Sunday, October 15, 2017
हम सब हैं आरुषि के अपराधी
Saturday, October 14, 2017
राहुल के पुराने तरकश से निकले नए तीर
कुछ महीने पहले तक माना जा रहा था कि मोदी सरकार मजबूत जमीन पर खड़ी है
और वह आसानी से 2019 का चुनाव जीत ले जाएगी। पर अब इसे लेकर संदेह भी व्यक्त किए जाने लगे हैं। बीजेपी की लोकप्रियता में गिरावट का माहौल बन रहा है। खासतौर से जीएसटी लागू होने के बाद जो दिक्कतें पैदा हो रहीं हैं, उनके राजनीतिक निहितार्थ सिर उठाने लगे हैं। संशय की
इस बेला में गुजरात दौरे पर गए राहुल गांधी की टिप्पणियों ने मसालेदार तड़का
लगाया है।
पिछले कुछ दिन से माहौल बनने लगा है कि
2019 के चुनाव ‘मोदी बनाम राहुल’ होंगे। राहुल गांधी
पार्टी अध्यक्ष बनने को तैयार हैं। पहली बार लगता है कि वे खुलकर सामने आने वाले
हैं। पर उसके पहले कुछ किन्तु-परन्तु बाकी हैं। सबसे बड़ा सवाल है कि क्या गुजरात
में कांग्रेसी अभिलाषा पूरी होगी? यदि हुई तो उसका परिणाम क्या होगा और नहीं
हुई तो क्या होगा?
Friday, October 13, 2017
आरुषि कांड: क्या अब न्याय हो गया?
26
नवंबर 2013 को जब गाजियाबाद की विशेष सीबीआई अदालत आरुषि-हेमराज हत्याकांड के आरोप
में आरुषि के माता-पिता राजेश और नूपुर तलवार को आईपीसी की धारा- 302 के तहत
उम्रकैद की सज़ा सुनाई थी, तब सवाल उठा था कि क्या वास्तव में इस मामले में न्याय
हो गया है? फैसले के बाद राजेश और नूपुर तलवार की
ओर से मीडिया में एक बयान जारी किया गया,
'हम इस
फैसले से बहुत दुखी हैं. हमें एक ऐसे जुर्म के लिए जिम्मेदार ठहराया गया है, जो हमने किया ही नहीं. लेकिन हम हार
नहीं मानेंगे और न्याय के लिए लड़ाई जारी रखेंगे.' ट्रायल कोर्ट के फैसले के चार साल बाद अब जब
इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने तलवार दम्पति को संदेह का लाभ देते हुए बरी कर दिया है,
तब फिर सवाल उठा है कि क्या अब न्याय हुआ है?
सामान्य
न्याय सिद्धांत है कि कानून की पकड़ से भले ही सौ अपराधी बच जाएं, पर एक निर्दोष
को सज़ा नहीं होनी चाहिए. आपराधिक मामलों में अदालतों का सबसे ज्यादा जोर
साक्ष्य पर होता है. सन 2008 में 14 साल की आरुषि की मौत ने देशभर का ध्यान अपनी
तरफ खींचा था. वह पहेली अब तक नहीं सुलझी है. घूम-फिरकर सवाल किया जाता है कि
आरुषि की हत्या किसने की? यह मामला
जाँच की उलझनों में फँसता चला गया.
Wednesday, October 11, 2017
खेल के मैदान में लिखी है बदलते भारत की इबारत
फीफा
की अंडर-17 विश्वकप फुटबॉल प्रतियोगिता के बहाने हमें बदलते भारत की कहानी देखने
की कोशिश करनी चाहिए. यह जूझते भारत और उसके भीतर हो रहे सामाजिक बदलाव की कहानी
है. भारत ने अपना पहला मैच 8 अक्तूबर को खेला, जिसमें अमेरिका की टीम ने हमें 3-0
से हराया. इस हार से हमें निराशा नहीं हुई, क्योंकि फुटबॉल के वैश्विक
मैदान में हमारी स्थिति अमेरिका से बहुत नीचे है. हमारे लिए महत्वपूर्ण बात यह थी
कि भारत की कोई टीम विश्वकप फुटबॉल की किसी भी प्रतियोगिता में पहली बार शामिल हुई
और उसने बहादुरी के साथ खेला. पहले मैच ने भारतीय टीम का हौसला बढ़ाया.
Sunday, October 8, 2017
गालियों का ट्विटराइज़ेशन
चौराहों, नुक्कड़ों और
भिंडी-बाजार के स्वर और शब्दावली विद्वानों की संगोष्ठी जैसी शिष्ट-सौम्य नहीं
होती। पर खुले गाली-गलौज को तो मछली बाजार भी नहीं सुनता। वह भाषा हमारे सोशल
मीडिया में प्रवेश कर गई है। हम नहीं जानते कि क्या करें। जरूरत इस बात की है कि
हम देखें कि ऐसा क्यों है और इससे बाहर निकलने का रास्ता क्या है? सोशल मीडिया की आँधी ने
सूचना-प्रसारण के दरवाजे अचानक खोल दिए हैं। तमाम ऐसी बातें सामने आ रहीं हैं, जो
हमें पता नहीं थीं। कई प्रकार के सामाजिक अत्याचारों के खिलाफ जनता की पहलकदमी इसके
कारण बढ़ी है। पर सकारात्मक भूमिका के मुकाबले उसकी नकारात्मक भूमिका चर्चा में है।
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