गेहूँ या चावल के एक या दो दाने देखकर
पहचान हो सकती है, पर क्या सरकार के काम की पहचान एक महीने में हो सकती है? सन 2004 के मई में जब यूपीए-1 की
सरकार बनी तो पहला महीना विचार-विमर्श में निकल गया. तब भी सरकार के सामने पहली
चुनौती थी महंगाई को रोकना और रोजगार को बढ़ावा देना. इस सरकार के सामने भी वही
चुनौती है. मनमोहन सिंह सरकार के सामने भी पेट्रोलियम की कीमतों को बढ़ाने की
चुनौती थी. उसके पहले वाजपेयी सरकार ने पेट्रोलियम की कीमतों से बाजार के
उतार-चढ़ाव से सीधा जोड़ दिया था, पर चुनाव के ठीक पहले कीमतों को बढ़ने से रोक लिया. वैसे ही जैसे इस बार यूपीए सरकार
ने रेल किराया बढ़ाने से रोका. इसे राजनीति कहते हैं.
नरेंद्र मोदी की सरकार ने अपने मंत्रियों को निर्देश दिया है कि वे अपने साथ ऐसे मंत्रालयी कर्मचारियों को ‘किसी भी रूप में’ न रखें जो यूपीए सरकार के मंत्रियों के साथ काम कर चुके हैं. यह निर्देश अपने ढंग का अनोखा है और नौकरशाही के राजनीतिकरण को रेखांकित करता है.
नई सरकार बनने के साथ नियुक्तियां और इस्तीफे चर्चा का विषय बन रहे हैं.
शुरुआत प्रधानमंत्री के प्रमुख सचिव नृपेंद्र मिश्र की नियुक्ति से हुई थी, जिसके लिए सरकार ने एनडीए सरकार के बनाए एक नियम को बदलने के लिए अध्यादेश का सहारा लिया था.
राज्यपालों, अटॉर्नी और एडवोकेट जनरलों, महिला आयोग और अनुसूचित जाति, जनजाति आयोग या योजना आयोग के अध्यक्षों तक मामला समझ में आता है.
हम मानकर चल रहे हैं कि ऐसे पदों पर नियुक्तियाँ राजनीतिक आधार पर होती हैं लेकिन इस निर्देश का मतलब क्या है? क्या यह नौकरशाही की राजनीतिक प्रतिबद्धता का संकेत नहीं है?
नियुक्तियों का दौर शुरू हुआ है तो अभी यह चलेगा. मंत्रिमंडल में बड़ा बदलाव होगा. फिर दूसरे पदों पर. यह क्रम नीचे तक जाएगा. ऊँचा अधिकारी नीचे की नियुक्तियाँ करेगा. पर कुछ सवाल खड़े होंगे, जैसे इस बार राज्यपालों के मामले पर हो रहे हैं.