श्रेष्ठ विचारों की झंडी बनाकर उससे सजावट करने
में हमारा जवाब नहीं है। गांधी इसके उदाहरण हैं। लम्बे अरसे तक देश में कांग्रेस
पार्टी का शासन रहा। पार्टी खुद को गांधी का वारिस मानती है, पर उसके शासनकाल में ही
गांधी सजावट की वस्तु बने। हमारी करेंसी पर गांधी हैं और अब नए नोटों में उनका
चश्मा भी है। पर हमने गांधी के विचारों पर आचरण नहीं किया। उनके विचारों का मजाक
बनाया। कुछ लोगों ने कहा, मजबूरी का नाम महात्मा गांधी। लम्बे अरसे तक देश के
कम्युनिस्ट नेता उनका मजाक बनाते रहे, पर आज स्थिति बदली हुई है। गांधी का नाम
लेने वालों में वामपंथी सबसे आगे हैं।
उनके जन्मदिन को राष्ट्रीय पर्व के रूप में
मनाने और तमाम शहरों की सड़कों को महात्मा गांधी मार्ग बनाने के बावजूद हमें लगता
है कि उनकी जरूरत 1947 के पहले तक थी। अब होते भी तो क्या कर लेते? वस्तुतः गांधी की जरूरत केवल आजादी की लड़ाई तक
सीमित नहीं थी। सन 1982 में रिचर्ड एटनबरो की फिल्म ‘गांधी’ ने
दुनियाभर का ध्यान खींचा, तब इस विषय पर एकबार फिर चर्चा हुई कि क्या
गांधी आज प्रासंगिक हैं? वह केवल भारत की बहस नहीं थी। और आज गांधी की उपयोगिता
शिद्दत से महसूस की जा रही है।