Sunday, August 21, 2011

आंदोलन तैयार कर रहा है एक राजनीतिक शून्य



लड़ाई का पहला राउंड अण्णा हज़ारे के पक्ष में गया है। टीम-अण्णा ने यूपीए को तकरीबन हर मोड़ पर शिकस्त दे दी है। इंडिया अगेंस्ट करप्शन के पास कोई बड़ा संगठनात्मक आधार नहीं है और इतने साधन भी नहीं कि वे कोई बड़ा प्रचार अभियान चला पाते। पर परिस्थितियों और उत्साही युवा कार्यकर्ताओं ने कहानी बदल दी। सोशल नेटवर्किंग साइटों और एसएमएस के रूप में मिली संचार तकनीक ने भी कमाल किया। पर यह आंदोलन की जीत ही नहीं, सरकारी नासमझी की हार भी है। उसने इस आंदोलन को मामूली राजनैतिक बाज़ीगरी मान लिया था। बाबा रामदेव के अनशन को फुस्स करने के बाद सरकार का हौसला और बढ़ गया।

शुक्रवार की शाम रामलीला मैदान पर मीडिया से चर्चा के दौरान अरविन्द केजरीवाल ने कहा, हम चुनाव नहीं लड़ेंगे। हम जनता हैं, जनता ही रहेंगे। बात अच्छी लगती है, अधूरी है। जनता के आंदोलन का अर्थ क्या है? इस दौरान पैदा हुई जन-जागृति को आगे लेकर कौन जाएगा? लोकपाल की माँग राजनैतिक थी तो राजनैतिक माध्यमों के मार्फत आती। जनता लोकपाल विधेयक की बारीकियों को नहीं समझती। उसका गुस्सा राजनैतिक शक्तियों पर है और वह वैकल्पिक राजनीति चाहती है। टीम अण्णा का राजनैतिक एजेंडा हो या न हो, पर इतना साफ है कि यह कांग्रेस-विरोधी है। यूपीए और कांग्रेस का राजनीति हाशिए पर आ गई है। और कोई दूसरी ताकत उसकी जगह उभर नहीं रही है। इस समूचे आंदोलन ने जहाँ देश भर को आलोड़ित कर दिया है वहीं राजनैतिक स्तर पर एक जबर्दस्त शून्य भी पैदा कर दिया है। इस आंदोलन से जो स्पेस पैदा हुआ है उसे कौन भरेगा?

Friday, August 19, 2011

यह जनांदोलन है



इस आंदोलन में दस हजार लोग शामिल हैं या बीस हजार. यह आंदोलन प्रतिक्रयावादी है या प्रतिगामी, अण्णा अलोकतांत्रिक हैं या अनपढ़, इस बहस में पड़े बगैर एक बात माननी चाहिए कि इसके साथ काफी बड़े वर्ग की हमदर्दी है, खासकर मध्यवर्ग की। गाँव का गरीब, दलित, खेत मजदूर यों भी अपनी भावनाएं व्यक्त करना नहीं जानता। उनके नाम पर कुछ नेता ही घोषणा करते हैं कि वे किसके साथ हैं। मध्य वर्ग नासमझ है, इस भ्रष्टाचार में भागीदार है, यह भी मान लिया पर मध्यवर्ग ही आंदोलनों के आगे आता है तब बात बढ़ती है। इस आंदोलन से असहमति रखने वाले लोग भी इसी मध्यवर्ग से आते हैं। आप इस आंदोलन में शामिल हों या न हों, पर इस बात को मानें कि इसने देश में बहस का दायरा बढ़ाया है। यही इसकी उपलब्धि है।



अण्णा हजारे के आंदोलन की तार्किक परिणति चाहे जो हो, इसने कुछ रोचक अंतर्विरोध खड़े किए हैं। बुनियादी सवाल यह है कि  इसे जनांदोलन माना जाए या नहीं। इसलिए कुछ लोग इसे सिर्फ आंदोलन लिख रहे हैं, जनांदोलन नहीं। जनांदोलन का अर्थ है कि उसके आगे कोई वामपंथी पार्टी हो या दलित-मजदूर नाम का कोई बिल्ला हो। जनांदोलन को परिभाषित करने वाले विशेषज्ञों के अनुसार दो बातें इसे आंदोलन बना सकतीं हैं। एक, जनता की भागीदारी। वह शहरी और मध्य वर्ग की जनता है, इसलिए अधूरी जनता है। सरकारी दमन भी इसे आंदोलन बनाता है। पर इस आंदोलन का व्यापक राजनैतिक दर्शन स्पष्ट नहीं है। कम से कम वे प्रगतिशील वामपंथी नहीं हैं। इसलिए यह जनांदोलन नहीं है। बल्कि इनमें राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के कार्यकर्ता घुसे हुए हैं। इस आंदोलन का वर्ग चरित्र तय हो गया कि ये लोग शहरी मध्य वर्ग के सवर्ण और आरक्षण विरोधी आंदोलन चलाने वाले लोग हैं। यह आंदोलन मीडिया ने खड़ा किया है। इसके पीछे भारतीय पूँजीपति वर्ग और अमेरिका है। कुछ लोग इसे अण्णा और कांग्रेस की मिली-भगत भी मानते हैं।

Tuesday, August 16, 2011

जीवंत पत्रकारिता के सवाल


रांची के दैनिक प्रभात खबर की स्थापना करने वाले पत्रकारों के मन में जोशो-खरोश कितना था, इसका आज अनुमान भर लगाया जा सकता है। कारोबारी चुनौतियाँ इस अखबार को खत्म कर देतीं, क्योंकि सिर्फ जोशो-खरोश किसी कारोबार को बनाकर नहीं रखता। अखबार को पूँजी चाहिए। बहरहाल प्रभात खबर का भाग्य अच्छा था और उसे चलाने वाले कृत-संकल्प संचालक और काबिल सम्पादक मिले। मेरे विचार से हरिवंश उस परम्परा के आखिरी बचे चिरागों में से एक हैं, जिनके सहारे हिन्दी पत्रकारिता की राह रोशन हो रही है। वे एक अंतर्विरोध को सुलझाने की कोशिश कर रहे हैं। क्या है वह अंतर्विरोध?

हरिवंश ने इस अंतर्विरोध का जिक्र 14 अगस्त के अपने आलेख में किया है, जिसकी इन पंक्तियों पर गौर किया जाना चाहिएः- एक 20 पेज के सभी रंगीन पेजों के अखबार की लागत कीमत 15 रुपए है. हॉकरों-एजेंटों का कमीशन अलग। पाठकों को ऊपर से पुरस्कार चाहिए। कहा भी जा रहा है कि अखबार उद्योग पाठकों को पढ़ने का पैसा दे रहे हैं। इस पर समाज की मांग कि सात्विक अखबार निकले, पवित्र पत्रकारिता हो। अखबार उपभोक्तावादी समाज, गिफ्ट के लोभी और मुफ्त अखबार चाहनेवाले पाठकों के लिए लड़े? अखबारों की इकोनॉमी, विज्ञापनदाताओं के कब्जे में रहे, पर अखबार समाज के लिए लड़े, यह कामना? क्या इन अंतरविरोधी चीजों पर चर्चा नहीं होनी चाहिए। पाठकों और समाज को इस दोहरे चिंतन पर नहीं सोचना चाहिए। साधन यानी पूंजी पवित्रता से आएगी, बिना दबाव बनाए या बड़े सूद या बड़ा रिटर्न (सूद) की अपेक्षा के, तब शायद साधन यानी पत्रकारिता भी पवित्र होगी। साधन और साध्य के सवाल को अनदेखा कर सही पत्रकारिता संभव है?’

Monday, August 15, 2011

किससे करें फरियाद कोई सोचता भी तो हो


सैंकड़ों नाले करूँ लेकिन नतीजा भी तो हो।
याद दिलवाऊँ किसे जब कोई भूला भी तो हो।



हर साल पन्द्रह अगस्त की तारीख हमें घर में आराम करने और पतंगें उड़ाने का मौका देती है। तमाम छुट्टियों की सूची में यह भी एक तारीख है। सरकारी दफ्तरों, स्कूलों, सार्वजनिक संस्थाओं में औपचारिक ध्वजारोहणों के साथ मिष्ठान्न वितरण की व्यवस्था भी होती है। 26 जनवरी और पन्द्रह अगस्त साल के दो दिन हमने राष्ट्र प्रेम के नाम सुरक्षित कर दिए हैं। तीसरा राष्ट्रीय पर्व 2 अक्टूबर है। एक अलग किस्म की औपचारिकता का दिन। एक बड़ा तबका नहीं जानता कि देश की उसके जीवन में क्या भूमिका है। और देशप्रेम से उसे क्या मिलेगा? करोड़ों अनपढ़ों और गैर-जानकारों की बात छोड़िए।  पढ़े-लिखों के दिमाग साफ नहीं हैं।

Friday, August 12, 2011

महत्वपूर्ण है गवर्नेंस की गुणवत्ता


एक ज़माने में भारतीय कम्युनिस्टों पर आरोप लगता था कि जब मॉस्को में बारिश होती है, वे दिल्ली या कोलकाता में अपने छाते खोल लेते हैं। यह बात अब भारत के बिजनेस पर लागू होती नज़र आती है। अमेरिका के क्रेडिट रेटिंग संकट के बाद भारत का शेयर बाज़ार जिस तरह हिला है, उससे लगता है कि हम वास्तविक अर्थव्यवस्था को जानना-समझना चाहते ही नहीं। मीडिया, जिस तरीके से शेयर बाज़ार की गिरावट को उछालता है वह आग में घी डालने का काम होता है। पूरा शेयर बाजार सिर्फ और सिर्फ कयासों पर टिका है। बेशक यह कारोबार देश की अर्थ-व्यवस्था से जुड़ा है। इसमें मध्य वर्ग की मेहनत की कमाई लगी है, जिसे समझदार विदेशी कम्पनियाँ मिनटों में उड़ा ले जाती हैं। हम देखते रह जाते हैं।

यह हफ्ता दो विदेशी और शेष भारतीय घटनाओं के लिए याद किया जाएगा। इनमें आपसी रिश्ते खोजें तो मिल जाएंगे। यों तीनों के छोर अलग-अलग हैं। अमेरिका की घटती साख के अलावा इंग्लैंड में अफ्रीकी और कैरीबियन मूल के लोगों के दंगे सबसे बड़ी विदेशी घटनाएं हैं। अमेरिका की क्रेडिट रेटिंग घटने से यह अनुमान लगाना गलत होगा कि अमेरिका का डूबना शुरू हो गया है। आज भी डॉलर दुनिया की सबसे साखदार मुद्रा है और इस रेटिंग क्राइसिस के दौरान उसकी कीमत बढ़ी है। कम से रुपए के संदर्भ में तो यह सही है। उसके सरकारी बांड दुनिया में सबसे सुरक्षित निवेश माने जाते हैं। यों मौखिक बात वॉरेन बफेट की है, जिन्होंने कहा है कि हमारे लिए अमेरिका की साख ट्रिपल ए की है, कोई उसे बढ़ाए या घटाए, इससे फर्क नहीं पड़ता। पर यह भावनात्मक बातें हैं। दुनिया पर दबदबा बने रखने की जो कीमत अमेरिका दे रहा है, वह ज्यादा है। इस स्थिति की गोर्बाचौफ के रूस के साथ तुलना करें तो पाएंगे कि संस्थाओं और व्यवस्थाओं में फर्क है, मूल सवालों में ज्यादा फर्क नहीं है।

हम दो बातें एक साथ होते हुए देख रहे हैं। पहली है पूँजी का वैश्वीकरण और दूसरी पूँजीवादी व्यवस्था के अंतर्विरोधों का खुलना। संकट अमेरिका का हो या ग्रीस का अब जी-20 देशों का समूह इसका समाधान खोजता है। यह पूँजीवादी व्यवस्था की शक्ति और सामर्थ्य है कि वह अपने संकटों का समाधान खोज लेने में अभी तक सफल है। सोवियत व्यवस्था ने भी अपने अंतर्विरोधों को सुलझाना चाहा था, पर वे विफल रहे। अभी यह संकट सिर्फ अमेरिका का संकट नहीं है, वैश्विक पूँजीवाद का संकट है। वैश्विक पूँजी के और विस्तार के बाद हम इसके वास्तविक अंतर्विरोधों को देख पाएंगे। अमेरिकी व्यवस्था में पिछले कुछ दशक से कॉरपोरेट सेक्टर ने राजनीति की जगह ले ली है। ऐसा ही भारत में करने का प्रयास है। पर क्या यूरोप, चीन और भारत में अंतिम रूप से सफल हो जाएगा?

आज अमेरिका के तीन हजार अरब डॉलर के सरकारी बॉण्ड चीन के पास हैं। अमेरिका का बजट घाटा चीनी मदद से होता है। आज से तीन दशक पहले चीन के पास तीन हजार डॉलर छोड़, इतने डॉलर नहीं थे कि कायदे से वह अंतरराष्ट्रीय व्यापार कर पाता। वह विश्व व्यापार संगठन का सदस्य तक नहीं था। सारे डॉलर अमेरिकी व्यवस्था की मदद से ही तो आए। चीन की अर्थ-व्यवस्था अमेरिका और यूरोप के लिए सस्ता माल तैयार करने वाली व्यवस्था है। जापानी अर्थ-व्यवस्था भी इसी तरह बढ़ी थी। पर भारतीय व्यवस्था में तमाम पेच हैं। यह निर्यात आधारित अर्थ-व्यवस्था नहीं है। हमारा मध्य वर्ग तेजी से बढ़ रहा है। हमें स्थानीय उपभोग के लिए औद्योगिक विस्तार करना है। खेतिहर समाज से औद्योगिक समाज में हमारे रूपांतरण को अनेक लोकतांत्रिक परीक्षणों से गुजरना पड़ रहा है। यह हमें अजब-गजब लगता है, पर कम से कम चीन से बेहतर है। वहाँ की सरकारी नीतियाँ इस तरीके के संसदीय परीक्षण से नहीं गुजरतीं। बेशक पार्टी का लोकतंत्र है, पर वह खुला लोकतंत्र नहीं है।

हम चीन के विशाल हाइवे और सुपरफास्ट ट्रेनों से हतप्रभ हैं। वास्तव में यह तारीफ के काबिल उपलब्धियाँ हैं, पर यह बड़े स्तर की शोकेसिंग भी है। और जो कुछ आप वहां देख रहे हैं, वह डॉलर में मिलता है। सार्वजनिक पूँजी का काफी बड़ा हिस्सा इस शोकेसिंग में लगाया गया है। पर जब सुपरफास्ट ट्रेन की दुर्घटना होती है तब पता लगता है कि उस देश के लोग भी कहीं विचार करते हैं। हमें चीन की जनता के विचारों से रूबरू होने का मौका कम मिलता है। चीन को आने वाले वक्त में जबर्दस्त लोकतांत्रिक आंदोलनों का सामना करना होगा। साथ ही यह भी देखना होगा कि वहाँ की कम्युनिस्ट पार्टी कॉरपोरेट सेक्टर की खिदमतगार है या नहीं। यह भी देखना चाहिए कि चीन ने अपने आर्थिक इन्फ्रास्ट्रक्चर के अलावा शिक्षा, सार्वजनिक स्वास्थ्य, आवास और जन कल्याण के दूसरे कामों को किस तरीके से साधन मुहैया कराए हैं। अंततः जनता का मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य आने वाले वक्त में राजनैतिक व्यवस्था के स्वास्थ्य को निर्धारित करेगा।

भारतीय शेयर मार्केट पिछले कुछ दिनों से वोलटाइल चल रहे हैं। चीन, सिंगापुर या हांगकांग के शेयर बाजार ऐसा व्यवहार करें तो समझ में आता है। हमारा तो कुल अंतरराष्ट्रीय कारोबार में दो फीसदी हिस्सा है। इसकी एक वजह है कि विदेशी निवेशक आने वाले संकट को समय से पहले भाँप जाते हैं और अपना नफा निकाल कर फुर्र हो जाते हैं। यह हमारी व्यवस्था का दोष भी है। पूँजी बाजार के रेग्युलेशन में अभी और काम होना बाकी है। भारतीय लोकतांत्रिक संस्थाओं, व्यवस्थाओं के साथ-साथ गवर्नेंस और नियामन में कड़ाई की ज़रूरत है। यदि इतने बड़े स्तर पर बगैर किसी स्थानीय वजह के शेयर बाजार टूटते हैं तो रेग्युलेटरों को देखना होगा कि चूक कहाँ हुई। मॉरीशस लेकर आइल ऑफ मैन तक अर्थ-व्यवस्था के अनेक ब्लैक होल बने हैं।

जो लोग कहते हैं कि शेयर बाज़ार अर्थ-व्यवस्था इंडीकेटर है, उन्हें पहले शेयर बाजार को कारोबार से जोड़ना होगा। कम्पनियाँ एक बार आईपीओ लाकर जनता से पैसा वसूलती हैं, उसके बाद सेकंडरी मार्केट को मैनीपुलेट करती हैं। यह पैसा कम्पनियों के विस्तार पर खर्च नहीं होता। कम्पनियों के परफॉर्मेंस से शेयर बाजार का जो रिश्ता होना चाहिए, वह हमारे यहाँ नहीं है। इसमें कई तरह के स्वार्थी तत्वों ने सेंध लगा रखी है। अभी हम टू-जी के संदर्भ में कॉरपोरेट महारथियों के विवरण पढ़ रहे हैं। कॉरपोरेट क्राइम पर हमारा ध्यान अब गया है।

हाल में उत्तर प्रदेश में तीन सीएमओ की मौतों के बाद सार्वजनिक स्वास्थ्य के घोटालों की ओर हमारी निगाहें घूमी हैं। मोटी बात यह है कि मनरेगा, सार्वजनिक वितरण व्यवस्था और जन स्वास्थ्य से लेकर कम्पनी कारोबार तक हर जगह हमें गवर्नेंस और नियामन की विफलता नज़र आती है। अनेक परेशानियों के केन्द्र अमेरिका या चीन में होंगे, पर वास्तविक परेशानियाँ हमारे भीतर हैं। एक माने में भारत नई दुनिया है, जिसे अपने आप को खुद परिभाषित करना है। हम प्रायः बात करते हैं तो मानते हैं कि चीन से हमें अपनी तुलना नहीं करनी चाहिए। हम उसके सामने कहीं नहीं हैं। ठीक बात होगी, पर चीन ने ऐसा तीन दशक में किया है। हम कोशिश करें तो एक दशक में परिस्थितियाँ बदल जाएंगी। बल्कि संसदीय बहस वगैरह बंद कराकर आँख मूँदकर सारे नियमों-कानूनों को पास कराते जाएं तो हमें भी सपनों का देश मिल जाएगा, जिसमें शानदार इमारतें, सड़कें, रोशनी और टीवी शो होंगे। हम अमेरिका जैसा बनना चाहते हैं तो वहाँ के शिक्षा, स्वास्थ्य और जन कल्याण के सार्वजनिक कार्यक्रमों को भी तो लाना होगा। विकास माने खुशहाली है चमकदार सड़कें नहीं। चमकदार सड़कें सबके लिए खुशहाली की सौगात ला सकें उससे बेहतर और क्या होगा।

विदेशी घटनाओं के संदर्भ में इंग्लैंड के दंगे इस हफ्ते की प्रमुख घटना है। मोटे तौर पर ये दंगे अफ्रीकी और कैरीबियन मूल के लोगों और इंग्लैंड के जंकीज़ का उत्पात है। इनमें ज्यादातर अपराधी हैं और मुफ्त की कमाई चाहते हैं। पर गहराई से जाएं तो इनके पीछे पिछले साल आई नई सरकार द्वारा पैदा की गई नई उम्मीदों का मर जाना है। सामान्य दंगे होते तो दो-एक दिन में खत्म हो जाते। इंग्लैंड में यह छुट्टियों का वक्त हैं। छुट्टियाँ रद्द करके महत्वपूर्ण सांसद वापस आ रहे हैं। वहाँ की संसद बैठने वाली है। ब्रिटिश संसद गम्भीर विचार करती है। हमारे लिए संदर्भ सिर्फ इतना है कि ऐसे झगड़ों के कारण कहीं और होते हैं। और अंततः वे नॉन गवर्नेंस पर आकर रुकते हैं। जिस देश में जनता और सरकार समझदार हों वहाँ संकट नहीं होते।