भारत की अर्थव्यवस्था (जीडीपी) चालू वित्त वर्ष की पहली तिमाही (अप्रैल-जून) में 13.5 फीसदी बढ़ी है। सामान्य-दृष्टि से इस संख्या को बहुत उत्साहवर्धक माना जाएगा, पर वस्तुतः यह उम्मीद से कम है। विशेषज्ञों का पूर्वानुमान 15 से 16 प्रतिशत का था, जबकि रिज़र्व बैंक को 16.7 प्रतिशत की उम्मीद थी। अब इस वित्त वर्ष के लिए ग्रोथ के अनुमान को विशेषज्ञ 7.2 और 7.5 प्रतिशत से घटाकर 6.8 से 7.00 प्रतिशत मानकर चल रहे हैं। राष्ट्रीय सांख्यिकी कार्यालय की ओर से 31 अगस्त को जारी आँकड़ों के अनुसार जीडीपी की इस वृद्ध में सेवा गतिविधियों में सुधार की भूमिका है, बावजूद इसके व्यापार, होटल और परिवहन क्षेत्र की वृद्धि दर अब भी महामारी के पूर्व स्तर (वित्त वर्ष 2020 की जून तिमाही) से कम है। हालांकि हॉस्पिटैलिटी से जुड़ी गतिविधियों में तेजी आई है। जीडीपी में करीब 60 फीसदी की हिस्सेदारी रखने वाले, उपभोग ने जून की तिमाही में 29 फीसदी की मजबूत वृद्धि दर्ज की।
नागरिक का भरोसा
उपभोक्ताओं ने पिछले कुछ समय में जिस जरूरत को
टाला था, उसकी वापसी से निजी व्यय में इजाफा हुआ है।
इससे इशारा मिलता है कि खर्च को लेकर उपभोक्ताओं
का भरोसा बढ़ा है। ‘पर्चेजिंग मैनेजर्स इंडेक्स’ (पीएमआई), क्षमता का उपयोग, टैक्स उगाही, वाहनों
की बिक्री के आँकड़े जैसे सूचकांक बताते हैं कि इस वित्त वर्ष के पहले कुछ महीनों
में वृद्धि की गति तेज रही। अगस्त में मैन्युफैक्चरिंग की पीएमआई 56.2 थी, जो जुलाई में 56.4 थी। यह मामूली वृद्धि है, पर मांग में तेजी और
महंगाई की चिंता घटने के कारण वृद्धि को मजबूती मिली है। खाद्य सामग्री से इतर
चीजों के लिए बैंक क्रेडिट में मजबूत वृद्धि भी मांग में सुधार का संकेत देती है। दूसरी
तरफ सरकारी खर्च महज 1.3 फीसदी बढ़ा है। सरकार राजकोषीय घाटे को काबू करने पर
ध्यान दे रही है।
बेहतरी की ओर
जीडीपी के ये आँकड़े अर्थव्यवस्था की पूरी तस्वीर को पेश नहीं करते हैं, पर इनके सहारे काफी बातें स्पष्ट हो रही हैं। पहला निष्कर्ष है कि कोविड और उसके पहले से चली आ रही मंदी की प्रवृत्ति को हमारी अर्थव्यवस्था पीछे छोड़कर बेहतरी की ओर बढ़ रही है। पर उसकी गति उतनी तेज नहीं है, जितना रिजर्व बैंक जैसी संस्थाओं को उम्मीद थी। इसकी वजह वैश्विक-गतिविधियाँ भी हैं। घरेलू आर्थिक गतिविधियों में व्यापक सुधार अभी नहीं आया है। आने वाले समय में ऊँची महंगाई, कॉरपोरेट लाभ में कमी, मांग को घटाने वाली मौद्रिक नीतियों और वैश्विक वृद्धि की मंद पड़ती संभावनाओं के रूप में वैश्विक चुनौतियों का अंदेशा बना हुआ है। मुद्रास्फीति को काबू में करने के लिए ब्याज दरें बढ़ने से अर्थव्यवस्था में तरलता की कमी आई है, जिससे पूँजी निवेश कम हुआ है। नए उद्योगों और कारोबारों के शुरू नहीं होने से रोजगार-सृजन पर विपरीत प्रभाव पड़ा है। इससे उपभोक्ता सामग्री की माँग कम होगी। सरकारी खर्च बढ़ने से इस कमी को कुछ देर के लिए ठीक किया जा सकता है, पर सरकार पर कर्ज बढ़ेगा, जिसका ब्याज चुकाने की वजह से भविष्य के सरकारी खर्चों पर विपरीत प्रभाव पड़ेगा और विकास-योजनाएं ठप पड़ेंगी। इस वात्याचक्र को समझने और उसे दुरुस्त करने की एक व्यवस्था है। भारत सही रास्ते पर है, पर वैश्विक-परिस्थितियाँ आड़े आ रही हैं। अच्छी खबर यह है कि पेट्रोलियम की कीमतें गिरने लगी हैं।