Monday, December 26, 2022

‘भारत जोड़ो यात्रा’ के 107 दिनों की उपलब्धि


राहुल गांधी की भारत जोड़ो यात्रा शनिवार सुबह दिल्ली में प्रवेश कर गई। दिल्ली के सात संसदीय क्षेत्रों में अलग-अलग पड़ाव के बाद यात्रा लालकिले पर जाकर कुछ दिन के लिए विसर्जित हो गई। अब नौ दिन के ब्रेक के बाद 3 जनवरी से यात्रा फिर शुरू होगी। दिल्ली में सोनिया गांधी, प्रियंका और रॉबर्ट वाड्रा भी यात्रा में शामिल हुए। पार्टी के वरिष्ठ नेता जयराम रमेश ने कहा कि यात्रा में शामिल होने के लिए किसी का भी स्वागत है, चाहे वह नितिन गडकरी हों, रक्षामंत्री राजनाथ हों या पूर्व वीपी वेंकैया नायडू हों। उन्होंने यह भी कहा कि यह यात्रा चुनावी यात्रा नहीं विचारधारा आधारित यात्रा है।

यात्रा के 107 दिन पूरे होने के बाद ऐसे विवेचन-विश्लेषण होने लगे हैं कि यात्रा ने राहुल गांधी या पार्टी को कोई लाभ पहुँचाया है या नहीं। ऐसे किसी भी विवेचन के पहले यह समझने की जरूरत है कि यात्रा का उद्देश्य क्या था और इसके बाद पार्टी की योजना क्या है। किस उद्देश्य का कितना हासिल हुआ वगैरह? यात्रा का एक प्रकट उद्देश्य है देश को जोड़ना, नफरत की भावना को परास्त करना वगैरह। इसका पता लगाना बहुत मुश्किल काम है कि इसने देश के लोगों के मन पर कितना असर डाला, कितनी नफरत कम हुई और कितना परस्पर प्रेम बढ़ा।

इसमें दो राय नहीं कि यात्रा का अघोषित उद्देश्य राहुल गांधी की छवि को बेहतर बनाना और लोकसभा-चुनाव में कांग्रेस पार्टी की संभावनाओं को बेहतर बनाना है। इसके अलावा एक उद्देश्य पार्टी में जान डालना, संगठन को चुस्त बनाना और उसे चुनाव के लिए तैयार करना है। इस मायने में मूल उद्देश्य ही 2024 है। भले ही इसकी घोषणा नहीं की जाए। अलबत्ता जयराम रमेश का कहना है कि 26 जनवरी से 26 मार्च तक हाथ से हाथ जोड़ोअभियान चलाया जाएगा जो भारत जोड़ो का संदेशा हर बूथ और ब्लॉक में पहुंचाएगा। बूथ और ब्लॉकचुनाव से जुड़े हैं। इस बात को पवन खेड़ा के बयान से पढ़ा जा सकता है। उन्होंने राहुल गांधी के 2024 में प्रधानमंत्री बनने से जुड़े सवाल पर कहा कि यह तो 2024 ही तय करेगा, लेकिन अगर आप हमसे पूछेंगे तो निश्चित रूप से राहुल गांधी को पीएम बनना चाहिए।

बेशक इस यात्रा से देश के लोगों को आपस में जुड़ने का मौका लगा और राहुल गांधी का व्यक्तित्व पहले से बेहतर निखर कर आया। यात्रा के दौरान आई भीड़ से यह भी पता लगा कि राहुल गांधी की लोकप्रियता भी अच्छी खासी है। इस लिहाज से यह यात्रा राजनीतिक-अभिव्यक्ति का अच्छा माध्यम साबित हुई। हमारा राष्ट्रीय-आंदोलन ऐसी यात्राओं के कारण सफल हुआ था। हमारा समाज परंपरा से यात्राओं पर यकीन करता है, भले ही वे धार्मिक-यात्राएं थीं, पर लोगों को जोड़ती थीं। पर ऐसी यात्रा केवल राहुल गांधी या कांग्रेस की थाती ही नहीं है। लालकृष्ण आडवाणी का मंदिर आंदोलन ऐसी ही यात्रा के सहारे आगे बढ़ा था।

तमाम राजनेताओं ने समाज से जुड़ने के लिए अतीत में यात्रा के इस रास्ते को पकड़ा था, पर प्रतिफल हमेशा वही नहीं रहा जो अभीप्सित था। राहुल गांधी की यात्रा के राजनीतिक उद्देश्य की सफलता-विफलता का पूरा पता 2024 में ही लगेगा। भीड़ और कुछ फोटोऑप्स इस सफलता के मापदंड नहीं हो सकते। इसके पीछे प्रचार की योजना भी साफ दिखाई पड़ रही है। 2024 में इसका प्रतिफल क्या होगा, उसे लेकर आज सिर्फ अनुमान और अटकलें ही लगाई जा सकती हैं। पर इसके राजनीतिक निहितार्थ को व्यावहारिक ज़मीन पर पढ़ने की कोशिश जरूर की जा सकती है।

Sunday, December 25, 2022

उथल-पुथल के दौर में गुजरता साल


देश की राजधानी में 2022 की शुरुआत ‘यलो-अलर्ट’ से हुई थी। साल का समापन भी कोविड-19 के नए अंदेशों के साथ हो रहा है। यों भी साल की उपलब्धियाँ महामारी पर विजय और आर्थिक पुनर्निर्माण से जुड़ी हैं। वह ज़माना अब नहीं है, जब हम केवल भारत की बात करें और दुनिया की अनदेखी कर दें। हमारी राजनीति, अर्थव्यवस्था और समाज पर यूक्रेन-युद्ध का भी उतना ही असर हुआ, जितना दो साल पहले कोविड-19 का हुआ था। कोविड-19, जलवायु-परिवर्तन और आर्थिक-मंदी वैश्विक बीमारियाँ हैं, जो हमारे जीवन और समाज को प्रभावित करती रहेंगी। खासतौर से तब, जब हमारी वैश्विक-उपस्थिति बढ़ रही है।

साल के आखिरी महीने की पहली तारीख को भारत ने जी-20 की अध्यक्षता ग्रहण करने के बाद 2023 की इस कहानी के पहले पन्ने पर दस्तखत कर दिए हैं। भारत को लेकर वैश्विक-दृष्टिकोण में बदलाव आया है। इसका पता इस साल मई में मोदी की यूरोप यात्रा के दौरान लगा। यूक्रेन पर रूसी हमले के बाद भारत ने दोनों पक्षों से दूरी बनाने का रुख अपनाया। इसकी अमेरिका और पश्चिमी देशों ने शुरू में आलोचना की। उन्हें यह समझने में समय लगा कि भारत दोनों पक्षों के बीच महत्वपूर्ण कड़ी साबित हो सकता है। यह बात हाल में बाली में हुए जी-20 शिखर सम्मेलन में भी स्पष्ट हुई, जहाँ नौबत बगैर-घोषणापत्र के सम्मेलन के समापन की थी। भारतीय हस्तक्षेप से घोषणापत्र जारी हो पाया।

यह साल आजादी के 75वें साल का समापन वर्ष था। अब देश ने अगले 25 साल के कुछ लक्ष्य तय किए हैं, जिन्हें प्रधानमंत्री ने ‘अमृतकाल’ घोषित किया है। इस साल 13 से 15 अगस्त के बीच हर घर तिरंगा अभियान के जरिए राष्ट्रीय चेतना जगाने का एक नया अभियान चला, जिसके लिए 20 जुलाई को एक आदेश के जरिए इस राष्ट्रीय-ध्वज कोड में संशोधन किया गया। 

राजनीतिक-दृष्टि से इस साल के चुनाव परिणाम काफी महत्वपूर्ण साबित हुए हैं। राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति पद के अलावा सात राज्यों के विधानसभा चुनावों ने राजनीति की दशा-दिशा का परिचय दिया। एक यक्ष-प्रश्न का उत्तर भी इस साल मिला और कांग्रेस ने गैर-गांधी अध्यक्ष चुन लिया। जम्मू-कश्मीर में पिछले एक साल में सुधरी कानून-व्यवस्था ने भी ध्यान खींचा है। पंडितों को निशाना बनाने की कुछ घटनाओं को छोड़ दें, तो लंबे अरसे से वहाँ हड़तालों और आंदोलनों की घोषणा नहीं हो रही है।

देश के 15वें राष्ट्रपति के रूप में श्रीमती द्रौपदी मुर्मू का चुनाव कई मायनों में ऐतिहासिक था। जनजातीय समाज से वे देश की पहली राष्ट्रपति बनीं। इसके अलावा वे देश की दूसरी महिला राष्ट्रपति हैं। यह चुनाव राजनीतिक-स्पर्धा भी थी। उनकी उम्मीदवारी का 44 छोटी-बड़ी पार्टियों ने समर्थन किया था, पर ज्यादा महत्वपूर्ण था, विरोधी दलों की कतार तोड़कर अनेक सांसदों और विधायकों का उनके पक्ष में मतदान करना। यह चुनाव बीजेपी का मास्टर-स्ट्रोक साबित हुआ, जिसका प्रमाण क्रॉस वोटिंग।

‘फूल-झाड़ू’ इस साल का राजनीतिक रूपक है। आम आदमी पार्टी बीजेपी की प्रतिस्पर्धी है, पूरक है या बी टीम है? इतना स्पष्ट है कि वह कांग्रेस की जड़ में दीमक का काम कर रही है। उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड और गुजरात में भारतीय जनता पार्टी की विजय भविष्य की राजनीति के लिहाज से महत्वपूर्ण रही। उत्तर प्रदेश में जिस किस्म की जीत मिली, उसकी उम्मीद उसके बहुत से समर्थकों को नहीं थी। वहीं, पंजाब में कांग्रेस की ऐसी पराजय की आशंका उसके नेतृत्व को भी नहीं रही होगी। आम आदमी पार्टी की असाधारण सफलता ने भी ध्यान खींचा। इससे पार्टी का हौसला बढ़ा और उसने गुजरात में बड़ी सफलता की घोषणाएं शुरू कर दीं। पार्टी को करीब 13 फीसदी वोट मिले, जिनके सहारे अब वह राष्ट्रीय पार्टी बन गई है। कांग्रेस को दिलासा के रूप में हिमाचल प्रदेश में सफलता मिली। एक बात धीरे-धीरे स्थापित हो रही है कि आम आदमी पार्टी को कांग्रेस के क्षय का लाभ मिल रहा है।

संविधान, संसद और सुशासन


संसद का शीतकालीन सत्र इस साल पूर्व निर्धारित समय से छह दिन पहले पूरा हो गया। पूर्व निर्धारित समय 29 दिसंबर था, पर वह 23 को ही पूरा हो गया। सत्र के दौरान दोनों सदनों से नौ विधेयक पास हुए। संसदीय कार्य मंत्रालय के अनुसार इस सत्र में लोकसभा में 97 प्रतिशत और राज्यसभा में 103 प्रतिशत उत्पादकता रही। यानी कई मायनों में यह सत्र उल्लेखनीय रहा, जिसमें कम समय में ज्यादा काम हो गया। तवांग में भारत-चीन मुठभेड़, कोविड-19 के नए खतरे, जजों की नियुक्ति और राहुल गांधी की भारत जोड़ो यात्रा में अड़ंगों की खबरों के बावजूद इस सत्र में उत्पादकता अच्छी रही। बीच में हंगामा भी हुआ, पर संसदीय कर्म चलता रहा। अलबत्ता एक बात रह-रहकर परेशान करती है। असहमतियाँ जीवंत लोकतंत्र की निशानी हैं, पर कुछ सवालों पर राष्ट्रीय आमराय भी होनी चाहिए। कुछ मामलों पर आमराय बनाने में हमारी राजनीति विफल क्यों है?  

श्रेष्ठ परंपराएं

संसदीय गतिविधियों को देखते हुए कुछ सवाल मन में आते हैं। श्रेष्ठ संसदीय कर्म क्या है और गुड-गवर्नेंस यानी सुशासन की संज्ञा किसे दें? समय से पहले सत्र का समापन होने पर चलते-चलाते कांग्रेस ने कहा कि यह सब राहुल गांधी की यात्रा को रोकने की कोशिश है। और यह भी कि सरकार चर्चा से भागना चाहती है, जबकि सरकार का कहना है कि दोनों सदनों की बिजनेस एडवाइज़री कमेटी की बैठक में सर्वसम्मति से सत्र जल्दी खत्म करने का फैसला किया गया। क्या इस सर्वसम्मति में कांग्रेस पार्टी शामिल नहीं थी? बहरहाल यह राजनीति है, जिसमें कहने और करने के बीच फर्क होता है। दोनों सदनों के पीठासीन अधिकारियों ने एकबार फिर से याद दिलाया कि मसलों पर असहमतियों और सहमतियों की अभिव्यक्ति चर्चा की गुणवत्ता के रूप में व्यक्त होनी चाहिए न कि गतिरोध के रूप में। पर व्यावहारिक राजनीति को ये बातें भी औपचारिकता ही लगता ही लगती हैं।

सुशासन दिवस

संविधान, संसद और सुशासन का करीबी रिश्ता है। तीनों साथ-साथ चलते हैं। 2014 में नरेंद्र मोदी की सरकार आने के बाद से नवंबर और दिसंबर के महीनों में दो महत्वपूर्ण कार्यक्रम शुरू किए गए। एक है 26 नवंबर को संविधान दिवस और दूसरा है 25 दिसंबर को सुशासन दिवस। 1949 की 26 नवंबर को हमारे संविधान को स्वीकार किया गया था। 2015 से संविधान दिवसमनाने की परंपरा शुरू की गई। उस साल संसद में दो दिन का विशेष अधिवेशन रखा गया, जिसमें सदस्यों ने जो विचार व्यक्त किए थे, उनपर गौर करने की जरूरत है। इसके एक साल पहले राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने 23 दिसंबर 2014 को पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी, और पंडित मदन मोहन मालवीय (मरणोपरांत) को भारत-रत्न से अलंकृत किया। उसके साथ ही यह घोषणा की गई कि अटल जी की जयंती को प्रतिवर्ष सुशासन-दिवस मनाया जाएगा। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 2014 में अटल बिहारी वाजपेयी के दृष्टिकोण 'अधिकतम शासन, न्यूनतम सरकार' को कार्यान्वित करने का वायदा किया था।

Wednesday, December 21, 2022

तवांग-प्रकरण और चीन की वैश्विक-राजनीति

 


देस-परदेश

गत 9 दिसंबर को तवांग के यांग्त्से क्षेत्र में हुई हिंसक भिड़ंत को भारत-चीन रिश्तों के अलावा वैश्विक-संदर्भों में भी देखने की जरूरत है. अक्तूबर के महीने में हुई चीनी कम्युनिस्ट पार्टी की बीसवीं कांग्रेस से दो संदेश निकल कर आए थे. एक, राष्ट्रपति शी चिनफिंग की निजी ताकत में इज़ाफा और उनके नेतृत्व में चीन की आक्रामक मुद्रा. दूसरी तरफ उसके सामने खड़ी मुसीबतें भी कम नहीं हैं, खासतौर से कोविड-19 वहाँ फिर से जाग गया है. 

पिछले साल फरवरी में रूस के यूक्रेन पर हमले के बाद से विश्व-व्यवस्था को लेकर कुछ बुनियादी धारणाएं ध्वस्त हुई हैं. इनमें सबसे बड़ी धारणा यह थी कि अब देशों के बीच लड़ाइयों का ज़माना नहीं रहा. यूक्रेन के बाद ताइवान को लेकर चीनी गर्जन-तर्जन को देखते हुए सारे सिद्धांत बदल रहे हैं. दक्षिण चीन सागर में चीन संरा समुद्री कानून संधि का खुला उल्लंघन करके विश्व-व्यवस्था को चुनौती दे रहा है.

अभी तक माना जा रहा था कि जब दुनिया के सभी देशों का आपसी व्यापार एक-दूसरे से हो रहा है, तब युद्ध की स्थितियाँ बनेंगी नहीं, क्योंकि सब एक-दूसरे पर आश्रित हैं. एक विचार यह भी था कि जब पश्चिमी देशों के साथ चीन की अर्थव्यवस्था काफी जुड़ गई है, तब मार्केट-मुखी चीन इस व्यवस्था को तोड़ना नहीं चाहेगा. पर हो कुछ और रहा है.

एक गलतफहमी यह भी थी कि अमेरिका और पश्चिमी देशों की आर्थिक-पाबंदियों का तोड़ निकाल पाना किसी देश के बस की बात नहीं. उसे भी रूस ने ध्वस्त कर दिया है. परंपराएं टूट रही हैं, भरोसा खत्म हो रहा है. ऐसा लगता है कि जैसे बदहवासी का दौर है.

भारतीय दुविधा

इस लिहाज से भारत को भी अपनी विदेश और रक्षा-नीति पर विचार करना जरूरी हो गया है. आंतरिक राजनीति में जो भी कहा जाए, चीनी आक्रामकता का जवाब फौजी हमले से नहीं दिया जा सकता. इन बातों का निपटारा डिप्लोमैटिक तरीकों से ही होगा. अलबत्ता भारत को अपनी आर्थिक, सैनिक और राजनयिक-शक्ति को बढ़ाना और उसका समझदारी से इस्तेमाल करना होगा. साथ ही वैश्विक-समीकरणों को ठीक से समझना भी होगा.

तवांग-प्रकरण के साथ तीन परिघटनाओं पर ध्यान देने की जरूरत है. एक, भारत के अग्नि-5 मिसाइल का परीक्षण. दो, अमेरिका का रक्षा-बजट, जो 858 अरब डॉलर के साथ इतिहास का सबसे बड़ा सैनिक खर्च तो है ही, साथ ही उससे चीन से मुकाबले की प्रतिध्वनि आ रही है. तीसरी परिघटना है जापान की रक्षा-नीति में बड़ा बदलाव, जिसमें आने वाले समय के खतरनाक संकेत छिपे है.

चुनौतियाँ

यह सब रूस-यूक्रेन युद्ध की पृष्ठभूमि में हो रहा है, जिसका अंत होता अभी दिखाई नहीं पड़ता. इन सब बातों के अलावा उत्तरी कोरिया और पश्चिम एशिया और अफ्रीकी देशों में सक्रिय अल कायदा, बोको हराम और इस्लामिक स्टेट जैसे अतिवादी समूहों की चुनौतियाँ भी हैं.

चीनी अर्थव्यवस्था का विस्तार अंततः उसकी भिड़ंत अमेरिका जैसी ताकतों से कराएगा ही साथ ही ऐसी ताकतों से भी कराएगा, जो वैधानिक-व्यवस्था के दायरे से बाहर हैं. इनमें समुद्री डाकुओं और संगठित अपराध का नेटवर्क शामिल है. थोड़ी देर के लिए लगता है कि दुनिया एकबार फिर से दो ध्रुवीय होने वाली है, पर अब यह आसान नहीं है. इसका कोई नया रूप ही बनेगा और इसमें भारत की भूमिका भी महत्वपूर्ण होगी.

विश्व-व्यवस्था

ज्यादा बड़ी समस्या वैश्विक-व्यवस्था यानी ग्लोबल ऑर्डर से जुड़ी है. आज की विश्व-व्यवस्था की अघोषित धुरी है अमेरिका और उसके पीछे खड़े पश्चिमी देश. इसकी शुरुआत पहले विश्व-युद्ध के बाद से हुई है, जब अमेरिकी राष्ट्रपति वुडरो विल्सन ने लीग ऑफ नेशंस के मार्फत नई विश्व-व्यवस्था कायम करने का ठेका उठाया. दूसरे विश्वयुद्ध के बाद गठित संयुक्त राष्ट्र और दूसरी अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं के पीछे अमेरिका है.

उसके पहले उन्नीसवीं सदी में एक और अमेरिकी राष्ट्रपति जेम्स मुनरो ने अमेरिका के महाशक्ति बनने की घोषणा कर दी थी. बहरहाल बीसवीं सदी में अमेरिका और उसके साथ वैश्विक-थानेदार बने रहे. पर यह अनंतकाल तक नहीं चलेगा. और जरूरी नहीं कि उसी तौर-तरीके से चले जैसे अभी तक चला आ रहा था. इक्कीसवीं सदी में चीन की महत्वाकांक्षाएं उभर कर सामने आ रही हैं. पर यह राह सरल नहीं है. भारत को किसी का पिछलग्गू बनने के बजाय अपनी स्वतंत्र राह पर चलना है.

Sunday, December 18, 2022

भारत-चीन टकराव और आंतरिक राजनीति


गत 9 दिसंबर को अरुणाचल प्रदेश के तवांग सेक्टर में भारतीय और चीनी सैनिकों के बीच हिंसक झड़पें अंतरराष्ट्रीय घटनाक्रम से ज्यादा भारतीय राजनीति का विषय बन गई हैं। पाकिस्तान ने संरा में जहाँ कश्मीर के मसले को उठाया है और उनके विदेशमंत्री बिलावल भुट्टो ने नरेंद्र मोदी पर बेहूदा टिप्पणी की है, वहीं इसी अंदाज में आंतरिक राजनीति के स्वर सुनाई पड़े हैं। भारत के विदेशमंत्री जहाँ चीन-पाक गठजोड़ पर प्रहार कर रहे हैं, वहीं आंतरिक राजनीति नरेंद्र मोदी और उनकी सरकार पर वार कर रही है। तवांग-प्रकरण देश की सुरक्षा और आत्म-सम्मान से जुड़ा है, पर आंतरिक राजनीति के अंतर्विरोधों ने इसे दूसरा मोड़ दे दिया है। इस हफ्ते संरा सुरक्षा परिषद में भारत की अध्यक्षता में वैश्विक आतंकवाद को लेकर कुछ सवाल उठाए गए हैं, जिनके कारण भारत-चीन और पाकिस्तान के रिश्तों की तल्खी एकबार फिर से साथ उभर कर आई है।

टकराव और कारोबार

क्या वजह है कि नियंत्रण रेखा पर चीन ऐसी हरकतें करता रहता है, जिससे बदमज़गी बनी हुई है? पिछले दो-ढाई साल से पूर्वी लद्दाख में यह सब चल रहा था। अब पूर्वोत्तर में छेड़खानी का मतलब क्या है? क्या वजह है कि लद्दाख-प्रकरण में भी सोलह दौर की बातचीत के बावजूद चीनी सेना अप्रेल 2020 से पहले की स्थिति में वापस नहीं गई हैं? यह भारतीय राजनय की विफलता है या चीनी हठधर्मी है? सुरक्षा और राजनयिक मसलों के अलावा चीन के साथ आर्थिक रिश्तों से जुड़े मसले भी हैं। चीन के साथ जहाँ सामरिक रिश्ते खराब हो रहे हैं, वहीं कारोबारी रिश्ते बढ़ रहे हैं। 2019-20 में दोनों देशों के बीच 86 अरब डॉलर का कारोबार हुआ था, जो 2021-22 में बढ़कर 115 अरब डॉलर हो गया। इसमें आयात करीब 94 अरब डॉलर और निर्यात करीब 21 अरब डॉलर का था। तमाम प्रयास करने के बावजूद हम अपनी सप्लाई चेन को बदल नहीं पाए हैं। यह सब एक झटके में संभव भी नहीं है।

क्या लड़ाई छेड़ दें?

राहुल गांधी के बयान ने आग में घी का काम किया। उन्होंने ‘भारत जोड़ो यात्रा’ को राजनीतिक बयानों से अब तक अलग रखा था, पर अब वे अपने आपको रोक नहीं पाए। उन्होंने कहा, चीन हमारे सैनिकों को पीट रहा है और देश की सरकार सोई हुई है। फौरन बीजेपी का जवाब आया, राहुल गांधी के नाना जी सो रहे थे और सोते-सोते उन्होंने भारत का 37000 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र गँवा दिया। इस जवाबी कव्वाली से इस प्रसंग की गंभीरता प्रभावित हुई है। सवाल है कि भारत क्या करे? क्या लड़ाई शुरू कर दे? अभी तक माना यही जाता है कि बातचीत ही एक रास्ता है। इसमें काफी धैर्य की जरूरत होती है, पर ऐसे बयान उकसाते हैं। यूपीए की सरकार के दौरान भी ऐसी कार्रवाइयाँ हुई हैं, तब मनमोहन सिंह की तत्कालीन सरकार ने मीडिया से कहा था कि वे चीन के साथ सीमा पर होने वाली गतिविधियों को ओवरप्ले न करें। इतना ही नहीं एक राष्ट्रीय दैनिक के दो पत्रकारों के खिलाफ एफआईआर दर्ज भी की गई थी। 2013 में भारत के पूर्व विदेश सचिव श्याम सरन ने अपनी एक रिपोर्ट में कहा था कि चीन ने पूर्वी लद्दाख में इसी किस्म की गश्त से भारत का 640 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र हथिया लिया है। श्याम सरन तब राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार बोर्ड के अध्यक्ष थे। पहले सरकार ने और फिर श्याम सरन ने भी इस रिपोर्ट का खंडन कर दिया। भारत ने उस साल चीन के साथ बॉर्डर डिफेंस कोऑपरेशन एग्रीमेंट (बीसीडीए) पर हस्ताक्षर किए थे। बावजूद इसके उसी साल अप्रैल में देपसांग इलाके में चीनी घुसपैठ हुई और उसके अगले साल चुमार इलाके में। दरअसल चीन के साथ 1993, 1996, 2005 और 2012 में भी ऐसे ही समझौते हुए थे, पर सीमा को लेकर चीन के दावे हर साल बदलते रहे।

किसने किसको पीटा?

9 दिसंबर को तवांग के यांग्त्से क्षेत्र में हुई घटना का विस्तृत विवरण अभी उपलब्ध नहीं है। कुछ वीडियो सोशल मीडिया में वायरल हुए हैं, पर उन्हें विश्वसनीय नहीं माना जा सकता। फिर भी यह नहीं कहा जा सकता कि चीनी सैनिकों ने भारतीय सैनिकों को पीटा है। गलवान में भारतीय सैनिकों को मृत्यु की सूचना सेना और रक्षा मंत्रालय ने घटना के दिन ही दे दी थी। इस घटना की सूचना रक्षामंत्री राजनाथ सिंह ने 13 दिसंबर को संसद के दोनों सदनों में दी है। प्राप्त सूचनाओं से दो बातें स्पष्ट हो रही हैं। एक यह कि चीनी सैनिकों ने पहाड़ी की चोटी पर एक भारतीय चौकी पर कब्जा करने की कोशिश की थी, जिसमें उन्हें सफलता नहीं मिली और वापस जाना पड़ा। दूसरी तरफ चीनी सेना के प्रवक्ता ने कहा है कि पीएलए (चीनी सेना) का दस्ता चीनी भूभाग पर रोजमर्रा गश्त लगा रहा था, तभी भारतीय सैनिक चीन के हिस्से में आ गए और उन्होंने चीनी सैनिकों को रोका। इस टकराव में दोनों पक्षों को सैनिकों को चोटें आई हैं, पर यह भी बताया जाता है कि चीनी सैनिकों को ज्यादा नुकसान हुआ। बताया जाता है कि टकराव के समय चीन के 300 से 600 के बीच सैनिक उपस्थित थे। सामान्य गश्त में इतने सैनिक नहीं होते। वस्तुतः चीन इस इलाके पर नियंत्रण स्थापित करने की कोशिश कई बार कर चुका है। अक्तूबर, 2021 में भी यांग्त्से में चीन ने 17,000 फुट ऊँची इस चोटी पर कब्जा करने का प्रयास किया था। इस चोटी से नियंत्रण रेखा के दोनों तरफ के क्षेत्र का व्यापक पर्यवेक्षण संभव है। इस समय भारतीय वायुसेना भी इस इलाके में टोही उड़ानें भर रही है।