जो भारतीय जनता पार्टी अस्सी के दशक में
लाल कृष्ण आडवाणी के नेतृत्व में हिन्दुत्व की लहरों पर सवार थी और ‘मंदिर वहीं बनाएंगे’ का नारा लगा रही थी, उसे सन 1996 में
अटल बिहारी वाजपेयी की 13 दिनी सरकार बनने के बाद पता लगा कि वह अकेली पड़ चुकी
है। राजनीतिक दृष्टि से अछूत की श्रेणी में आ गई है। इसके बाद उसने अपने तीखे
तेवरों पर ब्रेक लगाया और दोस्तों की तलाश शुरू की। जब सन 1998 में गिरधर गमंग के
एक वोट से हारी तो उसने फ्लोर मैनेजमेंट पर ध्यान देना शुरू किया। असहिष्णुता के
सवाल पर घेरे में आई पार्टी के लिए आज के दौर की राजनीति में भी कुछ सबक छिपे हैं,
बशर्ते वह सीख ले।
Sunday, December 6, 2015
Friday, December 4, 2015
पीएम मोदी की 'संत मुद्रा' के मायने क्या हैं?
प्रमोद जोशी
वरिष्ठ पत्रकार, बीबीसी हिंदी डॉटकॉम के लिए
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के संसद के दोनों सदनों में दिए गए बयान उपदेशात्मक और आदर्शों से ओत-प्रोत हैं, पर उनसे वास्तविक सवालों के जवाब नहीं मिलते.
लगता नहीं कि विपक्ष इन सवालों को आसानी से भूलकर सरकार को बचकर निकलने का मौका देगा.
राज्यसभा में सीपीएम नेता सीताराम येचुरी के एक नोटिस को सभापति ने विचार के लिए स्वीकार कर लिया है.
येचुरी ने असहिष्णुता व सांप्रदायिक ध्रुवीकरण के मुद्दे पर एक पंक्ति का यह प्रस्ताव दिया है.
देखना होगा कि कांग्रेस और अन्य विपक्षी दल इस प्रस्ताव को पास कराने में मदद करेंगे या नहीं. और यह भी कि इस प्रस्ताव का इस्तेमाल सरकार की निंदा के रूप में होगा या नहीं.
दोनों सदनों में प्रधानमंत्री के बयान सकारात्मक जरूर हैं, पर वे विपक्ष के भावी प्रहारों की पेशबंदी जैसे लगते हैं. प्रधानमंत्री की यह संत-मुद्रा बताती है कि वे राजनीतिक दबाव में हैं.
मोदी जी ने किसी भी सवाल का सीधे जवाब नहीं दिया है. जबकि देश उम्मीद रखता है कि वे उन सारे सवालों के जवाब दें जो इस बीच उठाए गए हैं.
गृह मंत्री राजनाथ सिंह ने सम्मान वापस करने वाले लेखकों और कलाकारों से मिलने की इच्छा व्यक्त की है. गृह मंत्री के बजाय प्रधानमंत्री को ऐसा कदम उठाना चाहिए था.
दादरी में मोहम्मद अख़लाक की हत्या से देश में दहशत का माहौल बना था. उसके बाद कुछ मंत्रियों और सांसदों के बयानों से माहौल और बिगड़ा.
प्रोफेसर कलबुर्गी की हत्या को लेकर लेखकों, कलाकारों और सामाजिक कार्यकर्ताओं ने अपना आक्रोश व्यक्त किया तो बजाय हमदर्दी जताने के उनकी आलोचना हुई.
इसके बाद सम्मान वापसी को देशद्रोह साबित करने की कोशिश की गई. बात-बात पर लोगों को पाकिस्तान जाने की सलाह दी गई. इन बातों को बेहतर तरीके से सुलझाया जा सकता था. ऐसा हुआ नहीं.
Wednesday, December 2, 2015
The decline of the Indian Parliament
The Lok Sabha has been progressively setting aside fewer days to meet, and meeting even less on those allotted days
The Lok Sabha—the running of which rests with representatives elected by the people of India—has been in a perennial state of decline. It has been progressively setting aside fewer days to meet, and meeting even less on those allotted days. As a result, it is squabbling more and discussing less, and then trying to make up for lost time by pushing through legislation faster. Even the current majority government has failed to rewrite that script.
Parliament is convening, and sitting, for fewer days
The first Congress government in 1952 and the last Congress-led government in 2009 were both in power for about 1,800 days. But the 1952 group of MPs spent almost twice as many days in the Lok Sabha as the 2009 group. This decline has been progressive during these 57 years, across governments. Even the currenty Bharatiya Janata Party (BJP)-led government is averaging numbers similar to those of the last two Congress-led governments.
The effect is felt less in the quantity of legislation…
Measured in terms of government tenure, the number of bills being passed by Lok Sabhas in the past decade has seen a 20-40% drop over the first two. However, measured in terms of how much Parliament meets, there has not been a corresponding drop in bills passed. This suggests that the Lok Sabha is passing bills faster, raising questions about whether these pieces of legislation were adequately discussed before being cleared.
…and more in the quality of discourse that nourishes governance
Speaking in Parliament last week, Prime Minister Narendra Modi said “conversation and debates are the soul of Parliament”. That soul is under serious assault. Torn between the polarity of no work—caused by a hostile, tit-for-tat opposition—and the speedy passage of bills to make up for lost time, there’s virtually no time or inclination for discourse that richens a democracy.
Sunday, November 29, 2015
मोदी क्या कर पाएंगे समावेशी राजनीति?
संसद के शीत सत्र के पहले दो दिन की
विशेष चर्चा और शुक्रवार की शाम प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के साथ सोनिया गांधी
और मनमोहन सिंह की मुलाकात के बाद दो बातें स्पष्ट हुईं हैं। एक, भारतीय जनता
पार्टी को व्यापक जनाधार बनाने के लिए अपनी रणनीति में सुधार करना होगा। इस रणनीति
का आंशिक असर है कि शीत सत्र से उम्मीदें बढ़ गईं हैं। शुक्रवार को संसद में
नरेन्द्र मोदी ने इस बात का संकेत दिया कि वे आमराय बनाकर काम करना पसंद करेंगे।
उन्होंने देश की बहुल संस्कृति को भी बार-बार याद किया।
देखना होगा कि क्या भारतीय जनता पार्टी
की राजनीति में कोई गुणात्मक बदलाव आने वाला है या नहीं। पार्टी को अटल बिहारी
वाजपेयी के अनुभव का लाभ उठाना चाहिए। संसद में मोदी के अपेक्षाकृत संतुलित बयान
और शाम को सोनिया गांधी और मनमोहन सिंह के साथ विचार-विमर्श से अच्छे संकेत जरूर मिले
हैं, फिर भी कहना मुश्किल है कि संसद का यह सत्र कामयाब होगा। अलबत्ता उम्मीद बँधी
है। देशवासी चाहते हैं कि संसदीय कर्म संजीदगी से सम्पादित किया जाना चाहिए।
मॉनसून सत्र का पूरी तरह धुल जाना अच्छी बात नहीं थी।
Saturday, November 28, 2015
अब गैर-भाजपा राजनीति का दौर
लोकसभा चुनाव के पहले तक देश में तीसरे या चौथे मोर्चे की अवधारणा गैर-कांग्रेस, गैर-भाजपा मोर्चे के रूप में होती थी, पर पछले कुछ समय से गैर-भाजपा मोर्चा बनाने की कोशिशें तेज हो गई हैं। इनमें कांग्रेस भी शामिल है। इससे दो बातें साबित होती हैं। एक- भाजपा देश की सबसे बड़ी राजनीतिक ताकत बन गई है और दूसरे भाजपा का विकल्प कांग्रेस नहीं है। धर्म निरपेक्ष राजनीति के झंडे तले तमाम क्षेत्रीय ताकतों को एक करने की कोशिश हो रही है। प्रश्न है कि कांग्रेस इस ताकत का नेतृत्व करेगी या इनमें से एक होगी? सन 2016 के विधानसभा चुनावों में इसका जवाब मिलेगा।
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