Tuesday, September 1, 2015

स्मार्ट सिटी सिर्फ सपना नहीं है

पिछले साल सोलहवीं लोकसभा के पहले सत्र में नई सरकार की ओर से राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी के अभिभाषण में  बदलते भारत का नक्शा पेश किया गया था। नरेंद्र मोदी के आलोचकों ने तब भी कहा था और आज भी कह रहे हैं कि यह एक राजनेता का सपना है। इसमें परिकल्पना है, पूरा करने की तजवीज नहीं। देश में एक सौ स्मार्ट सिटी का निर्माण, अगले आठ साल में हर परिवार को पक्का मकान, डिजिटल इंडिया, गाँव-गाँव तक ब्रॉडबैंड पहुँचाने का वादा और हाई स्पीड ट्रेनों के हीरक चतुर्भुज तथा राजमार्गों के स्वर्णिम चतुर्भुज के अधूरे पड़े काम को पूरा करने का वादा वगैरह। सरकार की योजनाएं कितनी व्यावहारिक हैं या अव्यावहारिक हैं इनका पता कुछ समय बाद लगेगा, पर तीन योजनाएं ऐसी हैं जिनकी सफलता या विफलता हम अपनी आँखों से देख पाएंगे। ये हैं आदर्श ग्राम योजना, डिजिटल इंडिया और अब 100 स्मार्ट सिटी।

Monday, August 31, 2015

क्यों नहीं टूटता राजनीतिक चंदे का मकड़जाल?

राजनीतिक दल आरटीआई से बच क्यों रहे हैं?

  • 27 अगस्त 2015

आरटीआई आंदोलन की शुरुआत राजस्थान के एक संगठन ने की थीImage copyrightABHA SHARMA
Image captionआरटीआई आंदोलन की शुरुआत राजस्थान के किसान शक्ति संगठन ने की थी

बात कितनी भी ख़राब लगे, पर इससे इंकार नहीं किया जा सकता कि भारतीय चुनाव दुनिया में काले पैसे से चलने वाली सबसे बड़ी गतिविधि है. यह बात हमारे लोकतंत्र की साख को बट्टा लगाती है.
अफ़सोस इस बात का है कि मुख्यधारा की राजनीति ने व्यवस्था को पारदर्शी बनाने के बजाय इन कोशिशों का ज़्यादातर विरोध किया है. ताज़ा उदाहरण है केंद्र सरकार का सुप्रीम कोर्ट में दाख़िल हलफ़नामा.
सरकार ने राजनीतिक पार्टियों को आरटीआई के दायरे में लाने का विरोध किया है. हलफ़नामे में कहा गया है कि पार्टियां पब्लिक अथॉरिटी नहीं हैं.

सूचना आयोग का फ़ैसला


आरटीआई का लोगोImage copyrightRTI.GOV.IN

सन 2013 में केंद्रीय सूचना आयोग ने इन दलों को आरटीआई के तहत लाने के आदेश जारी किए थे.
सरकार और पार्टियों ने आदेश का पालन नहीं किया. उसे निष्प्रभावी करने के लिए सरकार ने संसद में एक विधेयक भी पेश किया, पर जनमत के दबाव में उसे स्थायी समिति के हवाले कर दिया गया. यह मामला अभी तार्किक परिणति तक नहीं पहुँचा है.
उसी साल सुप्रीम कोर्ट ने दाग़ी सांसदों के बाबत फ़ैसला किया था. पार्टियों ने उसे भी नापसंद किया.
संसद के मॉनसून सत्र के पहले हुई सर्वदलीय बैठक में एक स्वर से पार्टियों ने अदालती आदेश को संसद की सर्वोच्चता के लिए चुनौती माना.
सरकार ने उस फ़ैसले को पलटने वाला विधेयक पेश करने की योजना भी बनाई, पर जनमत के दबाव में झुकना पड़ा.

Wednesday, August 26, 2015

क्यों करते हैं इंसान दुनिया पर राज

युवाल नोह हरारी
प्रो. युवाल नोह हरारी यरुसलम विश्वविद्यालय में इतिहास पढ़ाते हैं. उनके लिए इतिहास संस्कृति के जन्म के साथ शुरू नहीं होता बल्कि वह उसे बहुत-बहुत पीछे ब्रहमांड के उद्भव तक ले जाते हैं. इतिहास को जैविक उद्विकास के नज़रिए (ईवोल्युशनरी पर्सपेक्टिव) से देखने का उनका तरीका उन्हें ख़ास बनाता है. उनका एक लेख (क्या 21वीं सदी में किसी काम का रह जाएगा इंसान) पहले भी आप जिज्ञासा में पढ़ चुके हैं, जिसे हमारे मित्र आशुतोष उपाध्याय ने साझा किया था. आशुतोष जी ने इस बार TED TALKS में दिए गए उनके हालिया भाषण का अनुवाद साझा किया है, जो कुछ रोचक बातों की ओर इशारा करता है. क्या वजह है कि शेर और हाथी जैसे जानवर इंसान के मुकाबले कमजोर साबित होते हैं.
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सत्तर हजार साल पहले हमारे पुरखे मामूली जानवर थे. प्रागैतिहासिक इंसानों के बारे में सबसे महत्वपूर्ण बात हम यही जानते हैं कि वे ज़रा भी महत्वपूर्ण नहीं थे. धरती में उनकी हैसियत एक जैली फिश या जुगनू या कठफोड़वे से ज्यादा नहीं थी.  इसके विपरीत, आज हम इस ग्रह पर राज करते हैं. और सवाल उठता है: वहां से यहां तक हम कैसे पहुंच गए? हमने खुद को अफ्रीका के एक कोने में अपनी ही दुनिया में खोए रहने वाले मामूली वानर से पृथ्वी के शासक में कैसे बदल डाला?

Tuesday, August 25, 2015

ट्रेन ही उसका घर है!

लिओनी मुलर 300 किमी की रफ़्तार से चलते हुए नहाती-धोती है और अपनी पढ़ाई-लिखाई भी करती है.

आशुतोष उपाध्याय ने आज सुबह की मेल से यह खबर भेजी है जिसे उन्होंने 25 अगस्त 2015 के हिन्दू से लिया है और सुबह ही अनुवाद करके भेजा है। आशुतोष ने लिखा है, आज सुबह-सुबह 'द हिन्दू' अखबार में इस ख़बर को पढ़ते हुए लगा कि हम जीवन को कितने सीमित दायरे में समेट लेते हैं. खुशियां सुविधाओं की कभी न ख़त्म होने वाली दौड़ के अंत में नहीं बल्कि हमारे आस-पास किसी न किसी कोने में हर वक्त मौजूद रहती हैं. बशर्ते हमें उन्हें ढूढ़ने की फुर्सत हो! 
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कोलोन (जर्मनी). दूसरे यात्री जब ट्रेन से उतरकर अपने घर जा रहे होते हैं, जर्मनी की कॉलेज स्टूडेंट लिओनी मुलर अपनी सीट पर जमी रहती है. ऐसा इसलिए क्योंकि ट्रेन ही उसका घर है. ट्रेन उसका अपार्टमेंट है और वह कहती है कि उसे यही जमता है.
मुलर ने पिछले बसंत में अपने अपार्टमेंट को छोड़ दिया था. वह कहती है, "असल में मकान मालिक से साथ खटपट से इसकी शुरुआत हुई. वाशिंगटन पोस्ट अखबार को भेजे ई-मेल में वह लिखती है, "मैंने तभी तय कर लिया था कि अब यहां नहीं रहना है. और फिर मुझे लगा अब मुझे किसी भी घर में नहीं रहना है."
उसने ट्रेन का एक विशेष पास खरीदा, जिसके एवज में वह देश की किसी भी ट्रेन में सफ़र कर सकती है. अब मुलर ट्रेन के बाथरूम में नहाती-धोती है और 300 किमी प्रतिघंटा की रफ़्तार से दौड़ती हुई ट्रेन में ही अपनी पढ़ाई-लिखाई भी करती है. वह कहती है कि जब उसने घर को तिलांजलि दी, तब उसे आज़ादी के इस  जायके का अहसास हुआ है. वह बताती है, "मैं ट्रेन में सचमुच घर जैसा महसूस करती हूं. पहले से कहीं ज्यादा दोस्तों से मिलती हूं. कहीं ज्यादा जगहों की सैर करती हूं. यह हर वक्त छुट्टियां मनाने जैसा है."  
जर्मनी के एक टीवी शो को दिए गए इंटरव्यू में वह कहती है, "मैं यहां पढ़ती-लिखती रहती हूं. खिड़की से नजारों का आनंद लेती हूं और रोज नए-नए भले मानुषों से मिलती हूं. ट्रेन में हर वक्त कुछ न कुछ करने को होता है." बेशक इस बदलाव से मुलर की ज़िन्दगी उसके पिट्ठू तक सिमट गयी है, जिसमें उसके कपड़े, टेबलेट कंप्यूटर, किताबें और सेनिटरी बैग रहता है.
ट्रेन में घर बनाना उसे सस्ता भी पड़ता है. पिछले अपार्टमेंट के लिए जहां वह 450 डॉलर चुकाती थी, ट्रेन का पास मात्र 380 डॉलर में बनता है. हालांकि वह पैसा बचाने के चक्कर में ट्रेन में नहीं आई.
वाशिंगटन पोस्ट में वह कहती है, "मैं लोगों को प्रेरित करना चाहती हूं कि अपनी उन आदतों और तौर-तरीकों पर पुनर्विचार करें जिन्हें वह सामान्य मानकर स्वीकार कर चुके हैं. जितना आप सोचते हैं ज़िन्दगी में उनसे कहीं ज्यादा संभावनाएं और विकल्प मौजूद हैं. अगला रोमांच आपके सामने किसी कोने में छुपा हो सकता है, बशर्ते आप उसे अपना बनाना चाहें."
मुलर अक्सर रात को सफ़र करती है. कभी-कभी वह रिश्तेदारों और दोस्तों के घर पर भी झपकी ले लेती है. कभी-कभी उसकी मां, दादी या उसका बॉयफ्रेंड उसे अपने पास बुला लेते हैं.

('द हिन्दू' के 25 अगस्त के अंक में अंतिम पृष्ठ पर छपी खबर)

Monday, August 24, 2015

पूर्व सैनिक अधीर क्यों हैं?

वन रैंक, वन पेंशन को लेकर विवाद अनावश्यक रूप से बढ़ता जा रहा है। सरकार को यदि इसे देना ही है तो देरी करने की जरूरत नहीं है। साथ ही पूर्व सैनिकों को भी थोड़ा धैर्य रखना चाहिए। जिस चीज के लिए वे तकरीबन चालीस साल से लड़ाई लड़ रहे हैं, उसे हासिल करने का जब मौका आया है तब कड़वाहट से क्या हासिल होगा? प्रधानमंत्री की इच्छा थी कि स्वतंत्रता दिवस के भाषण में इस घोषणा को शामिल किया जाए, पर अंतिम समय में सहमति नहीं हो पाई। यह बात पूर्व सेनाध्यक्ष जनरल वीपी मलिक ने बताई है, जो इस मामले में मध्यस्थता कर रहे थे। यह तो जाहिर है कि सरकार के मन में इसे लागू करने की इच्छा है।

धरने पर बैठे पूर्व फौजियों ने पहले माना था कि वे अपने विरोध को ज्यादा नहीं बढ़ाएंगे लेकिन भूख हड़ताल पर बैठे लोगों ने आंदोलन वापस लेने से इंकार कर दिया। बल्कि क्रमिक अनशन को आमरण अनशन में बदल दिया। वे कहते हैं कि यह पैसे की लड़ाई नहीं है, बल्कि हमारे सम्मान का मामला है। इस बीच पूर्व सैनिकों के साथ दिल्ली पुलिस ने जो अभद्र व्यवहार किया, उसने आग में घी डालने का काम किया। हम इस तरह सैनिकों का सम्मान करते हैं? कह सकते हैं कि डेढ़ साल से सरकार क्या कर रही थी? पर ऐसा भी नहीं कि वह कन्नी काट रही है।