Sunday, July 31, 2022

‘रेवड़ीवाद’ और ‘कल्याणवाद’ का फर्क


देश की राजनीति में अचानक 'रेवड़ी-संस्कृति' के स्वर सुनाई पड़ रहे हैं। इस विषय को लेकर राजनीतिक बहस के समांतर देश के उच्चतम न्यायालय में भी सुनवाई चल रही है। सुप्रीम कोर्ट ने इसे गंभीर मुद्दा बताया है और सरकार तथा चुनाव आयोग से कहा है कि वे इसे रोकने के लिए जरूरी समाधान खोजें। इस मामले की अगली सुनवाई अब 3 अगस्त को होगी। यह मामला केवल इसलिए महत्वपूर्ण नहीं है कि इससे राजनीति में 'मुफ्त की रेवड़ियाँ' बाँटने की संस्कृति जन्म ले रही है। बल्कि इसलिए भी महत्वपूर्ण है, क्योंकि इससे राज-व्यवस्था के चरमराने का खतरा पैदा हो गया है।

रिजर्व बैंक की रिपोर्ट

सुप्रीम कोर्ट की हिदायतों से इतर रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया की एक रिपोर्ट में इस खतरे के प्रति आगाह किया गया है। आरबीआई ने अपनी रिपोर्ट में कहा है कि राज्य सरकारें मुफ्त की योजनाओं पर जमकर खर्च कर रहीं हैं, जिससे वे कर्ज के जाल में फँसती जा रही हैं। 'स्टेट फाइनेंसेस: अ रिस्क एनालिसिसशीर्षक रिपोर्ट के अनुसार, पंजाब, राजस्थान, बिहार, केरल और पश्चिम बंगाल कर्ज के दलदल में धँसते जा रहे हैं। पर मीडिया मे चर्चा सुप्रीम कोर्ट की सुनवाई या रिजर्व बैंक की रिपोर्ट के आधार पर नहीं हुई है, बल्कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की एक टिप्पणी के बाद शुरू हुई है। उन्होंने गत 16 जुलाई को बुंदेलखंड एक्सप्रेसवे  का उद्घाटन करते हुए 'रेवड़ी कल्चर' का जिक्र किया और जनता को सलाह दी कि इस मुफ्तखोरी का राजनीति से बचें। हालांकि प्रधानमंत्री ने किसी का नाम नहीं लिया, लेकिन दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने इस टिप्पणी को अपने ऊपर ले लिया और उसी शाम जवाब दिया कि उनका ‘दिल्ली-मॉडल’ वोट जुटाने के लिए मुफ्त पेशकश करने से दूर कमजोर आय वाले लोगों को निशुल्क शिक्षा, स्वास्थ्य, बिजली और पानी सुनिश्चित करके ‘देश की अर्थव्यवस्था की बुनियाद’ को मजबूत बनाने की कोशिश कर रहा है।

कौन सा मॉडल?

प्रधानमंत्री की टिप्पणी और दिल्ली के मुख्यमंत्री की प्रतिक्रिया ने देश का ध्यान लोकलुभावनवाद और सामाजिक-कल्याणवाद की ओर खींचा है। इसमें दो राय नहीं कि सामाजिक-कल्याणवाद के मॉडल ने बीजेपी को भी चुनावी सफलताएं दिलाने में मदद की है। अलबत्ता इसमें एक बुनियादी फर्क है। बीजेपी ने मुफ्त बिजली-पानी, साइकिल, लैपटॉप, मिक्सर ग्राइंडर, मंगलसूत्र, टीवी, गाय, बकरी की पेशकश करके मध्यवर्ग को आकर्षित करने का कार्यक्रम नहीं चलाया है। बल्कि अपेक्षाकृत गरीब तबकों पर ध्यान केंद्रित किया है। उसका लक्ष्य सार्वजनिक सफाई, शौचालय, ग्रामीण सड़कें, पक्के मकान, नल से जल, घरेलू गैस, घरेलू बिजली, बैंकिंग, आवास, स्वास्थ्य बीमा और मातृत्व सुरक्षा रहा है। दूसरे इनमें से कोई भी चीज पूरी तरह मुफ्त नहीं है, जैसे कि घरेलू-गैस। यूपीए का मनरेगा, खाद्य-सुरक्षा कार्यक्रम और भूमि-सुधार कानून भी कल्याणकारी था। मोदी और केजरीवाल के बयानों के पीछे की राजनीति को भी देखना चाहिए। प्रधानमंत्री ने अपनी बात गुजरात के चुनाव के संदर्भ में भी कही होगी, जहाँ आम आदमी पार्टी भी प्रवेश पाने की कोशिश कर रही है।

मुफ्त अनाज

आप पूछ सकते हैं कि पिछले दो वर्षों में देश के करीब 80 करोड़ लोगों को मुफ्त अनाज का जो कार्यक्रम चलाया गया है, क्या वह मुफ्त की रेवड़ी नहीं है? बेशक वह मुफ्त है, पर उसे भी ‘मुफ्त की रेवड़ी’ कहना उचित नहीं होगा, बल्कि मुसीबत में फँसे लोगों के लिए यह योजना सबसे बड़ी मददगार साबित हुई है। यह राज्य की जिम्मेदारी है। बेशक इसकी भारी कीमत देश ने दी है। यों भी सरकारी कार्यक्रमों पर भारी सब्सिडी दी जाती है। मुफ्त अनाज के अलावा खाद्य-सुरक्षा कार्यक्रम के तहत गरीबों को सस्ता अनाज भी दिया जाता है। देश में इस बात पर आम सहमति भी है। बल्कि माँग यह की जा रही है कि शहरी गरीबों के लिए भी कल्याणकारी कार्यक्रम चलाए जाएं। ऐसे कार्यक्रम संयुक्त राष्ट्र के सन 2030 तक संधारणीय लक्ष्यों की प्राप्ति के अनुरूप भी हैं। दुनिया से गरीबी मिटाने के जो सुझाव अर्थशास्त्रियों ने दिए हैं, उनसे ये योजनाएं मेल खाती हैं। इसे सार्वजनिक-संसाधनों का पुनर्वितरण माना जाता है। यह भी सच है कि सब्सिडी बेशक रेवड़ी नहीं हैं लेकिन चुनाव नतीजों पर उनका असर तो होता ही है। इससे सरकार की प्रशासनिक सूझ-बूझ का पता भी लगता है।

Saturday, July 30, 2022

हमें क्या चाहिए, मुफ्त की रेवड़ियाँ या सामाजिक-कल्याण?

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने हाल में एक सभा में कहा कि देश में लोक-लुभावन राजनीति के नाम पर मुफ्त की रेवड़ियाँ बाँटने की संस्कृति पर रोक लगनी चाहिए। वे यह बात गुजरात के चुनाव के संदर्भ में कह रहे थे, जहाँ आम आदमी पार्टी भी प्रवेश पाने की कोशिश कर रही है। प्रधानमंत्री के इशारे को आम आदमी पार्टी ने अपने ऊपर हमला माना और उसके सुप्रीमो और दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने कहा कि मुफ्त बिजली, पानी, स्वास्थ्य-सेवाएं, विश्वस्तरीय-शिक्षा और महिलाओं का मुफ्त परिवहन राज्य की जिम्मेदारी है। उनके कार्यकर्ताओं ने गुजरात में जगह-जगह मोदी के ‘रेवड़ी संस्कृति’ बयान के विरोध में प्रदर्शन भी किया। इसके जवाब बीजेपी के गुजरात-प्रमुख सीआर पाटिल ने कहा कि ‘रेवड़ी संस्कृति’ से राज्य और भारत के सामने वैसी ही परिस्थिति पैदा हो सकती है जैसी श्रीलंका में बन गई है।

इस रेवड़ी-चर्चा ने कुछ समय के लिए जोर भी पकड़ा, पर इस विषय पर गंभीरता से विमर्श कभी नहीं हुआ। चुनाव-चर्चा से आगे यह बात कभी नहीं गई। मोदी और केजरीवाल में से कौन सही है? श्रीलंका में हालात क्या ‘रेवड़ी संस्कृति’ के कारण बिगड़े? आम आदमी पार्टी ने दिल्ली में मुफ्त पानी-बिजली के सहारे बड़ी सफलता प्राप्त की। इसे उन्होंने पंजाब में भी दोहराया। और अब हिमाचल और गुजरात भी दोहराना चाहते हैं।

इस विषय को लेकर राजनीतिक बहस के समांतर देश के उच्चतम न्यायालय में भी सुनवाई चल रही है। सुप्रीम कोर्ट ने इसे गंभीर मुद्दा बताया है और सरकार तथा चुनाव आयोग से कहा है कि वे इसे रोकने के लिए जरूरी समाधान खोजें। इस मामले की अगली सुनवाई अब 3 अगस्त को होगी।

Sunday, July 24, 2022

इतिहास का सुनहरा अध्याय द्रौपदी मुर्मू


देश के 15वें राष्ट्रपति के रूप में श्रीमती द्रौपदी मुर्मू का चुनाव कई मायनों में ऐतिहासिक है। जनजातीय समाज से वे देश की पहली राष्ट्रपति बनने जा रही हैं। इसके अलावा वे देश की दूसरी महिला राष्ट्रपति होंगी। उनकी विजय भारतीय राजनीति और समाज की भावी दिशा की ओर इशारा कर रही है। हमारा लोकतंत्र वंचित और हाशिए के समाज को बढ़ावा दे रहा है। और यह भी कि सामाजिक रूप से पिछड़े और गरीब तबकों के बीच प्रतिभाशाली राजनेता, विचारक, अर्थशास्त्री, वैज्ञानिक, लेखक, कलाकार और खिलाड़ी मौजूद हैं, जो देश का नाम ऊँचा करेंगे। उन्हें बढ़ने का मौका दीजिए।

जबर्दस्त समर्थन

यह चुनाव राजनीतिक-स्पर्धा भी थी। जिस तरह से उन्हें विरोधी सांसदों और विधायकों के वोट मिले हैं, उससे भी देश की भावना स्पष्ट होती है। उनकी उम्मीदवारी का 44 छोटी-बड़ी पार्टियों ने समर्थन किया था, पर ज्यादा महत्वपूर्ण है, विरोधी दलों की कतार तोड़कर अनेक सांसदों और विधायकों का उनके पक्ष में मतदान करना। भारतीय राज-व्यवस्था में यह अलग किस्म की बयार है। तमाम मुश्किलों और मुसीबतों का सामना करते हुए देश के सर्वोच्च शिखर पर पहुँचने वाली इस महिला को देश ने जो सम्मान दिया है, वह अतुलनीय है।

मास्टर-स्ट्रोक

राजनीतिक दृष्टि से यह चुनाव बीजेपी का मास्टर-स्ट्रोक साबित हुआ है। जैसे ही द्रौपदी मुर्मू का नाम सामने आया, पूरे देश ने उनके नाम का स्वागत किया। इसका प्रमाण और इस चुनाव का सबसे महत्वपूर्ण पहलू है क्रॉस वोटिंग। सबसे अधिक क्रॉस वोटिंग असम में हुई। असम में 22 और मध्य प्रदेश में 19 क्रॉस वोट पड़े। 126 सदस्यीय असम विधानसभा से उन्हें 104 वोट मिले। असम विधानसभा में एनडीए के 79 सदस्य हैं। मतदान के दौरान विधानसभा के दो सदस्य अनुपस्थित भी थे। राजनीतिक दृष्टि से यह भारतीय जनता पार्टी को मिली भारी सफलता और विरोधी दलों की रणनीति की भारी पराजय है। बावजूद इस सफलता के, उन्हें मिले एकतरफा समर्थन की यह राजनीतिक-तस्वीर पूरे देश की नहीं है। चार राज्यों में उन्हें कुल वोटों की तुलना में 12.5 फीसदी या उससे भी कम वोट मिले। सबसे कम केरल में उन्हें 0.7 फीसदी मत मिले, जहां एकमात्र विधायक ने उनके पक्ष में वोट डाला। तेलंगाना में उन्हें केवल 2.6 फीसदी वोट मिले। पंजाब में 7.3 फीसदी और दिल्ली में 12.5 फीसदी। अलबत्ता तमिलनाडु में 31 फीसदी वोट मिले, जिसकी वजह अद्रमुक का समर्थन है।

विरोधी बिखराव

यह परिणाम देश की पहली महिला आदिवासी के राष्ट्रपति बनने की कहानी तो है ही, साथ ही विरोधी दलों के आपसी मतभेद और अलगाव को भी दिखाता है। सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी के ओम प्रकाश राजभर ने श्रीमती मुर्मू का समर्थन करके उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी के गठबंधन की एकजुटता के लिए चुनौती पेश कर दी है। उधर तृणमूल कांग्रेस द्वारा उप राष्ट्रपति पद के चुनाव में मार्गरेट अल्वा का समर्थन न करने की घोषणा के बाद विरोधी दलों का यह बिखराव और ज्यादा खुलकर सामने आ गया है। प्रकारांतर से ममता बनर्जी श्रीमती मुर्मू का विरोध नहीं कर पाईं। उन्होंने कहा था,  हमें बीजेपी की उम्मीदवार के बारे में पहले सुझाव मिला होता, तो इस पर सर्वदलीय बैठक में चर्चा कर सकते थे। द्रौपदी मुर्मू संथाल-समुदाय से आती हैं। पश्चिम बंगाल के 70 फ़ीसदी आदिवासी संथाल हैं। उन्हें पश्चिम बंगाल के अपने आदिवासी मतदाता को यह समझाना होगा कि उन्होंने मुर्मू का समर्थन क्यों नहीं किया।

Wednesday, July 20, 2022

रानिल विक्रमासिंघे श्रीलंका के राष्ट्रपति चुने गए

श्रीलंका की संसद में हुए राष्ट्रपति पद के चुनाव में भी कार्यवाहक राष्ट्रपति के रूप में अभी तक काम कर रहे रानिल विक्रमासिंघे को जीत मिली है। इसके पहले देश के राष्ट्रपति गोटाबाया राजपक्षे देश छोड़कर सिंगापुर चले गए थे। उनके भाई महिंदा राजपक्षे ने प्रधानमंत्री की कुर्सी छोड़ दी थी। वे तब से कहाँ हैं, इसकी कोई सूचना नहीं है।

यह पहला मौका है जब राष्ट्रपति पद के लिए मुकाबला तीन उम्मीदवारों के बीच हुआ। मुकाबला रानिल विक्रमासिंघे, डलास अल्हाप्पेरुमा और वामपंथी जनता विमुक्ति पेरामुना (जेवीपी) के नेता अनुरा कुमारा दिसानायके के बीच था। विक्रमासिंघे को 134 वोट मिले हैं। 223 सदस्यों वाली संसद में दो सांसद नदारद रहे और कुल 219 वोट्स वैध और 4 वोट अवैध घोषित हुए। श्रीलंका के संविधान के मुताबिक नया राष्‍ट्रपति अब नवंबर 2024 तक पूर्व राष्‍ट्रपति के कार्यकाल को पूरा करेगा।

इस जीत से फौरी तौर पर राजनीतिक अस्थिरता का समाधान हो गया है, पर यह समझ में नहीं आ रहा है कि आर्थिक संकट का समाधान कैसे निकलेगा। इस चुनाव परिणाम में जनता की दिलचस्पी नजर नहीं आ रही है। चुनाव परिणाम आने के बाद भी राजधानी कोलंबो में प्रदर्शन हो रहे हैं। प्रदर्शनकारी रानिल विक्रमासिंघे का भी विरोध कर रहे हैं। रानिल विक्रमासिंघे भी देश में अलोकप्रिय हैं और उनके निजी आवास में भी आक्रोशित भीड़ ने आग लगा दी थी।

Tuesday, July 19, 2022

गर्मी से परेशान यूरोप

 

मंगलवार के वॉलस्ट्रीट जरनल के पहले पेज पर प्रकाशित तस्वीर। बकिंघम पैलेस पर तैनात संतरी को ठंडा पानी पिलाता उसका अफसर। 

पश्चिमी यूरोप इन दिनों झुलसाने वाली गर्मी का सामना कर रहा है। ज़बरदस्त गर्म हवाओं के उत्तर की ओर बढ़ने के साथ ही मंगलवार को पश्चिमी यूरोप में पारा चढ़ता जा रहा है। कई देशों ने इसे राष्ट्रीय संकट घोषित कर दिया है। फ्रांस और यूके में सोमवार 18 जुलाई को बेहद गर्मी की चेतावनी जारी की गई। वहीं स्पेन में सोमवार को 43 डिग्री तापमान रहा।

फ्रांस, पुर्तगाल, स्पेन और ग्रीस में जंगल की आग के कारण हज़ारों लोगों को अपना घर छोड़कर सुरक्षित जगहों की तरफ जाना पड़ा है। विशेषज्ञ कहते हैं कि ब्रिटेन जल्द ही अपने सबसे गर्म दिन का सामना करेगा और फ्रांस के कुछ हिस्सों में "कयामत की गर्मी बरस" रही है।

पूरा यूरोप गर्मी में उबल रहा है। जंगलों में लगी आग ने मुश्किलों का और बढ़ा दिया है। यूनाइटेड किंगडम (यूके) से लेकर हर हिस्से में तापमान नए रिकॉर्ड बना रहा है। स्पेन में लगी आग में दो लोगों की मौत ने इसे और गंभीर बना दिया है। स्पेन के प्रधानमंत्री पेद्रो सांचेज ने इसे ग्लोबल वॉर्मिंग से जोड़ा है और कहा है कि जलवायु परिवर्तन लोगों की जान ले रहा है।

दक्षिणी इंग्‍लैंड में सोमवार को तापमान 38 डिग्री था जो मंगलवार को 41 डिग्री के आसपास है। नेशनल रेल सर्विस ने यात्रियों को सलाह दी है कि जब तक जरूरी न हो सफर न करें। पूर्वोत्तर इंग्‍लैंड में कई जगह रेल सेवा बंद कर दी गई है।

Monday, July 18, 2022

अदालत में लड़ी जाएगी ट्विटर और मस्क की लड़ाई


सोशल मीडिया कंपनी ट्विटर और टेस्ला-प्रमुख एलन मस्क के बीच 44 अरब डॉलर का सौदा खटाई में पड़ गया है। अब यह मामला लम्बी कानूनी लड़ाई का रूप लेने जा रहा है। इसमें दोनों पक्षों के अरबों डॉलर स्वाहा होंगे। ट्विटर के चेयरमैन ब्रेट टेलर का कहना है कि ट्विटर बोर्ड निर्धारित शर्तों पर समझौते को लागू कराएगा। इसके लिए हम डेलावेयर कोर्ट ऑफ चांसरी जा रहे हैं। विशेषज्ञों का कहना है कि ऐसे विवादों में आमतौर पर डेलावेयर कोर्ट का रुख रहता है कि दोनों पक्ष आपस में बैठकर नया समझौता कर लें।  

ऐसे मौके भी आए हैं, जब अदालतों ने किसी एक पक्ष को समझौता मानने को मजबूर किया हो, पर वे छोटे करार थे। यह करार बहुत बड़ा है। एलन मस्क जैसे जुनूनी पूँजीपति को अपनी इच्छा के विपरीत कम्पनी खरीदने के लिए तैयार करना भी मुश्किल है। ज्यादा से ज्यादा एक अरब डॉलर का खामियाजा भरने के लिए कहा जा सकता है। समझौते में ब्रेक-अप फ़ी एक अरब डॉलर है। दोनों कम्पनियों ने देश की नामी लॉ फर्म्स को इस काम के लिए जोड़ा है, पर दोनों के सामने अनिश्चित भविष्य है।

कमजोर कारोबार

कॉरपोरेट लॉ विशेषज्ञ मानते हैं कि ट्विटर का केस अपेक्षाकृत मजबूत है। मस्क के लिए यह साबित करना मुश्किल होगा कि ट्विटर ने जो विवरण दिया है, वह अधूरा है या उससे कम्पनी के कारोबार में भारी फर्क पड़ने का खतरा है। पर ट्विटर का आर्थिक आधार बहुत मजबूत नहीं है। डिजिटल-विज्ञापन के बाजार में भारी उतार-चढ़ाव आ रहे हैं। मस्क की जेब भारी है, पर क्या उनके पास इतना पैसा है कि वे लम्बी लड़ाई लड़ सकें?

दोनों कम्पनियों के शेयरों के भाव गिरे हुए हैं। इन बातों से दोनों का आर्थिक-भविष्य भी जुड़ा है। अदालती फैसला मस्क के खिलाफ गया, तो उन्हें अब टेस्ला के कुछ और शेयर बेचने होंगे। अप्रेल में उन्होंने टेस्ला के 8.5 अरब के शेयर बेचे थे। दूसरी तरफ जनवरी से अप्रेल के बीच उन्होंने 2.6 अरब डॉलर की कीमत के ट्विटर के शेयर भी खरीदे थे।

पहले ना, फिर हाँ

इस साल 13 अप्रेल को जब एलन मस्क ने ट्विटर पर कब्जा करने के इरादे से 54.20 डॉलर की दर से शेयर खरीदने की पेशकश की, तो सोशल मीडिया में सनसनी फैल गई थी। दुनिया का सबसे अमीर आदमी सोशल मीडिया के एक प्लेटफॉर्म की इतनी बड़ी कीमत क्यों देना चाहता है? टेकओवर वह भी जबरन, जिसे रोकने के लिए ट्विटर प्रबंधन ने पहले तो ‘पॉइज़न पिल’ का इस्तेमाल किया और फिर तैयार हो गए। पर ढाई-तीन महीने के भीतर समझौता टूटना उतना ही नाटकीय है, जितना समझौता होना।

एलन मस्क ने यह कहकर हाथ खींचा है कि इस क़रार से जुड़ी शर्तों को कई बार तोड़ा गया, जिसकी वजह से वे पीछे हट रहे हैं। मस्क के अनुसार कम्पनी ने उनको ट्विटर के फ़र्ज़ी हैंडलों के बारे में पर्याप्त जानकारी नहीं दी थी। इसके अलावा भी समझौते की कई शर्तों को तोड़ा गया है। समझौते के साथ मस्क और ट्विटर दोनों की साख जुड़ी हुई हैं। दोनों के कारोबार पर भी इसका असर होगा।

Sunday, July 17, 2022

आई2यू2 यानी भारत की ‘लुक-वेस्ट’ नीति


भारत-इजराइल-अमेरिका और यूएई के बीच नवगठित समूह आई2यू2 की गुरुवार 14 जुलाई को हुई पहली शिखर बैठक में भारत के लिए नए अवसर खुले हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन, इजरायल के प्रधानमंत्री येर लेपिड और यूएई के राष्ट्रपति शेख मोहम्मद बिन ज़ायेद अल नाह्यान की इस वर्चुअल बैठक में दो अहम परियोजनाओं को हरी झंडी दिखाई गई, जो भारत में शुरू होंगी। भारत और यूएई के बीच फूड एक कॉरिडोर बनाया जाएगा। दूसरे भारत के द्वारका में अक्षय ऊर्जा हब बनाया जाएगा। यह आर्थिक कार्यक्रम है, पर इसके पीछे पश्चिम एशिया की भावी राजनीति और इसमें भारत की भूमिका को भी देखा जा सकता है। 

बैठक में अमेरिकी राष्ट्रपति और इजराइल के प्रधानमंत्री तेल अवीव से शामिल हुए थे। जो बाइडेन 13 से 16 जुलाई तक पश्चिम एशिया के दौरे पर थे। उनकी इस यात्रा के पीछे पश्चिम एशिया में अपने मित्र देशों के आधार को मजबूत करने के अलावा यूक्रेन युद्ध के कारण इस समय दुनिया में पेट्रोलियम की कीमतों में तेजी को रोकना भी है। इस तेजी का लाभ रूस को मिल रहा है। अमेरिका की कोशिश है कि सऊदी अरब के सहयोग से इस तेजी पर काबू पाया जाए।
फलस्तीन की समस्या

बाइडेन चाहते हैं कि इजरायल और फलस्तीनियों के बीच दीर्घकालीन समझौता हो जाए। पर यह समझौता फलस्तीनी अथॉरिटी के महमूद अब्बास के साथ होगा। जो बाइडेन टू स्टेट अवधारणा क समर्थन कर रहे हैं। उनकी महमूद अब्बास से मुलाकात भी हुई है। पर समझौता आसान नहीं है। खासतौर से हमस का रुख काफी कड़ा है और गज़ा पट्टी पर हमस का ही दबदबा है। महमूद अब्बास के संगठन और इजरायल दोनों के साथ भारत के रिश्ते अच्छे हैं, जिनका लाभ लिया जा सकता है।

हमस मूलतः उग्रवादी संगठन है, पर 2005 के बाद से उसने गज़ा पट्टी के इलाके में राजनीतिक प्रक्रिया में हिस्सा लेना भी शुरू कर दिया। वह फलस्तीनी अथॉरिटी के चुनावों में शामिल होने लगा। गज़ा में फतह को चुनाव में हराकर उसने प्रशासन अपने अधीन कर लिया है। अब फतह गुट का पश्चिमी तट पर नियंत्रण है और गज़ा पट्टी पर हमस का। अंतरराष्ट्रीय समुदाय पश्चिमी तट के इलाके की अल फतह नियंत्रित फलस्तीनी अथॉरिटी को ही मान्यता देता है। 

शिखर बैठक के बाद भारत के विदेश सचिव विनय क्वात्रा ने कहा कि शुरूआती दौर में फिलहाल गुजरात और मध्य प्रदेश में यह पार्क बनाने की कवायद आगे बढ़ी है। उन्होंने बताया कि भारत की केला, चावल, आलू, प्याज और मसालों की फसलों को आरंभिक दौर में चिह्नित भी किया गया है। इन परियोजनाओं के जरिए भारतीय किसानों के उत्पादों को बड़ा बाजार मिलेगा, वहीं रोजगार के नए अवसर भी बनेंगे।

दो अरब डॉलर का निवेश

इस शिखर बैठक के बाद संयुक्त अरब अमीरात ने घोषणा की कि वह एकीकृत फूड पार्कों की श्रृंखला का विकास करने के लिए भारत में दो अरब डॉलर का निवेश करेगा। इसका उद्देश्य दक्षिण और पश्चिम एशिया में खाद्य असुरक्षा की समस्या का सामना करना है। बैठक के बाद जारी संयुक्त बयान में कहा गया है कि इस कार्य के लिए भूमि और किसानों को जोड़ने का काम भारत करेगा। इस बैठक में इस इलाके की खाद्य-सुरक्षा और स्वच्छ ऊर्जा, खाद्य उत्पादन तथा वितरण प्रणाली में बदलावों को सुनिश्चित करने पर विचार हुआ, ताकि वैश्विक खाद्य-सामग्री का भंडार बनाया जा सके।

इस कार्य में अमेरिका और इजराइल से निजी क्षेत्रों को आमंत्रित किया जाएगा और उनकी विशेषज्ञता का लाभ उठाया जाएगा। वे परियोजना की कुल वहनीयता में योगदान देते हुए नवोन्मेषी समाधानों की पेशकश भी करेंगे। पूँजी निवेश से उपज बेहतर होगी और इससे दक्षिण एशिया एवं पश्चिम एशिया में खाद्य असुरक्षा से निपटा जा सकेगा।

आई2यू2 ग्रुप

आई2यू2 यानी अंग्रेजी आई 2 (इंडिया और इजरायल) और यू 2 (यानी यूएसए और यूएई)। इसे पश्चिम एशिया का क्वॉड भी कहा जा रहा है। इस अनौपचारिक समूह की शुरुआत अक्तूबर 2021 में विदेशमंत्री एस जयशंकर की इजरायल यात्रा के दौरान उपरोक्त चारों देशों के विदेशमंत्रियों की एक पहल के रूप में हुई थी। उस समय इसे आर्थिक सहयोग का अंतरराष्ट्रीय फोरम भी कहा गया था।

आई2यू2 समूह को महत्वपूर्ण माना जा रहा है, क्योंकि पश्चिम एशिया में भारत के साथ अमेरिकी साझेदारी गेम चेंजर हो सकती है। यह बात पूर्व इजरायल के पूर्व एनएसए मेजर जनरल याकोव अमिद्रोर ने गत 14 जुलाई को फोरम की पहली उच्च स्तरीय बैठक से पहले कही। भारत सरकार ने मंगलवार 12 जुलाई को आई2यू2 नेताओं के वर्चुअल शिखर सम्मेलन की घोषणा करते हुए कहा कि यह समूह पानी, ऊर्जा, परिवहन, अंतरिक्ष, स्वास्थ्य और खाद्य सुरक्षा जैसे छह पारस्परिक रूप से पहचाने गए क्षेत्रों में संयुक्त निवेश को प्रोत्साहित करने के लिए काम करेगा।

इजरायल  के पूर्व एनएसए ने कहा,  आई2यू2 दुनिया के हितों को ध्यान में रखकर बनाया गया है। इसमें इजरायल  और यूएई में रणनीतिक साझेदारी की घोषणा की उम्मीद है। उन्होंने कहा, भारत की भूमिका यूरोप और इजरायल  के साथ एक सेतु की है और पूरे संदर्भ में भारत एक बड़ा व्यापारिक भागीदार है।

नया क्वॉड

इसमें दो राय नहीं कि हाल के वर्षों में भारत ने इस इलाके में सम्पर्क बढ़ाया है। हाल में जर्मनी में हुई जी-7 की शिखर-बैठक में शामिल होने के बाद प्रधानमंत्री मोदी यूएई की संक्षिप्त-यात्रा पर भी गए थे। अमेरिका की दिलचस्पी इस बात में भी है कि इजरायल के रिश्ते इस क्षेत्र के देशों के साथ बेहतर हों। इसमें यूएई के अलावा सऊदी अरब की भूमिका भी है। इसमें यूएई, मोरक्को और बहरीन के साथ हुआ अब्राहमिक समझौता मददगार होगा। इस प्रक्रिया को आई2यू2 समूह बढ़ाएगा।

भारत के उपराष्ट्रपति की भूमिका

जगदीप धनखड़

उपराष्ट्रपति पद के लिए भारतीय जनता पार्टी के प्रत्याशी के रूप में जगदीप धनखड़ का नाम सामने आने के बाद दो तरह की बातें सामने आई हैं। एक, धनखड़ से जुड़ी और दूसरी देश के उपराष्ट्रपति की भूमिका को लेकर। हालांकि राष्ट्रपति की तुलना में उपराष्ट्रपति पद छोटा है, पर राजनीतिक-प्रशासनिक जीवन में उसकी भूमिका ज्यादा बड़ी है, बल्कि संसदीय प्रणाली में भारत के उपराष्ट्रपति का पद अपने आप में अनोखा है। ब्रिटिश संसदीय प्रणाली में ऐसा सम्भव ही नहीं है, क्योंकि वहाँ राजा के बाद कोई उप-राजा नहीं होता। 

राष्ट्रपति की अनुपस्थिति में उपराष्ट्रपति उसकी भूमिका निभाता है। राष्ट्रपति की भूमिका कार्यपालिका-प्रमुख तक सीमित है, जबकि उपराष्ट्रपति की भूमिका विधायिका के साथ है। वह राज्यसभा का पदेन अध्यक्ष है। भारत के उपराष्ट्रपति की तुलना अमेरिकी उपराष्ट्रपति से की जा सकती है, जो सीनेट का अध्यक्ष भी होता है। अमेरिका में सीनेट राज्यों का प्रतिनिधि सदन है और भारत में भी राज्यसभा राज्यों का प्रतिनिधि सदन है। प्रतिनिधित्व के मामले में अमेरिकी सीनेट का स्वरूप वही है, जैसा बताया गया है, जबकि राज्यसभा का स्वरूप धीरे-धीरे बदल गया है।

देश के वर्तमान उपराष्ट्रपति वेंकैया नायडू का कार्यकाल 10 अगस्त को पूरा हो रहा है। उसके पहले 6 अगस्त को उपराष्ट्रपति पद का चुनाव होगा। भारतीय संविधान के अनुच्छेद 63 में कहा गया है, भारत का एक उपराष्ट्रपति होगा। अनुच्छेद 64 में कहा गया है कि उपराष्ट्रपति राज्यसभा का पदेन सभापति होगा, परन्तु किसी अवधि के दौरान उपराष्ट्रपति, अनुच्छेद 65 के अधीन राष्ट्रपति के रूप में कार्य करता है, उस अवधि के दौरान वह राज्यसभा के सभापति के पद के कर्तव्यों का पालन नहीं करेगा और वह अनुच्छेद 97 के अधीन राज्यसभा के सभापति को संदेय वेतन या भत्ते का हकदार नहीं होगा।

संविधान सभा में उपराष्ट्रपति पद से जुड़े उपबंधों को स्वीकार किए जाने के बाद 29, दिसम्बर 1948 को संविधान की दस्तावेज (ड्राफ्टिंग) समिति के अध्यक्ष भीमराव आम्बेडकर ने इस पद के व्यावहारिक स्वरूप को स्पष्ट करते हुए कहा कि हालांकि संविधान में उपराष्ट्रपति पद का उल्लेख है, पर वस्तुतः वह राज्यसभा का सभापति है। दूसरे शब्दों में वह लोकसभा अध्यक्ष का समतुल्य है।

इस पद के अतिरिक्त वह किसी कारण से राष्ट्रपति पद के रिक्त हो जाने पर राष्ट्रपति पद पर कार्य करेगा। अनुच्छेद 65(1) के अनुसार, राष्ट्रपति की मृत्यु, पदत्याग या पद से हटाए जाने या अन्य कारण से उसके पद में हुई रिक्ति की दशा में उपराष्ट्रपति उस तारीख तक राष्ट्रपति के रूप में कार्य करेगा, जिस तारीख को ऐसी रिक्ति को भरने के लिए इस अध्याय के उपबंधों के अनुसार निर्वाचित नया राष्ट्रपति अपना पद ग्रहण करता है।

अनुच्छेद 65(2) के अनुसार, जब राष्ट्रपति अनुपस्थिति, बीमारी  किसी अन्य कारण से अपने कर्तव्यों के निर्वहन में असमर्थ है, तब उपराष्ट्रपति उस तारीख तक उसके कर्तव्यों का निर्वहन करेगा, जिस तारीख क राष्ट्रपति अपने कर्तव्यों को फिर से संभालता है।

कोई भी नागरिक जिसकी आयु कम से कम 35 वर्ष है और किसी राज्य या केंद्र शासित क्षेत्र में पंजीकृत मतदाता है, इस पद के लिए प्रत्याशी बन सकता है। इसके लिए उसके नाम का प्रस्ताव कम से कम 20 सांसद करें और 20 सांसद उसके नाम का समर्थन करें। अनुच्छेद 66(2) के अनुसार उपराष्ट्रपति संसद के किसी सदन का या किसी राज्य के विधानमंडल के किसी सदन का सदस्य नहीं होगा। यदि संसद के किसी सदन का या किसी राज्य के विधानमंडल के किसी सदन का कोई सदस्य उपराष्ट्रपति निर्वाचित हो जाता है, तो यह समझा जाएगा कि उसने उस सदन में अपना स्थान उपराष्ट्रपति के रूप में अपने पद-ग्रहण की तारीख से रिक्त कर दिया है।

क्या से क्या हो गया श्रीलंका?


श्रीलंका में राष्ट्रपति गोटाबाया राजपक्षे ने जनता के दबाव में इस्तीफा दे दिया है। खबरों के मुताबिक वे मालदीव होते हुए सिंगापुर पहुंच गए हैं। प्रधानमंत्री रानिल विक्रमासिंघे को अंतरिम राष्ट्रपति पद की शपथ दिलाई गई है। देश में जनांदोलन का आज 99वाँ दिन है। शनिवार 9 जुलाई को राष्ट्रपति भवन में भीड़ घुस गई। इसके बाद गोटाबाया राजपक्षे ने इस्तीफ़े की घोषणा की। देश में राजनीतिक असमंजस है, आर्थिक स्थिति बद से बदतर होती जा रही है। वहाँ सर्वदलीय सरकार बनाने की कोशिश हो रही है। अंतरिम राष्ट्रपति के शपथ लेने से समस्या का समाधान नहीं होगा। संसद को राष्ट्रपति चुनना होगा, जो गोटाबाया के शेष कार्यकाल को पूरा करे। उनका कार्यकाल 2024 तक है। 20 जुलाई को नए राष्ट्रपति का चुनाव होगा। इस जनांदोलन के पीछे सकारात्मकता भी दिखाई पड़ी है। भीड़ ने राष्ट्रपति भवन पर कब्जा जरूर किया, पर राष्ट्रीय सम्पत्ति को नष्ट करने की कोई कोशिश नहीं की, बल्कि उसकी रक्षा की। सेना ने भी आंदोलनकारियों के दमन का प्रयास नहीं किया।

अनेक कारण

राजनीतिक स्थिरता के बाद ही आईएमएफ से बेल आउट पैकेज को लेकर बातचीत हो सकती है। सबसे पहले हमें समझना होगा कि समस्या है क्या। समस्या के पीछे अनेक कारण हैं। विदेशी मुद्रा कोष खत्म हो गया है, जिसके कारण जरूरी वस्तुओं का आना बंद हो गया है। 2019 को हुए चर्च में हुए विस्फोट, कोविड-9 के कारण पर्यटन उद्योग को लगा धक्का, खेती में रासायनिक खादों का इस्तेमाल एकमुश्त खत्म करके ऑर्गेनिक खेती शुरू करने की नीति, इंफ्रास्ट्रक्चर के लिए चीनी कर्ज को चुकाने की दिक्कतें और धीरे-धीरे आर्थिक गतिविधियों का ठप होना। सरकार रास्ते खोज पाती कि जनता का गुस्सा फूट पड़ा। पर समाधान राजनीतिक और प्रशासनिक गतिविधियों से ही निकलेगा।

दिवालिया देश

महीने की शुरुआत में प्रधानमंत्री रानिल विक्रमासिंघे ने कहा था कि देश दिवालिया हो चुका है। पेट्रोल और डीजल खत्म हो चुका है। परिवहन तकरीबन ठप है। शहरों तक भोजन सामग्री नहीं पहुँचाई जा सकती है। दवाएं उपलब्ध नहीं हैं। अस्पतालों में सर्जरी बंद हैं। विदेश से चीजें मंगवाने के लिए पैसा नहीं है। अच्छे खासे घरों में फाके शुरू हो गए हैं। स्कूल बंद हैं। सरकारी दफ्तरों तक में छुट्टी है। निजी क्षेत्र काम ही नहीं कर रहा है। इसके पहले अप्रेल के महीने में श्रीलंका सरकार ने कहा था कि वह 51 अरब डॉलर के विदेशी कर्ज का भुगतान करने की स्थिति में नहीं है। विदेश से पेट्रोल, दवाएं और जरूरी सामग्री खरीदने के लिए विदेशी मुद्रा नहीं है।

विदेशी मुद्रा

जनवरी में लगने लगा था कि विदेशी-मुद्रा कोष के क्षरण के कारण श्रीलंका में डिफॉल्ट की स्थिति पैदा हो जाएगी। राजपक्षे परिवार ने चीन और भारत से मदद माँगी। 15 जनवरी को विदेशमंत्री एस जयशंकर ने श्रीलंका के वित्तमंत्री बासिल राजपक्षे के साथ बातचीत की, जिससे स्थिति बिगड़ने से बची। दिसंबर में पीपुल्स बैंक ऑफ चाइना ने श्रीलंका के साथ 1.5 अरब डॉलर का करेंसी स्वैप किया। 13 जनवरी को भारत ने फौरी तौर पर 90 करोड़ डॉलर के ऋण की घोषणा की थी, ताकि श्रीलंका खाद्य-सामग्री का आयात जारी रख सके। इस दोनों वित्तीय पैकेजों ने कुछ समय के लिए उसे बड़े संकट से बचा लिया, पर यह स्थायी समाधान नहीं था।

अनुशासनहीनता

वर्तमान बदहाली के पीछे राजनीतिक अनुशासनहीनता का हाथ है। 2019 में गोटाबाया राजपक्षा के राष्ट्रपति बनने के बाद आईएमएफ की उन मौद्रिक और राजकोषीय नीतियों को त्याग दिया गया, जो उसके तीन साल पहले इसी किस्म का संकट पैदा होने पर अपनाई गई थीं। श्रीलंका में सत्ता-परिवर्तन के पीछे लंबी जद्दो-जहद थी। नई सरकार ने आते ही तैश में या लोकप्रियता बटोरने के इरादे से टैक्सों और ब्याज में कमी कर दी। यह देखे बगैर की जरूरत किस बात की है। ऊपर से कोविड-19 ने परिस्थिति को बदल दिया। अब आईएमएफ के पास जाना भी राजनीतिक रूप से तमाचा होता। आईएमएफ की शर्तों की वे खुली आलोचना कर चुके थे और इसे संप्रभुता में हस्तक्षेप मानते रहे।  

देखते ही देखते तबाही

संकट तब पैदा हुआ, जब हालात सुधरने की आशा थी। महामारी के दौरान अंतरराष्ट्रीय विमान सेवाओं पर लगी रोक के कारण पर्यटन-कारोबार ठप हो गया था। पर्यटक अब आने लगे हैं, पर पहले के मुकाबले 20 फीसदी भी नहीं हैं। निर्यात बढ़ा, कंपनियों की आय बढ़ी, फिर भी अर्थव्यवस्था लंगड़ा गई। पुराने कर्जों को निपटाने में विदेशी मुद्रा का भंडार खत्म होने लगा। इससे पेट्रोल, रसोई गैस, गेहूँ और दवाओं के आयात पर असर पड़ा। रुपये की कीमत घटती गई, जिससे विदेशी सामग्री और महंगी हो गई। संकट पिछले साल के अंत में ही नजर आने लगा था। नवंबर 2021 में श्रीलंका का विदेशी मुद्रा भंडार मात्र 1.2 अरब डॉलर रह गया। दिसंबर में एक महीने के आयात के लायक एक अरब डॉलर की मुद्रा हाथ में थी। 18 जनवरी को 50 करोड़ डॉलर के इंटरनेशनल सॉवरिन बॉण्ड की अदायगी अलग से होनी थी, जिसके डिफॉल्ट की स्थिति पैदा हो गई थी। इससे बचने के लिए बाहरी मदद की जरूरत पड़ी।

Wednesday, July 13, 2022

दुनिया के सबसे बड़े युद्धाभ्यास ‘रिम्पैक’ में भारतीय नौसेना शामिल

यूक्रेन पर रूसी हमले के इस दौर में दुनिया का ध्यान यूरोप पर है, पर अंदेशा इस बात का भी है कि हिंद-प्रशांत में भी किसी भी समय टकराव की स्थितियाँ पैदा हो सकती हैं। हाल में चीन और रूस के विमानों ने जापान के आसपास के आकाश पर उड़ानें भरकर अपने इरादे जाहिर किए हैं। यूक्रेन में रूसी कार्रवाई की देखादेखी चीन भी ताइवान के खिलाफ कार्रवाई करने के संकेत दे रहा है। उधर जापान में पूर्व प्रधानमंत्री शिंजो आबे की हत्या के बाद इस बात की सम्भावना है कि जापान अपनी सुरक्षा को लेकर कुछ बड़े कदम उठा सकता है। इन सब बातों को देखते हुए रिम्पैक युद्धाभ्यास का महत्व है। इस युद्धाभ्यास में भारत भी शामिल होता है। ताइवान से लेकर पूर्वी लद्दाख तक अपने पड़ोसी देशों को आंखें दिखा रहे चीन को उसके घर में ही घेरने की तैयारी शुरू हो गई है।

भारतीय नौसेना के युद्धपोत आईएनएस सतपुड़ा और पी8आई टोही विमान ने अमेरिका के हवाई द्वीप स्थित पर्ल हार्बर पर इस युद्धाभ्यास में भाग लिया। इस अभ्यास के लिए सतपुड़ा 27 जून को और पी8आई विमान 2 जुलाई को हवाई पहुंचा था। कमांडर पुनीत डबास के नेतृत्व में पी8आई दस्ते का हिकम हवाई क्षेत्र पर एमपीआरए परिचालन के प्रमुख विंग कमांडर मैट स्टकलेस (आरएएएफ) ने स्वागत किया। पी8आई ने सात प्रतिभागी देशों के 20 एमपीआरए के साथ समन्वित बहुराष्ट्रीय पनडुब्बी भेदी युद्ध अभियान में हिस्सा लिया।

गत 29 जून से चल रहा और 4 अगस्त तक होने वाला रिम्पैक नौसैनिक-युद्धाभ्यास चीन के लिए गम्भीर चुनौती का काम करेगा। भारतीय नौसेना और क्वॉड के अन्‍य देशों के अलावा हमारे पड़ोस और दक्षिण चीन सागर से जुड़े, जो देश इसमें भाग ले रहे हैं उनमें फिलीपींस, ब्रूनेई, मलेशिया, इंडोनेशिया, सिंगापुर, थाईलैंड और श्रीलंका के नाम उल्लेखनीय हैं। दुनिया का यह सबसे बड़ा युद्धाभ्यास चीन को घेरने और उसे कठोर संदेश देने की यह कोशिश है। यह युद्धाभ्यास सन 1971 से हो रहा है। इस साल इसका 28वाँ संस्करण होगा, पर वैश्विक स्थितियों को देखते हुए इस साल अभ्यास का विशेष महत्व है।

रिम्पैक युद्धाभ्यास

रिम ऑफ द पैसिफिक एक्सरसाइज़ को संक्षेप में रिम्पैक कहते हैं। दो साल में एकबार होने वाला यह युद्धाभ्यास अमेरिका के पश्चिमी तट पर प्रशांत महासागर में होनोलुलु, हवाई के पास जून-जुलाई में होता है। इसका संचालन अमेरिकी नौसेना का प्रशांत बेड़ा करता है, जिसका मुख्यालय पर्ल हार्बर में है। इसका साथ देते हैं मैरीन कोर, कोस्ट गार्ड और हवाई नेशनल गार्ड फोर्स। हवाई के गवर्नर इसके प्रभारी होते हैं।

हालांकि यह युद्धाभ्यास अमेरिकी नौसेना का है, पर वह दूसरे देशों की नौसेनाओं को भी इसमें शामिल होने का निमंत्रण देते हैं। इसमें प्रशांत महासागर से जुड़े इलाके के देशों के अलावा दूर के देशों को भी बुलाया जाता है। पहला रिम्पैक अभ्यास सन 1971 में हुआ था, जिसमें ऑस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड, युनाइटेड किंगडम, और अमेरिका की नौसेनाओं ने भाग लिया। ऑस्ट्रेलिया, कनाडा और अमेरिका ने तबसे अबतक हरेक अभ्यास में हिस्सा लिया है। इसमें शामिल होने वाले अन्य नियमित भागीदार देश हैं, चिली, कोलम्बिया, फ्रांस, इंडोनेशिया, जापान, मलेशिया, नीदरलैंड्स, पेरू, सिंगापुर, दक्षिण कोरिया, और थाईलैंड। न्यूजीलैंड की नौसेना 1985 तक नियमित रूप से इसमें शामिल होती रही। एक विवाद के कारण कुछ साल तक वह अलग रही, फिर 2012 के बाद से उसकी वापसी हो गई। पिछले कई वर्षों से भारतीय नौसेना भी इसमें शामिल होती है। चीन की नौसेना ने भी 2014 में रिम्पैक अभ्यास में पहली बार हिस्सा लिया था, लेकिन 2018 में अमेरिका ने चीनी नौसेना को इसमें शामिल होने का निमंत्रण नहीं दिया। अमेरिका ने कहा कि चीन दक्षिण चीन सागर में विवादित द्वीपों पर तेजी से फौजी तैयारी कर रहा है।

Tuesday, July 12, 2022

हांगकांग में चीन की बढ़ती दमन-नीति

पिछले तीन साल से चल रहे लोकतांत्रिक आंदोलन का दमन करने के बाद चीन ने हांगकांग की व्यवस्था के अपनी मर्जी के रूपांतरण का इरादा खुलकर ज़ाहिर कर दिया है। इसके पहले 2 जनवरी, 2019 को राष्ट्रपति शी चिनफिंग ताइवान के लोगों से कह चुके हैं कि उनका हर हाल में चीन के साथ 'एकीकरण' होकर रहेगा। भले ही हमें फौजी कार्रवाई करनी पड़े। अब पिछली 1 जुलाई को हांगकांग के नए चीफ एक्जीक्यूटिव जॉन ली को शपथ दिलाने राष्ट्रपति शी चिनफिंग ने खुद जाकर अपने इरादों का इज़हार कर दिया है।  

हांगकांग-हस्तांतरण के 25 वर्ष पूरे होने पर इन दिनों समारोह मनाए जा रहे हैं। हांगकांग में शी चिनफिंग दो दिन रहे। उस दौरान उनकी सुरक्षा में जबर्दस्त घेरा बनाकर रखा गया, पर उनके जाते ही हजारों की संख्या में लोकतंत्र समर्थक सड़कों पर निकल आए। पश्चिमी मीडिया को शी चिनफिंग के कार्यक्रमों की कवरेज के लिए नहीं बुलाया गया। पिछले कुछ साल से 1 जुलाई को ये प्रदर्शन हो रहे हैं। 1 जुलाई 1997 को हांगकांग का हस्तांतरण हुआ था।

ब्रिटिश-हांगकांग

हांगकांग चीन के दक्षिण तट पर सिंकियांग नदी के मुहाने पर स्थित एक द्वीप है। सन 1842 में पहले अफीम युद्ध की समाप्ति के बाद चीन के चिंग राज्य ने हांगकांग को अपने से अलग करना स्वीकार कर लिया। वह ब्रिटिश उपनिवेश बन गया। दूसरे अफीम युद्ध के बाद 1860 में काउलून खरीदकर इसमें जोड़ दिया गया। सन 1898 में न्यू टेरिटरीज़ को 99 साल के पट्टे पर ले लिया गया।

आज हांगकांग एक विशेष प्रशासनिक क्षेत्र है। ग्लोबल महानगर और वित्तीय केंद्र होने के साथ-साथ यहाँ एक उच्च विकसित पूंजीवादी अर्थव्यवस्था है। साठ के दशक में ही वह महत्वपूर्ण कारोबारी केन्द्र के रूप में उभर आया था। जबकि उन दिनों चीन में भयानक अकाल और सांस्कृतिक क्रांति का दौर था। फिर भी हांगकांग के नागरिक खुद को पराधीन मानते थे। उनकी सांस्कृतिक जड़ें चीन में थीं। हांगकांग में भी प्रतिरोध आंदोलन चला, जो अपने सबसे उग्र रूप में 1967 में सामने आया।

हांगकांग वासी चीन जैसी व्यवस्था भी नहीं चाहते थे। वे रोजगार, शिक्षा और नागरिक सुविधाओं में बेहतरी चाहते थे। साठ और सत्तर के दशक में काम के घंटे कम हुए, अनिवार्य और निशुल्क शिक्षा-व्यवस्था की शुरुआत हुई, सार्वजनिक आवास योजनाएं, स्वास्थ्य सेवाएं तथा अन्य कल्याण योजनाएं शुरू हुईं।

यह सब चीन की मुख्य भूमि के नागरिकों की तुलना में एक अलग तरह का अनुभव था। स्वतंत्र न्याय-व्यवस्था, फ्री प्रेस और नागरिक अधिकारों का प्रवेश उस व्यवस्था में हो गया था। वहाँ प्रगतिशील चीन की अवधारणा जन्म ले रही थी, जो न तो ब्रिटिश हो और न कम्युनिस्ट। सत्तर के उत्तरार्ध से देंग श्याओ फेंग के नेतृत्व में चीन का रूपांतरण भी हो रहा था, जिसके अंतर्विरोध 3-4 जून, 1989 को तिएन-अन-मन चौक पर हुए टकराव के रूप में सामने आए। इसकी प्रतिक्रिया हांगकांग में भी हुई थी।

Sunday, July 10, 2022

आसान नहीं है श्रीलंका के संकट का समाधान

राष्ट्रपति भवन पर हल्ला बोल

श्रीलंका में राष्ट्रपति के इस्तीफे की घोषणा के बाद अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष ने कहा है कि उसे देश के राजनीतिक संकट के समाधान की उम्मीद है। राजनीतिक स्थिरता के बाद
बेल आउट पैकेज को लेकर बातचीत फिर से शुरू हो सकती है। श्रीलंका के वर्तमान संकट का हल आईएमएफ की मदद से ही हो सकता है। देश में 92 दिन से चले आ रहे जनांदोलन के बाद शनिवार को राष्ट्रपति भवन में भीड़ घुस गई। इसके बाद गोटाबाया राजपक्षे ने इस्तीफ़े की घोषणा कर दी। उन्होंने कहा कि देश में शांतिपूर्ण सत्ता हस्तांतरण के लिए वे 13 जुलाई को इस्तीफ़ा दे देंगे

शनिवार को बड़ी संख्या में प्रदर्शनकारी राष्ट्रपति के सरकारी आवास के अंदर घुस गए थे। उन्होंने प्रधानमंत्री के निजी आवास में भी आग लगा दी थी। उस समय राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री दोनों ही अपने आवासों पर मौजूद नहीं थे। श्रीलंका में खराब आर्थिक हालात के चलते लंबे समय से विरोध प्रदर्शन चल रहे हैं। प्रदर्शनकारी लगातार राष्ट्रपति गोटाबाया राजपक्षे के इस्तीफ़े की मांग करते रहे हैं। राष्ट्रपति के साथ-साथ प्रधानमंत्री रानिल विक्रमासिंघे ने भी इस्तीफ़ा देने की घोषणा की है। सरकारी सूत्रों के अनुसार एक सुरक्षित स्थान पर सेना राष्ट्रपति की रक्षा कर रही है। कुछ सूत्रों का कहना है कि उनके आवास पर भीड़ के आने के पहले नौसेना ने उन्हें बाहर निकाल लिया था।

शनिवार की शाम संसद के अध्यक्ष ने राजनीतिक दलों की एक बैठक बुलाई जिसमें प्रधानमंत्री विक्रमासिंघे ने अपने इस्तीफे की घोषणा की ताकि एक सर्वदलीय सरकार बनाई जा सके। उनके प्रवक्ता ने कहा कि जैसे ही नई सरकार बनेगी वे इस्तीफा दे देंगे। राष्ट्रपति के हट जाने के बाद संसद के अध्यक्ष 30 दिन तक गोटाबाया के स्थान पर काम कर सकते हैं। इस दौरान संसद को एक राष्ट्रपति चुनना होगा, जो गोटाबाया के शेष कार्यकाल को पूरा करे। उनका कार्यकाल 2024 तक है।   

राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री के इस्तीफे के बाद नई सर्वदलीय सरकार का गठन आसान नहीं होगा। देश का विपक्ष काफी बिखरा हुआ है। उनके पास संसद में बहुमत भी नहीं है। सत्तारूढ़ दल के समर्थन से विरोधी दलों की सरकार बन भी गई, तब भी देश की अर्थव्यवस्था को संभाल पाना काफी मुश्किल होगा। सरकार बदलने से आर्थिक-समस्याओं का समाधान नहीं हो जाएगा। अंतरराष्ट्रीय मुद्राकोष भी सहायता करने के पहले देश की राजनीतिक स्थिरता को समझना चाहेगा।

सायोनारा, भारत के दोस्त शिंजो आबे!


शिंजो आबे की हत्या की खबर से भारत स्तब्ध है। जापान के प्रति जो सम्मान आम भारतीय के मन में है,
उसे केवल महसूस किया जा सकता है। यह सम्मान यों ही नहीं है। हम जापानियों को उनकी कर्म-निष्ठा के कारण पहचानते हैं। पर शिंजो आबे का सम्मान हम उनके राष्ट्रवादी विचारों के कारण भी करते हैं। दूसरे विश्वयुद्ध में पराजित जापान ने जिस तरह से अपना रूपांतरण किया, वह अलग कहानी है, पर इस समय आक्रामक चीन के जवाब में खड़ा है। जापान में इस समय दो तरह की अवधारणाएं चल रही हैं। एक है कि चीन से दोस्ती बनाकर रखो और दूसरी है कि चीन का मुकाबला करने के लिए तैयार रहो। दूसरे विश्वयुद्ध के बाद अमेरिकी दबाव में ऐसी सांविधानिक-व्यवस्थाएं कर दी गई हैं कि जापान के हाथ बँध गए। शिंजो आबे इन्हें खोलना चाहते थे।

चीन से मुकाबिल

हाल के वर्षों में चीन ने दुनिया में धाक कायम की है, पर जापानियों ने उन्नीसवीं सदी के मध्य से ही अपना सिक्का बुलंद कर रखा है। पिछले डेढ़ दशक में शिंजो आबे ने अपने देश का नेतृत्व जिस तरीके से किया और भारत के साथ जैसे रिश्ते बनाए, उसपर ध्यान देने की जरूरत है। शिंजो आबे का राष्ट्रवाद भारत दिलो-दिमाग पर छाया है। हिंद-प्रशांत क्षेत्र और क्वॉड की परिकल्पना उनकी थी। अगस्त, 2007 में उन्होंने भारत की संसद में आकर इस अवधारणा पर रोशनी डाली थी, जो अब मूर्त रूप ले रही है। निश्चित रूप से इस समय वे दुनिया के सबसे ऊँचे कद के नेताओं में से एक थे। हैरत है कि एक पूर्व प्रधानमंत्री सड़क के किनारे जनता के बीच खड़ा था और उसे गोली मार दी गई। उस देश में जहाँ हत्याएं आम नहीं हैं। जहाँ पुलिस वालों के हाथों में भी बंदूकें नहीं होतीं।

क्यों हुई हत्या?

कैमरे जैसी बंदूक बनाकर उनकी हत्या की गई। क्यों की गई? अभी अटकलें ही हैं, पर किसी बड़ी साजिश को खारिज नहीं किया जा सकता है। शिंजो आबे हालांकि प्रधानमंत्री पद छोड़ चुके थे, पर राजनीतिक दृष्टि से वे महत्वपूर्ण थे और एक बड़े सैद्धांतिक बदलाव की पृष्ठभूमि तैयार कर रहे थे। बताते हैं कि उनके हत्यारे ने कहा है कि शिंजो जापान के दक्षिणपंथी संगठन निप्पॉन कैगी (Nippon Kaigi) के समर्थक थे, और मेरी माँ ने अपना सारा पैसा उस संस्था को दान में दे दिया, जिससे वह दिवालिया हो गई। इसलिए मैंने उनकी हत्या की। 1997 में बने निप्पॉन कैगी का उद्देश्य जापान के वर्तमान संविधान और खासतौर पर उसके अनुच्छेद 9 को बदलना है, जिसमें जापान में स्थायी सेना के गठन पर रोक है। निप्पॉन कैगी मानता है कि जापान को उस ताकत के रूप में स्थापित किया जाना चाहिए, जो पूर्वी एशिया को पश्चिमी ताकतों के वर्चस्व से मुक्त कर सके। संगठन मानता है कि 1946-1948 के दौरान जापान पर चला युद्ध अपराध का मुकदमा अवैध था। जापानी समाज लम्बे अरसे से युद्ध और शांति, राष्ट्रीय प्रतिष्ठा और सम्मान जैसे सवालों से घिरा हुआ है। जापान के इतिहास में नब्बे साल बाद इस किस्म की हत्या हुई है। ऐसा नहीं है कि वहाँ हत्याएं नहीं हुई हैं। जापान का इतिहास राजनीतिक हत्याओं से भरा है। ज्यादातर हत्याओं के पीछे राष्ट्रवाद से जुड़े वैचारिक-द्वंद थे। 15 मई 1932 को प्रधानमंत्री इनुकाई सुयोसी की 11 नौसैनिकों द्वारा घेरकर की गई हत्या के पीछे भी अंतरराष्ट्रीय टकराव था।

विह्वल देश

आबे की हत्या ने जापान के समाज और राजनीति को झकझोर कर रख दिया है। इसे ‘आतंकवाद’ की संज्ञा दी गई है। हत्यारे का मंतव्य अब भी स्पष्ट नहीं है, पर इतना जरूर लगता है कि वह आबे की रक्षा-नीतियों का आलोचक है। हत्या की खबर आने के बाद चीन के कुछ इलाकों से खुशियाँ मनाए जाने की खबरें मिली हैं। इन खबरों का कोई मतलब नहीं है, पर तफतीश इस बात की जरूर होगी कि इस हत्या के पीछे कहीं चीनी हाथ तो नहीं। जरूरी नहीं कि यह हाथ सीधे-सीधे हो। सम्भावना यह भी है कि जापानी समाज के भीतर चल रहे उद्वेलन का लाभ किसी बाहरी शक्ति ने उठाया हो।

राष्ट्रवाद की विरासत

शिंजो आबे के पिता जापान के पूर्व विदेश मंत्री शिनतारो आबे थे। शिंजो के नाना नोबुसुके किशी जापान के प्रधानमंत्री रह चुके हैं। वे 1957-1960 को दौर में जापान के प्रधानमंत्री थे। वह दौर दूसरे विश्व-युद्ध के बाद जापान का सबसे महत्वपूर्ण दौर था। उसी दौरान उन्होंने अमेरिका के साथ सुरक्षा-संधि की थी, जिसका देश में काफी विरोध हुआ था। उनकी हत्या का प्रयास भी हुआ था। उनके छह चाकू मारे गए। तब वे बच गए, पर अब शिंजो आबे नहीं बचे। पर इतना स्पष्ट है कि शिंजो को राष्ट्रवाद पारिवारिक विरासत में मिला था।  

Saturday, July 9, 2022

भारत-जापान मैत्री को नई ऊँचाई दी शिंज़ो आबे ने


शिंज़ो आबे की हत्या की खबर से भारत स्तब्ध है। भारतीय जनता के मन में जो सम्मान जापान के प्रति है, वह किसी दूसरे देश के लिए नहीं है। हाल के वर्षों में शिंज़ो आबे के कारण यह सम्मान और ज्यादा बढ़ा है। ऐसे दोस्त को खोकर भारत दुखी है। इस हत्या के राजनीतिक परिणाम भी होंगे। खासतौर से सुदूर पूर्व और हिंद-प्रशांत क्षेत्र में चल रहे घटनाक्रम पर इसका असर जरूर होगा। अभी यह कहना मुश्किल है हत्यारे का उद्देश्य क्या रहा है, पर इसके पीछे किसी बड़ी और सम्भव है कि कोई अंतरराष्ट्रीय-साजिश हो। इन सम्भावनाओं को खारिज भी नहीं किया जा सकता है।

राष्ट्रीय-शोक

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने उनके सम्मान में एक दिन के राष्ट्रीय-शोक की घोषणा की है। आज शनिवार 9 जुलाई को देशभर में शोक मनाया जा रहा है। मोदी ने उनकी याद में एक विशेष लेख भी लिखा है माय फ्रेंड आबे सान या मेरे मित्र आबे सान, जो देश के कई राष्ट्रीय अखबारों में प्रकाशित हुआ है।  प्रधानमंत्री ने अपने शोक-संदेश में लिखा है, मैं अपने सबसे प्यारे दोस्तों में से एक शिंज़ो आबे के दुखद निधन से स्तब्ध और दुखी हूं। वह एक महान वैश्विक राजनेता, एक शानदार नेता और एक उल्लेखनीय प्रशासक थे। उन्होंने जापान और दुनिया को एक बेहतर जगह बनाने के लिए अपना जीवन समर्पित कर दिया।

नरेंद्र मोदी की तरह शिंज़ो आबे भी राष्ट्रवादी नेता थे, जो अपने देश के सम्मान और गरिमा को स्थापित करने के लिए प्रयत्नशील थे। निश्चित रूप से इस समय वे दुनिया के सबसे ऊँचे कद के नेताओं में से एक थे। हैरत है कि एक पूर्व प्रधानमंत्री सड़क के किनारे जनता के बीच खड़ा था और धोखा देकर उसे गोली मार दी गई। उस देश में जहाँ हत्याएं आम नहीं हैं। जहाँ पुलिस वालों के हाथों में भी बंदूकें नहीं होतीं।

भारत-जापान मैत्री

जापानियों को हम भारतीय उनकी कर्म-निष्ठा के कारण पहचानते हैं। उसे लेकर भारतीय जन-मन बेहद भावुक है। दूसरे विश्व युद्ध में बुरी तरह ध्वस्त हो चुके देश ने जिस तरह से डेढ़ दशक के भीतर फिर से पैरों पर खड़ा होकर दिखाया, उसे देखते हुए भी हमारा यह सम्मान है। सांस्कृतिक दृष्टि से भी हमारा मन जापान से मिलता है। जापान में बौद्ध धर्म चीन और कोरिया के रास्ते गया था। पर सन 723 में बौद्ध भिक्षु बोधिसेन का जापान-प्रवास भारत-जापान रिश्तों में मील का पत्थर है। बोधिसेन आजीवन जापान में रहे। बोधिसेन को जापान के सम्राट शोमु ने निमंत्रित किया था। वे अपने साथ संस्कृत का ज्ञान लेकर गए थे और माना जाता है कि बौद्ध भिक्षु कोबो दाइशी ने 47 अक्षरों वाली जापानी अक्षरमाला को संस्कृत की पद्धति पर तैयार किया था। जापान के परम्परागत संगीत पर नृत्य पर भारतीय प्रभाव है। आर्थिक प्रगति और पश्चिमी प्रभाव के बाद भी दोनों देशों में परम्परागत मूल्य बचे हैं। दोनों देश देव और असुर को इन्हीं नामों से पहचानते हैं।