Monday, May 2, 2016

मीडिया की छीछालेदर भी ठीक नहीं

क्या पैसे से ‘मैनेज’ होता है हमारा मीडिया?
फाइल

अगस्ता वेस्टलैंड डील

क्या पैसे से ‘मैनेज’ होता है हमारा मीडिया?


  • राजनीति और पत्रकारिता दोनों साथ चलते हैं. नेता और पत्रकार का चोली-दामन का साथ है. वे एक-दूसरे के साथ मिल बैठकर बातें करते हैं, पर यह तेल-पानी का रिश्ता है.
  • अगस्ता वेस्टलैंड घोटाले में कथित रूप से 20 पत्रकारों को घूस देने के मामले में सत्ताधारी दल के नेता इशारों में पूरी मीडिया को निशाना बना रहे हैं.
  • यह सत्ताधारी नेताओं की जिम्मेदारी और ईमानदारी का तकाजा है कि वे दागी पत्रकारों के नाम उजागर करें न कि अपरोक्ष तरीके से पूरी मीडिया की बांह मरोड़ें.

अगस्ता-वेस्टलैंड मामले में एक दस्तावेज सामने आया है जो बताता है कि इतालवी कंपनी ने इस सौदे को मीडिया की नजरों से बचाने के लिए तकरीबन 50 करोड़ रुपए आवंटित किए थे.
दस्तावेज की प्रामाणिकता कितनी है पता नहीं, पर यह आरोप गम्भीर है. भाजपा की सांसद मीनाक्षी लेखी ने इस मामले को लोकसभा में उठाया. संसद के बाहर भी इसकी काफी चर्चा है.
बताया जा रहा है कि बीस पत्रकारों को लाभ दिया गया. एक पत्रकार से पूछताछ भी की गई है. क्या वास्तव में भारत के मीडिया को ‘मैनेज’ किया गया? क्या उसे ’मैनेज’ किया जा सकता है?
यह नए किस्म का आरोप है. भारतीय मीडिया के बारे में कई तरह की शिकायतें थीं, पर यह सबसे अलग किस्म की शिकायत है.
लगता नहीं कि मुख्यधारा की पत्रकारिता से इसका रिश्ता है. इस तरह की बातें मीडिया की साख कम करती हैं. बहरहाल इनका सच सामने आना चाहिए. सरकार पर इसकी जिम्मेदारी है. इसकी तह तक जाना जरूरी है. ऐसा न हो कि यह भी रहस्य बना रह जाए.
न जाने क्यों इसे लेकर मुख्यधारा के मीडिया में खामोशी है. जबकि सोशल मीडिया में शोर है. यह स्थिति अच्छी नहीं है. मीडिया को सवालों से भागना नहीं, जूझना चाहिए.
प्रेस काउंसिल, एडिटर्स गिल्ड और ब्रॉडकास्टिंग मीडिया के सम्पादकों की संस्थाओं को आगे बढ़कर पड़ताल करनी चाहिए. यह कुछ व्यक्तियों की बात नहीं मीडिया की प्रतिष्ठा का सवाल है.
हम उस दौर में हैं जब पत्रकारिता के लिए ‘प्रेस्टीट्यूड’ जैसे शब्द ईजाद हुए हैं. सम्भव है यह व्यक्तिगत कुंठा हो या राजनीति का हिस्सा हो. पर इससे समूची पत्रकारिता निशाने पर आ गई है.
आज पत्रकारिता के लिए ‘प्रेस्टीट्यूड’ जैसे शब्द ईजाद हो गए हैं
माना कि हाल के वर्षों में मूल्य-बद्ध पत्रकारिता में गिरावट आई है. पर सामान्य युवा पत्रकार ईमानदारी के साथ इस काम से जुड़ता है. इस पर होने वाले हमलों से उसका विश्वास टूटता है.
दरअसल राजनीति और समाज के समांतर मीडिया भी ध्रुवीकरण का शिकार हो रहा है. खासतौर से इलेक्ट्रॉनिक मीडिया से जुड़े लोगों की राजनीतिक वरीयताएं साफ दिखाई देने लगी हैं.
राजनीति और पत्रकारिता दोनों साथ चलते हैं. नेता और पत्रकार का चोली-दामन का साथ है. वे एक-दूसरे के साथ मिल बैठकर बातें करते हैं, पर यह तेल-पानी का रिश्ता है. दोनों को अलग-अलग रास्तों पर जाना होता है. यह पहला मौका नहीं है जब पत्रकारों पर ऐसे आरोप लगे हैं.
लोकतांत्रिक विकास के साथ पत्रकारिता एक स्वतंत्र पर्यवेक्षक के रूप में खुद सामने आई थी. उसे किसी राज-व्यवस्था ने स्थापित नहीं किया था. उसकी ताकत थी पाठक के मन में बैठी साख. राज-व्यवस्था और नागरिक–व्यवस्था के बीच सम्पर्क-सेतु है पत्रकारिता. उसके मूल्य खत्म होने वाले नहीं हैं. यह विचलन समय की बात है. इसे ठीक होना होगा.
आपराधिक गठजोड़ में पत्रकारिता का नाम जुड़ना एक खतरनाक स्थिति की तरफ इशारा करता है. पत्रकारिता के बुनियादी मूल्य जिन बातों का पर्दाफाश करने के पक्षधर हैं, उनमें ही पलीता लग गया है. यह सब एकतरफा नहीं है.
पिछले कुछ साल के घटनाक्रम पर गौर करें तो कुछ पत्रकारों और मीडिया हाउसों पर संगीन आरोप भी लगे हैं. बावजूद इसके समूची पत्रकारिता पर उंगली उठाना गलत है. राजनीतिक दलों ने पत्रकार को पर्यवेक्षक के बजाय दोस्त या दुश्मन समझना शुरू कर दिया है.
इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के उदय के साथ यह द्वंद्व बढ़ा है. वह सत्ता की सीढ़ी चढ़ने-उतरने का माध्यम बन गया है. पत्रकार राजनीति का भागीदार बनना चाहता है. नेताओं की तरह अमीर.
पिछले साल पेट्रोलियम मंत्रालय के कुछ गोपनीय दस्तावेजों के मामले को लेकर एक पत्रकार की गिरफ्तारी हुई थी. गिरफ्तार किए गए पत्रकार ने पेशी पर ले जाए जाते वक्त कहा था कि पेट्रोलियम मंत्रालय में 10 हजार करोड़ रुपए का घोटाला है.
यह भी कि उसे फंसाया जा रहा है. क्या हुआ उस मामले का? यह जिम्मेदारी मीडिया और सरकार दोनों की थी कि जनता को सच्चाई से अवगत कराते.
उसके पहले अगस्त-सितम्बर 2012 में कोयला खानों का मामला खबरों में था. उन दिनों सरकारी सूत्रों से खबर आई थी कि कोल ब्लॉक आबंटन में कम से कम चार मीडिया हाउसों ने भी लाभ लिया. इनमें तीन प्रिंट मीडिया और एक इलेक्ट्रॉनिक चैनल बताया गया था.
उन्हीं दिनों एक व्यावसायिक विवाद में एक चैनल-सम्पादक की गिरफ्तारी हुई. ‘पेड न्यूज’ की प्रेत-बाधा ने पहले ही मीडिया को घेर रखा है. मीडिया के अपने अंतरविरोध हैं. उसकी साख गिर रही है. यह बात लोकतांत्रिक स्वास्थ्य के लिए अच्छी नहीं है. 
मीडिया के अपने अंतरविरोधों की वजह से उसकी साख गिर रही है
देश में सन 2010 के बाद से भ्रष्टाचार के खिलाफ जो माहौल बना उसमें मीडिया की भी बड़ी भूमिका थी. मीडिया के असंतुलन की वजह से माहौल बना ‘सब चोर हैं.’
अन्ना हजारे का आंदोलन वस्तुतः मीडिया की लहरों पर खड़ा हुआ था. उस आंदोलन से निकली राजनीति को भी उसी मीडिया से शिकायत रही, जिसने उसे खड़ा किया. दो साल पहले अरविन्द केजरीवाल ने मीडिया वालों को जेल भेजने की धमकी दी थी.
बाद में उन्होंने अपनी बात को घुमा दिया, पर सच यह है कि राजनेता को मीडिया तभी भाता है, जब वह उसके मन की बात कहें. पर पत्रकार को अपने पाठक का भरोसा चाहिए नेता का नहीं.

Friday, April 29, 2016

अब तीन साल चलेगी अगस्ता की आतिशबाजी

बीजेपी को राहत, कांग्रेस पर दबाव



नरेंद्र मोदी अमित शाह Image copyrightReuters

अगस्ता वेस्टलैंड केस 'उत्तराखंड गेट' से घिरे दिख रहे भारतीय जनता पार्टी को सांस लेने का मौक़ा देगा, साथ ही अगले तीन साल तक भारतीय राजनीति को गरमा कर रखेगा.
भले ही नतीजा वैसा ही फुस्स हो, जैसा अब तक होता रहा है.
चिंता की बात यह है कि इससे सामान्य नागरिक के मन में प्रशासन और राजनीति के प्रति नफ़रत बढ़ेगी.
इसे घटनाक्रमों के साथ जोड़ें तो सीबीआई, प्रवर्तन निदेशालय, राष्ट्रीय जांच एजेंसी और दूसरी ख़ुफ़िया एजेंसियों की साख मिट्टी में मिलती नज़र आ रही है.
बिचौलिए क्रिश्चियन माइकेल ने अगस्ता वेस्टलैंड के भारत में सक्रिय अधिकारियों को जो दिशा-निर्देश दिए हैं, उनसे सवाल उठता है कि क्या कारण है कि नामी उत्पादक भी भारत में ‘घूस’ को ज़रूरी मानते हैं? और मीडिया को मैनेज करने की बात सोचते हैं?

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भारतीय जनता पार्टी की दिलचस्पी व्यक्तिगत रूप से सोनिया गांधी और राहुल गांधी में है. उसका गणित है कि कांग्रेस को ध्वस्त करना है तो 'परिवार' को निशाना बनाओ.
भ्रष्टाचार के इस प्रकार के आरोपों से रक्षा में कांग्रेस को जेडीयू, आरजेडी, सपा और वाम मोर्चा का समर्थन नहीं मिलेगा. जिनके साथ मिलकर पार्टी बीजेपी के ख़िलाफ़ मोर्चा बनाना चाहती है.
फ़िलहाल इस वर्चुअल मोर्चे को बीजेपी के साथ कांग्रेस की भी आलोचना करनी होगी.
उत्तराखंड मामले को लेकर सरकार संसद के चालू सत्र में घिरी हुई थी. अब उसे कांग्रेस पर जवाबी हमला बोलने का मौक़ा मिला है.

पाँच साल में एकबार-एकसाथ चुनाव

पिछले छह महीने में कम से कम चार बार यह बात जोरदार ढंग से कही गई है कि देश को एक बार फिर से ‘आम चुनाव’ की अवधारणा पर लौटना चाहिए. पिछले एक महीने में प्रधानमंत्री दो बार यह बात कह चुके हैं. एक संसदीय समिति ने इसका रास्ता बताया है. और एक मंत्रिसमूह ने भी इस पर चर्चा की है. प्रधानमंत्री ने बजट सत्र के पहले आयोजित सर्वदलीय बैठक में अनौपचारिक रूप से यह सुझाव दिया था. मुख्यमंत्रियों और हाइकोर्ट के जजों की कांफ्रेंस में भी उन्होंने इस बात को उठाया.

Sunday, April 24, 2016

तलवारें अब म्यान से बाहर हैं...

उत्तराखंड को लेकर अगले हफ्ते सुप्रीम कोर्ट का जो भी फैसला आए, यह मामला खत्म होने वाला नहीं है। बल्कि समर अब तेज होगा। तलवारें खिंच चुकी हैं और पेशबंदियाँ चल रहीं हैं। उत्तराखंड के अलावा मणिपुर, हिमाचल प्रदेश और कर्नाटक में कांग्रेस पार्टी के भीतर बगावत के स्वर ऊँचे हो रहे हैं। यह सब बीजेपी के कांग्रेस मुक्त अभियान के तहत भी हो रहा है। दूसरी तरफ कांग्रेस पार्टी अस्तित्व रक्षा के लिए पूरी तरह मैदान में उतरने जा रही है। इसके लिए उसने नीतीश कुमार के संघ मुक्त भारत अभियान में शामिल होने का फैसला किया है। वस्तुतः यह कांग्रेस का हमें बचाओ अभियान भी है। बंगाल में कांग्रेस और वामदलों का गठबंधन यदि सफल हुआ तो राजनीति की दिशा बदल भी सकती है। 

Saturday, April 23, 2016

पेचीदगियों से भरा ‘संघ मुक्त भारत’ अभियान

लोकतंत्र की रक्षा के लिए नीतीश कुमार ‘संघ मुक्त’ भारत कार्यक्रम लेकर आ रहे हैं। पर उसके पहले वे राष्ट्रीय स्तर पर अपनी उपस्थिति को बेहतर बनाना चाहते हैं। इसके लिए उन्होंने सबसे पहले अपने दल की राष्ट्रीय अध्यक्षता को सम्हाला है। वे जल्द से जल्द बीजेपी विरोधी दलों की व्यापक एकता के केन्द्र में आना चाहते हैं। वे कहते हैं कि यह काम कई तरह से होगा। कुछ दलों का आपस में मिलन भी हो सकता है। कई दलों का मोर्चा और गठबंधन भी बन सकता है। कोई एक संभावना नहीं है, अनेक संभावनाएं हैं। इस मोर्चे की प्रक्रिया और पद्धति का दरवाजा खुला है। पिछले पचासेक साल से यह प्रक्रिया चल रही है। बहरहाल अब नीतीश कुमार ने इसमें कांग्रेस को भी शामिल करके इसे नई दिशा दी है। जिससे इस अवधारणा के अंतर्विरोध बढ़ गए हैं।

Monday, April 18, 2016

विदेशी विश्वविद्यालयों की एक और दस्तक

विदेशी शिक्षा संस्थान फिर से दस्तक दे रहे हैं. खबर है कि नीति आयोग ने देश में विदेशी विश्वविद्यालयों के कैम्पस खोले जाने का समर्थन किया है. आयोग ने पीएमओ और मानव संसाधन मंत्रालय के पास भेजी अपनी रपट में सुझाव दिया है कि विश्व प्रसिद्ध विदेशी शिक्षा संस्थाओं को भारत में अपने कैम्पस खोलने का निमंत्रण देना चाहिए. खास बात यह है कि आयोग ने यह रपट अपनी तरफ से तैयार नहीं की है. मानव संसाधन मंत्रालय और पीएमओ की यह पहल है.

Sunday, April 17, 2016

बाधा दौड़ में मोदी

मोदी सरकार आने के बाद से असहिष्णुता बढ़ी है, अल्पसंख्यकों का जीना हराम है, विश्वविद्यालयों में छात्र परेशान हैं और गाँवों में किसान। यह बात सही है या गलत, विपक्ष ने इस बात को साबित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी है। बावजूद इसके नरेन्द्र मोदी के प्रशंसक अभी तक उनके साथ हैं। उनकी खुशी के लिए पिछले हफ्ते राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक मोर्चों से एकसाथ कई खबरें मिलीं हैं, जो सरकार का हौसला भी बढ़ाएंगी। पहली खबर यह कि इस साल मॉनसून सामान्य से बेहतर रहेगा। यह घोषणा मौसम दफ्तर ने की है। दूसरी खबर यह है कि खनन, बिजली तथा उपभोक्ता सामान के क्षेत्र में बेहतर प्रदर्शन से औद्योगिक उत्पादन में फरवरी के दौरान 2.0% की वृद्धि हुई है। इससे पिछले तीन महीनों में इसमें गिरावट चल रही थी।

Wednesday, April 13, 2016

प्रगति करनी है तो बैंकों को बदलिए

पहले इस खबर को पढ़ें
सुप्रीम कोर्ट मंगलवार को व्यक्तियों और इकाइयों पर बैंकों के बकाया कर्ज के बारे में रिजर्व बैंक की ओर दी गई जानकारी सार्वजनिक करने की मांग के पक्ष में  नजर आया। पर आरबीआई ने गोपनीयता के अनुबंध का मुद्दा उठाते हुए इसका विरोध किया। मुख्य न्यायाधीश टीएस ठाकुर और न्यायमूर्ति आर भानुमती के पीठ ने कहा- इस सूचना के आधार पर एक मामला बनता है। इसमें उल्लेखनीय राशि जुड़ी है। मालूम हो कि रिजर्व बैंक ने मंगलवार को सील बंद लिफाफे में उन लोगों के नाम अदालत के समक्ष पेश किए जिन पर मोटा कर्ज बाकी है। इस सूचना को सार्वजनिक करने की बात पर भारतीय रिजर्व बैंक की ओर से इसका विरोध किया गया। केंद्रीय बैंक ने कहा कि इसमें गोपनीयता का अनुबंध जुड़ा है और इन आँकड़ों को सार्वजनिक कर देने से उसका अपना प्रभाव पड़ेगा। पीठ ने कहा कि यह मुद्दा महत्त्वपूर्ण है, लिहाजा अदालत इसकी जांच करेगी कि क्या करोड़ों रुपए के बकाया कर्ज का खुलासा किया जा सकता है। साथ ही इसने इस मामले जुड़े पक्षों से विभिन्न मामलों को निर्धारित करने को कहा जिन पर बहस हो सकती है। पीठ ने इस मामले में जनहित याचिका का दायरा बढ़ा कर वित्त मंत्रालय और इंडियन बैंक्स एसोसिएशन को भी इस मामले में पक्ष बना दिया है। इस पर अगली सुनवाई 26 अप्रैल को होगी। याचिका स्वयंसेवी संगठन सेंटर फॉर पब्लिक इंटरेस्ट लिटिगेशन ने 2003 में दायर की थी। पहले इसमें सार्वजनिक क्षेत्र के आवास एवं नगर विकास निगम (हडको) द्वारा कुछ कंपनियों को दिए गए कर्ज का मुद्दा उठाया गया था। याचिका में कहा गया है कि 2015 में 40000 करोड़ रुपए के कर्ज बट्टे-खाते में डाल दिए गए थे। अदालत ने रिजर्व बैंक से छह हफ्ते में उन कंपनियों की सूची मांगी है जिनके कर्जों को कंपनी ऋण पुनर्गठन योजना के तहत पुनर्निर्धारित किया गया है। पीठ ने इस बात पर हैरानी जताई कि पैसा न चुकाने वालों से वसूली के लिए कोई ठोस कदम नहीं उठाए गए।

 
हम विजय माल्या को लेकर परेशान हैं। वे भारत आएंगे या नहीं? कर्जा चुकाएंगे या नहीं? नहीं चुकाएंगे तो बैंक उनका क्या कर लेंगे वगैरह। पर समस्या विजय माल्या नहीं हैं। वे समस्या के लक्षण मात्र हैं। समस्या है बैंकों के संचालन की। क्या वजह है कि सामान्य नागरिक को कर्ज देने में जान निकल लेने वाले बैंक प्रभावशाली कारोबारियों के सामने शीर्षासन करने लगते हैं? उन्हें कर्ज देते समय वापसी के सुरक्षित दरवाजे खोलकर नहीं रखते। बैंकों के एक बड़े पुनर्गठन का समय आ गया है। यह मामला इस हफ्ते सुप्रीम कोर्ट में उठ रहा है। चार रोज पहले इस काम के लिए गठित बैंक बोर्ड ब्यूरो (बीबीबी) ने अपनी पहली बैठक में जरूरी पहल शुरू कर दी है।

Sunday, April 10, 2016

भारतीय राष्ट्र-राज्य ‘फुटबॉल’ नहीं है

एनआईटी श्रीनगर की घटना सामान्य छात्र की समस्याओं से जुड़ा मामला नहीं है। जैसे जेएनयू, जादवपुर या हैदराबाद की घटनाएं राजनीति से जोड़ी जा सकती हैं, श्रीनगर की नहीं। देश के ज्यादातर दलों के छात्र संगठन भी हैं। जाहिर है कि युवा वर्ग को किसी उम्र में राजनीति के साथ जुड़ना ही होगा, पर किस तरीके से? हाल में केरल के पलक्कड़ के सरकारी कॉलेज के छात्रों ने अपनी प्रधानाचार्या की सेवानिवृत्ति पर उन्हें कब्र खोदकर प्रतीक रूप से उपहार में दी। संयोग से छात्र एक वामपंथी दल से जुड़े थे। सामाजिक जीवन से छात्रों को जोड़ने के सबसे बड़े हामी वामपंथी दल हैं, पर यह क्या है?

संकीर्ण राष्ट्रवाद को उन्मादी विचारधारा साबित किया जा सकता है। खासतौर से तब जब वह समाज के एक ही तबके का प्रतिनिधित्व करे। पर भारतीय राष्ट्र-राज्य राजनीतिक दलों का फुटबॉल नहीं है। वह तमाम विविधताओं के साथ देश का प्रतिनिधित्व करता है। आप कितने ही बड़े अंतरराष्ट्रीयवादी हों, राष्ट्र-राज्य के सवालों का सामना आपको करना होगा। सन 1947 के बाद भारत का गठन-पुनर्गठन सही हुआ या नहीं, इस सवाल बहस कीजिए। पर फैसले मत सुनाइए। जेएनयू प्रकरण में भारतीय राष्ट्र-राज्य पर हुए हमले को सावधानी के साथ दबा देने का दुष्परिणाम श्रीनगर की घटनाओं में सामने आया है। भारत के टुकड़े करने की मनोकामना का आप खुलेआम समर्थन करें और कोई जवाब भी न दे।

चुनावी राजनीति ने हमारे सामाजिक जीवन को पहले ही काफी हद तक तोड़ दिया है। हमारे साम्प्रदायिक, जातीय और क्षेत्रीय अंतर्विरोधों को खुलकर खोला गया है। पर अब भारत की अवधारणा पर हमले के खतरों को भी समझ लेना चाहिए। यह सिर्फ संयोग नहीं था कि जेएनयू का घटनाक्रम असम, बंगाल और केरल के चुनावों से जुड़ गया? और अब कश्मीर में महबूबा मुफ्ती सरकार की सुगबुगाहट के साथ ही एनआईटी श्रीनगर में आंदोलन खड़ा हो गया। संघ और भाजपा के एकांगी राष्ट्रवाद से असहमत होने का आपको अधिकार है, पर भारतीय राष्ट्र-राज्य किसी एक दल की बपौती नहीं है। वह हमारे सामूहिक सपनों का प्रतीक है। उसे राजनीति का खिलौना मत बनाइए।

Tuesday, April 5, 2016

‘फेसबुक’ हैक कर लेने का क्या अर्थ है?

फेसबुक इंटरनेट पर एक निःशुल्क सामाजिक नेटवर्किंग सेवा है, जिसके माध्यम से 13 वर्ष से ऊपर की उम्र के इसके सदस्य अपने मित्रों, परिवार और परिचितों से संपर्क रखते हैं। इसे फेसबुक इनकॉरपोरेटेड नामक कंपनी संचालित करती है। इसके प्रयोक्ता कई तरह के नेटवर्कों में शामिल हो सकते हैं और आपस में विचारों का आदान-प्रदान कर सकते हैं। फेसबुक अकाउंट हैक करने का मतलब है किसी तरीके से आपके पासवर्ड को हासिल करके अकाउंट का दुरुपयोग करना। मसलन आपके नाम से गलत संदेश दिए जा सकते हैं। इससे भी ज्यादा आपके बैंकिंग पासवर्ड वगैरह का पता लगाया जा सकता है। साथ ही आपके अकाउंट की मदद से आपके मित्रों के अकाउंट भी हैक किए जा सकते हैं।

‘लिम्का बुक ऑफ वर्ल्ड रिकॉर्ड्स’ तथा ‘गिनीज़ बुक ऑफ वर्ल्ड रिकॉर्ड्स’ की मान्यता क्या है? ये दोनों ‘रिकॉर्ड्स बुक्स’ कैसे और कहां से प्राप्त कर सकते हैं?

पहले तो इन दोनों रिकॉर्ड्स की पृष्ठभूमि को समझ लें। गिनीज़ बुक मूलतः बहुत व्यापक पुस्तक है और अनोखे रिकॉर्डों के लिए खुद में मानक बन गई है। लिम्का बुक की परिधि में केवल भारत है। यह भारत का प्रकाशन है जो गिनीज़ बुक से प्रभावित है। इसकी विषय वस्तु भी भारत है। गिनीज़ व‌र्ल्ड रिकॉर्ड्स (अंग्रेजी: Guinness World Records) को सन 2000 तक 'गिनीज़ बुक ऑफ रिकॉर्ड्स' के नाम से जाना जाता था। यह पुस्तक 'सर्वाधिक बिकने वाली कॉपीराइट पुस्तक' के रूप में स्वयं एक रिकार्ड धारी है। लिम्का बुक ऑफ़ रिकॉर्ड्स सबसे पहले सन 1990 में प्रकाशित हुई थी। इसे शीतल पेय बनाने वाले पार्ले समूह ने शुरू किया था, जिसके पास लिम्का ब्रांड भी था। बाद में यह ब्रांड कोका कोला को बेच दिया गया, जो अब इस किताब का प्रकाशन करता है। दोनों की मान्यता उनकी साख है। लिम्का बुक के तीन भाषाओं में 25 संस्करण निकल चुके हैं और गिनीज़ बुक के 20 भाषाओं में 50. अजब-गजब रिकॉर्ड बनाने वाले इन किताबों में अपना नाम दर्ज कराना चाहते हैं ताकि उन्हें मान्यता मिले। गिनीज़ बुक अब केवल किताब ही नहीं है, बल्कि टीवी प्रोग्राम, इंटरनेट हर जगह छाई है।

जम्हाई (उबासी) क्यों आती है?

जम्हाई लेने के अनेक कारण बताए जाते हैं। यह थकान, ऊब, नींद और तनाव से जुड़ी क्रिया है। मोटे तौर पर दिमाग को ठंडा रखने की कोशिश। सोने के ठीक पहले और उठने के फौरन बाद जम्हाई सबसे ज्यादा आती है। इसमें व्यक्ति पहले गहरी साँस लेता है, फिर साँस छोड़ता है। इस दौरान पूरे शरीर में खिंचाव आता है। यह शरीर को सामान्य दशा में लाने वाली क्रिया है। इसकी मदद से शरीर में जमा अनावश्यक कार्बन डाई ऑक्साइड बाहर निकलती है और ऑक्सीजन दिमाग फेफड़ों और खून में मिलती है जो अंततः दिमाग तक जाती है, जिससे व्यक्ति चैतन्य और चौकन्ना हो जाता है। जब व्यक्ति थका हुआ या बोरियत महसूस करता है तो उसकी साँस लेने की गति धीमी हो जाती है। खून में ऑक्सीजन की आपूर्ति बढ़ाने के लिए उबासी आती है। इससे फेफड़ों और इनके टिश्यू का व्यायाम भी हो जाता है। मनुष्य ही नहीं चिम्पांजी और कुत्ते और दूसरे जानवर भी जम्हाई लेते हैं।

सार्क देशों के अंतर्गत किन-किन देशों की गणना की जाती है उनका भारत से क्या संबंध है?

दक्षिण एशियाई क्षेत्रीय सहयोग संगठन (सार्क) में आठ सदस्य देश हैं। इसकी स्थापना 8 दिसम्बर 1985 को भारत, पाकिस्तान, बांग्लादेश, श्रीलंका, नेपाल, मालदीव और भूटान ने मिलकर की थी। अप्रैल 2007 में इसके 14 वें शिखर सम्मेलन में अफगानिस्तान इसका आठवाँ सदस्य बन गया। इसके पर्यवेक्षक हैं ऑस्ट्रेलिया, चीन, यूरोपीय संघ, ईरान, जापान, मॉरिशस, म्यांमार, दक्षिण कोरिया और संयुक्त राज्य अमेरिका।

Monday, April 4, 2016

पनामा पेपर्स ने बड़े लोगों की पोल खोली


दुनियाभर के मीडिया में आज पनामा पेपर्स का हल्ला है। इन दस्तावेजों में भारत के महापुरुषों के नाम भी है। भारत  सरकार ने ‘‘पनामा पेपर्स'' के आंकडे लीक होने के मद्देनजर शुरु की जा सकने वाली हर प्रकार की कानूनी जांच में ‘‘पूरा सहयोग'' करने का संकल्प लिया है. पनामा सरकार ने कल एक बयान में कहा, ‘‘पनामा सरकार कोई कानूनी कदम उठाए जाने की स्थिति में हर प्रकार की आवश्यक सहायता या हर प्रकार के अनुरोध में पूरी तरह सहयोग करेगी.''
पनामा आंकडे लीक होने के कारण हुए इन खुलासों से जूझ रहा है कि उसकी एक हाई प्रोफाइल लेकिन गोपनीय विधि फर्म मोस्साक फोंसेका ने कर अधिकारियों से पूंजी को छुपाने में विश्व भर के कई बडे नेताओं और चर्चित हस्तियों की कथित रुप से मदद की। इन लीक आंकडों को कई मीडिया संस्थानों ने दर्शाया है.
भारत में इंडियन एक्सप्रेस और हिन्दू ने इनका विवरण दिया है।


Indians in Panama Papers list: Amitabh Bachchan, KP Singh, Aishwarya Rai, Iqbal Mirchi, Adani elder brother
Biggest leak of over 11 million documents of Panama law firm features over 500 Indians linked to offshore firms, finds 8-month investigation by a team of The Indian Express led by Ritu Sarin, Executive Editor (News & Investigations).

राजनीतिक घमासान : अभी तो पार्टी शुरू हुई है

उत्तर भारत में मार्च-अप्रैल के महीने आँधियों के होते हैं. पश्चिम से उठने वाली तेज हवाएं धीरे-धीरे लू-लपेट में बदल जाती हैं. राजनीतिक मैदान पर मौसम बदल रहा है और गर्म हवाओं का इंतजार है. असम और बंगाल में आज विधान सभा चुनाव का पहला दौर है. इसके साथ ही 16 मई तक लगातार चुनाव के दौर चलेंगे, जिसका नतीजा 19 मई को आएगा. इन नतीजों में भविष्य की राष्ट्रीय राजनीति के कुछ संकेत सूत्र होंगे, जो नीचे लिखी कुछ बातों को साफ करेंगे:-

Sunday, April 3, 2016

कांग्रेस पर खतरे का निशान

संसद के बजट सत्र का आधिकारिक रूप से सत्रावसान हो गया है। ऐसा उत्तराखंड में पैदा हुई असाधारण स्थितियों के कारण हुआ है। उत्तराखंड में राजनीतिक स्थितियाँ क्या शक्ल लेंगी, यह अगले हफ्ते पता लगेगा। उधर पाँच राज्यों की विधानसभाओं के चुनाव कल असम में मतदान के साथ शुरू हो रहे हैं। भारतीय जनता पार्टी, कांग्रेस और क्षेत्रीय दलों की राजनीति की रीति-नीति को ये चुनाव तय करेंगे। उत्तराखंड के घटनाक्रम और पाँच राज्यों के चुनाव का सबसे बड़ा असर कांग्रेस पार्टी के भविष्य पर पड़ने वाला है। असम और केरल में कांग्रेस की सरकारें हैं। बंगाल में कांग्रेस वामपंथी दलों के साथ गठबंधन करके एक नया प्रयोग कर रही है और तमिलनाडु में वह डीएमके के साथ अपने परम्परागत गठबंधन को आगे बढ़ाना चाहती है, पर उसमें सफलता मिलती नजर नहीं आती।

केरल में मुख्यमंत्री ऊमन चैंडी समेत चार मंत्रियों पर भ्रष्टाचार के सीधे आरोप हैं। मुख्यमंत्री और प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष के बीच चुनाव को लेकर मतभेद हैं। पार्टी की पराजय सिर पर खड़ी नजर आती है। अरुणाचल गया, उत्तराखंड में बगावत हो गई। मणिपुर में पार्टी के 48 में से 25 विधायकों ने मुख्यमंत्री ओकरम इबोबी सिंह के खिलाफ बगावत का झंडा बुलंद कर दिया है। कर्नाटक में मुख्यमंत्री सिद्धरमैया के खिलाफ बगावत का माहौल बन रहा है।

Thursday, March 31, 2016

संसदीय गतिरोध भी साकारात्मक हो सकता है

'बहस इतनी लंबी खींचो, कोई फ़ैसला ही न हो'

  • 28 मार्च 2016
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संसदीय राजनीति में जब कोई विचार, अवधारणा या गतिविधि असाधारण गति पकड़ ले तो उसे धीमी करने के लिए क्या करें? या किसी पक्ष का बहुमत प्रबल हो जाए तो अल्पमत की रक्षा कैसे की जाए?
दुनियाभर की संसदीय परंपराओं ने ‘फिलिबस्टरिंग’ की अवधारणा विकसित की है. इसे सकारात्मक गतिरोध कह सकते हैं. बहस को इतना लम्बा खींचा जाए कि उस पर कोई फ़ैसला ही न हो सके, या प्रतिरोध ज़ोरदार ढंग से दर्ज हो वगैरह.
संयोग से ये सवाल पिछले कुछ समय से भारतीय संसद में जन्मे गतिरोध के संदर्भ में भी उठ रहे हैं. इसका एक रोचक विवरण दक्षिण कोरिया की संसद में देखने को मिलता है, जो भारत के लिए भी प्रासंगिक है.
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दक्षिण कोरिया की संसद में उत्तर कोरिया की आक्रामक गतिविधियों को देखते हुए आतंक विरोधी विधेयक पेश किया गया. इस विधेयक पर 192 घंटे लम्बी बहस चली. नौ दिनों तक लगातार दिन-रात...
विपक्षी सांसदों का कहना था कि यह विधेयक यदि पास हुआ तो नागरिकों की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और निजता ख़तरे में पड़ जाएगी. इस बिल के ख़िलाफ़ 38 सांसदों ने औसतन पाँच-पाँच घंटे लम्बे वक्तव्य दिए. सबसे लम्बा भाषण साढ़े बारह घंटे का था, बग़ैर रुके.
इतने लंबे भाषण का उद्देश्य केवल यह था कि सरकार इस प्रतिरोध को स्वीकार करके अपने हाथ खींच ले. सरकारी विधेयक फिर भी पास हुआ. अलबत्ता एक रिकॉर्ड क़ायम हुआ. साथ ही विधेयक के नकारात्मक पहलुओं को लेकर जन-चेतना पैदा हुई.
‘फिलिबस्टरिंग’ संसदीय अवधारणा है. पर यह नकारात्मक नहीं सकारात्मक विचार है. तमाम प्रौढ़ लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं में फिलिबस्टरिंग की मदद ली जाती है.

Sunday, March 27, 2016

अंतर्विरोधों से घिरी है जनता-कांग्रेस एकता

बारह घोड़ों वाली गाड़ी

चुनावी राजनीति ने भारतीय समाज में निरंतर चलने वाला सागर-मंथन पैदा कर दिया है। पाँच साल में एक बार होने वाले आम चुनाव की अवधारणा ध्वस्त हो चुकी है। हर साल किसी न किसी राज्य की विधानसभा का चुनाव होता है। दूसरी ओर राष्ट्रीय राजनीति में क्षेत्रीय दलों का हस्तक्षेप बढ़ा है। गठबंधन बनते हैं, टूटते हैं और फिर बनते हैं। यह सब वैचारिक आधार पर न होकर व्यक्तिगत हितों और फौरी लक्ष्यों से निर्धारित होता है। किसी के पास दीर्घकालीन राजनीति का नक्शा नजर नहीं आता।
अगले महीने हो रहे विधानसभा चुनाव के पहले चारों राज्यों में चुनाव पूर्व गठबंधनों की प्रक्रिया अपने अंतिम चरण में है। बंगाल में वामदलों के साथ कांग्रेस खड़ी है, पर तमिलनाडु और केरल में दोनों एक-दूसरे के सामने हैं। यह नूरा-कुश्ती कितनी देर चलेगी? नूरा-कुश्ती हो या नीतीश का ब्रह्मास्त्र राष्ट्रीय स्तर पर भारतीय जनता पार्टी का एक विरोधी कोर ग्रुप जरूर तैयार हो गया है। इसमें कांग्रेस, वामदलों और जनता परिवार के कुछ टूटे धड़ों की भूमिका है। पर इस कोर ग्रुप के पास उत्तर प्रदेश का तिलिस्म तोड़क-मंत्र नहीं है।
ताजा खबर यह है कि जनता परिवार को एकजुट करने की तमाम नाकाम कोशिशों के बाद जदयू, राष्ट्रीय लोकदल, झारखंड विकास मोर्चा (प्रजातांत्रिक) और समाजवादी जनता पार्टी (रा) बिहार, झारखंड और उत्तर प्रदेश में विलय की संभावनाएं फिर से टटोल रहे हैं। नीतीश कुमार, जदयू अध्यक्ष शरद यादव, रालोद प्रमुख अजित सिंह, उनके पुत्र जयंत चौधरी और चुनावी रणनीतिकार प्रशांत किशोर की 15 मार्च को नई दिल्ली में इस सिलसिले में हुई बैठक में बिहार के महागठबंधन का प्रयोग दोहराने पर विचार किया गया।

Friday, March 25, 2016

'ओके' शब्द का जन्मदिन

अंग्रेजी का ‘ओके’ अब हिन्दी का ओके भी बन गया है। अक्सर लोग पूछते हैं कि इस शब्द का प्रारंभ किसने, कब और कहां किया?  

ओके बोलचाल की अंग्रेज़ी का शब्द है। इसका अर्थ है स्वीकृत, पर्याप्त, ठीक, सही, उचित वगैरह। इसे संज्ञा और क्रिया दोनों रूपों में इस्तेमाल किया जाता है। इंजीनियर ने कार को ओके कर दिया। सेल्स मैनेजर ने इस कीमत को ओके किया है। अमेरिकन स्लैंग में ऑल करेक्ट माने ओके। इस शब्द की शुरूआत को लेकर कई तरह की कहानियाँ हैं। एक कहानी यह है कि उन्नीसवीं सदी में अमेरिका के एक राष्ट्रपति पद के एक उम्मीदवार के गाँव का नाम था ओल्ड किंडरहुक। उनके समर्थकों ने उसी नाम के प्रारंभ के अक्षरों को लेकर एक ओके ग्रुप बनाया और इसी शब्द का प्रचार किया। इसी तरह अमेरिकन रेलवे के शुरू के समय में एक पोस्टल क्लर्क की कहानी सुनाई पड़ी है जिसका नाम ओबेडिया कैली था। कैली साहब हर पार्सल पर निशानी के लिए अपने नाम के दो अक्षर ओके लिख देते थे। इससे यह शब्द प्रसिद्ध हो गया। यह भी कहा जाता है कि ओके किसी रेड इंडियन भाषा से आया है। अमेरिका में रेड इंडियन भाषा के बहुत से शब्द प्रयोग किए जाते हैं। अमेरिकी राज्यों में से आधे नाम रेड इंडियन हैं। मसलन ओकलाहामा, डकोटा, उडाहो, विस्किनसन, उहायो, टेनेसी। कहा जाता है कि एक रेड इंडियन कबीले का सरदार एक दिन अपने साथियों से बात कर रहा था। हर बात पर वह ‘ओके, ओके’ कहता जाता था जिस का अर्थ था ‘हां ठीक है।’ किसी अमेरिकी पर्यटक ने इसे सुना और फिर अपने साथियों में इस शब्द को प्रचलित किया। इतना जरूर लगता है कि यह शब्द अमेरिका से आया है इंग्लैंड से नहीं। 
इधर 23 मार्च 2016 को अमेरिका की टाइम पत्रिका की वैबसाइट ने पुराने संदर्भ खँगालते हुए एक रोचक जानकारी दी है कि इस शब्द का पहला प्रयोग एक अखबार बोस्टन मॉर्निंग पोस्ट ने किया था। इसमें लिखा गया है:-

Here's how a newspaper rivalry inspired one of the most common words in English

The word ‘ok’ first appeared in print 177 years ago on Wednesday, as a jab thrown in a rivalry between Boston and Providence newspapers.
The use of the two letters (or the fully-spelled version, ‘okay’) has spread around the world to indicate varying states of positivity. But the Boston Morning Post writer of a short item firing back at some snark from theProvidence Journal likely had little knowledge that the joke would resonate through the ages.
Here’s first appearance of the word ‘ok’ took place on March 23, 1839, asAtlas Obscura writes today:
“We said not a word about our deputation passing “through the city” of Providence.—We said our brethren were going to New York in the Richmond, and they did go, as per Post of Thursday. The “Chairman of the Committee on Charity Lecture Bells,” is one of the deputation, and perhaps if he should return to Boston, via Providence, he of the Journal, and his train-band, would have his “contribution box,” et ceteras, o.k.—all correct—and cause the corks to fly, likesparks, upward.”
While the word may have survived the test of time, the humor has not. The joke, at the expense of the Providence Journal, is that ‘o.k.’ does not stand for ‘all correct’, but for a misspelled, phonetic version of the phrase.
And just as ‘ok’ is still popular today, so is the environment that gave birth to the Post‘s joke: an “abbreviation craze.”



टाइम पत्रिका की वैबसाइट में यह आलेख भी पढ़ें
और यहाँ भी 
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Wednesday, March 23, 2016

Backgrounder of Islamic State



Introduction
The self-proclaimed Islamic State is a militant movement that has conquered territory in western Iraq and eastern Syria, where it has made a bid to establish a state in territories that encompass some six and a half million residents. Though spawned by al-Qaeda’s Iraq franchise, it split with Osama bin Laden’s organization and evolved to not just employ terrorist and insurgent tactics, but the more conventional ones of an organized militia.

In June 2014, after seizing territories in Iraq’s Sunni heartland, including the cities of Mosul and Tikrit, the Islamic State proclaimed itself a caliphate, claiming exclusive political and theological authority over the world’s Muslims. Its state-building project, however, has been characterized more by extreme violence, justified by references to the Prophet Mohammed’s early followers, than institution building. Widely publicized battlefield successes have attracted thousands of foreign recruits, a particular concern of Western intelligence.

भगत सिंह का लेख 'मैं नास्तिक क्यों हूँ?'

ताकि सनद रहे : भगतसिंह (1931)
                       

यह लेख भगत सिंह ने जेल में रहते हुए लिखा था और यह 27 सितम्बर 1931 को लाहौर के अखबार “ द पीपल “ में प्रकाशित हुआ । इस लेख में भगतसिंह ने ईश्वर की उपस्थिति पर अनेक तर्कपूर्ण सवाल खड़े किये हैं और इस संसार के निर्माण , मनुष्य के जन्म , मनुष्य के मन में ईश्वर की कल्पना के साथ साथ संसार में मनुष्य की दीनता , उसके शोषण , दुनिया में व्याप्त अराजकता और और वर्गभेद की स्थितियों का भी विश्लेषण किया है । यह भगत सिंह के लेखन के सबसे चर्चित हिस्सों में रहा है।
स्वतन्त्रता सेनानी बाबा रणधीर सिंह 1930-31के बीच लाहौर के सेन्ट्रल जेल में कैद थे। वे एक धार्मिक व्यक्ति थे जिन्हें यह जान कर बहुत कष्ट हुआ कि भगतसिंह का ईश्वर पर विश्वास नहीं है। वे किसी तरह भगत सिंह की कालकोठरी में पहुँचने में सफल हुए और उन्हें ईश्वर के अस्तित्व पर यकीन दिलाने की कोशिश की। असफल होने पर बाबा ने नाराज होकर कहा, “प्रसिद्धि से तुम्हारा दिमाग खराब हो गया है और तुम अहंकारी बन गए हो जो कि एक काले पर्दे के तरह तुम्हारे और ईश्वर के बीच खड़ी है। इस टिप्पणी के जवाब में ही भगतसिंह ने यह लेख लिखा।

एक नया प्रश्न उठ खड़ा हुआ है। क्या मैं किसी अहंकार के कारण सर्वशक्तिमान, सर्वव्यापी तथा सर्वज्ञानी ईश्वर के अस्तित्व पर विश्वास नहीं करता हूँ? मेरे कुछ दोस्त – शायद ऐसा कहकर मैं उन पर बहुत अधिकार नहीं जमा रहा हूँ – मेरे साथ अपने थोड़े से सम्पर्क में इस निष्कर्ष पर पहुँचने के लिये उत्सुक हैं कि मैं ईश्वर के अस्तित्व को नकार कर कुछ ज़रूरत से ज़्यादा आगे जा रहा हूँ और मेरे घमण्ड ने कुछ हद तक मुझे इस अविश्वास के लिये उकसाया है। मैं ऐसी कोई शेखी नहीं बघारता कि मैं मानवीय कमज़ोरियों से बहुत ऊपर हूँ। मैं एक मनुष्य हूँ, और इससे अधिक कुछ नहीं। कोई भी इससे अधिक होने का दावा नहीं कर सकता। यह कमज़ोरी मेरे अन्दर भी है। अहंकार भी मेरे स्वभाव का अंग है। अपने कामरेडो के बीच मुझे निरंकुश कहा जाता था। यहाँ तक कि मेरे दोस्त श्री बटुकेश्वर कुमार दत्त भी मुझे कभी-कभी ऐसा कहते थे। कई मौकों पर स्वेच्छाचारी कह मेरी निन्दा भी की गयी। कुछ दोस्तों को शिकायत है, और गम्भीर रूप से है कि मैं अनचाहे ही अपने विचार, उन पर थोपता हूँ और अपने प्रस्तावों को मनवा लेता हूँ। यह बात कुछ हद तक सही है। इससे मैं इनकार नहीं करता। इसे अहंकार कहा जा सकता है। जहाँ तक अन्य प्रचलित मतों के मुकाबले हमारे अपने मत का सवाल है। मुझे निश्चय ही अपने मत पर गर्व है। लेकिन यह व्यक्तिगत नहीं है। ऐसा हो सकता है कि यह केवल अपने विश्वास के प्रति न्यायोचित गर्व हो और इसको घमण्ड नहीं कहा जा सकता। घमण्ड तो स्वयं के प्रति अनुचित गर्व की अधिकता है। क्या यह अनुचित गर्व है, जो मुझे नास्तिकता की ओर ले गया? अथवा इस विषय का खूब सावधानी से अध्ययन करने और उस पर खूब विचार करने के बाद मैंने ईश्वर पर अविश्वास किया?

Sunday, March 20, 2016

पंजाब में पानी की खतरनाक राजनीति

सतलुज-यमुना लिंक नहर के विवाद में पानी सिर के ऊपर जाए इससे पहले ही केंद्र सरकार को अब अपनी भूमिका निभानी चाहिए। पंजाब विधानसभा ने सुप्रीम कोर्ट के निर्देशों की अवहेलना करते हुए यह कहते हुए नहर के निर्माण के खिलाफ एक प्रस्ताव पारित किया है कि उसके पास हरियाणा को देने के लिए पानी नहीं है। पंजाब विधानसभा के चुनाव करीब होने के कारण इसे पंजाब का मास्टर स्ट्रोक माना जा रहा है, पर यह बात राष्ट्रीय एकता के खिलाफ है और इसके दूरगामी दुष्परिणाम होंगे।

पंजाब के तकरीबन सभी राजनीतिक दल इस मामले को चुनाव के नजरिए से देख रहे हैं। शिरोमणि अकाली दल ने कांग्रेस से यह मुद्दा छीन लिया है। अकाली दल विधानसभा में सर्वसम्मति से प्रस्ताव पास कराने में कामयाब हुआ है। उसका सहयोगी दल होने के नाते भारतीय जनता पार्टी ने भी उसका साथ दिया है। पर हरियाणा में भी उसकी सरकार है। उधर आम आदमी पार्टी भी इसे चुनावी मुद्दा बनाने की कोशिश में है। दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने जल्दबाजी में इस विवाद का रुख हरियाणा-दिल्ली के विवाद के रूप में मोड़ दिया था। अलबत्ता उन्होंने फौरन ही अपने रुख को बदला।

Friday, March 18, 2016

'माँ' का रूपक भाजपाई क्यों है?

बीबीसी हिंदी के पत्रकार जुबैर अहमद ने लिखा है, ‘बचपन में मेरे एक दूर के मामा ने मेरे गाल पर ज़ोरदार तमाचा लगाया, क्योंकि मैं अपने कमरे में अकेले 'जन गण मन अधिनायक जय हे' गा रहा था। तमाचा लगाते समय वो डांट कर बोले, "अबे, हिंदू हो गया है क्या?" मेरे मामा कोई मुल्ला नहीं थे लेकिन उनकी सोच मुल्लों वाली थी। असदुद्दीन ओवेसी की बातों से मुझे अपने दूर के मामा की याद आ जाती है। भारत माता की जय कहने से इनकार करना उनका अधिकार ज़रूर है लेकिन केवल इसीलिए इसका विरोध करना कि मोहन भागवत ने इसकी सलाह दी है, सही नहीं है।’ 

दूसरी ओर यह भी सही है कि देश के गैर-हिन्दुओं पर यह बात जबरन लादी नहीं जा सकती। देखना यह भी होगा कि हमारी भारतमाता देश को धर्मनिरपेक्ष बनाना चाहती है या धार्मिक राज्य बनाने का संदेश देती है। साथ ही यह भी कि क्या हमारे राष्ट्र-राज्य को हिन्दू प्रतीकों और मुहावरों से मुक्त किया जा सकता है? 

Tuesday, March 15, 2016

सवाल विज्ञान-मुखी बनने का है

विजय माल्या के पलायन, देश-द्रोह और भक्ति से घिरे मीडिया की कवरेज में विज्ञान और तकनीक आज भी काफी पीछे हैं. जबकि इसे विज्ञान और तकनीक का दौर माना जाता है. इसकी वजह हमारी अतिशय भावुकता और अधूरी जानकारी है. विज्ञान और तकनीक रहस्य का पिटारा है, जिसे दूर से देखते हैं तो लगता है कि हमारे जैसे गरीब देश के लिए ये बातें विलासिता से भरी हैं. नवम्बर 2013 में जब हमारा मंगलयान अपनी यात्रा पर रवाना हुआ था तब कई तरह के सवाल किए गए थे. उस साल के आम बजट से आँकड़े निकालकर सवाल किया गया था कि माध्यमिक शिक्षा के लिए पूरा खर्च 3,983 करोड़ रुपए और अकेले मंगलयान पर 450 करोड़ रुपए क्यों? इस रकम से ढाई सौ नए स्कूल खोले जा सकते थे. 

Sunday, March 13, 2016

‘रेरा’ के दाँत पैने करने होंगे

रियल एस्टेट विधेयक इस हफ्ते गुरुवार को राज्यसभा में पारित हो गया। विधेयक में रियल एस्टेट नियामक प्राधिकरण (रेरा) के गठन की व्यवस्था है। सरकार ने इस विधेयक के पारित होने से पहले राज्यसभा की प्रवर समिति द्वारा सुझाए गए 20 संशोधनों को स्वीकार किया। विधेयक को अब लोकसभा में पेश किया जाएगा। पूरी तरह कानून बन जाने के बाद यह कानून मकान खरीदने वालों का मददगार साबित होगा। अलबत्ता इस दिशा में हमें और ज्यादा विचार करने की जरूरत है। खासतौर से ‘रेरा’ के दाँत पैने करने होंगे। 

‘भूमि’ चूंकि राज्य विषय है, इसलिए इस सिलसिले में राज्यों के कानून लागू होते हैं। इस बिल का दायरा खरीदार और प्रमोटर के बीच समझौते और सम्पत्ति के हस्तांतरण तक सीमित है। ये दोनों मामले समवर्ती सूची में आते हैं। इसके वास्तविक प्रभाव को देखने के लिए केंद्रीय कानून को राज्यों के अपार्टमेंट एक्ट के साथ मिलाकर देखना होगा। यह कानून भविष्य के निर्माणों पर लागू होने वाला है। जरूरत इस बात की भी है कि जो योजनाएं पूरी हो चुकी हैं और जिन्हें लेकर ग्राहकों को शिकायतें है उनके बारे में भी कोई व्यवस्था हो।

Thursday, March 10, 2016

सवाल माल्या का ही नहीं, बीमार बैंकों का भी है

विडंबना है कि जब देश के 17 सरकारी बैंकों के कंसोर्शियम ने सुप्रीम कोर्ट में रंगीले उद्योगपति विजय माल्‍या के देश छोड़ने पर रोक लगाने की मांग की तब तक माल्या देश छोड़कर बाहर जा चुके थे. अब सवाल इन बैंकों से किया जाना चाहिए कि उन्होंने क्या सोचकर माल्या को कर्जा दिया था? हाल में देश के 29 बैंकों से जुड़े कुछ तथ्य सामने आए तो हैरत हुई कि यह देश चल किस तरह से रहा है. विजय माल्या पर जो रकम बकाया थी, उसकी वसूली शायद अब कभी नहीं हो सकेगी. कर्ज रिकवरी न्यायाधिकरण ने जिस राशि को रोका है वह ऊँट के मुँह में जीरे की तरह है. अफसोस इस बात का है कि व्यवस्था बहुत देर से जागी है. अपराधी आसानी से निकल कर भाग गया. साबित यह हुआ कि बीमार माल्या नहीं हमारे बैंक है.

Sunday, March 6, 2016

संसद की बेहतर भूमिका

संसद के बजट सत्र के पहले दो हफ्तों का अनुभव अपेक्षाकृत बेहतर रहा है। पिछले दो सत्रों को देखते हुए अंदेशा था कि यह सत्र भी निरर्थक रहेगा। इस अंदेशे के पेशे नजर राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने अपने अभिभाषण में प्रतीकों के सहारे कहा था कि लोकतांत्रिक भावना का तकाजा है कि सदन में बहस और विचार-विमर्श हो। संसद चर्चा के लिए है, हंगामे के लिए नहीं। उसमें गतिरोध नहीं होना चाहिए। राष्ट्रपति के अभिभाषण के धन्यवाद प्रस्ताव पर लोकसभा में रोचक नोक-झोंक तो हुई, पर सदन का समय खराब नहीं हुआ। इस हफ्ते पाँच राज्यों के विधानसभा चुनाव की तारीखें भी घोषित हो गईं हैं। संसद का यह सत्र चुनावों के साथ-साथ चलेगा, इसलिए चुनाव की प्रतिध्वनि इसमें सुनाई देगी।

संसद के बजट सत्र और बाहरी राजनीति को मिलाकर देखें तो कुछ बातें दिखाई पड़ेंगी

· देश की अर्थ-व्यवस्था नाजुक दौर से गुजर रही है। बेशक हम दुनिया की सबसे तेज अर्थ-व्यवस्था बनते जा रहे हैं, पर उस गति को प्राप्त करने के लिए आवश्यक संस्थागत सुधार अभी हम नहीं कर पाए हैं।

· संसद के भीतर और बाहर राजनीतिक गतिविधियाँ तेज हो रही हैं। भारतीय जनता पार्टी अभी पूरी तरह जम नहीं पाई है और कांग्रेस अभी पूरी तरह परास्त नहीं है। अगले दो महीने में देश निर्णायक विजय-पराजय की और बढ़ेगा।

· भारतीय जनता पार्टी को सन 2016 में जिन कारणों से विजय मिली उन्हें लेकर पार्टी के भीतर अभी स्पष्टता दिखाई नहीं पड़ती। आर्थिक और सामाजिक-सांस्कृतिक सवाल गड्ड-मड्ड हो रहे हैं। हाल में जाट-आरक्षण आंदोलन और जेएनयू प्रकरण ने इस असमंजस को बढ़ाया है।