यह राजनीतिक प्रश्न है और इसका उत्तर भी राजनीतिक ही है। हिंदी को राजभाषा बनाने के पीछे संविधान सभा में जो समझौता हुआ था, उसकी प्रकृति पूरी तरह राजनीतिक थी। पिछले कुछ वर्षों से हिंदी के विस्तार को ‘हिंदी-इंपीरियलिज़्म’ या हिंदी-साम्राज्यवाद का नाम भी दिया गया है। यह बात उस कांग्रेस पार्टी के नेता कह रहे हैं, जिसके नेतृत्व में हिंदी को राजभाषा का दर्जा दिया गया था।
संपर्क भाषा के रूप में हिंदी का विकास सहज रूप में हुआ था। उसमें किसी सरकार की भूमिका नहीं थी। अलग-अलग वक्त में उसकी अलग-अलग जरूरतें पैदा होती गईं और जगह बनती गई। चेन्नई में भले ही आपको हिंदी बोलने वाले नहीं मिलें, कन्याकुमारी, मदुरै या रामेश्वरम में मिलेंगे। मानक भाषा के रूप में विकसित होने के पहले से हिंदी साधु-संतों और तीर्थयात्रियों के मार्फत अंतर्देशीय-संपर्क की भाषा के रूप में प्रचलित थी। अब रोजगारों की खोज में चल रहे जबर्दस्त प्रवास के कारण संपर्क भाषा बन रही है।