहिता का पता मुझे नहीं है। अलबत्ता उनके एक संगठन एनबीए ने कुछ मर्यादा रेखाएं तय कर रखीं हैं।

पाकिस्तानी अखबारों में समझौता विस्फोट का विज्ञापन

पाकिस्तान के साथ भविष्य में जो बातचीत होगी उसमें अब शायद समझौता एक्सप्रेस के विस्फोट का मामला भी शामिल हो जाएगा। 7 मार्च को पाकिस्तानी अखबारों में चौथाई पेज का विज्ञापन छपा है जिसमें समझौता एक्सप्रेस के मामले को खूब रंग लगाकर छापा गया है। इसमें माँग की गई है कि भारत की सेक्युलर व्यवस्था की जिम्मेदारी है कि वह जवाब दे। लगता है कि इसका इसका उद्देश्य अपने ऊपर लगे  कलंकों की ओर से दुनिया का ध्यान हटाना है। इस विज्ञापन को किसने जारी किया, कहाँ से पैसा आया कुछ पता नहीं. 


Saturday, March 5, 2011

दूसरे दशक की पहली परीक्षा


पिछली 1 मार्च को पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचारजी का 67 वाँ जन्मदिन था। उस रोज दिल्ली में हुए संवाददाता सम्मेलन में देश के मुख्य चुनाव आयुक्त ने चार राज्यों और एक केन्द्र शासित क्षेत्र पुदुच्चुरी में विधानसभा चुनाव की घोषणा की। बुद्धदेव के लिए यह खुशनुमा तोहफा नहीं था। अब से 13 मई के बीच कोई चमत्कार न हुआ तो लोकतांत्रिक पद्धति से चुनी गई दुनिया की सबसे पुरानी सरकार कम्युनिस्ट सरकार के हारने के पूरे आसार हैं। चौंतीस साल कम नहीं होते। देश का ध्यान इन दिनों बजट पर लगा है। बंगाल, असम, केरल, तमिलनाडु और पुदुच्चेरी में चुनाव की घोषणा मामूली खबर की तरह अखबारों के पन्नों में छिपी रह गई। पर आने वाले विधानसभा चुनाव कई मायनों में निर्णायक साबित होने वाले हैं। वाम मोर्चा की समूची राजनीति दाँव पर है। केरल और बंगाल हार जाने के बाद उनके पास बचता ही क्या है।

वाम मोर्चा के साथ-साथ कांग्रेस और यूपीए दोनों के लिए के लिए ये चुनाव महत्वपूर्ण साबित होने वाले हैं। इन चुनावों का पहला असर संसद के चालू बजट सत्र पर पड़ेगा। अनुमान है कि यह सत्र अब 21 के बजाय 8 अप्रेल को खत्म हो जाएगा। चुनाव प्रक्रिया तो मार्च से ही शुरू हो चुकी होगी। 4 अप्रेल को असम में मतदान का पहला दौर भी पूरा हो जाएगा। बंगाल में छह दौर के मतदान के पहले शेष तीनों राज्यों और एक केन्द्र शासित क्षेत्र में मतदान पूरा हो चुका होगा। पिछले साल बिहार में छह दौर के लम्बे मतदान कार्यक्रम के कारण हिंसा और अराजकता पर काफी नियंत्रण रहा। बंगाल की स्थिति बिहार से भी खराब है।

जनता है इस काले जादू का तोड़




घोटालों की बाढ़ में फँसी भारत की जनता असमंजस में है। व्यवस्था पर से उसका विश्वास उठ रहा है। सबको लगता है कि सब चोर हैं। पिछले हफ्ते प्रधानमंत्री के टीवी सम्मेलन के बाद स्थिति बेहतर होने के बजाय और बिगड़ गई। अगले तीन-चार दिनों में रेल बजट, आर्थिक समीक्षा और फिर आम बजट आने वाले हैं। इन सब पर हावी है टू-जी घोटाला और काले धन का जादू। बाबा रामदेव और कांग्रेस महासचिव दिग्विजय सिंह के बीच चले संवाद की मीडिया कवरेज पर क्या आपने ध्यान दिया? इस खबर को अंग्रेजी मीडिया ने महत्व नहीं दिया और हिन्दी मीडिया पर यह छाई रही। इसकी एक वजह यह है कि बाबा रामदेव की जड़ें जनता के बीच काफी गहरी है। उनकी सम्पत्ति से जुड़े संदेहों का समाधान तो सरकार के ही पास है। उसकी जाँच कराने से रोकता कौन है? उन्हें दान देने वालों ने काले पैसे का इस्तेमाल किया है तो सिर्फ अनुमान लगाने के बजाय यह बात सामने लाई जानी चाहिए।

रामदेव स्विट्ज़रलैंड के बैंकों में जमा भारतीय काले धन का सवाल क्यों उठा रहे हैं? हमने बजाय उनके सवाल पर ध्यान देने के इस बात पर ध्यान दिया कि उन्हें भाजपा का समर्थन मिल रहा है। बाबा की कोई राजनैतिक महत्वाकांक्षा है या नहीं यह बात महत्वपूर्ण नहीं है। महत्वाकांक्षा है भी तो इसमें आपत्तिजनक क्या है? कांग्रेस ने यहाँ तीर गलत निशाने पर साधा है। मामले को रामदेव की सम्पत्ति की ओर ले जाने के बजाय काले धन को बाहर लाने तक सीमित रखना बेहतर होता।

Wednesday, March 2, 2011

इंटरैक्टिव हैडलाइन

अखबारों को पाठकों से जोड़ने की मुहिम में बिछे पड़े मार्केटिंग प्रफेशनलों को कन्नड़ अखबार कन्नड़ प्रभा ने रास्ता दिखाया है। इसबार 1 मार्च को कन्नड़ प्रभा की बजट कवरेज को शीर्षक दिया उनके पाठक रवि साजंगडे ने।

कन्नड़ प्रभा के नए सम्पादक विश्वेश्वर भट्ट के दिमाग में आइडिया आया कि क्यों न अपनी खबरों की दिशा पाठकों की सहमति से तय की जाय। इसकी शुरुआत उन्होंने 24 फरबरी को राज्य के बजट से की। उन्होंने अपने ब्लॉग, ट्विटर, एसएमएस वगैरह के मार्फत पाठकों से राय लेने की सोची। 24 की रात डैडलाइन 9.30 तक उनके पास 126 बैनर हैडलाइन के लिए सुझाव आ गए। इसके बाद उन्होंने रेलवे बजट के लिए सुझाव मांगे। इसके लिए 96 शीर्षक आए। आम बजट के दिन 60 शीर्षक आए।

Tuesday, March 1, 2011

बजट के अखबार

बज़ट का दिन मीडिया को खेलने का मौका देता है और अपनी समझदारी साबित करने का अवसर भी। आज के   अखबारों को देखें तो दोनों प्रवृत्तियाँ देखने को मिलेंगी। बेहतर संचार के लिए ज़रूरी है कि जटिल बातों को समझाने के लिए आसान रूपकों और रूपांकन की मदद ली जाए। कुछ साल पहले इकोनॉमिक टाइम्स ने डिजाइन और रूपकों का सहारा लेना शुरू किया था. उनकी देखा-देखी तमाम अखबार इस दौड़ में कूद पड़े। हालांकि इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के पास तमाम साधन हैं, पर वहाँ भी खेल पर जोर ज्यादा है बात को समझाने पर कम। अंग्रेजी के चैनल सेलेब्रिटी टाइप के लोगों और राजनैतिक दलों के प्रतिनिधियों को मंच देते हुए ज्यादा नज़र आते हैं, दर्शक  को यह कम बताते हैं कि बजट का मतलब क्या है। टाइम्स ऑफ इंडिया की परम्परा बजट को बेहतर ढंग से कवर करने की है। 


एक ज़माने में हिन्दी अखबार का लोकप्रिय शीर्षक होता था 'अमीरों को पालकी, गरीबों को झुनझुना'। सामान्य व्यक्ति यही सुनना चाहता है। अंग्रेजी अखबार पढ़ने वालों की समझदारी का स्तर बेहतर है। साथ ही वे व्यवस्था से ज्यादा जुड़े हैं। उनके लिए लिखने वाले बेहतर होम वर्क के साथ काम करते हैं। दोनों मीडिया में विसंगतियाँ हैं। 

Thursday, February 24, 2011

भारत के टाइम्स की खबर छापी मर्डोक के संडे टाइम्स ने

भारत की पेड न्यूज़ धोखाधड़ी (India's dodgy 'paid news' phenomenon) शीर्षक से लंदन के प्रतिष्ठित अखबार गार्डियन के लेखक रॉय ग्रीनस्लेड ने अपने व्लॉग में टाइम्स ऑफ इंडिया के पेड न्यूज़ प्रकरण को उठाया है। उन्होंने संडे टाइम्स में प्रकाशित एक रपट के आधार पर यह लिखा है, यह याद दिलाते हुए कि भारत सरकार ने पेड न्यूज़ की भर्त्सना की है। पिछले साल प्रेस काउंसिल ने इस मामले की जाँच भी की थी, जिसकी रपट काफी काट-छाँट कर जारी की गई थी। 


बावजूद इसके टाइम्स ऑफ इंडिया में रकम लेकर मन पसंद सम्पादकीय सामग्री का प्रकाशन सम्भव है। पेड न्यूज़ की परिभाषा बड़ी व्यापक है। इसमें गिफ्ट लेने से लेकर मीडिया हाउस और कम्पनियों के बीच प्रचार समझौते भी शामिल हैं। यह समझौते शेयर ट्रांसफर के रूप में होते हैं। पिछले लोकसभा चुनाव में प्रत्याशियों की मन पसंद पब्लिसिटी के बदले अखबारों ने पैसा लिया, ऐसी शिकायतें थीं।

Wednesday, February 23, 2011

बीबीसी हिन्दी रेडियो को बचाने की अपील


बीबीसी की हिन्दी सेवा को बचाने के प्रयास कई तरफ से हो रहे हैं। एक ताज़ा प्रयास है लंदन के अखबार गार्डियन में छपा पत्र जिसपर भारत के कुछ प्रतिष्ठित नागरिकों के हस्ताक्षर हैं। बीबीसी की हिन्दी सेवा को देश के गाँवों तक में सुना जाता है। तमाम महत्वपूर्ण अवसरों पर यह सेवा हमारी जनता की खबरों का स्रोत बनी। इसकी हमें हमेशा ज़रूरत रहेगी।

लड़कियों की मदद करें



गिरिजेश कुमार ने इस बार लड़कियों के विकास और उनके सामने खड़ी समस्याओं को उठाया है। मेरे विचार से भारतीय समाज में सबसा बड़ा बदलाव स्रियों से जुड़ा है। यह अभी जारी । दो दशक पहले के और आज के दौर की तुलना करें तो आप काफी बड़ा बदलाव पाएंगे। लड़कियाँ जीवन के तकरीबन हर क्षेत्र में आगे आ रहीं हैं। शिक्षा और रोजगार में जैसे-जैसे इनकी भागीदारी बढ़ेगी वैसे-वैसे हमें बेहतर परिणाम मिलेंगे। बावजूद इसके पिछले नवम्बर में जारी यूएनडीपी की मानव विकास रपट के अनुसार महिलाओं के विकास के मामले में भारत की स्थित बांग्लादेश और पाकिस्तान से पीछे की है। हम अफ्रीका के देशों से भी पीछे हैं। इसका मतलब यह कि हम ग्रामीण भारत तक बदलाव नहीं पहुँचा पाए हैं। बदलाव के लिए हमें अपने सामाजिक-सांस्कृतिक और धार्मिक सोच में बदलाव भी करना होगा। 

आधुनिकता की इस दौड में कहाँ हैं लड़कियां?
गिरिजेश कुमार
आज के इस वैज्ञानिक युग में जहाँ हम खुद को चाँद पर देख रहे हैं वहीँ इस 21 वीं शताब्दी की कड़वी सच्चाई यह भी है कि हमारे  देश में  लडकियों के साथ दोहरा व्यवहार किया जाता है | आखिर हम किस युग में जी रहे हैंआधुनिकता की चादर ओढ़े इस देश में आधुनिकता कम फूहड़ता ज्यादा दिखती है किस आधुनिकता  की दुहाई देते हैं हम जब देश की आधी आबादी इससे वंचित है?

Tuesday, February 22, 2011

ऊपर से आने का, नीचे दबाने का...पेप्सी आहा

पेप्सी का यह कैम्पेन खासा लोकप्रिय हो रहा है। आपको यह कैसा लगा? फूहड़, रोचक , रचनात्मक या कुछ और? इसके लोकप्रिय होने की कोई वजह होगी। क्या है वह वजह? बेहतर हो कि हम लोकप्रियता की संस्कृति और उसके सामाजिक संदर्भों पर भी बात करें। इसकी भर्त्सना करना आसान है, पर क्या हम इसकी उपेक्षा कर सकते हैं? 

पेप्सी का कैम्पेन चेंज द गेम।

ऊपर से आने का

नीचे दबाने का

पीछे उठाने का हा..

हा...हा...हा

Monday, February 21, 2011

पीनट्स की जीवन दृष्टि



मेरे पास एक मेल आया था, जिसे पोस्ट कर रहा हूँ। एक सामान्य सी बात बताने के लिए कि लोग उसे याद रखते हैं जो उनके जीवन पर असर डालता है। बाकी बातें हवाई हैं
The CharlesSchulz Philosophy



cid:X.MA1.1288015315@aol.com

Sunday, February 20, 2011

बच्चे आत्महत्या क्यों कर रहे हैं?


ये बच्चे मध्यवर्गीय परिवारों के हैं। किसानों की आत्महत्याओं से इनका मामला अलग है। ये मानसिक दबाव में हैं। मानसिक दबाव पढ़ाई का, करियर का, पारिवारिक सम्बन्धों का, रोमांस का, रोमांच का। किसी वजह से हम इन्हें सुरक्षा-बोध दे पाने में विफल हैं। यानी पूरा समाज जिम्मेदार है। पर समाज माने क्या? समाज किस तरह सोचता है? समाज किसके सहारे सेचता है? मेरे विचार से हमें इस बारे में सोचना चाहिए कि उत्कृष्ट साहित्य और श्रेष्ठ विमर्श से समाज को दूर करने की कोशिशें भी तो इसके लिए ज़िम्मेदार नहीं? सामाजिक अलगाव के बारे में भी सोचें। यहाँ पढ़ें गिरिजेश कुमार का लेख।  

जिम्मेदार हैं बदलते पारिवारिक रिश्ते और सिकुड़ता सामाजिक परिवेश 
गिरिजेश कुमार



“पापा घर वापस आ जाइए और खुशी-खुशी खाना खाइए | लड़ाई-झगडा किसके घर नहीं होता? इसका मतलब खाना छोड़ देंगे | इससे आपका कोई नुकसान नहीं होता आपके बच्चों पर बुरा असर पड़ता है...मैं आपसे माफ़ी मांगती हूँ हो सके तो मुझे माफ कर दीजिए” यह बातें पिंकी ने अपने सुसाइड नोट में लिखी हैं | दसवीं कक्षा की छात्रा पिंकी ने सातवीं मंजिल से कूदकर आत्महत्या कर ली थी |

Saturday, February 19, 2011

अब ऑनलाइन वोटिंग के बारे में विचार करें

लखनऊ से श्री यशवंत माथुर ने मेरे पास एक लेख भेजा है ऑनलाइन वोटिंग पर। हालांकि हमारे देश में इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन से मतदान हो रहा है। उसे लेकर कुछ आपत्तियाँ भी हैं, पर उसका फायदा साफ देखने को मिला है। 


ऑनलाइन वोटिंग का मतलब है इंटरनेट या किसी दूसरे ज़रिए से वोटिंग। इसमें दिक्कत कुछ भी नहीं है। इस तरीके का इस्तेमाल अब काफी हो रहा है। पिछले दिनों आपने दुनिया के सात आश्चर्यों के बारे में फैसला ऑनलाइन वोटिंग से होता देखा। भारत के रियलिटी शो एसएमएस से वोटिंग कराते हैं। हम इनकम टैक्स रिटर्न जब ऑनलाइन भर सकते हैं तब वोट देने में दिक्कत नहीं होनी चाहिए। असली दिक्कत हार्डवेयर की है। अभी न तो उतने नेट कनेक्शन हैं और न उतनी अच्छी ब्रॉडबैंड सेवाएं।

Friday, February 18, 2011

एस्बेस्टस कारखाना

बिहार के मुजफ्फरपुर जिले में लग रहे एस्बेस्टस कारखाने के विरोध के सिलसिले में मेरे इस ब्लॉग पर गिरिजेश कुमार का लेख प्रकाशित हुआ था। इसे मैने अपने फेसबुक स्टेटस पर भी लगाया था। मेरा उद्देश्य विचार-विमर्श को आगे बढ़ाने का था। जब बात आगे बढ़ती है तब अनेक तथ्य भी सामने आते हैं। हमें नई बातें पता लगतीं हैं। कई बार हम अपनी दृढ़ धारणाओं से हटते भी हैं। फेसबुक पर चर्चाएं बहुत गम्भीर नहीं होतीं। गिरिजेश जी को उम्मीद थी कि उनकी बात का समर्थन करने वाले आगे आएंगे। कुछ लोगों ने समर्थन किया भी, पर एक मित्र उनसे सहमत नहीं हुए। गिरिजेश जी ने मुझे जो मेल लिखा है उसे मैं नीचे दे रहा हूँ। पर उसके पहले दो-एक बातें मैं अपनी तरफ से लिखना चाहता हूँ।

Thursday, February 17, 2011

प्रधानमंत्री के टीवी शो पर अखबारों की राय






हालांकि शो टीवी मीडिया का था पर प्रतिक्रियाएं अखबारों की माने रखतीं हैं। आज के अखबारों पर ध्यान दें प्रतिक्रयाएं एक जैसी नहीं हैं। कुछ अखबारों को प्रधानमंत्री की बात खबर ज्यादा लगी विचारणीय कम। टाइम्स ऑफ इंडिया का चलन है कि खबरों के साथ भी विचार लगा देता है, पर उसने प्रधानमंत्री के सम्पादक सम्मेलन पर टिप्पणी करना ठीक नहीं समझा। और सम्पादकीय पेज का खात्मा करने वाले डीएनए को आज यह पेज 1 पर सम्पादकीय लिखने लायक मौका लगा। हिन्दू ने परम्परा के अनुरूप इसपर शालीनता के साथ आलोचना से भरपूर सम्पादकीय लिखा। कोलकाता के टेलीग्राफ ने सम्पादकीय नहीं लिखा, पर मानिनी चटर्जी की खबर सम्पादकीय जैसी ही थी। हिन्दी में खास उल्लेखनीय कुछ नहीं था। पढ़ें अखबारों की राय

Wednesday, February 16, 2011

प्रधानमंत्री की प्रभावहीन टीवी कांफ्रेंस


 इसे सम्पादक सम्मेलन कहने को जी नहीं करता। सबसे पहले हिन्दी चैनल आज तक के सम्पादक के नाम पर आए उसके मालिक अरुण पुरी ने अंग्रेजी में सवाल किया। आज सुबह के टेलीग्राफ में राधिका रमाशेसन की खबर थी कि दो चैनलों के मालिकों को खासतौर पर आने को कहा गया है। दूसरे सम्पादक से उनका आशय बेशक प्रणय रॉय होंगे। प्रणय़ रॉय को हम मालिक कम सम्पादक ज्यादा मानते हैं। आज के सम्मेलन में उन्होंने ही सबसे सार्थक सवाल पूछे। अर्णब गोस्वामी के तेवरों पर ध्यान न दें तो वाजिब सवाल उनके भी थे।

Tuesday, February 15, 2011

सं रा सुरक्षा परिषद में बदलाव


हाल में ग्रुप-4 के देशों की न्यूयॉर्क में हुई बैठक के बाद जारी वक्तव्य में उम्मीद ज़ाहिर की गई है कि इस साल जनरल असेम्बली के सत्र में संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के सुधारों की दिशा में कोई ठोस कदम उठा लिया जाएगा। जी-4 देशों में भारत, जर्मनी, जापान और ब्राजील आते हैं। ये चार देश सुरक्षा परिषद की स्थायी सदस्यता के दावेदार हैं।

Monday, February 14, 2011

मुज़फ्फरपुर जिले का एस्बेस्टस कारखाना


मेरे ब्लॉग पर गिरिजेश कुमार का यह दूसरा आलेख है। इसमें वे विकास से जुड़े कुछ महत्वपूर्ण प्रश्नों को उठा रहे हैं। क्या इस कारखाने को स्वीकार करते वक्त पर्यावरणीय नियमों की अनदेखी हुई है। बेहतर हो कि यदि किसी के पास और जानकारी हो तो भेजें। इस आलेख के साथ दो चित्र हैं।  ये विरोध मार्च की तस्वीरें हैं| इसी मुद्दे पर पटना में १० फ़रवरी को आयोजित इस मार्च में कई बुद्धिजीवी शामिल हुए थे|  

Saturday, February 12, 2011

मिस्री बदलाव का निहितार्थ

 हुस्नी मुबारक का पतन क्या मिस्र में लोकतंत्र की स्थापना का प्रतीक है? मेरा ख्याल है कि मिस्र की परीक्षा की घड़ी अब शुरू हो रही है। हुस्नी मुबारक क्या अकेले तानाशाही चला रहे थे? वे सत्ता की कुंजी जिनके पास छोड़ गए हैं क्या वे लोकतंत्र की प्रतिमूर्ति हैं? मिस्र का दुर्भाग्य है कि वहाँ लम्बे अर्से से अलोकतांत्रिक व्यवस्था चल रही थी। लोकतंत्र जनता की मदद से चलता है पर उसकी संस्थाएं उसे चलातीं हैं। भारत में लोकतांत्रिक संस्थाएं खासी मजबूत हैं, फिर भी आए दिन घोटाले सामने आ रहे हैं।मिस्र को अभी काफी लम्बा रास्ता तय करना है। हाँ एक बात ज़रूर है कि इस आंदोलन से राष्ट्रीय आम राय ज़रूर बनी है।

Wednesday, February 9, 2011

स्कूल स्तर पर यौन शिक्षा

मैने अपने ब्लॉग पर दूसरे लेखकों की रचनाएं भी आमंत्रित की हैं। मेरा उद्देश्य इस प्लेटफॉर्म के मार्फत विचार-विमर्श को बढ़ावा देना है। आज इस सीरीज़ में यह पहला आलेख है। इसे पटना के श्री गिरिजेश कुमार ने भेजा है। उनका परिचय नीचे दिया गया है। लेख के अंत में मैने दो संदर्भ सूत्र जोड़े हैं। बेहतर हो कि आप अपनी राय दें। 


बचपन को विकृत करने की साज़िश 
गिरिजेश कुमार
काले परदे के पीछे भूमंडलीकरण का निःशब्द कदम धीरे-धीरे सभ्यता का प्रकाश मलिन कर जिस अंधकारमय जगत की ओर लोगों को ले जा रहा है वह चित्र देखने लायक आँखऔर समझने लायक मन आज कितने लोगों में हैप्रेम जैसी सुन्दर अनुभूति को भुलाकरचकाचौंध रोशनी के बीच शरीर का विकृत प्रदर्शन और सेक्स के माध्यम से समाज को विषाक्त बनाने की कोशिश हो रही हैइसी परिकल्पित प्रयास का ही एक नाम है- स्कूल स्तर पर यौन शिक्षा|

Tuesday, February 8, 2011

जीवन शैली के कार्टून

टेक्नॉलजी का इस्तेमाल कैसे होगा इसे कार्टूनिस्टों से बेहतर और कौन समझता है। आनन्द लें। ये कार्टून जिम बेंटन ने बनाए हैं। किड 3000 उनके 365 कार्टूनों की सीरीज़ है। नीचे पढ़ें विकीपीडिया से लिया गया उनका परिचय

Jim Benton (born October 31, 1960) is an American illustrator and writer. Licensed properties he has created include Dear Dumb Diary, Dog of Glee, Franny K. SteinIt's Happy Bunny, Just Jimmy, Just Plain Mean, Sweetypuss, The Misters, Meany Doodles, Vampy Doodles, Kissy Doodles, and the jOkObo project.

एओएल ने खरीदा हफिंगटन पोस्ट


खबर है कि अमेरिकन ऑनलाइन कम्पनी ने, जो अब एओएल के नाम से जानी जाती है, इंटरनेट के सबसे प्रभावशाली अखबार हफिंगटन पोस्ट को 31.5 करोड़ डॉलर में खरीदने का फैसला किया है। इस खबर के दो अर्थ हैं। एक तो यह कि हफिंगटन पोस्ट की ताकत को कुछ देर से ही सही पहचाना गया है और इंटरनेट के अखबारों की ताकत अब धीरे-धीरे बढ़ेगी। इस खबर के साथ यह खबर भी है कि हफिंगटन पोस्ट की मालकिन एरियाना हफिंगटन इस अखबार की प्रेसीडेंट होंगी, साथ ही वे एओएल की सम्पादकीय प्रमुख भी होंगी। यह खबर एओएल के भविष्य का संकेत भी है। एक साल पहले टाइम वार्नर के साथ आठ साल पुराना रिश्ता टूटने के बाद से एओएल का भविष्य भी डाँवाडोल है। 

Friday, February 4, 2011

क्या यह वैश्वीकरण की पराजय है?

आज एक अखबार में मिस्र के बारे में छपे आलेख को पढ़ते समय मेरी निगाहें इस बात पर रुकीं कि मिस्र का यह जनाक्रोश भूमंडलीकरण की पराजय का प्रारम्भ है। मुझे ऐसा नहीं लगता। मैं जनाक्रोश और उसके पीछे की लोकतांत्रिक आकांक्षाओं से सहमत हूँ और मानता हूँ कि ऐसे जनांदोलन अभी तमाम देशों में होंगे। भारत में भी किसी न किसी रूप में होंगे। बुनियादी फर्क सिर्फ वैश्वीकरण की मूल अवधारणा को लेकर है।

आलेख के लेखक की निगाह में वैश्वीकरण अपने आप में समस्या है। मेरी निगाह में वैश्वीकरण समस्या नहीं एक अनिवार्य प्रक्रिया है। और उसमें ही अनेक समस्याओं के समाधान छिपे हैं। इससे तो गुज़रना ही है। वैश्वीकरण के बगैर तो समाजवाद भी नहीं आएगा। कार्ल मार्क्स के वैज्ञानिक समाजवाद के लिए भी वैश्वीकरण अनिवार्य है। इस वैश्वीकरण को पूँजीवादी विकास और पूँजी का वैश्वीकरण लीड कर रहा है। पूँजीवाद और पूँजी के वैश्विक विस्तार पर आपत्ति समझ में आती है, पर संयोग से दुनिया में इस समय आर्थिक गतिविधियाँ पूँजी के मार्फत ही चल रहीं हैं। मिस्र में हुस्नी मुबारक की तानाशाही सरकार हटी भी तो जो व्यवस्था आएगी वह वर्तमान वैश्विक संरचना से अलग होगी यह मानने की बड़ी वजह दिखाई नहीं पड़ती।

Wednesday, February 2, 2011

क्या पाठक विचार पढ़ना नहीं चाहते?


सम्पादकीय पेज खत्म करने के बाद आज के डीएनए में उसके पाठकों की चिट्ठियाँ छपीं हैं। कुछ ने समर्थन किया है और कुछ ने असहमति जताई है। बेशक पाठक पसंद करें तो सब ठीक है, पर क्या अखबार ने सम्पादकीय पेज खत्म करने के पहले पाठकों से पूछा था?

कुछ लोग मानते हैं कि बाज़ार तय करता है कि सही क्या है और गलत क्या है। पर बाज़ार क्या सोचता है इसका पता कैसे लगता है? मुम्बई में बाज़ार का लीडर तो टाइम्स ऑफ इंडिया है। करीब दसेक साल पहले टाइम्स ऑफ इंडिया के लखनऊ संस्करण में सम्पादकीय पेज खत्म कर दिया गया था। सिर्फ पेज खत्म किया था। सम्पादकीय किसी पेज में छपते थे, मुख्य लेख किसी और पेज में पाठकों के पत्र किसी और पेज में। खैर टाइम्स ने बाद में सम्पादकीय पेज अपनी जगह वापस कर दिया। टाइम्स के सम्पादकीय पेज आज भी श्रेष्ठ है।

Tuesday, February 1, 2011

सम्पादकीय पेज विहीन डीएनए


डीएनए ने हिम्मत दिखाई और घोषणा करके एडिट पेज बन्द कर दिया। साथ में यह कहा कि इसे बहुत कम लोग पढ़ते हैं, बोरिंग होता है, अपनी ज़रूरत खो चुका है, सिर्फ जगह भरने का काम हो रहा था।

Monday, January 31, 2011

पावरफुल 100

कल मैने इंडियन एक्सप्रेस के 100 मोस्ट पावरफुल इंडियंस की सूची में से केवल मीडिया से जुड़े 12 नाम छापे थे। बड़ी संख्या में मित्रों ने अखबार का वह सप्लीमेंट नहीं देखा। संयोग से इस साल एक्सप्रेस की साइट पर भी वह उपलब्ध नहीं है। इस सूची के पूरे नाम नीचे दे रहा हूं ताकि आप देख सकें कि एक्सप्रेस के पावरफुल कौन हैं।

1. एसके कपाडिया,
2. सोनिया गांधी,
3.मनमोहन सिंह,
4.सुषमा स्वराज,
5.राहुल गांधी,
6.नितीश कुमार,

Sunday, January 30, 2011

पत्रकारिता के पावरफुल


100'11


इंडियन एक्सप्रेस ने पिछले कुछ वर्षों से देश के सबसे पावरफुल 100 लोगों की सूची छापनी शुरू की है। इस सूची को पढना रोचक है। देश के उच्च मध्यवर्ग के नज़रिए से बनी इस सूची के अनुसार सत्ता के गलियारों और बिजनेस हाउसों से जुड़े लोग देश के सबसे ताकतवर लोग होते हैं। सूची में पहला नाम सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश एसएच कपाडिया का है। उसके बाद सोनिया गांधी और फिर मनमोहन सिंह का नाम है। एक माने में यह सुप्रीम कोर्ट की ताकत है। पर पूरी सूची सूची में संसद की ताकत का प्रतिनिधि कोई नहीं है। 

Saturday, January 29, 2011

अरब देशों में लोकतांत्रिक क्रांति की बयार

ट्यूनीशिया ने दी प्रेरणा

हाल में अमेरिकी विदेशमंत्री हिलेरी क्लिंटन ने क़तर में कहा कि जनता भ्रष्ट संस्थाओं और जड़ राजनैतिक व्यवस्था से आज़िज़ आ चुकी है। उन्होंने इशारा किया कि इस इलाके की ज़मीन हिल रही है। हिलेरी क्लिंटन ट्यूनीशिया के संदर्भ में बोल रहीं थीं. उनकी बात पूरी होने के कुछ दिन के भीतर ही मिस्र से बगावत की खबरें आने लगीं हैं। मिस्र में लोकतांत्रिक आंदोलन भड़क उठा है। राष्ट्रपति हुस्नी मुबारक ने अपनी सरकार को बर्खास्त करके जिम्मेदारी अपने हाथ में ले ली है। पिछले दो-तीन हफ्तों से काहिरा और स्वेज में प्रदर्शन हो रहे थे. प्रधानमंत्री अहमद नज़ीफ ने हर तरह के प्रदर्शनों पर पाबंदी लगा दी थी, पर प्रदर्शन रुक नहीं रहे थे।

Thursday, January 27, 2011

वीर सांघवी और बरखा दत्त


लाइफ स्टाइल पत्रिका सोसायटी के जनवरी अंक में वीर सांघवी और बरखा दत्त के इंटरव्यू छपे हैं। इनमें दोनों पत्रकारों ने अपन पक्ष को रखा है। दोनों अपने पक्ष को अपने कॉलमों, वैबसाइट और चैनल पर पहले भी रख चुके हैं। यह पहला मौका है जब दोनों ने एक साथ एक जगह अपनी बात रखी। इसमें ज़ोर इस बात पर है कि राडिया टेप का विवरण छापने के लिए जिन लोगों ने दिया उन्होंने हम दोनों से जुड़े विवरण को साफ-साफ अलग से अंकित किया था। यह लीक हम दोनों को टार्गेट करने के वास्ते थी।

Wednesday, January 26, 2011

पद्म पुरस्कार और पत्रकार

टीजेएस जॉर्ज
इस साल के पद्म पुरस्कारों की सूची में सिर्फ दो पत्रकारों के नाम हैं। कॉलम्निस्ट टीजेएस जॉर्ज और देश की पहली महिला न्यूज़ फोटोग्राफर होमाई वयारवाला(Homai Vyarawala)। पुरस्कारों की सूची में राजनेता भी एक ही हैं। सूची में कलाकार, संगीतकार, अभिनेता वगैरह हैं, पर स्टार पत्रकार नहीं हैं। शायद इसकी एक वजह यह है कि राडिया टेप सूची में करीब आधा दर्जन पूर्व पद्म-अलंकृतों के नाम हैं। राष्ट्रीय पुरस्कारों के लिए यह गौरव की बात नहीं। 25 जनवरी को इन पुरस्कारों की घोषणा होने के पहले हवा में अनेक नाम तैर रहे थे। वह सब हवा में ही रह गया। 

भारतीय गणतंत्र का मीडिया



हमारा मीडिया क्या पूरी तरह स्वतंत्र है? 
सन 1757 में जब प्लासी के युद्ध में बंगाल के नवाब सिराजुद्दौला की सेना को ईस्ट इंडिया कम्पनी की मामूली सी फौज ने हराया था, तब इस देश में अखबार या खबरों को जनता तक पहुँचाने वाला मीडिया नहीं था। आधुनिक भारत के लिए वह खबर युगांतरकारी थी। सम्पूर्ण इतिहास में ऐसी ब्रेकिंग न्यूज़ उंगलियों पर गिनाई जा सकतीं हैं। पर उन खबरों पर सम्पादकीय नहीं लिखे गए। किसी टीवी शो में बातचीत नहीं हुई। पर 1857 की क्रांति होते-होते अखबार छपने लगे थे। ईस्ट इंडिया कम्पनी का मुख्यालय कोलकाता में था और वहीं से शुरूआती अखबार निकले। विलियम डैलरिम्पल ने अपनी पुस्तक द लास्ट मुगल में लिखा है कि पूरी बगावत के दौरान दिल्ली उर्दू अखबार और सिराज-उल-अखबार का प्रकाशन एक दिन के लिए भी नहीं रुका। आज इन अखबारों की कतरनें हमें इतिहास लिखने की सामग्री देतीं हैं। 

Tuesday, January 25, 2011

गलती जो हो गई


ग्राहम स्टेंस की हत्या के मामले में सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी पर कुछ लेखकों और सामाजिक कार्यकर्ताओं ने अपनी आपत्ति दर्ज कराते हुए एक प्रेस नोट ज़ारी किया। इसपर आधारित खबर हिन्दू में भी छपी। इसका रोचक पक्ष यह था कि खबर में कहा गया कि देश के प्रमुख सम्पादकों ने यह बयान जारी किया है। हैरत की बात थी कि सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी का विरोध करने वाले सम्पादकों में एन राम और चन्दन मित्रा के नाम एक साथ थे। 

Monday, January 24, 2011

मीडिया और मनमोहन सरकार


पिछले शुक्रवार को सीएनएन आईबीएन पर करन थापर के कार्यक्रम लास्ट वर्ड में मीडिया की राय जानने के लिए जिन तीन पत्रकारों को बुलाया गया था वे तीनों किसी न किसी तरह से पार्टियों से जुड़े थे। संजय बारू कुछ समय पहले प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के सलाहकार थे। चन्दन मित्रा का भाजपा से रिश्ता साफ है। वे भाजपा के सांसद भी हैं। इसी तरह हिन्दू के सम्पादक एन राम सीपीएम के सदस्य हैं। क्या यह अंतर्विरोध है? क्या मीडिया को तटस्थ नहीं होना चाहिए? ऐसे में मीडिया की साख का क्या होगा? इस बातचीत में संजय बारू ने यह सवाल उठाया भी।

Sunday, January 23, 2011

हमारे मीडिया का प्रभाव


1983 में राजेन्द्र माथुर ने टाइम्स ऑफ इंडिया में हिन्दी के दैनिक अखबारों की पत्रकारिता पर तीन लेखों की सीरीज़ में इस बात पर ज़ोर दिया था कि हिन्दी के पत्रकार को हिन्दी के शिखर राजनेता की संगत उस तरह नहीं मिली थी जिस तरह की वैचारिक संगत बंगाल के या दूसरी अन्य भारतीय भाषाओं के साहित्यकारों- पत्रकारों को मिली थी। आज़ादी से पहले या उसके बाद प्रेमचंद, गणेश शंकर विद्यार्थी या राहुल बारपुते को नेहरू जी की संगत नहीं मिली।

Friday, January 21, 2011

पारदर्शी और स्थिरमति समाज बनाइए

भारतीय समाज के बारे में मुझसे पूछें तो मुझे एकसाथ तमाम बातें सूझती हैं। हम एक ओर सभ्यता के अग्रगामी समाजों में से एक हैं वहीं दुनिया के निकृष्टतम कार्य हमारे यहाँ होते रहे हैं। हमारे पास विश्व की प्राचीनतम सभ्यता है। ज्ञान-विज्ञान, दर्शन, साहित्य और शिल्प तक हर क्षेत्र में उत्कृष्ट कार्यों की परम्परा है। फिर भी हम आज नकलची हैं। जीवन के किसी क्षेत्र में हम आज कुछ भी मौलिक काम नहीं कर रहे हैं। इसकी तमाम वजहों में से एक है कि हम खुले और ईमानदार विमर्श से भागते हैं। नई बातों को स्वीकार करने का माद्दा हममे नहीं है। अमेरिकी समाज की ताकत उसका इनोवेशन है। नई रचनात्मकता के लिए खुला और पूर्वग्रह रहित निश्छल मन चाहिए।

Saturday, January 15, 2011

एक साथ दो चैनलों में लाइव मणिशंकर

यह पोस्ट मैने मीडिया से जुड़े रोचक ब्लाग चुरुमुरी  से सीधे ली है। यह ब्लाग कर्नाटक के पत्रकारों से जुड़ा लगता है। अक्सर इसमें बड़ी रोचक बातें पढ़ने को मिलतीं हैं। इसमें एक दर्शक ने दो चैनलों में एक ही वक्त पर लाइव कार्यक्रमों में मणिशंकर अय्यर की उपस्थिति पर आश्चर्य व्यक्त किया गया है। टीवी चैनलों के लिए यह बात आश्चर्य का विषय नहीं है। वे लाइव कार्यक्रम के बीच जब रिकार्डेड सामग्री दिखाते हैं तो उसे भी लाइव दिखाते हैं। वस्तुतः टीवी मनोरंजन का मीडिया है इसमें कृत्रिम तरीके से किसी बात को पेश करना अटपटा नहीं माना जाता। कभी-कभार फाइल क्लिपिंग लगाते हैं तो ऊपर फाइल लिख देते हैं। हमेशा ऐसा होता भी नहीं। ब्रेकिंग न्यूज़ का भारतीय चैनलों ने जो अर्थ लगाया है वह यह है कि गुज़रे कल की खबर को भी ब्रेकिंग न्यूज़ मानो। 

NDTV, CNN-IBN and Mani Shankar Aiyar “Live”

14 January 2011
 
Reader Kollery S. Dharan forwards two screengrabs, shot with his mobile phone, of the 10 pm shows of NDTV 24×7 and CNN-IBN on Thursday, 13 January 2011.
Both channels carry the “live” logo on the top right-hand corner. And “live” on both channels at the same time on the same day is the diplomat-turned-politician Mani Shankar Aiyar.
For Barkha Dutt‘s show The Buck Stops Here (left), Aiyar, in a grey coat, offers his wisdom on the dynastic democracy thatPatrick French says India has become.
For Sagarika Ghose‘s show Face the Nation (right), Aiyar, now in a beige/ light brown coat, holds forth on Pakistan’s identity crisis. The two pictures were captured at 10.22 pm and 10.23 pm.
So, which channel had Mani Shankar Aiyar “live” last night? Or has Aiyar broken the time-space continuum?

Thursday, January 6, 2011

राष्ट्रपति के फोटो

राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल गोवा गईं और बीच पर भी जाकर वहाँ के माहौल को देखा तो इसमें क्या गलत था? और इस बीच भ्रमण के जो फोटोग्राफ छपे उनमें कुछ भी  अभद्र नहीं था। पर गोवा पुलिस ने फोटोग्राफरों को बुलाकर नैतिकता को जो पाठ बढ़ाया वह अभद्र ज़रूर था।