बांग्लादेश में शेख हसीना की सरकार के विरुद्ध हुई बगावत और उसके बाद डॉ मुहम्मद यूनुस के नेतृत्व में कार्यवाहक सरकार के गठन के बाद दक्षिण एशिया की राजनीति में रातोंरात बड़ा बदलाव हो गया है। डॉ यूनुस को देश का मुख्य सलाहकार कहा गया है, पर व्यावहारिक रूप से यह प्रधानमंत्री का पद है। उन्हें प्रधानमंत्री या उनके सहयोगियों को मंत्री इसलिए नहीं कहा गया है, क्योंकि संविधान में ऐसी कोई व्यवस्था नहीं है। पहला सवाल है कि क्या यह सरकार शीघ्र चुनाव कराएगी? डॉ यूनुस ने संकेत दिया है कि हम जल्दी चुनाव नहीं कराएंगे, बल्कि देश में बड़े स्तर पर सुधारों का काम करेंगे।
उनसे पूछा गया कि कैसे सुधार, तब उन्होंने कहा कि चुनाव आयोग, न्यायपालिका, प्रशासनिक मशीनरी और मीडिया में सुधार की जरूरत है। देश में अब जो हो रहा है, उसका परिणाम क्या होगा यह कुछ समय बाद स्पष्ट होगा। ज्यादा बड़े सवाल सांविधानिक-संस्थाओं से जुड़े हैं, मसलन अदालतें। पूर्व प्रधानमंत्री खालिदा ज़िया को राष्ट्रपति के आदेश से रिहा कर दिया गया है। क्या यह संविधान-सम्मत कार्य है? इसी तरह एक अदालत ने मुहम्मद यूनुस को आरोपों से मुक्त कर दिया। क्या यह न्यायिक-कर्म की दृष्टि से उचित है? ऐसे सवाल आज कोई नहीं पूछ रहा है, पर आने वाले समय में पूछे जा सकते हैं।
व्यवस्था की बहाली
पद संभालने के बाद डॉ यूनुस ने कहा है कि कानून
व्यवस्था बहाल करना पहला काम होना चाहिए। उन्होंने अलग-अलग जगहों पर हुए हमलों या
हमले की साजिश का जिक्र करते हुए कहा, हमारा काम हर
किसी की रक्षा करना है। वे कैबिनेट
विभाग, रक्षा, शिक्षा, खाद्य, भूमि मंत्रालय समेत कुल 27 मंत्रालयों के प्रभारी हैं। पूर्व विदेश सचिव मुहम्मद तौहीद हुसैन
को विदेश मंत्रालय की जिम्मेदारी मिली है। बांग्लादेश बैंक के पूर्व गवर्नर सालेह
उद्दीन अहमद नई सरकार के वित्तमंत्री हैं।
मीडिया रिपोर्टों के अनुसार छात्र आंदोलन ने नई
सरकार का कार्यकाल तीन साल तक रखने का प्रस्ताव दिया है। उधर बीएनपी सहित दूसरे राजनीतिक
दलों ने संविधान के मुताबिक तीन महीने के भीतर चुनाव की माँग की है। वे कहते हैं
कि अनिर्वाचित सरकार लंबे समय तक नहीं चल
सकती। अवामी लीग के नेता सार्वजनिक रूप से सामने नहीं है। समय के साथ वे भी सामने
आएंगे। अवामी लीग फिलहाल परास्त है, पर वह छोटी राजनीतिक शक्ति नहीं है। हालांकि
शेख हसीना के खिलाफ अदालतों में आपराधिक मुकदमे दायर किए जा रहे हैं, पर संभव है
कि कुछ समय बाद उनकी स्वदेश-वापसी हो।
आंदोलनकारियों की माँग थी कि सुप्रीम कोर्ट के
जजों को बर्खास्त किया जाए। यह माँग केवल सुप्रीम कोर्ट तक सीमित नहीं थी। मंडलों
और देश के 64 जिलों में भी अदालतें हैं और शिकायतें उनसे भी कम नहीं हैं। देश के
मुख्य न्यायाधीश ने इस्तीफा दे दिया है और तमाम अदालतों के जज इस्तीफे दे रहे हैं।
सरकारी विधिक अधिकारियों यानी कि अटॉर्नी जनरल वगैरह को राजनीतिक पहचान के आधार पर
नियुक्त किया जाता है। उन्होंने इस्तीफे दे दिए हैं, पर अदालतों और जजों की संख्या
छोटी नहीं है और कहाँ से आएंगे ये सब? आएंगे भी तो क्या वे राजनीति से प्रेरित
नहीं होंगे?
हलचल क्षेत्र
डॉ यूनुस की सरकार को कानून-व्यवस्था कायम करने
के बाद राजनीति, अर्थव्यवस्था और विदेश-नीति को सुव्यवस्थित करना होगा। हमारे
पड़ोसी पाकिस्तान, अफगानिस्तान, नेपाल, मालदीव, श्रीलंका और बांग्लादेश कमोबेश
मिलती-जुलती समस्याओं के शिकार हैं। यही हाल पड़ोसी देश म्यांमार का भी है। इन सभी
देशों में ‘क्रांतियों’ ने यथास्थिति को तोड़ा तो है, पर सब
के सब असमंजस में हैं। इन ज्यादातर देशों में मालदीव और बांग्लादेश के ‘इंडिया आउट’ जैसे अभियान चले थे।
और अब सब भारत की सहायता भी चाहते हैं।
पहले तय करना होगा कि बांग्लादेश में हुआ क्या
है। क्या यह लोकतांत्रिक-क्रांति है, जिसने एक तानाशाह का तख्तापलट किया है या
छात्रों की भीड़ के सहारे सत्तारूढ़ दल के विरोधियों को पदस्थापित किया है, जिसमें
बाहरी ताकतों का हाथ भी है? करीब 18 करोड़ की आबादी वाले देश में
डेढ़-दो लाख लोगों को लाठियों और तलवारों से लैस करके सड़कों पर उतार देने मात्र
से क्रांति नहीं होती। इससे जनता की भूमिका तय नहीं होती। इसमें आधा खेल पश्चिमी
मीडिया का है। शेख हसीना और उनके सहयोगियों की नासमझी का तड़का भी इसमें लगा है।
शेष पाकिस्तान
शायद बांग्लादेश में मौजूद ‘शेष-पाकिस्तान’ की यह प्रतिक्रांति
है। अन्यथा बंगबंधु की प्रतिमा को तोड़ा नहीं जाता। हमारे
पास कुछ कयास और अधूरे तथ्य हैं। फिर भी कह सकते हैं कि कुछ महीनों या संभव है
वर्षों में, बांग्लादेश का सत्य सामने आएगा। एक भारतीय अखबार की रिपोर्ट के अनुसार
हसीना ने आरोप लगाया है कि अमेरिका ने उनसे सेंट मार्टिन द्वीप मांगा था, जिसे न देने पर उन्हें सत्ता गँवानी पड़ी। अमेरिका इस द्वीप के जरिए
बंगाल की खाड़ी में अपना वर्चस्व स्थापित करना चाहता था।
बांग्ला राष्ट्रपति ने इस अंतरिम सरकार के गठन
पर सुप्रीम कोर्ट से राय माँगी थी। मुख्य न्यायाधीश ओबैदुल हसन की अध्यक्षता वाले
अपीलीय प्रभाग ने अंतरिम सरकार के गठन के पक्ष में फौरन अपनी राय दे दी। बावजूद
इसके कि संविधान में कार्यवाहक या अंतरिम सरकार का कुछ भी उल्लेख नहीं है। फिर भी यह
अंतरिम सरकार हकीकत है। ओबैदुल हसन को पिछले साल ही नियुक्त किया गया था। इसके
पहले वे युद्ध अपराध न्यायाधिकरण के अध्यक्ष थे। इस न्यायाधिकरण ने ही कई वरिष्ठ
नेताओं को मृत्युदंड दिया था। बहरहाल नई सरकार बनने के एक दिन बाद ही उन्होंने
इस्तीफा दे दिया और उनके स्थान पर अशफाकुल इस्लाम को देश का कार्यवाहक मुख्य
न्यायाधीश नियुक्त कर दिया गया।
सुप्रीम कोर्ट के वकील ज्योतिर्मय बरुआ ने ‘आजकेर
अखबार’ से कहा, दरअसल,
संविधान में ऐसी अंतरिम सरकार का कोई प्रावधान नहीं है। यह हमारे लिए
एक नई अवधारणा है। देखना होगा कि लोग क्या चाहते हैं, राजनीतिक
दल क्या चाहते हैं। संविधान के सातवें भाग में चुनाव के दौरान अनुच्छेद 123(3)(बी)
में कहा गया है कि यदि कार्यकाल समाप्त होने के अलावा किसी अन्य कारण से संसद भंग
हो जाती है, तो चुनाव अगले 90 दिनों के भीतर होंगे। 123 की
धारा 4 में कहा गया है कि किसी प्राकृतिक आपदा के कारण यह संभव नहीं है, तो उक्त अवधि के अंतिम दिन के बाद 90 दिन के भीतर चुनाव कराया जाएगा।
हसीना का जनाधार
ऐसे माहौल में जब हसीना को विलेन घोषित कर दिया
गया है, गोपालगंज और बरगुना मुख्यालय में उनके समर्थन में प्रदर्शन हुए हैं।
उन्हें सम्मान के साथ देश वापस लाने की माँग की गई है। प्रदर्शन के दौरान उन्होंने
लाठी, हॉकी स्टिक और अन्य धारदार हथियार लहराए और
नारे लगाए। गोपालगंज शेख हसीना का गृह जिला है। प्रदर्शनकारियों ने कहा, हमारे
नेता को षड्यंत्रकारी तरीके से देश छोड़ने के लिए मजबूर किया गया है। हमने उन्हें वापस
लाने की कसम खाई है।
दूसरी तरफ शेख हसीना को आपराधिक मामलों में
लपेटने की कोशिशें भी शुरू हो गई हैं। छात्र आंदोलन को दबाने के लिए की गई गोलीबारी
के मामले में हसीना और पूर्व परिवहन एवं पुल मंत्री ओबैदुल कादिर समेत सात लोगों
के खिलाफ दर्ज हत्या के मामले को स्वीकार करने का आदेश कोर्ट ने मोहम्मदपुर थाने
को दिया है। मंगलवार को एसएम अमीर हमज़ा नाम के कारोबारी ने इस हत्याकांड के लिए
ढाका मेट्रोपोलिटन मजिस्ट्रेट राजेश चौधरी की अदालत में अर्जी दी थी। सीएमएम कोर्ट
ने वादी का बयान लिया और बाद में यह आदेश दिया।
भारतीय चिंता
सामान्य भारतीय के नाते हमारे पास दो-तीन सवाल
हैं। बांग्लादेश हमारा निकटतम पड़ोसी होने के अलावा शेख हसीना के कार्यकाल में
निकटतम मित्र-देश भी था। इस मित्रता का अब क्या बनेगा? डिप्लोमेसी
में मित्र-देश जैसा कुछ नहीं होता। असल चीज होती है, राष्ट्रीय हित। हमारे हित
हैं, तो बांग्लादेश के भी कुछ हित हैं, जिन्हें भारत ही पूरे कर सकता है। भारत
सरकार को फिलहाल देश की सभी राजनीतिक शक्तियों के साथ संपर्क स्थापित करना होगा।
बांग्लादेशी अल्पसंख्यक खुद को असुरक्षित मान
रहे हैं। इनमें हिंदू, ईसाई, अहमदिया और शिया मुख्यतः हैं। भारतीय मीडिया में जहाँ हिंदुओं पर हमलों की खबरें हैं, वहीं
बांग्लादेश, पाकिस्तान और अलजज़ीरा जैसे अंतरराष्ट्रीय मीडिया में इन खबरों को
अतिरंजना बताया गया है। स्वयं डॉ यूनुस ने भी इसे अतिरंजना बताया है। अमेरिकी प्रशासन के अंतरराष्ट्रीय धार्मिक स्वतंत्रता आयोग
(यूएससीआईआरएफ) ने ट्वीट किया है कि चर्चों, अहमदिया मस्जिदों और हिंदू मंदिरों पर
हमले चिंताजनक हैं। सने अमेरिकी विदेश मंत्रालय से आग्रह किया है कि वह सभी
धार्मिक समुदायों की सुरक्षा को सुनिश्चित कराए।
हिंदुओं पर हमले
अल्पसंख्यकों, खासतौर से हिंदुओं पर हमलों को
लेकर दो-तीन तरह की खबरें सामने आ रही हैं। एक नज़रिया है कि देश में भयानक हिंसा
हो रही है, घर जल रहे हैं और महिलाएं मदद की गुहार लगा रही
हैं। ऐसे वीडियो सोशल मीडिया पर घूम रहे हैं। इनके अनुसार बांग्लादेश में ‘हिंदू
नरसंहार’ चल रहा है। ऐसे वीडियो केवल भारतीय ही नहीं,
ब्रिटेन के दक्षिणपंथी हैंडल काफी शेयर कर रहे हैं। इनमें से काफी भ्रामक भी हैं। मतलब
यह नहीं है कि हमले नहीं हुए हैं। बांग्लादेश हिंदू बौद्ध ईसाई ओइक्य परिषद और
बांग्लादेश पूजा उद्जाज परिषद नाम के दो संगठनों ने दावा किया है कि शेख हसीना के
पतन के बाद देश के कुल 64 में से 50 जिलों में अल्पसंख्यक लोगों पर दो सौ के आसपास
हमले हुए हैं।
देश की कार्यवाहक सरकार के प्रमुख मोहम्मद
यूनुस ने ढाका के ढाकेश्वरी मंदिर में जाकर हिंदू समुदाय को भरोसा दिलाया कि हम
आपकी रक्षा करेंगे और सभी को न्याय मिलेगा। 2022 में हुई जनगणना के अनुसार देश में
एक करोड़ 31 लाख के आसपास हिंदू हैं, जो पूरी जनसंख्या का 7.96 प्रतिशत है।
गोपालगंज, मौलवीबाज़ार, ठाकुरगाँव और खुलना इन चार जिलों में हिंदुओं की आबादी 20
से 27 प्रतिशत तक है। 13 जिलों में वे 15 प्रतिशत से ज्यादा हैं। देश में अन्य
अल्पसंख्यक कुल मिलाकर एक फीसदी के आसपास हैं। देश की कुल 16.51 करोड़ की आबादी
में 91.08 फीसदी मुसलमान हैं।
1901 के आसपास हुई जनगणना में अविभाजित बंगाल
के इस इलाके में हिंदुओं की आबादी 33 फीसदी के आसपास थी। 1941 से 1974 के बीच यहाँ
से हिंदुओं का बड़ा पलायन हुआ। विभाजन के समय पूर्वी पाकिस्तान से करीब 3.44 करोड़
शरणार्थी भारत आए थे। उस समय यहाँ हिंदुओं की आबादी 1.18 करोड़ रह गई थी, वहीं
1951 में वह और घटकर 92 लाख हो गई, जो 2001 में बढ़कर फिर से 1.18 करोड़ हो गई और
आज भी करीब-करीब उतनी ही है। हिंदुओं की जन्मदर भी मुसलमानों की तुलना में कम रही
है।
कट्टरपंथी इस्लाम
भारत को सबसे बड़ा डर है कट्टरपंथी इस्लाम के
उभार का। शेख हसीना ने छात्रों के जिस आंदोलन को दबाने का प्रयास किया था, उसे
लेकर उन्होंने कहा था कि ये रज़ाकार हैं। एक तबका मानता है कि हिंसा प्रधानमंत्री
शेख हसीना के 14 जुलाई के बयान के बाद भड़की, जिसमें
उन्होंने कहा, ‘मुक्ति-योद्धाओं के पोते-पोतियों को
कोटा लाभ मिलेगा या रज़ाकारों के पोते-पोतियों को?’ यह
बात सरकारी नौकरियों में आरक्षण के संदर्भ में कही गई थी। आंदोलनकारी छात्रों का
कहना था कि हसीना ने हमारी तुलना 'रज़ाकारों' से
करके हमारे के सम्मान को 'चोट' पहुंचाई।
सरकार की ओर से सोशल मीडिया पर वायरल हुए एक वीडियो का हवाला भी दिया गया, जिसमें छात्र चिल्लाते नजर आ रहे हैं-‘तुम कौन, मैं कौन? रज़ाकार, रज़ाकार।’
शेख हसीना के बयान के बाद अवामी लीग के महासचिव
ओबेदुल कादर ने एक प्रेस कॉन्फ्रेंस में कहा कि आंदोलनकारियों का एक तबका
रज़ाकारों के पक्ष में है। आंदोलन का शुरुआती स्वरूप सांप्रदायिक या राजनीतिक नहीं
था, पर बीच में ऐसा भी लगा कि यह छात्रों के हाथों
से निकल कर किन्हीं दूसरे लोगों के हाथों में चला गया। इस दौरान प्रयुक्त हुए
‘रज़ाकार’ शब्द ने भी माहौल को नया मोड़ दिया था।
बांग्लादेश में यह अपशब्द है, हालांकि अरबी और फ़ारसी में इसका शाब्दिक अर्थ है स्वयंसेवक या सहायक।
यह शब्द भारत के विभाजन के समय प्रचलन में था. हैदराबाद रियासत में अर्धसैनिक बल
या होम गार्ड को रज़ाकार कहा जाता था. उन्होंने 1947 में भारत की आजादी के बाद
हैदराबाद के भारतीय गणराज्य में विलय का विरोध किया था। बांग्लादेश में 1971 में
जमात-ए-इस्लामी के वरिष्ठ सदस्य मौलाना अबुल कलाम मोहम्मद यूसुफ़ ने रज़ाकारों की
पहली टीम बनाई थी। उन्हें पाकिस्तानी सेना के मुखबिरों का काम लिया गया। उन्हें
मुक्ति-योद्धाओं से लड़ने के लिए हथियार भी दिए गए थे।
जमाते इस्लामी
1971 की लड़ाई में जमाते इस्लामी ने पाकिस्तानी
सेना का खुलकर साथ दिया था। शेख हसीना ने अपने शासनकाल में सबसे ज्यादा जमाते
इस्लामी के कार्यकर्ताओं का दमन किया। उन्होंने एक युद्ध अपराध न्यायाधिकरण की
स्थापना की, जिसने जमाते के लोगों को चुन-चुनकर सजाएं दीं। सबसे नाटकीय घटनाक्रम
था 11 मई, 2016 को जमात के नेता मतीउर रहमान निज़ामी को दी गई फाँसी। इससे जमात का
असर कम हो गया। जमाते इस्लामी की मूलतः स्थापना 26 अगस्त, 1941 को अविभाजित भारत
के शहर लाहौर में हुई थी।
शुरू में जमात मुहम्मद अली जिन्ना के पाकिस्तान
आंदोलन के खिलाफ थी, पर पाकिस्तान की स्थापना हो जाने के बाद उसने शरिया के शासन
की माँग अपना ली। उसका संबंध जमाते इस्लामी हिंद से रहा भी नहीं। तत्कालीन पूर्वी
पाकिस्तान में उसके नेता थे गुलाम आज़म। उन्होंने ही जमात की छात्र शाखा छात्र
शिविर का गठन किया, जिसे वर्तमान आंदोलन के पीछे माना जाता है। इस संस्था का
पाकिस्तानी सत्ता से टकराव चलता ही रहा। पाकिस्तान में इसके नेता थे मौलाना
मौदूदी।
इस संगठन ने 1965 में पाकिस्तान के राष्ट्रपति
चुनाव में अयूब खान के विरुद्ध एक महिला फातिमा जिन्ना का समर्थन किया था। पूर्वी
पाकिस्तान में शेख मुजीबुर्रहमान के सक्रिय होने के बाद जमात ने उनका विरोध करना
शुरू कर दिया। 1970-71 में जब बांग्लादेश आंदोलन चल रहा था, तब जमात ने पाकिस्तान
को बने रखने का समर्थन किया। पर बांग्लादेश की स्थापना के बाद 1990 में जब सैनिक
शासन के विरुद्ध अवामी लीग और बांग्लादेश नेशनलिस्ट पार्टी ने लोकतंत्र की स्थापना
का आंदोलन चलाया, तब जमात ने भी उनका समर्थन किया।
बाद में यह संगठन बीएनपी के साथ चला गया। 1999
में बनी सरकार में यह बीएनपी का सहयोगी दल था। 1992 में अयोध्या में बाबरी मस्जिद
के विध्वंस के बाद इसने फिर से सांप्रदायिक एजेंडा पर काम करना शुरू कर दिया।
खालिदा ज़िया की सरकार के अलोकप्रिय होने के बाद एकबार फिर से सैनिक शासन की
स्थापना हुई और फिर शेख हसीना की सरकार आई। शेख हसीना ने 1971 के युद्ध अपराधों के
आधार पर जमात का दमन शुरू किया। 2016 में मतीउर रहमान की फाँसी के बाद से शफीक़ुर
रहमान इसके नेता हैं। औपचारिक रूप से इस संगठन पर पाबंदी है। देखना यह भी होगा कि
कार्यवाहक सरकार इसके बारे में क्या फैसला करती है।
भारत की भूमिका
भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने सोशल
मीडिया एक्स पर डॉ यूनुस को बधाई देते हुए लिखा कि हम हिंदू और अन्य अल्पसंख्यक
समुदायों की सुरक्षा सुनिश्चित करते हुए सामान्य स्थिति में शीघ्र वापसी की उम्मीद
करते हैं। भारत सरकार ने नई सरकार बनने के पहले ही बांग्लादेश-प्रशासन से संपर्क
साध लिया था। विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता रणधीर जायसवाल ने कहा कि बांग्लादेश के
नागरिकों की राय सर्वोच्च है। उन्होंने भी अल्पसंख्यकों पर हुए हमलों का उल्लेख
करते हुए बांग्लादेश सरकार को याद दिलाया कि अपने नागरिकों की रक्षा करना ‘हरेक सरकार’ का दायित्व है।
उन लोगों को वापस भारत
लाया जा रहा है, जो भारतीय परियोजनाओं में काम कर रहे हैं। इनमें इरकॉन खुलना,
लार्सन एंड टूब्रो, राइट्स, टाटा प्रोजेक्ट्स, एफकॉन्स और ट्रांसरेल सिराजगंज समेत
दूसरी परियोजनाओं से जुड़े कर्मी भी शामिल हैं। भारतीय विदेश-नीति की दृष्टि से
सबसे बड़ा काम शेख हसीना को लेकर है। वे भारत जब पहुँची, तब माना जा रहा था कि
संभवतः वे लंदन चली जाएंगी। पर बाद में उसमें दिक्कतें पेश आईं। शेख हसीना की
सुरक्षा इस समय सबसे महत्वपूर्ण कार्य है।
भारत सरकार को नई
व्यवस्था के साथ तादात्म्य बैठाना होगा। बेशक शेख हसीना के साथ भारत के रिश्ते एक
अलग सतह पर थे, पर उनका पराभव एक सच्चाई है, जिसे स्वीकार करना होगा। नई सरकार के
शपथ-समारोह में भारत के उच्चायुक्त प्रणय वर्मा की उपस्थिति से भी यह साबित हुआ है।
देश में स्थितियों को सामान्य बनाने में भारत को सहयोग करना होगा। छात्र नेताओं से
भी संपर्क बनाना होगा। यह पता लगाने की कोशिश भी होगी कि इस असंतोष का मूल स्रोत
कहाँ है। यदि यह वैध लोकतांत्रिक-अभिव्यक्ति है, तो इससे अच्छा और क्या होगा? पर, यदि बात कुछ और है, तो उसका पता भी लगना चाहिए।
पाकिस्तान
परस्ती
कुछ लोग मानते हैं कि हसीना
को देश छोड़ना नहीं चाहिए था। उनकी प्रतिस्पर्धी खालिदा ज़िया ने देश नहीं छोड़ा
और जेल में रहना स्वीकार किया। वे भूल जाते हैं कि शेख हसीना के जीवन पर खतरा है।
15 अगस्त, 1975 को उनके पिता समेत पूरे परिवार की हत्या कर दी गई थी। उनके शत्रु
उन्हें मार डालना चाहते हैं। जिस तरह से बंगबंधु की प्रतिमाओं को ध्वस्त किया गया
है, उससे इस आशंका को बल मिलता है कि बांग्लादेश में 1971 की ‘क्रांति’ के बावजूद जो ‘शेष-पाकिस्तान’ बचा रह गया था, उसने सिर उठा लिया है। यह बात कुछ दिन में ही साफ हो जाएगी कि यह
‘शेष-पाकिस्तान’ इस नए बांग्लादेश का
नियंता है या नहीं।
खालिदा जिया ने देश
नहीं छोड़ा, पर उनके बेटे तारिक रहमान ने छोड़ा। उन्हें भी अदालतों ने सजाएं दी थी, पर वे 2008 में इलाज के नाम पर लंदन चले गए थे। तब अवामी
लीग की सरकार आई नहीं थी। अब वे लंदन से पार्टी का संचालन कर रहे हैं। समय बताएगा कि भविष्य में उनकी भूमिका क्या
होगी।
भारत वार्ता
में प्रकाशित
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