Sunday, February 7, 2021

ग्रेटा थनबर्ग की ‘टूलकिट’ के निहितार्थ

किसान-आंदोलन को लेकर बातें देश की सीमा से बाहर जा रही हैं। इसके अंतरराष्ट्रीय आयाम को लेकर सचिन, तेन्दुलकर और लता मंगेशकर से लेकर बॉलीवुड के कलाकारों ने आवाज उठाई है। उधर दिल्ली पुलिस ने गुरुवार को एक एफआईआर दर्ज की है, जिसका दायरा सोशल मीडिया से जुड़ा होने के कारण देश के बाहर तक जाता है। केंद्र में है किसान आंदोलन से जुड़ी एक टूलकिट जिसे ग्रेटा थनबर्ग ने अपने ट्वीट में शेयर किया था। बाद में उन्होंने इसे डिलीट करके संशोधित ट्वीट जारी किया, पर उनके पिछले ट्वीट का विवरण छिप नहीं पाया।

बेशक एक ट्वीट से भारतीय राष्ट्र-राज्य टूट नहीं जाएगा, पर उसकी पृष्ठभूमि को समझने की कोशिश भी की जानी चाहिए। ‘टूलकिट प्रकरण को किसान-आंदोलन से अलग करके देखना चाहिए। किसानों का आंदोलन अपनी कुछ माँगों को लेकर है। टूलकिट के विवरणों को ध्यान से देखें, तो पाएंगे कि उनमें आंदोलन की माँग का केवल एक जगह जिक्र भर है। दूसरी तरफ इसमें भारत की छवि पर वैश्विक-प्रहार करने की कामना ज्यादा है। देश के विदेश मंत्रालय ने इस मामले में जो प्रतिक्रिया व्यक्त की है, उसपर भी ध्यान देना चाहिए।

विदेशी हस्तियों का प्रवेश

विदेश मंत्री एस जयशंकर ने शनिवार को न्यूज एजेंसी एएनआई से कहा, मेरा मानना है कि इसने बहुत कुछ सामने ला दिया है। हमें देखना है कि और क्या चीजें बाहर आती हैं। उन्होंने कहा, किसानों के प्रदर्शन पर विदेशी हस्तियों के हस्तक्षेप पर विदेश मंत्रालय की प्रतिक्रिया के पीछे वजह थी। विदेश मंत्रालय ने इन हस्तियों की टिप्पणी को गैर जिम्मेदार और गलत बताया था। जयशंकर ने कहा, ''आप देखिए कि विदेश मंत्रालय ने कुछ हस्तियों की ओर से ऐसे मुद्दे पर दिए गए बयान पर प्रतिक्रिया दी जिसके बारे में वह अधिक नहीं जानते हैं, इसके पीछे कोई वजह है।''

ज्यादातर लोग इस मामले को राजनीतिक नजरिए से ही देख रहे हैं या देखना चाहते हैं। मुझे लगता है कि इन विदेशी सेलिब्रिटियों को यह समझाया गया है कि यह व्यापक सामाजिक आंदोलन है। भारत की सामाजिक समझ बाहरी लोगों को देश के अंग्रेजी मीडिया, अंग्रेजी बोलने वाले बुद्धिजीवियों और भारतीय सेलेब्रिटियों से बनती है। इस सिलसिले में मेरा ध्यान चेन्नई के मीडिया हाउस द हिंदू की अध्यक्ष मालिनी पार्थसारथी के एक ट्वीट पर गया। उन्होंने अमेरिकी गायिका रिहाना के एक ट्वीट के संदर्भ में लिखा, सेलिब्रिटियों का यह आक्रोश गलत जगह पर है, जिन्हें किसान-आंदोलन और सरकारी जवाब से जुड़े तथ्यों की जानकारी नहीं है। यह अमीर किसानों के नेतृत्व में बगावत है, जो खेती को बाजार की अर्थव्यवस्था से जोड़े जाने के विरुद्ध है। भारतीय लोकतंत्र को झटका नहीं।

मालिनी पार्थसारथी के इस ट्वीट पर काफी लोगों को आश्चर्य हुआ। कुछ लोगों को लगा कि वे मोदी सरकार का बचाव कर रही हैं। ऐसी बात नहीं थी। 3 फरवरी के उपरोक्त ट्वीट के बाद 4 फरवरी को उन्होंने एक और ट्वीट किया, बेशक पॉप सितारा रिहाना भारत को बदनाम करने की किसी अंतरराष्ट्रीय साजिश का हिस्सा नहीं हैं। समस्या है किसान-आंदोलन का मानवाधिकार-संघर्ष के रूप में अंध-चित्रण. जबकि ऐसा है नहीं।इसके बाद 5 फरवरी के एक तीसरे ट्वीट में उन्होंने लिखा, सेलिब्रिटी ट्विटर-एक्टिविज्म एक जटिल मसले का सरलीकरण है।

हो सकता है कि मालिनी पार्थसारथी ने ही इस मसले का गहराई से अध्ययन नहीं किया हो, पर सवाल यह है कि ग्रेटा थनबर्ग, रिहाना या दूसरे पश्चिमी सेलिब्रिटी भारतीय सामाजिक परिस्थितियों का अध्ययन किस तरीके से करते हैं? किसान-आंदोलन क्या भारत में बदलाव का बड़ा आंदोलन है या एक खास इलाके के अपेक्षाकृत धनी और सामंती पृष्ठभूमि के समाज की बदलाव को लेकर प्रतिक्रिया है। या यह भारतीय जनता पार्टी की सरकार के विरोध में खड़ी हो रही राजनीति के साथ कदम मिलाकर चलना है? या देश के कुछ वामपंथी संगठनों की जमीन तलाशने की कोशिश?

पुलिस रिपोर्ट

विदेशी हस्तियों के हस्तक्षेप के बाद सचिन तेन्दुलकर और लता मंगेशकर तथा बॉलीवुड के कुछ अभिनेताओं ने भी प्रतिक्रियाएं व्यक्त की। अब यह मामला दो तरफ जा रहा है। एक तरफ भारतीय-अस्मिता से जुड़े लोग हैं और दूसरी तरफ मोदी-गैर-मोदी राजनीति। बहरहाल पुलिस ने इस एफआईआर में किसी का नाम नहीं लिखा है, पर क्राइम ब्रांच के अनुसार शुरुआती जाँच से पता लगा है कि इसे पोयटिक जस्टिस फाउंडेशन नाम की एक संस्था ने तैयार किया था, जो खालिस्तानी संगठन है। इसमें दो राय नहीं कि इसके पीछे भारत-विरोधी तत्वों का हाथ है।

क्या ग्रेटा थनबर्ग भारत-विरोधी हैं? हैं, तो क्यों? क्या उन्हें गलत तरीके से समझाया गया है? क्या उन्हें अब भी बात समझ में नहीं आई है? या वे सही हैं और हम उन्हें समझ नहीं पा रहे हैं? उन्होंने जो टूलकिट शेयर किया है, उसके वैश्विक निहितार्थ हैं। बेशक ऐसे टूलकिटों की दुनिया में कमी नहीं है। तमाम आंदोलनों में उनका इस्तेमाल होता है। भारत के खालिस्तानी आंदोलन को क्या हम हांगकांग के लोकतांत्रिक-प्रतिरोध या फ्रांस के पीली कुर्ती आंदोलन जैसा मानते हैं?

पहले समझें कि टूलकिट क्या होती है। ये संगठनात्मक दिशा-निर्देश हैं। सवाल टूलकिट का नहीं, उस टूलकिट का है, जिसमें इस आंदोलन की तारीखें और गतिविधियाँ दर्ज हैं। इसमें भारत को निशाना बनाकर ग्लोबल ट्वीटस्‍टॉर्म से लेकर दूतावासों को घेरने तक का आह्वान था। उसमें जो दिशा-निर्देश थे, वैसा ही हुआ। रिहाना और थनबर्ग के ट्वीट उन्हीं शब्दों में उन्हीं तारीखों में जारी हुए, जो लिखा गया था। उनमें यह भी बताया गया था कि किस हैशटैग से क्या संदेश ट्वीट करना है और किसे टैग करना है।

किसका एजेंडा?

शांतिपूर्ण आंदोलन लोकतंत्र की बुनियादी शर्त है। समूचे किसान-आंदोलन पर दोष लगाना गलत होगा, पर यह तो देखना ही होगा कि इसकी आड़ में देश-विरोधी ताकतें, तो सक्रिय नहीं हैं? ऐसा तो नहीं कि भावनाएं भड़का कर कोई अपना एजेंडा पूरा करना चाहता है? ग्रेटा थनबर्ग किसान-आंदोलन की समर्थक हैं या खालिस्तानी आंदोलन की? या वे खालिस्तानी भूमिका जैसी बात को नहीं मानतीं। उनकी नजर में भारत की बीजेपी सरकार खांमखां तिल का ताड़ बना रही है। उनके ट्विटर हैंडल पर देखें, तो किसान-आंदोलन सिर्फ एक छोटा सा मसला है। उनके पास दूसरे कई मसले हैं। बेशक टूलकिट उन्होंने नहीं किसी और ने बनाया। पर उन्होंने अपने नाम से वह जारी क्यों किया? जारी किया, तो फिर उसे डिलीट क्यों किया?

उन्होंने जो नया टूलकिट जारी किया, उसमें वे विवरण नहीं हैं, जो पहले टूलकिट में थे। कोई कुछ छिपाना चाहता है। क्या ग्रेटा का इस्तेमाल किया गया है? क्या यह आंदोलन सांप्रदायिक और जातीय रूप ले रहा है और अब अलगाववादी रूप लेगा? भारत के अटॉर्नी जनरल ने गत 12 जनवरी, 2021 को सुप्रीम कोर्ट में बताया था कि इस आंदोलन में खालिस्तानी प्रवेश कर गए हैं। सरकार के पास जानकारियाँ हैं, तो उन्हें सामने लाना चाहिए। पंजाब के मुख्यमंत्री एक अरसे से अपना अंदेशा जाहिर करते रहे हैं।

लालकिला प्रकरण

टूलकिट में कार्यक्रमों के उप-शीर्षक हैं अर्जेंट एक्शंस औरप्रायर एक्शन।एक विस्तृत खंड है हाउ यू कैन हैल्प? अर्जेंट एक्शंस सेक्शन में 4 और 5 फरवरी को ट्विटर स्टॉर्म शुरू करने का निर्देश है। इसके बाद 13-14 फरवरी को भारत के दूतावासों के सामने प्रदर्शन करने के निर्देश हैं। हालांकि अनेक वैबलिंक अब बंद हैं, पर टूलकिट में मोर इनफॉर्मेशन-इम्पॉर्टेंट लिंक्स शीर्षक से पाँच लिंक दिए गए हैं, जो आखिरी जानकारी मिलने तक जारी थे। इनमें से एक वैबसाइट में बताया गया है, हम कनाडा, अमेरिका और यूके के वॉलंटियर समूह हैं, जो भारत के किसान-समुदाय को सामाजिक-न्याय दिलाना चाहते हैं।

किसान-आंदोलन से जुड़ी तीन बातों पर ध्यान देने की जरूरत है। कृषि-कानूनों की प्रासंगिकता एक विषय है। आंदोलन के बरक्स सरकारी रणनीति एक दूसरा विषय है। कुछ देर के लिए दोनों को जोड़ भी लें तो 26 जनवरी को लालकिले का दरवाजा तोड़कर उसमें घुसने और वहाँ झंडा लगाना तीसरा विषय है। उसकी अनदेखी कैसे कर सकते हैं?

ऐसा नहीं कि सौ-पचास लोग रास्ता भटक कर लालकिले में पहुँच गए थे। दिल्ली पुलिस की जानकारी के अनुसार 9000 से ज्यादा ऐसे मोबाइल फोन लालकिले में सक्रिय थे, जो दिल्ली के नहीं बाहर के थे। 200 से ज्यादा ट्रैक्टर और मोटर गाड़ियाँ परिसर में जबरन प्रवेश कर गई थीं। इस दौरान वहाँ जो नारे लगे, उनके वीडियो पुलिस के पास उपलब्ध हैं। पुलिस ने कोई दमनात्मक कार्रवाई नहीं की। इस कोशिश में सैकड़ों पुलिस वाले घायल हुए।

26 जनवरी का पूर्वाभास

प्रायर एक्शन खंड में 26 जनवरी के पहले के कार्यक्रमों में भी ट्वीट स्टॉर्म का जिक्र है और ध्यान से पढ़ें, तो 26 जनवरी की हिंसा का पूर्वाभास भी उससे होता है। टूलकिट से ज़ाहिर है कि अभियान कम से कम नवंबर 2020 से चल रहा है। 23 और 26 जनवरी को बड़े स्तर पर कुछ करने की योजना थी। इस पूरी योजना की एक ‘पावर पॉइंट स्लाइड’ भी टूलकिट में थी, जिसमें ‘पोयटिक जस्टिस फाउंडेशन’ का लोगो लगा है। इस एनजीओ को खालिस्तान समर्थक माना जाता है।

कनाडा की इस संस्‍था का संस्थापक एमओ धालीवाल है, जो खुद को 'प्राउड खालिस्तानी' बताता है। वह पीआर फर्म स्काईरॉकेट का डायरेक्टर भी है। इस पीआर फर्म ने ही रिहाना वगैरह से ट्वीट दिलवाए हैं। जांच एजेंसियों के अनुसार यह व्यक्ति किसान आंदोलन की आड़ में अलगाववादी आंदोलन को बढ़ावा देना चाहता है। धालीवाल का एक वीडियो भी वायरल हुआ है, जिसमें वह कह रहा है कि हमारा उद्देश्य केवल कानूनों की वापसी नहीं। अंतिम लक्ष्य खालिस्तान है। वीडियो की सत्यता साबित नहीं है, पर बातें चिंता वाली हैं।

धालीवाल के अलावा इस प्रसंग में कुछ और नाम सामने आए हैं जिनमें मरीना पैटरसन, अनिता लाल, कनाडा के सांसद जगमीत सिंह शामिल हैं। वस्तुतः ये कोई बड़े लोकप्रिय नाम नहीं हैं। इनके ट्विटर एकाउंट्स पर जाएं, तो पाएंगे कि इनके फॉलोवरों की संख्या बहुत लम्बी नहीं है। शायद इनके पीछे कुछ और बड़े लोग या संगठन हैं, जिनके नाम सामने नहीं हैं।

वैश्विक निहितार्थ

क्या भारत की बीजेपी सरकार के खिलाफ यह कोई वैश्विक राजनीतिक मोर्चा है? लगता है कि कनाडा सरकार भारतीय हितों की अनदेखी कर रही है। गत 30 नवंबर को गुरुनानक देव की जयंती के अवसर पर कनाडा के प्रधानमंत्री जस्टिन ट्रूडो ने कहा, ‘किसान-आंदोलन को लेकर भारत से आ रही खबरों को लेकर अपनी चिंता व्यक्त नहीं करूँ, तो यह गलत होगा।’ ट्रूडो का बयान उनकी घरेलू राजनीति के कारण भी है। सन 2015 में जब से ट्रूडो आए हैं, भारत-कनाडा रिश्ते अस्सी के दशक की स्थितियों में पहुँच गए हैं। कनाडा में करीब पाँच लाख सिख रहते हैं, जो कुल आबादी का करीब 1.4 फीसदी है। ट्रूडो सिखों के इतने प्रिय हैं कि उन्हें मजाक में जस्टिन सिंह भी कहा जाता है।

भारत के कृषि-कानून आर्थिक-उदारीकरण की प्रक्रिया का हिस्सा हैं। पर सारी बहस किसान-आंदोलन के इर्द-गिर्द है। लोग सारे मसलों को जोड़कर बातें कह  रहे हैं। हाल में भारत की विदेश-सेवा से जुड़े  20 पुराने अधिकारियों ने विश्व व्यापार संगठन के नाम एक चिट्ठी लिखी है। इस पत्र में डब्लूटीओ, अमेरिका, ब्रिटेन और दूसरे पश्चिमी देशों के राजनीतिक समूहों को कोसा है। उन्होंने लिखा है कि आप हमें बाजार खोलने का सुझाव भी देंगे और फिर नसीहत देंगे कि ऐसे नहीं वैसे। खेती से जुड़े कानून कारोबारी संतुलन के लिए हैं। आपका दोहरा मापदंड है। आप वैश्विक खाद्य बाजार के चौधरी बने हुए हैं और किसान-आंदोलन का समर्थन भी कर रहे हैं।

भारतीय लेखक संजीव सान्याल ने एक छोटा सा नोट ट्विटर पर शेयर किया है, जिसमें दिखाया गया है कि भारत के न्यूनतम समर्थन मूल्य को लेकर विश्व व्यापार संगठन का भारत पर बार-बार किस तरह दबाव डाला जा रहा है। उन्होंने एक जगह सुझाव भी दिया है कि इतना ही पसंद है, तो यूरोपीय देश अपने यहाँ मंडी की अवधारणा क्यों नहीं लागू करते हैं? बहरहाल कुछ बातें अंधेरे में हैं। उनपर रोशनी पड़नी चाहिए।  

हरिभूमि में प्रकाशित

 

 

 

 

 

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