Sunday, August 23, 2015

उफा के बाद उफ!!

भारत और पाकिस्तान के बीच बातचीत शुरू होने की सम्भावना जन्म ले रही थी कि उसकी अकाल मौत हो गई। यह मामला अब वर्षों नहीं तो कम से कम महीनों के लिए टल गया। भारत की तरफ से अलबत्ता पिछले साल अगस्त में जो लाल रेखा खींची गई थी, वह और गाढ़ी हो गई है। इसका मतलब है कि भविष्य में बात तभी होगी जब पाकिस्तान बातचीत के पहले और बाद में हुर्रियत के नेताओं से बात न करने की गारंटी देगा। या भारत को अपनी यह शर्त हटानी होगी।

Thursday, August 20, 2015

भारत-पाक वार्ता में अड़ंगे क्यों लगते हैं?

23 अगस्त को भारत के सुरक्षा सलाहकार अजित डोभाल और पाकिस्तान के विदेशी मामलों के सलाहकार सरताज़ अजीज की बातचीत के ठीक पहले हुर्रियत के प्रतिनिधियों के साथ बातचीत रखकर पाकिस्तान ने क्या संदेश दिया है? एक, कश्मीर हमारी विदेश नीति का पहला मसला है, भारत गलतफहमी में न रहे। समझना यह है कि यह बात को बिगाड़ने की कोशिश है या सम्हालने की? भारत सरकार ने बावजूद इसके बातचीत पर कायम रहकर क्या संदेश दिया है?  इस बीच हुर्रियत के नेताओं को नजरबंद किए जाने की खबरें हैं, पर ऐसा लगता है कि हुर्रियत वाले भी चाहते हैं कि उनके चक्कर में बात होने से न रुके। कश्मीर का समाधान तभी सम्भव है जब सरहद के दोनों तरफ की आंतरिक राजनीति भी उसके लिए माहौल तैयार करे।

Wednesday, August 19, 2015

यूएई और भारत, दोनों के लिए मौका

संसदीय गतिरोध और राष्ट्रीय राजनीति में भाजपा के गिरते ग्राफ की पृष्ठभूमि में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की यूएई यात्रा क्या मददगार साबित होगी?  इस यात्रा से भारत में बेहतर पूँजी निवेश, इंफ्रास्ट्रक्चर के क्षेत्र में निर्माण की सम्भावनाओं और खाड़ी के देशों में रहने वाले भारतीयों के लिए सेवा के अवसर बढ़ेंगे. पर केवल इतना ही नहीं. पश्चिम एशिया में शक्ति संतुलन बदल रहा है, जिसके बरक्स भारत को अपनी भूमिका में भी बदलाव लाना होगा. सवाल है कि अचानक हुई इस यात्रा का मकसद क्या था.  

Saturday, August 15, 2015

आज़ादी की लड़ाई अभी बाकी है

जब हम 68 साल की आज़ादी पर नजर डालते हैं तो लगता है कि हमने पाया कुछ नहीं है। केवल खोया ही खोया है। पर लगता है कि पिछले पाँच से दस साल में खोने की रफ्तार बढ़ी है। राजनीति, प्रशासन, बिजनेस और सांस्कृतिक जीवन यहाँ तक कि खेल के मैदान में भी भ्रष्टाचार है। जनता अपने ऊपर नजर डाले तो उसे अपने चेहरे में भी भ्रष्टाचार दिखाई देगा। कई बार हम जानबूझकर और कई बार मजबूरी में उसका सहारा लेते हैं। भ्रष्टाचार केवल कानूनी समस्या नहीं जीवन शैली  है। इसका मतलब समझें।  

इतिहास की यात्रा पीछे नहीं जाती। मानवीय मूल्य हजारों साल पहले बन गए थे, पर उन्हें लागू करने की लड़ाई लगातार चलती रही है और चलती रहेगी। भ्रष्टाचार एक बड़ा सत्य है, पर ऐसी व्यवस्थाएं, ऐसे समाज और ऐसे व्यक्ति भी हैं जो इसके खिलाफ लड़ाई लड़ रहे हैं। इसका इलाज तभी सम्भव है जब व्यवस्था पारदर्शी और न्यायपूर्ण हो। जब तक व्यक्तियों के हाथों में विशेषाधिकार हैं, भेदभाव का अंदेशा रहेगा।

Thursday, August 13, 2015

मॉनसून सत्र : सवाल ही सवाल

मॉनसून सत्र तो धुल गया, अब आगे क्या?

  • 25 मिनट पहले
संसद, भारत
उम्मीद नहीं है कि संसद के मानसून सत्र के आखिरी दिन चमत्कार होगा. जो दो महत्वपूर्ण बिल सामने हैं, उनमें से भूमि अधिग्रहण विधेयक अगले सत्र के लिए टल चुका है.
राज्यसभा की प्रवर समिति के सुझावों को शामिल करके जो जीएसटी विधेयक पेश किया गया है, उस पर कांग्रेस ने विचार करने से ही इनकार कर दिया है.
अब आख़िरी दिन यह पास हो पाएगा इसकी उम्मीद कम है.
इस सत्र को नकारात्मक बातों के लिए याद किया जाएगा. राज्यों में आई बाढ़, महंगाई और गुरदासपुर के चरमपंथी हमले जैसे सवालों की अनदेखी के लिए भी.
अब सोचना यह है कि अगले सत्र में क्या होगा? सुषमा स्वराज का इस्तीफा नहीं हुआ तो क्या शीतकालीन सत्र भी जाम होगा?
शायद बिहार के चुनाव परिणाम भावी राजनीति की दिशा तय करेंगे.

शून्य संसद

इस सत्र में पास करने के लिए आठ विधेयक थे. सबसे महत्वपूर्ण थे जीएसटी, भूमि अधिग्रहण, व्हिसल ब्लोवर संरक्षण और भ्रष्टाचार रोकथाम (संशोधन) विधेयक.
भूमि अधिग्रहण विधेयक पर संयुक्त समिति का प्रतिवेदन अब शीत सत्र में ही पेश होगा, इसलिए आखिरी दिन उसकी संभावना नहीं है.
मानसून सत्र में 11 अगस्त तक संसद के दोनों सदनों में 7 विधेयक पेश हुए. तीन वापस लिए गए और चार पास हुए. इनमें से केवल दिल्ली हाईकोर्ट संशोधन बिल ही दोनों सदनों से पास हुआ है. शेष तीन लोकसभा से पास हुए हैं.
इस लोकसभा का पहला साल संसदीय काम के लिहाज से अच्छा रहा. पीआरएस लेजिस्लेटिव रिसर्च के अनुसार इस साल का बजट सत्र पिछले 15 साल में सबसे अच्छा था.
लोकसभा ने अपने निर्धारित समय से 125 फीसदी और राज्यसभा ने 101 फीसदी काम किया. पर मानसून सत्र में ऐसा नहीं हो सका.

अखाड़ा राजनीति

सुषमा स्वराज और शिवराज सिंह
कांग्रेस की छापामार शैली ने नरेंद्र मोदी की दृढ़ता और भाजपा के संख्याबल में सेंध लगा दी. पर गारंटी नहीं कि यह राजनीति वोटर को भी भाएगी और इसके सहारे क्षीणकाय कांग्रेस अपने पैरों पर खड़ी हो जाएगी.
सवाल यह भी पूछा जाएगा कि इस राजनीति के लिए क्या संसद का इस्तेमाल उचित है?
सवाल भाजपा को लेकर भी हैं. गतिरोध तोड़ने के लिए उसने भी कुछ नहीं किया. प्रधानमंत्री सामने नहीं आए. लोकसभा में कार्य-स्थगन के जवाब में उनके सामने आने की उम्मीद थी, जो नहीं हुआ.
भाजपा ने लंबे समय तक विदेशी पूँजी निवेश, बैंकिग और इंश्योरेंस-सुधार और जीएसटी के रास्ते में भी अड़ंगे लगाए थे. संसदीय पवित्रता की दुहाई वह किस मुँह से दे सकती है?