एक अरसे की चुप्पी के बाद आम आदमी पार्टी ने अपनी
राजनीति का रुख फिर से आंदोलन की दिशा में मोड़ा है. इस बार निशाने पर दिल्ली के
उप-राज्यपाल अनिल बैजल हैं. वास्तव में यह केंद्र सरकार से मोर्चाबंदी है.
पार्टी की पुरानी राजनीति नई पैकिंग में नमूदार है. पार्टी
को चुनाव की खुशबू आने लगा है और उसे लगता है कि पिछले एक साल की चुप्पी से उसकी
प्रासंगिकता कम होने लगी है.
मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल समेत पार्टी के कुछ बड़े
नेताओं के धरने के साथ ही सत्येंद्र जैन का आमरण अनशन शुरू हो चुका है. हो सकता है
कि यह आंदोलन अगले कुछ दिनों में नई शक्ल है.
चुप्पी हानिकारक है
सन 2015 में जबरदस्त बहुमत से जीतकर आई आम आदमी सरकार
और उसके नेता अरविंद केजरीवाल ने पहले दो साल नरेंद्र मोदी के खिलाफ जमकर मोर्चा
खोला. फिर उन्होंने चुप्पी साध ली. शायद इस चुप्पी को पार्टी के लिए ‘हानिकारक’ समझा जा रहा है.
आम आदमी पार्टी की रणनीति, राजनीति और विचारधारा के केंद्र में
आंदोलन होता है. आंदोलन उसकी पहचान है. मुख्यमंत्री के रूप में केजरीवाल जनवरी
2014 में भी धरने पर बैठ चुके हैं. पिछले कुछ समय की खामोशी और ‘माफी
प्रकरण’ से लग रहा था कि
उनकी रणनीति बदली है.
केंद्र की दमन नीति
इसमें दो राय नहीं कि केंद्र सरकार ने ‘आप’ को प्रताड़ित करने का कोई मौका नहीं खोया. पार्टी के
विधायकों की बात-बे-बात गिरफ्तारियों का सिलसिला चला. लाभ के पद को लेकर बीस
विधायकों की सदस्यता खत्म होने में प्रकारांतर से केंद्र की भूमिका भी थी.
‘आप’ का आरोप है कि
केंद्र सरकार सरकारी अफसरों में बगावत की भावना भड़का रही है. संभव है कि अफसरों
के रोष का लाभ केंद्र सरकार उठाना चाहती हो, पर गत 19 फरवरी
को मुख्य सचिव अंशु प्रकाश के साथ जो हुआ, उसे देखते हुए
अफसरों की नाराजगी को गैर-वाजिब कैसे कहेंगे?