Wednesday, September 8, 2021

तालिबान की इस सरकार को दुनिया आसानी से मान्यता नहीं देगी

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तालिबान ने अफ़ग़ानिस्तान में नई सरकार की कमान जिन हाथों में दी है वे अमेरिकी सरकार की चिंता बढ़ाने वाले हैं। अमेरिकी प्रतिनिधि जलमय खलीलज़ाद ने दोहा में तालिबान के जिन प्रतिनिधियों के साथ बात करके समझौता किया था, वे लचीले तालिबानी थे, पर सरकार में उनकी हैसियत महत्वपूर्ण नहीं है। कहना मुश्किल है कि वे आने वाले समय में अमेरिका या पश्चिमी देशों को समझ में आएंगे। अमेरिका अभी यह भी देखना चाहेगा कि इस सरकार के साथ अल कायदा के रिश्ते किस प्रकार के हैं। सरकार में कई लोग ऐसे हैं जिन्हें या तो संयुक्त राष्ट्र ने आतंकवादियों की सूची में डाल रखा है या जिनकी अमेरिका को तलाश है। नए गृहमंत्री सिराजुद्दीन हक्कानी पर तो अमेरिका ने 50 लाख डॉलर का इनाम घोषित कर रखा है। अमेरिका को दूसरी चिंता अफगानिस्तान में बढ़ते चीनी प्रभाव की है। मंगलवार को जो बाइडेन ने कहा कि अब चीन इस इलाके में अपना असर बढ़ाने की कोशिश ज़रूर करेगा।

बीबीसी हिंदी ने समाचार एजेंसी रॉयटर्स को उधृत करते हुए लिखा है कि बाइडेन से पत्रकारों ने पूछा, क्या आप इस बात से चिंतित हैं कि अमेरिका ने जिसे प्रतिबंधित कर रखा है, उसे चीन फंड देगा? इस पर बाइडन ने कहा, चीन एक वास्तविक समस्या है। वह तालिबान के साथ व्यवस्था बनाने की कोशिश करने जा रहा है। पाकिस्तान, रूस, ईरान सभी अपनी रणनीति पर काम कर रहे हैं। उधर ईयू ने कहा है कि तालिबानी सरकार समावेशी नहीं है और उसमें उचित प्रतिनिधित्व भी नहीं है। नई सरकार में सभी समुदायों का प्रतिनिधित्व नहीं हैं। खासतौर से स्त्रियाँ और शिया शामिल नहीं हैं।

कहा यह भी जा रहा है कि तालिबान बगराम एयरबेस चीन के हवाले कर सकता है। अलबत्ता मंगलवार को चीनी विदेश मंत्रालय ने अपनी दैनिक प्रेस कॉन्फ्रेंस में इस सम्भावना को ख़ारिज किया। पर क्या मौखिक रूप से खारिज कर देने के बाद खत्म हो जाती है?  अफगानिस्तान को छोड़ते समय अमेरिकी ने सीआईए के अपने दफ्तर की लगभग सारी चीजें फूँक दीं, पर न जाने कितने प्रकार के गोपनीय सूत्र अमेरिका यहाँ छोड़कर गया है। चीन की दिलचस्पी इन बातों में होगी।

अमेरिका और रूस के बीच क्या सम्पर्क-सेतु का काम करेगा भारत?

निकोल पत्रुशेव के साथ अजित डोभाल

दिल्ली में रूस की सिक्योरिटी कौंसिल के प्रमुख और अमेरिका की खुफिया एजेंसी सीआईए के प्रमुख का एकसाथ होना महत्वपूर्ण समाचार है।
सीआईए चीफ विलियम बर्न्स मंगलवार 7 सितम्बर को दिल्ली पहुंचे थे। उन्होंने राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजित डोभाल से मुलाकात की थी। इस चर्चा में तालिबान की सरकार के गठन और अफगानिस्तान से लोगों को निकालने के प्रयासों पर बात हुई। अब आज बुधवार को रूस की सुरक्षा परिषद के सचिव जनरल निकोल पत्रुशेव दिल्ली आए हैं। उन्होंने रक्षा सलाहकार अजित डोभाल से मुलाकात की है। इनके अलावा वे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और विदेशमंत्री एस जयशंकर से भी मुलाकात कर रहे हैं।

अफगानिस्तान के बदले घटनाक्रम को लेकर पर्यवेक्षकों में मन में इस बात को लेकर सवाल हैं कि भारतीय विदेश-नीति की दिशा क्या है? अफगानिस्तान में सरकार बनने में हुई देरी के कारण अभी तालिबान को मान्यता देने के सवाल पर असमंजस है। तालिबान के भीतर अभी कई प्रकार के अंतर्विरोध हैं, जो देर-सबेर सामने आएंगे। तालिबान के पास लड़ाई का अनुभव है, सरकार चलाने का नहीं। दूसरे उन्होंने दुनिया से कई तरह के वायदे कर रखे हैं, पर वायदे करने वाले धड़े की भूमिका सरकार में कमज़ोर है। बहरहाल फिर भी देर-सबेर भारत नई सरकार को मान्यता दे सकता है, पर ज्यादा बड़ा सवाल यह है कि वैश्विक राजनीति किस दिशा में जाने वाली है। भारत ने पहले ही कहा कि जब लोकतांत्रिक ब्लॉक तालिबान को मान्यता देगा, हम भी दे देंगे।

अमेरिका और रूस के अधिकारियों के साथ दिल्ली में बैठक ऐसे मौके पर हुई है, जब तालिबान ने अंतरिम सरकार का एलान कर दिया है। इसके अलावा आने वाले दिनों में पीएम नरेंद्र मोदी क्वॉड शिखर सम्मेलन और शंघाई सहयोग संगठन की बैठकों में हिस्सा लेने वाले हैं। इस महीने नरेंद्र मोदी तीन दिन की अमेरिका-यात्रा पर जा रहे हैं। उसी दौरान क्वॉड का शिखर सम्मेलन भी होगा। इससे पहले 16-17 सितम्बर को ताजिकिस्तान की राजधानी दुशान्बे में शंघाई सहयोग संगठन का शिखर सम्मेलन होने वाला है। और आज भारत ब्रिक्स का शिखर सम्मेलन आयोजित करने जा रहा है।

Tuesday, September 7, 2021

ब्रेकथ्रू-इंफेक्शन और वैक्सीन को लेकर उठे नए सवाल


देश में कोरोना के नए मामलों की संख्या में आ रही गिरावट में उतार-चढ़ाव देखने को मिल रहा है। उत्तर भारत में गिरावट जारी है, पर केरल में एक नई प्रवृत्ति देखने को मिल रही है। वहाँ नौ जिलों में वैक्सीन की दोनों डोज ले चुके लोग बड़ी संख्या में कोविड पॉजिटिव पाए गए हैं। पिछले कुछ दिनों में संक्रमण के ऐसे 40,000 केस सामने आ चुके हैं। इनमें भी पथनामथिट्टा की रिपोर्ट बहुत चिंताजनक है। वायनाड में करीब-करीब सौ फीसदी टीकाकरण हुआ है, पर ब्रेकथ्रू के मामले वहां भी हैं।

दूसरी डोज के बाद कुल ब्रेकथ्रू इंफेक्शन के 46 प्रतिशत केस केरल में आए हैं।  केरल में करीब 80 हजार ब्रेकथ्रू इंफेक्शन (टीका लेने के बाद संक्रमण) के मामले सामने आए हैं। इनमें करीब 40 हजार दूसरी डोज के बाद के हैं। इतने ज्यादा मामलों को देखते हुए केंद्र ने राज्य सरकार से सभी मामलों की जीनोम सीक्वेंसिंग कर पता लगाने को कहा कि कहीं नया वेरिएंट तो यह सब नहीं कर रहा।

ब्रेकथ्रू-इंफेक्शन

अमेरिका के सेंटर फॉर डिजीज कंट्रोल एंड प्रिवेंशन (सीडीसी) के अनुसार, ब्रेकथ्रू इंफेक्शन उसे कहते हैं जब वैक्सीन की दोनों डोज लेने के 14 दिन या उससे ज्यादा समय बाद कोई व्यक्ति कोरोना पॉजिटिव पाया जाए। ऐसे में पहला शक होता है कि कहीं ऐसा कोई वेरिएंट तो नहीं फैल रहा जो टीके से हासिल इम्यूनिटी को ध्वस्त कर रहा हो। केरल में छह सदस्यीय केंद्रीय टीम भेजी गई थी जिसने अपने शुरुआती आकलन में बताया कि ब्रेकथ्रू इंफेक्शन कोवैक्सीन और कोवीशील्ड दोनों ही वैक्सीन लगवाने वाले लोगों में मिले हैं।

Sunday, September 5, 2021

तालिबान सरकार को क्या मान्यता मिलेगी?


28 जुलाई 2021 को चीन के तियानजिन शहर में तालिबान प्रतिनिधि मुल्ला बरादर
और चीनी विदेशमंत्री वांग यी।

अफगानिस्तान में नई सरकार बन जाने के बाद अब अगला सवाल है कि क्या दुनिया इस सरकार को स्वीकार करेगी? स्वीकार करना यानी पहले मान्यता देना, फिर उसके पुनर्निर्माण में सहायता देना। केवल भारत के नजरिए से देखें, तो यह सवाल और ज्यादा पेचीदा है। भारतीय दृष्टिकोण के साथ यह बात भी जुड़ी है कि तालिबान के पाकिस्तान के साथ रिश्ते किस प्रकार के होंगे। कहा जा रहा है कि जिस प्रकार भारत ने सन 1949 में चीन में हुए सत्ता-परिवर्तन के बाद मान्यता देने में जल्दबाजी की थी, वैसा नहीं होना चाहिए।

फिलहाल ज्यादातर सवाल अमेरिका की नीति से जुड़े हैं। इसके अलावा इस बात पर भी कि संयुक्त राष्ट्र और सुरक्षा परिषद में आमराय क्या बनती है। क्या तालिबान सरकार के नेतृत्व में अफगानिस्तान को संरा की सदस्यता मिलेगी? क्या तालिबान पर लगे सुरक्षा परिषद के प्रतिबंध हटेंगे? संयुक्त अमेरिका से आए बयानों में कहा गया है कि जो अफगानिस्तान सरकार अपने देशवासियों के मानवाधिकार की रक्षा करेगी और अपनी जमीन से आतंकवाद का प्रसार नहीं करेगी, उसके साथ हम मिलकर काम करेंगे। वहाँ के विदेशमंत्री एंटनी ब्लिंकेन ने कहा है कि हम तालिबान के बयानों के आधार पर फैसला नहीं करेंगे, बल्कि देखेंगे कि उसका व्यवहार कैसा है।

अमेरिका की भूमिका

लगता यह है कि ज्यादातर देश विचार-मंथन में समय लगा रहे हैं। जरूरी नहीं कि कोई देश अफगान सरकार को मान्यता देने के लिए संरा की आमराय का इंतजार करे, पर अभी कोई पहल कर नहीं रहा है। अमेरिका के भीतर अफगानिस्तान के घटनाक्रम को लेकर बहस चल रही है। बाइडेन प्रशासन अपने फैसलों को सही साबित करने का प्रयास कर रहा है, पर उसे तीखी आलोचना का शिकार होना पड़ रहा है।

सवाल यह भी है कि क्या अफगानिस्तान में अमेरिका की हार हुई है? इसे हार कैसे कह सकते हैं? अमेरिका ने 11 सितम्बर 2001 की घटना के बाद अफगानिस्तान में जब प्रवेश किया था, तब उसका पहला उद्देश्य ओसामा बिन लादेन का सफाया था। उसने तालिबान को परास्त किया, लादेन की हत्या की, अफगानिस्तान में एक सरकार बनाई और उसे बीस साल तक सहायता दी। डोनाल्ड ट्रंप की सरकार के नीति-निर्णय के तहत उसने मुकर्रर वक्त पर अफगानिस्तान को छोड़ दिया।

बेशक इससे तालिबान को वापस आने का मौका मिला, पर इसे तालिबान की जीत कैसे कहेंगे? आज भी तालिबान अमेरिका का मुँह जोह रहा है। तालिबान ने पहले के मुकाबले अपने व्यवहार को सौम्य बनाने की घोषणा किसके दबाव में की है? विजेता का व्यवहार पूरी तरह ऐसा नहीं होता। यह आंशिक विजय है, जो दुनिया में नए ध्रुवीकरण का बीज डाल सकती है। वैश्विक-राजनीति में इसे रूस-चीन गठजोड़ की जीत के रूप में देखा जा रहा है।

भारत की दुविधा

जहाँ तक भारत का सवाल है, उसके सामने विकट स्थिति है। हालांकि भारत के राजदूत ने दोहा में तालिबान प्रतिनिधि से बातचीत की है, पर इसका मतलब यह नहीं कि तालिबान को स्वीकार कर लिया। तालिबान के पीछे कौन सी ताकतें हैं, यह जानकारी भारत सरकार के पास पूरी है। सवाल है कि भविष्य की रणनीति क्या होगी? संयुक्त राष्ट्र की भूमिका अफगानिस्तान में क्या होगी और दुनिया का फैसला एक जैसा होगा या दो धड़ों के रूप में दुनिया बँटेगी? तालिबान को मान्यता के मामले में तमाम पेचो-खम हैं। सबसे बड़ा सवाल है कि क्या तालिबान पूरे अफगानिस्तान का प्रतिनिधित्व कर रहे हैं? क्या सारे समुदाय एक झंडे के नीचे हैं? दूसरे वैश्विक-राजनीति में अब अफगानिस्तान सरकार की भूमिका क्या होगी? तालिबान ने अमेरिका के साथ समझौता जरूर किया है, पर उन्होंने चीन के साथ सम्पर्क बढ़ाया है।

टीचर को फटीचर किसने बनाया?

देश में हालांकि कोरोना का असर खत्म नहीं हुआ है, पर काफी राज्यों में स्कूलों को फिर से खोलने की तैयारी हो गई है। कई जगह कक्षाएं लगने भी लगी हैं। आज शिक्षक-दिवस पर शिक्षा और शिक्षकों की स्थिति पर हमें विचार करने का मौका मिला है। सवाल है कि कोरोना के शहीदों में डॉक्टरों, नर्सों और फ्रंटलाइन स्वास्थ्य-कर्मियों के साथ शिक्षकों का नाम भी क्यों नहीं लिखा जाना चाहिए? आज जब समारोहों में हम शिक्षकों का गुणगान करेंगे, तब इस बात पर भी विचार करना चाहिए कि पिछले 75 साल में और विशेषकर पिछले एक साल में शिक्षकों के साथ देश ने क्या सुलूक किया? खासतौर से छोटे निजी स्कूलों के शिक्षक, जिनके पास न तो अपनी आवाज उठाने का दम है और न कोई उनकी तरफ से आवाज उठाने वाला है। इनमें बड़ी संख्या महिलाओं की है।

शिक्षक कुंठित क्यों?

सरकारी स्कूलों में अध्यापकों को वेतन जरूर मिलता है, पर उनकी हालत भी अच्छी नहीं है। सरकारी स्कूलों में जितने शिक्षकों की जरूरत है, उसके 50 फीसदी की ही नियुक्ति है। शेष पद खाली पड़े हैं। 2016 में तत्कालीन केंद्रीय मानव संसाधन विकास मंत्रालय ने प्राथमिक और माध्यमिक शिक्षा के बारे में संसद में रिपोर्ट पेश की थी जिसके अनुसार एक लाख स्कूल ऐसे हैं जहां सिर्फ एक शिक्षक है। इनमें मध्य प्रदेश, राजस्थान, उत्तर प्रदेश, बिहार और उत्तराखंड का हाल सबसे खराब था।