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Friday, March 20, 2015

क्या ‘मोदी मैजिक’ को तोड़ सकती है कांग्रेस?

सोनिया गांधी ‘सेक्युलर’ ताकतों को एक साथ लाने में कामयाब हुईं हैं. पिछले साल लोकसभा चुनाव के पहले इस किस्म का गठजोड़ बनाने की कोशिश हुई थी, पर उसका लाभ नहीं मिला. राज्यों के विधानसभा चुनावों में इसकी कोशिश नहीं हुई. केवल उत्तर प्रदेश, बिहार और राजस्थान के उपचुनावों में इसका लाभ मिला. उसके बाद दिल्ली के विधानसभा चुनाव में प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप में यह एकता दिखाई दी. निष्कर्ष यह है कि जहाँ मुकाबला सीधा है वहाँ यदि एकता कायम हुई तो मोदी मैजिक नहीं चलेगा.

क्या इस कांग्रेस भाजपा विरोधी मोर्चे का नेतृत्व कांग्रेस करेगी? पिछले हफ्ते की गतिविधियों के आधार पर यह निष्कर्ष निकालने की जल्दबाजी नहीं करनी चाहिए. भूमि अधिग्रहण विधेयक को लेकर सोनिया गांधी के नेतृत्व में 14 पार्टियों के नेतृत्व में राष्ट्रपति भवन तक हुआ मार्च कई मानों में प्रभावशाली था, पर इसमें विपक्ष की तीन महत्वपूर्ण पार्टियाँ शामिल नहीं थीं. संयोग है कि तीनों विपक्ष की सबसे ताकतवर पार्टियाँ हैं. अन्नाद्रमुक, बीजू जनता दल और बसपा की अनुपस्थिति को भी समझने की जरूरत है. कह सकते हैं कि मोदी-रथ ढलान पर उतरने लगा है, पर अभी इस बात की परीक्षा होनी है. और अगला परीक्षण स्थल है बिहार.

Tuesday, December 30, 2014

‘छवि’ की राजनीति से घिरी कांग्रेस

कांग्रेस के लिए आने वाला साल चुनौतियों से भरा है। चुनौतियाँ बचे-खुचे राज्यों में इज्जत बचाए रखने और अपने संगठनात्मक चुनावों को सम्पन्न कराने की हैं। साथ ही पार्टी के भीतर सम्भावित बगावतों से निपटने की भी। पर उससे बड़ी चुनौती पार्टी के वैचारिक आधार को बचाए रखने की है। इस हफ्ते अचानक खबर आई कि राहुल गांधी ने पार्टी के महासचिवों से कहा है कि वे कार्यकर्ताओं से सम्पर्क करके पता करें कि क्या हमारी छवि हिन्दू विरोधी पार्टी के रूप में देखी जा रही है। लगता है कि राहुल का आशय केवल हिन्दू विरोधी छवि के सिलसिले में पता लगाना ही नहीं है, बल्कि पार्टी की सामान्य छवि को समझने का है। राहुल ने यह काम देर से शुरू किया है। खासतौर से पराजय के बाद किया है। इसके खतरे भी हैं। पिछले तीनेक दशक में कांग्रेस संगठन हाईकमान-मुखी हो गया है। कार्यकर्ता जानना चाहता है कि हाईकमान का सोच क्या है। पार्टी के भीतर नीचे से ऊपर की ओर विचार-विमर्श की कोई पद्धति नहीं है। यह दोष केवल कांग्रेस का दोष नहीं है। भारतीय जनता पार्टी से लेकर जनता परिवार से जुड़ी सभी पार्टियों में यह कमी दिखाई देगी। आम आदमी पार्टी ने इस दोष को रेखांकित करते हुए ही नए किस्म की राजनीति शुरू की थी, पर कमोबेश वह भी इसकी शिकार हो गई।

Sunday, December 28, 2014

हिन्दू विरोधी नहीं उलझनों भरी पार्टी है कांग्रेस

'हिंदू विरोधी’ छवि कांग्रेस के पतन का कारण ?

  • 1 घंटा पहले
राहुल गांधी, सोनिया गांधी, कांग्रेस
लोकसभा चुनावों में हार के बाद विभिन्न राज्यों के विधानसभा चुनावों के नतीजे कांग्रेस पार्टी के लिए निराशाजनक रहे हैं.
मीडिया में आई ख़बरों के अनुसार पार्टी अपनी 'बिगड़ती छवि' पर चिंतन करने के मूड में है. वहीं यह भी कहा गया कि एक के बाद एक हार मिलने की वजह है पार्टी की 'हिंदू विरोधी' छवि.
हालांकि कांग्रेस के बारे में ऐसे बयान नए नहीं हैं.
लेकिन पार्टी की लोकप्रियता में कमी के कारण शायद कुछ और हैं, जिन्हें समझने के लिए ज़रूरी आत्ममंथन से पार्टी शायद गुज़रना नहीं चाहती?

पढ़ें, लेख विस्तार से

राहुल गांधी, कांग्रेस
कांग्रेस क्या वास्तव में अपनी बिगड़ती छवि से परेशान है? या इस बात से कि उसकी छवि बिगाड़कर ‘हिंदू विरोधी’ बताने की कोशिश की जा रही हैं?
इससे भी बड़ा सवाल यह है कि वह अपनी बदहाली के कारणों को समझना भी चाहती है या नहीं?
छवि वाली बात कांग्रेस के आत्ममंथन से निकली है. पर क्या वह स्वस्थ आत्ममंथन करने की स्थिति में है? आंतरिक रूप से कमज़ोर संगठन का आत्ममंथन उसके संकट को बढ़ा भी सकता है.
अस्वस्थ पार्टी स्वस्थ आत्ममंथन नहीं कर सकती. कांग्रेस लम्बे अरसे से इसकी आदी नहीं है. इसे पार्टी की प्रचार मशीनरी की विफलता भी मान सकते हैं. और यह भी कि वह राजनीति की ‘सोशल इंजीनियरिंग’ में फेल हो रही है.

आरोप नया नहीं

सोनिया गांधी, कांग्रेस
यह मामला केवल ‘हिंदू विरोधी छवि’ तक सीमित नहीं है.
पचास के दशक में जब हिंदू कोड बिल पास हुए थे, तबसे कांग्रेस पर हिंदू विरोधी होने के आरोप लगते रहे हैं पर कांग्रेस की लोकप्रियता में तब कमी नहीं आई.
साठ के दशक में गोहत्या विरोधी आंदोलन भी उसे हिंदू विरोधी साबित नहीं कर सका.
वस्तुतः इसे कांग्रेस के नेतृत्व, संगठन और विचारधारा के संकट के रूप में देखा जाना चाहिए. एक मोर्चे पर विफल रहने के कारण पार्टी दूसरे मोर्चे पर घिर गई है.
कांग्रेस की रणनीति यदि सांप्रदायिकता विरोध और धर्मनिरपेक्षता की है, तो वह उसे साबित करने में विफल रही.

Saturday, December 27, 2014

मोदी के अलोकप्रिय होने का इंतज़ार करती कांग्रेस

सन 2014 कांग्रेस के लिए खौफनाक यादें छोड़ कर जा रहा है। इस साल पार्टी ने केवल लोकसभा चुनाव में ही भारी हार का सामना नहीं किया, बल्कि आंध्र प्रदेश, उड़ीसा, हरियाणा, महाराष्ट्र, सिक्किम के बाद अब जम्मू-कश्मीर और झारखंड विधान सभाओं में पिटाई झेली है। यह सिलसिला पिछले साल से जारी है। पिछले साल के अंत में उसे राजस्थान, मध्य प्रदेश, छत्तीस गढ़ और दिल्ली में यह हार गले पड़ी थी। हाल के वर्षों में उसे केवल कर्नाटक, हिमाचल प्रदेश और उत्तराखंड में सफलता मिली है। आंध्र के वोटर ने तो उसे बहुत बड़ी सज़ा दी। प्रदेश की विधान सभा में उसका एक भी सदस्य नहीं है। चुनाव के ठीक पहले तक उसकी सरकार थी। कांग्रेस ने सन 2004 में दिल्ली में सरकार बनाने की जल्दबाज़ी में तेलंगाना राज्य की स्थापना का संकल्प ले लिया था। उसका दुष्परिणाम उसके सामने है।

Sunday, December 21, 2014

कांग्रेस का सबसे डरावना साल

कांग्रेस के लिए यह साल आसमान से जमीन पर गिरने का साल था। दस साल पहले कुछ ऐसी परिस्थितियाँ बनीं जिनमें कांग्रेस पार्टी को न केवल सत्ता में आने का मौका मिला बल्कि नेहरू-गांधी परिवार को फिर से पार्टी की बागडोर हाथ में लेने का पूरा मौका मिला। इस साल अचानक सारी योजना फेल हो गई और अब पार्टी गहरे खड्ड की और बढ़ रही है। लोकसभा चुनाव में कांग्रेस को सबसे बड़ी पराजय का सामना करना पड़ा। उसके ठीक पहले और बाद में हुए सभी विधानसभा चुनावों में भी उसकी हार हुई। इन दिनों हो रहे जम्मू-कश्मीर और झारखंड विधानसभा चुनावों के परिणाम 23 दिसम्बर को आने के बाद पराभव का पहिया एक कदम और आगे बढ़ जाएगा।

Sunday, October 26, 2014

कांग्रेस की गांधी-छत्रछाया


पी चिदंबरम के ताज़ा वक्तव्य से इस बात का आभास नहीं मिलता कि कांग्रेस के भीतर परिवार से बाहर निकलने की कसमसाहट है। बल्कि विनम्रता के साथ कहा गया है कि सोनिया गांधी और राहुल को ही पार्टी का भविष्य तय करना चाहिए। हाँ, सम्भव है भविष्य में नेहरू-गांधी परिवार से बाहर का कोई नेता पार्टी अध्यक्ष बन जाए। इस वक्त पार्टी का मनोबल बहुत गिरा हुआ है। इस तरफ तत्परता से ध्यान देने और पार्टी में आंतरिक परिवर्तन करने का अनुरोध उन्होंने ज़रूर किया। पर यह अनुरोध भी सोनिया और राहुल से है। साथ ही दोनों से यह अनुरोध भी किया कि वे जनता और मीडिया से ज्यादा से ज्यादा मुखातिब हों। इस मामले में उन्होंने भाजपा को कांग्रेस से ज्यादा अंक दिए हैं।

Sunday, September 14, 2014

कांग्रेस : अबके डूबे तो...

हरियाणा और महाराष्ट्र के चुनावों की तारीख आने के साथ देश के राजनीतिक-मंथन का अगला दौर शुरू हो गया है। इस दौर में भारतीय जनता पार्टी और कांग्रेस दोनों की ताकत और कमज़ोरियों का परीक्षण होगा। बिहार और उत्तर प्रदेश के उपचुनावों से निष्कर्ष नहीं निकाले जा सकते। बिहार में कांग्रेस, जदयू और राजद के महागठबंधन ने बेशक भाजपा-विरोधी विरोधी मोर्चे की सम्भावनाओं की राह दिखाई है, पर यह राष्ट्रीय प्रवृत्ति नहीं हो सकती। उत्तर प्रदेश के उप-चुनावों से बसपा ने अलग होकर सपा और कांग्रेस को कोई संदेश दिया है या भाजपा को रोकने की उत्तर प्रदेश रणनीति की और इशारा किया है यह चुनाव परिणाम आने के बाद ही कहा जा सकेगा। पर इसमें दो राय नहीं कि सबसे ज्यादा फज़ीहत जिस पार्टी की है वह है कांग्रेस। देखना यह है कि लोकसभा चुनाव के दौरान पैदा हुई मोदी-लहर अभी प्रभावी है या नहीं। अलबत्ता इन दोनों राज्यों में प्रचार के लिए मोदी जाने वाले हैं। उनके मुकाबले कांग्रेस के पास सोनिया और राहुल की जोड़ी है। क्या वह काम करेगी?

Wednesday, August 6, 2014

जितना महत्वपूर्ण है इतिहास बनना, उतना ही जरूरी है उसे लिखा जाना

संजय बारू के बाद नटवर सिंह की किताब का निशाना सीधे-सीधे नेहरू-गांधी परिवार है। देश का सबसे महत्वपूर्ण राजनीतिक परिवार आज से नहीं कई दशकों से राजनीतिक निशाने पर है। इसका सबसे बड़ा कारण यही है कि इस परिवार ने सबसे ज्यादा समय तक सत्ता में भागीदारी की। केवल सत्ता का सामान्य भोग ही नहीं किया, काफी इफरात से किया। इस वक्त कांग्रेस इस परिवार का पर्याय है। अब मनमोहन सिंह की बेटी दमन सिंह की किताब 'स्ट्रिक्टली पर्सनल : मनमोहन एंड गुरशरण' आने वाली है। दमन सिंह ने यह किताब मनमोहन सिंह पर एक व्यक्ति के रूप में लिखे जाने का दावा किया है, प्रधानमंत्री मनमोहन पर नहीं। अलबत्ता 5 अगस्त के टाइम्स ऑफ इंडिया में सागरिका घोष के साथ इंटरव्यू में कही गई बातों से लगता है कि मनमोहन सिंह के पास भी कहने को कुछ है। दमन सिंह ने मनमोहन सिंह के पीवी नरसिम्हाराव और इंदिरा गांधी के साथ रिश्तों पर तो बोला है, पर सोनिया गांधी से जुड़े सवाल पर वे कन्नी काट गईं और कहा कि यह सवाल उनसे (यानी मनमोहन सिंह से) ही करिेेए। इससे यह भी पता लगेगा कि नेहरूवादी आर्थिक दर्शन से जुड़े रहे मनमोहन सिंह ग्रोथ मॉडल पर क्यों गए और भारत के व्यवस्थागत संकट को लेकर उनकी राय क्या है। इस किताब को मैने भी मँगाया है। रिलीज होने के बाद मिलेगी। फिलहाल जो दो-तीन किताबें सामने आईं हैं या आने वाली हैं, उनसे  भारत की राजनीति के पिछले ढाई दशक पर रोशनी पड़ेगी। इनसे देश की राजनीतिक संस्कृति और सिस्टम के सच का पता भी लगेगा। यह दौर आधुनिक भारत का सबसे महत्वपूर्ण दौर रहा है।  नीचे मेरा लेख है, जो मुंबई से प्रकाशित दैनिक अखबार एबसल्यूट इंडिया में प्रकाशित हुआ है।


ऐसे ही तो लिखा जाता है इतिहास
यूपीए सरकार के दस साल, उसमें शामिल सहयोगी दलों की करामातें, सोनिया गांधी का त्याग, मनमोहन सिंह की मजबूरियाँ और राहुल गांधी की झिझक से जुड़ी पहेलियाँ नई-नई शक्ल में सामने आ रही हैं। संजय बारू ने 'एक्सीडेंटल पीएम लिखकर जो फुलझड़ी छोड़ी थी उसने कुछ और किताबों और संस्मरणों को जन्म दिया है। इस हफ्ते दो किताबों ने कहानी को रोचक मोड़ दिए हैं। कहना मुश्किल है कि सोनिया गांधी किताब लिखने के अपने वादे को पूरा करेगी या नहीं, पर उनके लिखे जाने की सम्भावना ने ही माहौल को रोचक और जटिल बना दिया है। अभी तक कहानी एकतरफा थी। यानी लिखने वालों पर कांग्रेस विरोधी होने का आरोप लगता था। पर मनमोहन सिंह की बेटी दमन सिंह ने भी माना है कि पार्टी के भीतर मनमोहन सिंह का विरोध होता था।

Sunday, July 27, 2014

भँवर में फँसी कांग्रेस

कांग्रेस अपनी तार्किक परिणति की ओर बढ़ रही है। देश-काल से कदम-ताल न कर पाना यानी इतिहास के कूड़ेदान में चले जाना। कांग्रेस क्या कूड़ेदान जाने वाली है? या बाउंसबैक करेगी जैसा कि तीन मौकों पर उसने किया है? उत्तराखंड से आए तीन उपचुनाव परिणामों को पार्टी अपनी सफलता मान सकती है। पर यह पार्टी का पुनरोदय नहीं है। ज्यादा से ज्यादा भाजपा की विफलता है। पिछले हफ्ते कांग्रेस को एक के बाद एक कई झटके लगे हैं। असम के विधायकों ने बग़ावत कर दी। स्वास्थ्य मंत्री हेमंतो बिसवा सर्मा के नेतृत्व में विधायकों ने राज्यपाल को इस्तीफ़ा सौंपा। महाराष्ट्र के उद्योग मंत्री नारायण राणे ने इस्तीफ़ा दिया। हरियाणा में चौधरी वीरेन्द्र सिंह ने भूपेंद्र सिंह हुड्डा के नेतृत्व में विधानसभा चुनाव लड़ने से इनकार कर दिया। बंगाल में भी भगदड़ मची है। तीन और विधायकों ने पार्टी छोड़ी। सन 2011 से अब तक सात विधायक पार्टी छोड़ चुके हैं। पार्टी के विधायकों की संख्या 42 से घटकर 35 रह गई है। जम्मू-कश्मीर में चुनाव के साल भगदड़ मची है। नेशनल कॉन्फ्रेंस ने पांच साल पुराना रिश्ता तोड़ लिया है। पूर्व सांसद लाल सिंह का पार्टी छोड़ना कंगाली में आटा गीला होने की तरह है। झारखंड में भी पार्टी के भीतर बगावत के स्वर हैं।

Thursday, June 5, 2014

अब संसद में होगा कांग्रेसी सेहत का पहला टेस्ट

 गुरुवार, 5 जून, 2014 को 08:09 IST तक के समाचार
राहुल गांधी, सोनिया गांधी, मनमोहन सिंह
पिछले साल जून में भाजपा के चुनाव अभियान का जिम्मा सम्हालने के बाद नरेंद्र मोदी ने अपनी पार्टी के कार्यकर्ताओं से 'कांग्रेस मुक्त भारत निर्माण' के लिए जुट जाने का आह्वान किया था.
उस समय तक वे अपनी पार्टी की ओर से प्रधानमंत्री पद के प्रत्याशी नहीं बने थे. उन्होंने इस बात को कई बार कहा था.
सोलहवीं क्लिक करेंसंसद के पहले सत्र में मोदी सरकार की नीतियों पर रोशनी पड़ेगी. संयुक्त अधिवेशन में राष्ट्रपति का अभिभाषण सरकार का पहला नीतिपत्र होगा. इसके बाद बजट सत्र में सरकार की असली परीक्षा होगी.
एक परीक्षा कांग्रेस पार्टी की भी होगी. उसके अस्तित्व का दारोमदार भी इस सत्र से जुड़ा है. आने वाले कुछ समय में कुछ बातें कांग्रेस का भविष्य तय करेंगी. इनसे तय होगा कि कांग्रेस मज़बूत विपक्ष के रूप में उभर भी सकती है या नहीं.

सबसे कमज़ोर प्रतिनिधित्व

मोदी की बात शब्दशः सही साबित नहीं हुई लेकिन सोलहवीं लोकसभा में बिलकुल बदली रंगत दिखाई दे रही है. कांग्रेस के पास कुल 44 सदस्य हैं. पार्टी उपाध्यक्ष राहुल गांधी की उम्र से एक ज्यादा. लोकसभा के इतिहास में पहली बार कांग्रेस इतनी क्षीणकाय है.

Tuesday, May 20, 2014

मोदी-आंधी बनाम ‘खानदान’ गांधी

मंजुल का कार्टून
हिंदू में सुरेंद्र का कार्टून

कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक में सोनिया गांधी और राहुल गांधी के इस्तीफों की पेशकश नामंजूर कर दी गई। इस पेशकश के स्वीकार होने की कल्पना भी नहीं की जा सकती। गांधी परिवार के बगैर अब कांग्रेस का कोई मतलब नहीं है। कांग्रेस को जोड़े रखने का एकमात्र फैविकॉल अब यह परिवार है। संयोग से कांग्रेस की खराबी भी यही मानी जाती है। कांग्रेस के नेता एक स्वर से कह रहे हैं कि पार्टी फिर से बाउंसबैक करेगी। 16 मई को हार की जिम्मेदारी लेते हुए राहुल और सोनिया ने कहा था कि हम अपनी नीतियों और मूल्यों पर चलते रहेंगे। बहरहाल अगला एक साल कांग्रेस और एनडीए दोनों के लिए महत्वपूर्ण होगा। मोदी सरकार को अपनी छाप जनता पर डालने के लिए कदम उठाने होंगे, वहीं कांग्रेस अब दूने वेग से उसपर वार करेगी।  

अभी तक कहा जाता था कि वास्तविक सार्वदेशिक पार्टी सिर्फ कांग्रेस है। सोलहवीं लोकसभा में दस राज्यों से कांग्रेस का एक भी प्रतिनिधि नहीं है। क्या यह मनमोहन सिंह की नीतियों की पराजय है? एक मौन और दब्बू प्रधानमंत्री को खारिज करने वाला जनादेश? पॉलिसी पैरेलिसिस के खिलाफ जनता का गुस्सा? या नेहरू-गांधी परिवार का पराभव? क्या कांग्रेस इस सदमे से बाहर आ सकती है? शुक्रवार की दोपहर पार्टी अध्यक्ष सोनिया गांधी और राहुल गांधी ने एक संक्षिप्त संवाददाता सम्मेलन में अपनी हार और उसकी जिम्मेदारी स्वीकार की। पर पाँच मिनट के उस एकतरफा संवाद से ऐसा महसूस नहीं हुआ कि पार्टी अंतर्मंथन की स्थिति में है या उसे कोई पश्चाताप है। फिलहाल चेहरों पर आक्रोश दिखाई पड़ता है। पार्टी के नेता स्केयरक्रोयानी मोदी का डर दिखाने वाली अपनी राजनीति के आगे सोच नहीं पा रहे हैं। वे अब भी मानते हैं कि उनके अच्छे काम जनता के सामने नहीं रखे जा सके। इसके लिए वे मीडिया को कोस रहे हैं।

चुनाव परिणाम आने के दो दिन पहले से कांग्रेसियों ने एक स्वर से बोलना शुरू कर दिया था कि हार हुई तो राहुल गांधी इसके लिए जिम्मेदार नहीं होंगे। कमलनाथ ने तो सीधे कहा कि वे सरकार में नहीं थे। कहीं गलती हुई भी है तो सरकार से हुई है, जो अपने अच्छे कामों से जनता को परिचित नहीं करा पाई। यानी हार का ठीकरा मनमोहन सिंह के सिर पर। पिछले दो साल के घटनाक्रम पर गौर करें तो हर बार ठीकरा सरकार के सिर फूटता था। और श्रेय देना होता था तो राहुल या सोनिया की जय-जय।

Thursday, May 15, 2014

कांग्रेस क्या आत्मघाती पार्टी है?

हिंदू में केशव का कार्टून
मनमोहन सिंह को दिए गए रात्रिभोज में राहुल गांधी नहीं आए। रात में टाइम्स नाउ ने सबसे पहले इस बात को उठाया। चैनल की संवाददाता ने वहाँ उपस्थित कांग्रेस नेताओं से बात की तो किसी को कुछ पता नहीं था। सुबह के अखबारों से पता लगा कि शायद वे बाहर हैं। अलबत्ता रात में यह बात पता लगी थी कि कपिल सिब्बल का भी विदेश का दौरा था, पर उनसे कहा गया था कि वे किसी तरह से इस भोज में शामिल हों। भोज में शामिल होना या न होना इतना महत्वपूर्ण नहीं है। महत्वपूर्ण यह बात है कि राहुल का अपने साथियों के साथ संवाद का स्तर क्या है।


दो दिन से कांग्रेस के नेता यह साबित करने में लगे हैं कि कांग्रेस राहुल गांधी की वजह से नहीं हारी। यह सामूहिक हार है। कमल नाथ बोले कि राहुल सरकार में नहीं थे। सरकार अपनी उपलब्धियो को जनता तक नहीं ले जा सकी। उनसे पूछा जाए कि जीत होती तो क्या होता? सन 2009  की जीत का श्रेय राहुल को दिया गया था। भला क्यों?

आज टाइम्स ऑफ इंडिया में स्वामीनाथन अंकलेसरैया अय्यर का लम्बा लेख मनमोहन सिंह की उपलबधियों के बारे में प्रकाशित हुआ है। समय बताएगा कि उनकी उपलब्धियाँ क्या थीं, पंर कांग्रेस उनका जिक्र क्यों नहीं करती?

इन्हें भी पढ़ें

Sunday, May 11, 2014

इस हार के बाद कांग्रेस का क्या होगा?

कांग्रेस का चुनाव प्रचार इस बार इस बात पर केंद्रित था कि हमें जिताओ, वर्ना मोदी आ रहा है। पिछले 12 साल में कांग्रेस ने नरेंद्र मोदी को 'भेड़िया आया' के अंदाज़ में खड़ा किया है। कांग्रेस ने अपनी सकारात्मक राजनीति को सामने लाने के बजाय इस राजनीति का सहारा लिया। जहाँ उसे जाति का लाभ मिला वहाँ जाति और जहाँ धर्म का लाभ मिला वहाँ धर्म का सहारा भी लिया। पश्चिमी देशों के मीडिया में कांग्रेस की इस अवधारणा को महत्व मिला। बावजूद इन बातों के क्या कांग्रेस चुनाव में हार रही है? इस बात को अभी कहना उचित नहीं होगा। सम्भव है भारतीय मीडिया के सारे कयास और अनुमान गलत साबित हों। अलबत्ता यह लेख इस बात को मानकर लिखा गया है कि कांग्रेस अपने अस्तित्व की सबसे बड़ी पराजय से रूबरू होने जा रही है। ऐसा होता है तब कांग्रेस क्या करेगी? बेशक ऐसा नहीं हुआ और कांग्रेस विजयी होकर उभरी तो हमें अपनी समझ का पुनर्परीक्षण करना होगा। पर यदि वह हारी तो उन बातों पर विचार करना होगा जो कांग्रेस के पराभव का कारण बनीं और यह भी कि अब कांग्रेस क्या करेगी। 

पिछले साल जून में भाजपा के चुनाव अभियान का जिम्मा सँभालने के बाद नरेंद्र मोदी ने अपने पार्टी कार्यकर्ताओं से 'कांग्रेस मुक्त भारत निर्माण' के लिए जुट जाने का आह्वान किया था। उस समय तक वे अपनी पार्टी की ओर से प्रधानमंत्री पद के प्रत्याशी नहीं बने थे। नरेन्द्र मोदी की बातों में आवेश होता है। उनकी सारी बातों की गहराई पर जाने की ज़रूरत नहीं होती, पर उन्होंने इस बात को कई बार कहा, इसलिए यह समझने की ज़रूरत है कि वे कहना क्या चाहते थे। यह भी कि इस बार के चुनाव परिणाम क्या कहने वाले है।

चुनाव का आखिरी दौर कल पूरा हो जाएगा और कल शाम ही प्रसारित होने वाले एक्ज़िट पोलों से परिणामों की झलक मिलेगी। फिर भी परिणामों के लिए हमें 16 मई का इंतज़ार करना होगा। अभी तक के जो आसार हैं और मीडिया की विश्वसनीय, अविश्वसनीय जैसी भी रिपोर्टें हैं उनसे अनुमान है कि कांग्रेस हार रही है। हार भी मामूली नहीं होगी। तीसरे मोर्चे वगैरह की अटकलें हैं। इसीलिए इस चुनाव के बाद कांग्रेस का क्या होने वाला है, इस पर नज़र डालने की ज़रूरत है। संकट केवल लोकसभा का नहीं है। सीमांध्र और तेलंगाना विधानसभाओं के चुनाव-परिणाम भी 16 मई को आएंगे। इस साल महाराष्ट्र विधानसभा के चुनाव भी होंगे। यानी कांग्रेस के हाथ से प्रादेशिक सत्ता भी निकलने वाली है।

Sunday, February 9, 2014

गले की फाँस बना तेलंगाना

संसद का यह महत्वपूर्ण सत्र तेलंगाना के कारण ठीक से नहीं चल पा रहा है। इसके पहले शीत सत्र और मॉनसून सत्र के साथ भी यही हुआ। तेलंगाना की घोषणा से कोई खुश नहीं है। कांग्रेस ने सन 2004 में तेलंगाना बनाने का आश्वासन देते वक्त नहीं सोचा था कि यह उसके लिए घातक साबित होने वाला है। इस बात पर बहुत कम लोगों ने ध्यान दिया है कि सन 2004 में कांग्रेस के प्राण वापस लाने में तेलंगाना की जबर्दस्त भूमिका थी। एक गलतफहमी है कि 2004 में भाजपा की हार इंडिया शाइनिंग के कारण हुई। भाजपा की हार का मूल कारण दो राज्यों का गणित था।

आंध्र और तमिलनाडु में भाजपा  के गठबंधन गलत साबित हुए। दूसरी और कांग्रेस ने तेलंगाना का आश्वासन देकर अपनी सीटें सुरक्षित कर लीं। सन 1999 के लोकसभा चुनाव में भाजपा को कुल 182 सीटें मिलीं थीं, जो 2004 में 138 रह गईं। यानी 44 का नुकसान हुआ। इसके विपरीत कांग्रेस की सीटें 114 से बढ़कर 145 हो गईं। यानी 31 का लाभ हुआ। यह सारा लाभ तमिलनाडु और आंध्र से पूरा हो गया। 1999 में इन दोनों राज्यों से कांग्रेस की सात सीटें थीं, जो 2004 में 39 हो गईं। इन 39 में से 29 आंध्र में थीं, जहाँ 1999 में उसके पास केवल पाँच सीटें थीं। कांग्रेस को केवल लोकसभा में ही सफलता नहीं मिली। उसे आंध्र विधानसभा के चुनाव में भी शानदार सफलता मिली, और वाईएसआर रेड्डी एक ताकतवर मुख्यमंत्री के रूप में स्थापित हुए।

Saturday, January 25, 2014

उदारीकरण और भ्रष्टाचार, कैसे लड़ेंगे राहुल?

कांग्रेस का नया पोस्टर है राहुल जी के नौ हथियार दूर करेंगे भ्रष्टाचार। इन पोस्टरों में नौ कानूनों के नाम हैं। इनमें से तीन पास हो चुके हैं और छह को संसद के अगले अधिवेशन में पास कराने की योजना है। यह पोस्टर कांग्रेस महासमिति में राहुल गांधी के भाषण से पहले ही तैयार हो गया था। राहुल का यह भाषण आने वाले लोकसभा चुनाव का प्रस्थान बिन्दु है। इसका मतलब है कि पार्टी ने कोर्स करेक्शन किया है। हाल में हुए विधानसभा के चुनावों तक राहुल मनरेगा, सूचना और शिक्षा के अधिकार, खाद्य सुरक्षा और कंडीशनल कैश ट्रांसफर को गेम चेंजर मानकर चल रहे थे। ग्राम प्रधान को वे अपने कार्यक्रमों की धुरी मान रहे थे। पर 8 दिसंबर को आए चुनाव परिणामों ने बताया कि शहरों और मध्य वर्ग की अनदेखी महंगी पड़ेगी।

सच यह है कि कोई पार्टी उदारीकरण को राजनीतिक प्रश्न बनाने की हिम्मत नहीं करती। विकास की बात करती है, पर इसकी कीमत कौन देगा यह नहीं बताती। राजनीतिक समझ यह भी है कि भ्रष्टाचार का रिश्ता उदारीकरण से है। क्या राहुल इस विचार को बदल सकेंगे? कॉरपोरेट सेक्टर नरेंद्र मोदी की ओर देख रहा है। दिल्ली में आप की सफलता ने साबित किया कि शहर, युवा, महिला, रोजगार, महंगाई और भ्रष्टाचार छोटे मुद्दे नहीं हैं। 17 जनवरी की बैठक में सोनिया गांधी ने अपनी सरकार की गलतियों को स्वीकार करते हुए मध्य वर्ग से नरमी की अपील की। और अब कांग्रेस के प्रवक्ता बदले गए हैं। ऐसे चेहरे सामने आए हैं जो आर्थिक उदारीकरण और भ्रष्टाचार विरोधी व्यवस्थाओं के बारे में ठीक से पार्टी का पक्ष रख सकें।

Sunday, January 12, 2014

कांग्रेस को जरूरत है एक जादुई चिराग की

आम आदमी पार्टी हालांकि सभी पार्टियों के लिए चुनौती के रूप में उभरी है, पर उसका पहला निशाना कांग्रेस पार्टी की सरकार थी। पर आप की जीत के बाद राहुल गांधी ने कहा कि हमें जनता से जुड़ने की कला आप से सीखनी चाहिए। सवा सौ साल पुरानी पार्टी के नेता की इस बात के माने क्या हैं? राहुल की ईमानदारी या कांग्रेस का भटकाव? पार्टी को पता नहीं रहता कि जनता के मन में क्या है। राहुल गांधी ने इसके फौरन बाद लोकपाल विधेयक का मुद्दा उठाया और कोई कुछ सोच पाता उससे पहले ही वह कानून पास हो गया। लोकसभा चुनाव होने में तकरीबन तीन महीने का समय बाकी है। अब कांग्रेस को तीन सवालों के जवाब खोजने हैं। क्या राहुल गांधी के नाम की औपचारिक घोषणा प्रधानमंत्री पद के प्रत्याशी के रूप में की जाएगी? क्या सरकार कुछ और बड़े राजनीतिक फैसले करेगी? कांग्रेस कौन सी जादू की पुड़िया खोलेगी जिसके सहारे सफलता उसके चरण चूमे?

पिछले मंगलवार को राहुल गांधी के घर पर प्रियंका गांधी ने कांग्रेस के बड़े नेताओं की बैठक करने के बाद इतना जाहिर कर दिया कि वे भी अब सक्रिय रूप से चुनाव में हिस्सा लेंगी। राहुल गांधी को अपने साथ विश्वसनीय सहयोगियों की जरूरत है। अगले कुछ दिनों में महत्वपूर्ण नेताओं को सरकारी पदों को छोड़कर संगठन के काम में लगने के लिए कहा जाएगा। इस बार एक-एक सीट के टिकट पर राहुल गांधी की मोहर लगेगी। महासचिवों के स्तर पर भारी बदलाव होने जा रहा है। उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, बिहार, हरियाणा, राजस्थान और अन्य हिंदी भाषी प्रदेशों में कांग्रेस के पास प्रभावशाली चेहरों की कमी है। कांग्रेस ने खुद भी इन इलाकों को त्यागा है। इसके पहले प्रियंका गाँधी को मुख्यधारा की राजनीति में लाने की कोशिश नहीं की है। अमेठी और रायबरेली के सिवा वे देश के दूसरे इलाकों में प्रचार करने नहीं जातीं। उन्हें राहुल की पूरक बनाने का प्रयास अब किया जा रहा है। लगता है संगठन के काम अब वे देखेंगी। प्रचार के तौर-तरीकों में भी बुनियादी बदलाव के संकेत हैं। हिंदी इलाकों में अच्छे ढंग से हिंदी बोलने वाले प्रवक्ताओं को लगाने की योजना है। सोशल मीडिया में पार्टी की इमेज सुधारने के लिए बाहरी एजेंसियों की मदद ली जा सकती है।

Sunday, January 5, 2014

कांग्रेस की ‘मोदी-रोको’ रणनीति

कांग्रेस पार्टी क्या नरेंद्र मोदी को लेकर घबराने लगी है? उसे क्या वास्तव में मोदी का सामना करने की कोई रणनीति समझ में नहीं आ रही है? या फिर उसे मोदी का तोड़ मिल गया है, जिसके तहत नई रणनीति बनाई जा रही है? इस वक्त प्रधानमंत्री के संवाददाता सम्मेलन की जरूरत क्या थी? क्या यह उनके रिटायरमेंट की घोषणा थी और वे राहुल गांधी के आगमन की घोषणा कर रहे हैं? या वे अपने दस साल के कार्यकाल की उपलब्धियों को गिनाना चाहते हैं? या कांग्रेस पार्टी की नई रणनीति के रूप में नरेंद्र मोदी को निशाना बनाकर लोकसभा चुनाव के कांग्रेस अभियान का श्रीगणेश कर रहे हैं? प्रधानमंत्री इसके पहले भी नरेंद्र मोदी की आलोचना करते रहे हैं, पर इस बार सन 2007 में सोनिया गांधी के 'मौत के सौदागर' बयान को पीछे छोड़ते हुए उन्होंने अहमदाबाद की गलियों में बेगुनाह लोगों के खून का ज़िक्र किया है।  

Saturday, January 4, 2014

कांग्रेस के पास राहुल के अलावा कोई विकल्प नहीं

 शनिवार, 4 जनवरी, 2014 को 09:40 IST तक के समाचार
राहुल गाँधी
प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने साफ़ कर दिया है कि वे यूपीए के प्रधानमंत्री पद के अगले उम्मीदवार नहीं होंगे. ऐसे में सवाल उठता है कि भारतीय जनता पार्टी के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी का मुक़ाबला करने के लिए फिर कांग्रेस के पास कौन है?
अगर यह मान भी लें कि यूपीए सरकार आगे आने वाली है या संभावित है तो सबसे पहले राहुल गाँधी का नाम आएगा. 17 जनवरी को ऑल इंडिया कांग्रेस कमेटी की बैठक में संभवतः राहुल गाँधी के नाम की घोषणा भी हो जाए.
अगर राहुल गाँधी का नाम घोषित नहीं हुआ, तो किसका नाम सामने आएगा? यह सवाल बहुत सहज इसलिए भी है क्योंकि राहुल गाँधी ने अभी तक कभी भी नहीं कहा है कि वे प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार हैं.
इससे पहले राहुल गाँधी से जब भी सरकार में आने का आग्रह किया गया, उन्होंने मना ही किया है. ऐसे में संभवतः अंतिम क्षण में राहुल गाँधी प्रधानमंत्री पद की दावेदारी के लिए मना भी कर दें.
ऐसे में कांग्रेस के नेताओं में से एक या दो के नाम ज़ेहन में आते हैं. सबसे पहला नाम है वित्त मंत्री पी चिदंबरम और दूसरा नाम है एके एंटनी. दोनों ही नेता दक्षिण भारत से हैं. एक तमिलनाडु के हैं, तो दूसरे केरल के. हाल ही में चिदंबरम ने ज़ोर देकर कहा था कि कांग्रेस को अब पीएम पद के उम्मीदवार की घोषणा करनी चाहिए. हालाँकि वे यह भी कहते रहे हैं कि मुझे अपनी सीमाएं मालूम हैं.

Sunday, December 29, 2013

सीले पटाखों से कैसे मनेगी कांग्रेस की दीवाली?

पाँच राज्यों की विधान सभाओं के चुनाव परिणाम आने के पहले राहुल गांधी के चेहरे पर हल्की सी दाढ़ी बढ़ी होती थी। पिछली 22 दिसंबर को फिक्की की सभा में राहुल गांधी का या दूसरे शब्दों में कांग्रेस नया चेहरा सामने आया। इस सभा में राहुल चमकदार क्लीनशेव चेहरे में थे। उद्योग और व्यवसाय के प्रति वे ज्यादा संवेदनशील नज़र आए। संयोग से उसी दिन पर्यावरण मंत्री जयंती नटराजन ने इस्तीफा दिया था। उस इस्तीफे को लोकसभा चुनाव के पहले की संगठनात्मक कवायद माना गया था। अंदरखाने की खबरें हैं कि देश के कॉरपोरेट सेक्टर को सरकार से शिकायतें हैं। विधानसभा चुनाव के पहले तक राहुल गांधी का ध्यान गाँव और गरीब थे। अब शहर, मध्य वर्ग और कॉरपोरेट सेक्टर भी उनकी सूची में है।

Saturday, December 21, 2013

कांग्रेस अब गठबंधन की तलाश में

चार राज्यों के विधानसभा चुनाव में भारी पराजय के बाद कांग्रेस ने 17 जनवरी को दिल्ली में अखिल भारतीय कांग्रेस समिति की बैठक बुलाई है, जिसमें लोकसभा चुनावों की रणनीति तैयार की जाएगी। संभावना इस बात की है कि उस बैठक में राहुल गांधी को औपचारिक रूप से प्रधानमंत्री पद का प्रत्याशी भी घोषित कर दिया जाए। पर पार्टी के विचारकों के सामने सबसे बड़ा संकट अलग-अलग राज्यों का गणित है। लोकपाल विधेयक को पास कराने की जल्दबाज़ी और इस मामले में भी राहुल गांधी की पैराट्रुपर राजनीति का मतलब यही है कि पार्टी को संजीवनी चाहिए। एआईसीसी की पिछली बैठक इस साल जनवरी में जयपुर चिंतन शिविर के साथ हुई थी। इस बैठक की घोषणा जिस दिन की गई उसके एक दिन पहले डीएमके के नेता करुणानिधि ने अगले लोकसभा चुनाव में कांग्रेस के साथ गठबंधन नहीं करने का ऐलान किया है।