देश की राजनीति में अचानक 'रेवड़ी-संस्कृति' के स्वर सुनाई पड़ रहे हैं। इस विषय को लेकर राजनीतिक बहस के समांतर देश के उच्चतम न्यायालय में भी सुनवाई चल रही है। सुप्रीम कोर्ट ने इसे गंभीर मुद्दा बताया है और सरकार तथा चुनाव आयोग से कहा है कि वे इसे रोकने के लिए जरूरी समाधान खोजें। इस मामले की अगली सुनवाई अब 3 अगस्त को होगी। यह मामला केवल इसलिए महत्वपूर्ण नहीं है कि इससे राजनीति में 'मुफ्त की रेवड़ियाँ' बाँटने की संस्कृति जन्म ले रही है। बल्कि इसलिए भी महत्वपूर्ण है, क्योंकि इससे राज-व्यवस्था के चरमराने का खतरा पैदा हो गया है।
रिजर्व बैंक की रिपोर्ट
सुप्रीम कोर्ट की हिदायतों से इतर रिजर्व बैंक
ऑफ इंडिया की एक रिपोर्ट में इस खतरे के प्रति आगाह किया गया है। आरबीआई ने अपनी
रिपोर्ट में कहा है कि राज्य सरकारें मुफ्त की योजनाओं पर जमकर खर्च कर रहीं हैं,
जिससे वे कर्ज के जाल में फँसती जा रही हैं। 'स्टेट
फाइनेंसेस: अ रिस्क एनालिसिस' शीर्षक रिपोर्ट के अनुसार, पंजाब, राजस्थान, बिहार, केरल
और पश्चिम बंगाल कर्ज के दलदल में धँसते जा रहे हैं। पर मीडिया मे चर्चा सुप्रीम
कोर्ट की सुनवाई या रिजर्व बैंक की रिपोर्ट के आधार पर नहीं हुई है, बल्कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की एक टिप्पणी के बाद शुरू हुई है।
उन्होंने गत 16 जुलाई को बुंदेलखंड एक्सप्रेसवे
का उद्घाटन करते हुए 'रेवड़ी कल्चर' का
जिक्र किया और जनता को सलाह दी कि इस मुफ्तखोरी का राजनीति से बचें। हालांकि
प्रधानमंत्री ने किसी का नाम नहीं लिया, लेकिन दिल्ली के
मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने इस टिप्पणी को अपने ऊपर ले लिया और उसी शाम जवाब दिया
कि उनका ‘दिल्ली-मॉडल’ वोट जुटाने के लिए मुफ्त पेशकश करने से दूर कमजोर आय वाले
लोगों को निशुल्क शिक्षा, स्वास्थ्य, बिजली
और पानी सुनिश्चित करके ‘देश की अर्थव्यवस्था की बुनियाद’ को मजबूत बनाने की कोशिश
कर रहा है।
कौन सा मॉडल?
प्रधानमंत्री की टिप्पणी और दिल्ली के
मुख्यमंत्री की प्रतिक्रिया ने देश का ध्यान लोकलुभावनवाद और सामाजिक-कल्याणवाद की
ओर खींचा है। इसमें दो राय नहीं कि सामाजिक-कल्याणवाद के मॉडल ने बीजेपी को भी
चुनावी सफलताएं दिलाने में मदद की है। अलबत्ता इसमें एक बुनियादी फर्क है। बीजेपी
ने मुफ्त बिजली-पानी, साइकिल, लैपटॉप,
मिक्सर ग्राइंडर, मंगलसूत्र, टीवी,
गाय, बकरी की पेशकश करके मध्यवर्ग को
आकर्षित करने का कार्यक्रम नहीं चलाया है। बल्कि अपेक्षाकृत गरीब तबकों पर ध्यान
केंद्रित किया है। उसका लक्ष्य सार्वजनिक सफाई, शौचालय,
ग्रामीण सड़कें, पक्के मकान, नल
से जल, घरेलू गैस, घरेलू
बिजली, बैंकिंग, आवास,
स्वास्थ्य बीमा और मातृत्व सुरक्षा रहा है। दूसरे इनमें से कोई भी
चीज पूरी तरह मुफ्त नहीं है, जैसे कि घरेलू-गैस। यूपीए का मनरेगा, खाद्य-सुरक्षा
कार्यक्रम और भूमि-सुधार कानून भी कल्याणकारी था। मोदी और केजरीवाल के बयानों के
पीछे की राजनीति को भी देखना चाहिए। प्रधानमंत्री ने अपनी बात गुजरात के चुनाव के
संदर्भ में भी कही होगी, जहाँ आम आदमी पार्टी भी प्रवेश पाने की
कोशिश कर रही है।
मुफ्त अनाज
आप पूछ सकते हैं कि पिछले दो वर्षों में देश के करीब 80 करोड़ लोगों को मुफ्त अनाज का जो कार्यक्रम चलाया गया है, क्या वह मुफ्त की रेवड़ी नहीं है? बेशक वह मुफ्त है, पर उसे भी ‘मुफ्त की रेवड़ी’ कहना उचित नहीं होगा, बल्कि मुसीबत में फँसे लोगों के लिए यह योजना सबसे बड़ी मददगार साबित हुई है। यह राज्य की जिम्मेदारी है। बेशक इसकी भारी कीमत देश ने दी है। यों भी सरकारी कार्यक्रमों पर भारी सब्सिडी दी जाती है। मुफ्त अनाज के अलावा खाद्य-सुरक्षा कार्यक्रम के तहत गरीबों को सस्ता अनाज भी दिया जाता है। देश में इस बात पर आम सहमति भी है। बल्कि माँग यह की जा रही है कि शहरी गरीबों के लिए भी कल्याणकारी कार्यक्रम चलाए जाएं। ऐसे कार्यक्रम संयुक्त राष्ट्र के सन 2030 तक संधारणीय लक्ष्यों की प्राप्ति के अनुरूप भी हैं। दुनिया से गरीबी मिटाने के जो सुझाव अर्थशास्त्रियों ने दिए हैं, उनसे ये योजनाएं मेल खाती हैं। इसे सार्वजनिक-संसाधनों का पुनर्वितरण माना जाता है। यह भी सच है कि सब्सिडी बेशक रेवड़ी नहीं हैं लेकिन चुनाव नतीजों पर उनका असर तो होता ही है। इससे सरकार की प्रशासनिक सूझ-बूझ का पता भी लगता है।