लम्बे अरसे से साम्यवादी कहते रहे हैं, ‘पूँजीवाद हमें वह रस्सी बनाकर बेचेगा, जिसके सहारे हम
उसे लटकाकर फाँसी देंगे।’ इस उद्धरण का श्रेय मार्क्स, लेनिन, स्टैलिन और माओ जे दुंग
तक को दिया जाता है और इसे कई तरह से पेश किया जाता है। आशय यह कि पूँजीवाद की
समाप्ति के उपकरण उसके भीतर ही मौजूद हैं। पिछली सदी के मध्यकाल में ‘मरणासन्न पूँजीवाद’ और ‘अंत का प्रारम्भ’ जैसे वाक्यांश वामपंथी
खेमे से उछलते रहे। हुआ इसके विपरीत। नब्बे के दशक में सोवियत संघ के विघटन के बाद
दुनिया को लगा कि अंत तो कम्युनिज्म का हो गया।
उस परिघटना के तीन दशक बाद ‘पूँजीवाद का संकट’ सिर उठा रहा है। अमेरिका में इन दिनों जो हो रहा है, उसे
पूँजीवाद के अंत का प्रारम्भ कहना सही न भी हो, पश्चिमी उदारवाद के अंतर्विरोधों
का प्रस्फुटन जरूर है। डोनाल्ड ट्रंप का उदय इस अंतर्विरोध का प्रतीक था और अब
उनकी रीति-नीति के विरोध में अफ्रीकी मूल के अमेरिकी नागरिकों का आंदोलन उन
अंतर्विरोधों को रेखांकित कर रहा है। पश्चिमी लोकतंत्र के सबसे पुराने गढ़ में
उसके सिद्धांतों और व्यवहार की परीक्षा हो रही है।