बजट सत्र का महत्त्व
राजनीतिक कबड्डी
इतनी तेज है कि संसद के बजट सत्र पर हमारा ध्यान ही नहीं है। सत्र का पहला चरण कल
15 फरवरी को पूरा होगा। फिर 8 मार्च तक 20 दिन का ब्रेक रहेगा और फिर 8 अप्रैल तक सत्र
का महत्वपूर्ण दौर चलेगा, जिसमें गंभीर चर्चा की जरूरत होगी। दोनों चरणों के
अंतराल में संसद की स्थायी समितियाँ विभिन्न मंत्रालयों की अनुदान माँगों पर विचार
करेंगी। क्या आपको यकीन है कि इस चर्चा के लिए राजनीतिक दल होमवर्क कर रहे होंगे?
बजट सत्र हमारी संसद का सबसे महत्त्वपूर्ण सत्र होता है और इसीलिए यह सबसे लंबा चलता है। राष्ट्रपति के अभिभाषण पर धन्यवाद प्रस्ताव और बजट प्रस्तावों के बहाने महत्त्वपूर्ण प्रश्नों पर जन-प्रतिनिधियों को अपने विचार व्यक्त करने का मौका मिलता है। ऐसे मौके पर जब देश पर महामारी का साया है और अर्थव्यवस्था को फिर से खड़ा करने की चुनौती है, राजनीति से अपेक्षा की जानी चाहिए कि वह मर्यादा रेखाओं का ध्यान रखे। दुर्भाग्य से मर्यादा-रेखाएं धुँधला रही हैं और संसदीय विमर्श पर शोर हावी हो रहा है।
लोकसभा में
गुरुवार को बजट पर चर्चा में हिस्सा लेने आए राहुल गांधी सिर्फ किसानों के मुद्दे
पर बोले। बेशक किसानों का मुद्दा महत्वपूर्ण है, पर संसदीय व्यवस्था में हर बात के
लिए समय निर्धारित होता है। 22 मिनट के अपने भाषण में वे 20 मिनट कृषि कानूनों के ‘इंटेंट’ और ‘कंटेंट’ पर बोलते रहे। इस दौरान आठ बार हंगामा हुआ। स्पीकर
ने उन्हें चार बार टोका कि बजट बोलिए, पर राहुल के तेवर अलग थे। आखिर के दो मिनट में उन्होंने कहा अब बजट पर बात
करते हैं, फिर बोले कि मैं तो
आज किसानों पर ही बोलूंगा। उन्होंने कहा, देश को आज चार लोग चलाते हैं। हम दो और
हमारे दो।
संसद से सड़क
बेशक राजनेता के
पास अपनी बात कहने के बहुत से विषय होते हैं। और राजनीति संसद से सड़क तक जाती है,
पर संसद और सड़क के वक्तव्य एक जैसे नहीं हो सकते। जनसभा में भाषण देना और
संसद में बोलना एक बात नहीं है। हंगामा भी एक सीमा तक संसदीय कर्म है, पर तभी जब स्थितियाँ ऐसी हो
जाएं कि उनके अलावा कोई रास्ता नहीं बचे, पर हम पिछले दो-तीन दशकों में इस
प्रवृत्ति को लगातार बढ़ते हुए देख रहे हैं। संसद, संसद है। वह सड़क नहीं है। दोनों के फर्क को बनाए
रखना जरूरी है।
दुर्भाग्य से यह शोर का दौर है। सड़क पर संसद में और चैनलों में शोर है। लगता
है कि विचार करने, और सुनने का वक्त
गया। अब सिर्फ शोर ही विचार और हंगामा ही कर्म है। लोकसभा और राज्यसभा चैनलों में
संसदीय कार्यवाही का सीधा प्रसारण यदि आप देखते हैं तो असहाय पीठासीन अधिकारियों के
चेहरों से आपको देश की राजनीति की दशा-दिशा का पता लग सकता है।
पिछले साल जब संसद
में जब खेती से जुड़े तीन कानूनों पर विमर्श हो रहा था, तब राज्यसभा में उन्हें
पास करने की प्रक्रिया को लेकर विरोधी दलों ने आपत्ति व्यक्त की। वे विधेयक शोरगुल
की स्थिति में पारित किए गए थे। शोरगुल नहीं होता, तो न केवल उनपर अच्छी बहस हो
सकती थी, बल्कि विरोधी दलों के पास यदि संख्याबल था, तो उन्हें किसी संसदीय समिति
को सौंप सकते थे। कई बार शोर भी विधायी कार्य का अंग होता है, पर हमेशा नहीं।
कटाक्ष की
परम्परा
राजनीति में
व्यंग्य, कटाक्ष और व्यक्तिगत टिप्पणियाँ कोई नई बात नहीं हैं और केवल भारत की
विशेषता नहीं है, पर उनके स्तर में निरंतर गिरावट ध्यान खींचती है। राहुल गांधी ने
शुक्रवार को अपने संवाददाता सम्मेलन में जाने-अनजाने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर
एक टिप्पणी की, जो अशोभनीय नहीं, तो शोभनीय भी नहीं है। उन्होंने कई बार कहा,
हिन्दुस्तान की पवित्र जमीन नरेंद्र मोदी ने चाइना को पकड़ाई है।…चायना के सामने
नरेंद्र मोदी ने अपना सिर झुका दिया, मत्था टेक दिया।…उन्होंने अंग्रेजी शब्दों
में जो कहा उनका आशय था, 'प्रधानमंत्री कायर हैं, सेना के बलिदान पर थूक रहे
हैं।' उनके शब्द थे, ‘नरेंद्र मोदी चायना के सामने खड़ा नहीं हो पाया।’
पिछले कुछ साल के
बयानों को उठाएं तो दोनों तरफ से ऐसी भाषा के तमाम उदाहरण मिलेंगे। सन 2017 में
मणिशंकर अय्यर के एक बयान के कारण राहुल गांधी ने उन्हें मुअत्तल कर दिया था।
उन्हीं दिनों अमित शाह का ट्वीट भी सायबरस्पेस में था। उन्होंने एक सूची देकर
बताया था कि कांग्रेस मोदी को किस किस्म की इज्जत बख्शती रही है। इनमें से कुछ
विशेषण हैं, यमराज, मौत का सौदागर, रावण, गंदी नाली का कीड़ा, मंकी,
वायरस, भस्मासुर, गंगू तेली, गून वगैरह।
राहुल गांधी खुद
मोदी को उन्हीं दिनों ‘खून का
सौदागर’ बता चुके थे। उसके
पहले युवा कांग्रेस की पत्रिका युवा देश के एक ट्वीट में मोदी से कहा गया था ‘तू
चाय बेच।’ बाद में वह ट्वीट हटा लिया गया। बहरहाल कांग्रेस ने अपनी दिशा बदली और
राहुल गांधी ने साफ-सुथरी भाषा का समर्थन करना शुरू किया और मणिशंकर अय्यर पर
कार्रवाई की। पर वह भी राजनीतिक कदम साबित हुआ।
दोनों तरफ से
वार
यह एकतरफा नहीं
है। बीजेपी भी राहुल गांधी पर ऐसे ही हमले करती रही है। राजनीति भले ही गलाकाट
प्रतियोगिता का नाम है, पर
अमर्यादित भाषा किसी को पसंद नहीं। कम से कम जनता को यह सब पसंद नहीं होना चाहिए। सन
2017 के फरवरी में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने राज्यसभा में मनमोहन सिंह पर
‘रेनकोट पहन कर नहाने’ के जिस रूपक इस्तेमाल किया, उसे कांग्रेस ने तब ‘तल्ख और बेहूदा’ माना था। उसके
पहले मनमोहन सिंह ने नोटबंदी के लिए ‘संगठित और कानूनी डाकाजनी’ जैसे शब्दों का
इस्तेमाल किया था। ये बातें राज्यसभा में ही कही गईं थीं। मोदी ने कहा, इतने बड़े व्यक्ति ने सदन में ‘लूट और
प्लंडर’ जैसे शब्द प्रयोग किए थे। तब पचास बार उधर भी सोचने की जरूरत थी कि
मर्यादा-रेखा पार करने का मतलब क्या होता है। हम भी उसी ‘क्वॉइन’ में वापस देने की
ताकत रखते हैं।
कांग्रेस और मोदी
की कड़वाहट सन 2007 में शुरू हुई, जब सोनिया गांधी ने पहली बार उन्हें ‘मौत का सौदागर’ कहा था। कांग्रेस के प्रमोद
तिवारी ने राज्यसभा में नोटबंदी के सिलसिले में मोदी की तुलना गद्दाफी, मुसोलिनी और हिटलर से की थी। उन्हीं दिनों
सर्जिकल स्ट्राइक के संदर्भ में राहुल गांधी ने ‘खून की दलाली’ शब्द का इस्तेमाल
किया था। पिछले पाँच दशक में संसद के भीतर तमाम मर्यादाएं टूटी हैं।
सन 2015 में एक
ऐसी स्थिति आई थी, जब लोकसभा में कांग्रेस के कुल 44 में से 25 सांसद निलंबित कर
दिए गए थे। उस साल शीत सत्र में 13 विधेयक जबर्दस्त शोरगुल के बीच पास किए गए थे।
शोरगुल अनायास नहीं था, वह एक राजनीतिक रणनीति भी थी। पन्द्रहवीं लोकसभा के आखिरी
सत्र में सदन के भीतर मिर्ची स्प्रे छोड़ने से लेकर चाकू निकालने तक की घटनाएं
हुई। उस सत्र में एक विधेयक पास करते वक्त ऐसी उत्तेजना थी कि लोकसभा टीवी के
जीवंत प्रसारण को कुछ देर के लिए रोका गया था। क्यों? ताकि कुछ तस्वीरें देश को दिखाई न पड़ें।
No comments:
Post a Comment