जीत के फौरन बाद तीन राज्यों में मुख्यमंत्रियों के चयन
को लेकर पैदा हुआ असमंजस कुछ सवाल खड़े करता है. कांग्रेस एक नए बयानिया (नैरेटिव)
के साथ वापसी करना चाहती है. राहुल गांधी अनुशासित और नवोन्मेषी राजनीति को बढ़ावा
देना चाहते हैं. ऐसा कैसे होगा? क्या इसे उस राजनीति का नमूना मानें? तीनों राज्यों में मुख्यमंत्रियों के नाम को लेकर पार्टी कार्यकर्ता सड़कों
पर उतर आए. समर्थन में नारेबाजी अनोखी बात नहीं है, पर यहाँ तो नौबत आगज़नी, वाहनों की तोड़फोड़ और सड़क जाम तक आ
गई. प्रत्याशियों को अपने-अपने समर्थकों को समझाने के लिए सोशल मीडिया का सहारा
लेना पड़ा. कार्यकर्ताओं तक की बात भी नहीं है. लगता है कि नेतृत्व ने भी अपना
होमवर्क ठीक से नहीं किया है.
इन
पंक्तियों के प्रकाशित होने तक संभव है असमंजस दूर हो गए हों, पर अब जो सवाल सामने
आएंगे, वे दूसरे असमंजसों को जन्म देंगे. सरकार का गठन असंतोषों का बड़ा कारण बनता
है, यहाँ भी बनेगा. नेताओं के व्यक्तिगत रिश्ते, परिवार से नजदीकी, प्रशासनिक
अनुभव, कार्यकर्ताओं से जुड़ाव, पार्टी के कोष में योगदान कर पाने और 2019 के
लोकसभा चुनाव का अपने इलाके में बेहतर संचालन कर पाने की क्षमता वगैरह की अब
परीक्षा होगी.
कांग्रेस कार्यकर्ताओं को यह बात ध्यान में रखनी चाहिए कि राजस्थान और मध्य प्रदेश दोनों राज्यों में सकल वोट प्रतिशत के मामले में बीजेपी और कांग्रेस की लगभग बराबरी है. लोकसभा चुनाव में एक या दो फीसदी वोट की गिरावट से ही कहानी कुछ से कुछ हो सकती है. यदि वे सरकार के गठन के साथ ही अराजक व्यवहार का प्रदर्शन करेंगे, तो उनकी छवि खराब होगी.