भारत-चीन सीमा पर टकराव का ऐसा मौका करीब 45 साल बाद आया है. इस टकराव के राजनीतिक और सामरिक निहितार्थ हैं, पर हमारे अखबारों ने इस खबर को किस प्रकार प्रकाशित किया है, यह देखना उपयोगी होगा. एक और ध्यान देने वाली बात है कि भारत के सभी महत्वपूर्ण अखबारों में यह खबर पहले सफे पर लीड के रूप में है, जबकि चीन के अखबारों में पहले पेज पर भी नहीं है. चीन के सबसे बड़े अखबार 'रन मन रिपाओ' (पीपुल्स डेली) में यह खबर है ही नहीं, जबकि ग्लोबल टाइम्स के चीनी संस्करण में पेज 16 पर एक कोने में है. भारतीय अखबारों में सबसे अलग किस्म की कवरेज कोलकाता के टेलीग्राफ में है, जिसने सरकार पर कटाक्ष किय़ा है. टेलीग्राफ अब अपने कटाक्षों के लिए इतना प्रसिद्ध हो चुका है कि उसपर ज्यादा ध्यान नहीं जाता. अलबत्ता यह विचार का विषय जरूर है. किसी दूसरे अवसर पर मैं इस बारे में अपना विचार जरूर लिखूँगा. यों आज ज्यादातर अखबारों ने तथ्यों को ही पेश किया है और शीर्षक में अपनी टिप्पणी से बचे हैं. केवल भास्कर में 'पीठ पर वार' जैसी अभिव्यक्ति है. बहरहाल अखबारों पर नजर डालें.
Wednesday, June 17, 2020
Sunday, June 14, 2020
राजनीति का आभासी दौर!
कोविड-19 के वैश्विक हमले के कारण एक अरसे की अराजकता के बाद रथ का पहिया वापस चलने लगा है। आवागमन शुरू हो गया है, दफ्तर खुलने लगे हैं और कारखानों की चिमनियों से धुआँ निकलने लगा है। कोरोना ने जो भय पैदा किया था, वह खत्म नहीं हुआ है। पर दुनिया का कहना है कि सब कुछ बंद नहीं होगा। गति बदलेगी, चाल नहीं। उत्तर कोरोना परिदृश्य के तमाम पहलू हमारे जीवन की दशा और दिशा को बदलेंगे। रहन-सहन, खान-पान, सामाजिक सम्पर्क और सांस्कृतिक जीवन सब कुछ बदलेगा। सिनेमाघरों, रंगमंचों और खेल के मैदानों का रंग-रूप भी। खेल बदलेंगे, खिलाड़ी बदलेंगे। सवाल है क्या राजनीति भी बदलेगी?
जनवरी-फरवरी के बाद के वैश्विक परिदृश्य पर नजर डालें, तो पहली नजर में लगता है कि बीमारी ने राजनीति को पृष्ठभूमि में धकेल दिया। हम एक नई दुनिया में प्रवेश करने जा रहे हैं, जहाँ मनुष्य के हित सर्वोपरि होंगे, स्वार्थों के टकराव खत्म होंगे, जो राजनीति की कुटिलता के साथ रूढ़ हो गए हैं। वास्तव में ऐसा हुआ नहीं, बल्कि पृष्ठभूमि में राजनीति चलती रही। दुनिया की बात छोड़िए, हमारे देश में लॉकडाउन की घोषणा के ठीक पहले मध्य प्रदेश में सत्ता परिवर्तन हुआ। उस दौरान दोनों तरफ से खुलकर राजनीति हुई। कोरोना के बावजूद विधानसभा की बैठक हुई। नई सरकार आई। संसद के सत्र को लेकर बयानबाज़ी हुई, प्रवासी मजदूरों के प्रसंग के पीछे प्रत्यक्ष राजनीति थी। लॉकडाउन की घोषणा भी।
जनवरी-फरवरी के बाद के वैश्विक परिदृश्य पर नजर डालें, तो पहली नजर में लगता है कि बीमारी ने राजनीति को पृष्ठभूमि में धकेल दिया। हम एक नई दुनिया में प्रवेश करने जा रहे हैं, जहाँ मनुष्य के हित सर्वोपरि होंगे, स्वार्थों के टकराव खत्म होंगे, जो राजनीति की कुटिलता के साथ रूढ़ हो गए हैं। वास्तव में ऐसा हुआ नहीं, बल्कि पृष्ठभूमि में राजनीति चलती रही। दुनिया की बात छोड़िए, हमारे देश में लॉकडाउन की घोषणा के ठीक पहले मध्य प्रदेश में सत्ता परिवर्तन हुआ। उस दौरान दोनों तरफ से खुलकर राजनीति हुई। कोरोना के बावजूद विधानसभा की बैठक हुई। नई सरकार आई। संसद के सत्र को लेकर बयानबाज़ी हुई, प्रवासी मजदूरों के प्रसंग के पीछे प्रत्यक्ष राजनीति थी। लॉकडाउन की घोषणा भी।
लोकतांत्रिक महा-दुर्घटना के मुहाने पर अमेरिका
अमेरिकी
राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप एक तरफ कोरोना वायरस की मार से पीड़ित हैं कि जॉर्ज
फ़्लॉयड के प्रकरण ने उन्हें बुरी तरह घेर लिया है। आंदोलन से उनकी नींद हराम है। क्या
वे इस साल के चुनाव में सफल हो पाएंगे? चुनाव-पूर्व ओपीनियन पोल खतरे की घंटी बजा रहे हैं। ऐसे में गत 26 मई को ट्रंप
ने एक ऐसा ट्वीट किया, जिसे पढ़कर वह अंदेशा पुख्ता हो रहा है कि चुनाव हारे तो वे
राष्ट्रपति की कुर्सी नहीं छोड़ेंगे। यानी नतीजों को आसानी से स्वीकार नहीं
करेंगे। और इससे अमेरिका में सांविधानिक संकट पैदा हो जाएगा।
Saturday, June 13, 2020
चीन का मुकाबला कैसे करें?
भारत और चीन के
बीच लद्दाख में चल रहा टकराव टल भी जाए, यह सवाल अपनी जगह रहेगा
कि चीन से हमारे रिश्तों की दिशा क्या होगी?
क्या हम उसकी
बराबरी कर पाएंगे? या हम उसकी धौंस में आएंगे? पर पहले वर्तमान विवाद के पीछे चीनी मंशा का पता लगाने को
कोशिश करनी होगी। तीन बड़े कारण गिनाए जा रहे हैं। भारत ने वास्तविक नियंत्रण के
पास सड़कों और हवाई पट्टियों का जाल बिछाना शुरू कर दिया है। हालांकि तिब्बत में
चीन यह काम काफी पहले कर चुका है, पर वह भारत के साथ हुई
कुछ सहमतियों का हवाला देकर कहता है कि ये निर्माण नहीं होने चाहिए।
दूसरा कारण है
दक्षिण चीन सागर और हिंद प्रशांत क्षेत्र में भारतीय नौसेना की भूमिका। हम कमोबेश
चतुष्कोणीय सुरक्षा व्यवस्था यानी ‘क्वाड’ में शामिल हैं। यों हम औपचारिक रूप से
कहते हैं कि यह चीन के खिलाफ नहीं है। इसी 4 जून को भारत और
ऑस्ट्रेलिया के प्रधानमंत्रियों ने एक महत्वपूर्ण रक्षा समझौते पर दस्तखत किए हैं, जिसपर चीनी मुखपत्र ‘ग्लोबल टाइम्स’ ने कड़ी प्रतिक्रिया
व्यक्त की है। अखबार ने चीनी विशेषज्ञ सु हाओ के हवाले से कहा है कि भारत अपनी
डिप्लोमैटिक स्वतंत्रता का दावा करता रहा है,
पर देखना होगा कि
वह कितना स्वतंत्र है।
Monday, June 8, 2020
लपटों से घिरा ट्रंप का अमेरिका
लम्बे अरसे से साम्यवादी कहते रहे हैं, ‘पूँजीवाद हमें वह रस्सी बनाकर बेचेगा, जिसके सहारे हम
उसे लटकाकर फाँसी देंगे।’ इस उद्धरण का श्रेय मार्क्स, लेनिन, स्टैलिन और माओ जे दुंग
तक को दिया जाता है और इसे कई तरह से पेश किया जाता है। आशय यह कि पूँजीवाद की
समाप्ति के उपकरण उसके भीतर ही मौजूद हैं। पिछली सदी के मध्यकाल में ‘मरणासन्न पूँजीवाद’ और ‘अंत का प्रारम्भ’ जैसे वाक्यांश वामपंथी
खेमे से उछलते रहे। हुआ इसके विपरीत। नब्बे के दशक में सोवियत संघ के विघटन के बाद
दुनिया को लगा कि अंत तो कम्युनिज्म का हो गया।
उस परिघटना के तीन दशक बाद ‘पूँजीवाद का संकट’ सिर उठा रहा है। अमेरिका में इन दिनों जो हो रहा है, उसे
पूँजीवाद के अंत का प्रारम्भ कहना सही न भी हो, पश्चिमी उदारवाद के अंतर्विरोधों
का प्रस्फुटन जरूर है। डोनाल्ड ट्रंप का उदय इस अंतर्विरोध का प्रतीक था और अब
उनकी रीति-नीति के विरोध में अफ्रीकी मूल के अमेरिकी नागरिकों का आंदोलन उन
अंतर्विरोधों को रेखांकित कर रहा है। पश्चिमी लोकतंत्र के सबसे पुराने गढ़ में
उसके सिद्धांतों और व्यवहार की परीक्षा हो रही है।
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