यह मध्यांतर है, अंत नहीं। भारत-चीन टकराव का फौरी तौर पर समाधान निकल भी जाए, पर यह पूरा समाधान नहीं होगा। यह दो प्राचीन सभ्यताओं की प्रतिस्पर्धा है, जिसकी बुनियाद में हजारों साल पुराने प्रसंग हैं। दूर से इसमें पाकिस्तान हमें दिखाई नहीं पड़ रहा है, पर वह है। वह भी हमारे ही अंतर्विरोधों की देन है। साजिश में नेपाल भी शामिल है। गलवान में जो हुआ, उसके पीछे चीन की हांगकांग, ताइवान, वियतनाम और जापान से जुड़ी प्रतिस्पर्धा भी काम कर रही है। लगता है कि चीनी पहलवान कुछ ज्यादा ही जोश में है और सारी दुनिया के सामने ताल ठोक रहा है। यह जोश उसे भारी पड़ेगा।
गलवान टकराव पर 6 जून की बातचीत शुरू होने के ठीक पहले चीनी राष्ट्रपति शी चिनफिंग ने अपनी पश्चिमी थिएटर कमांड के प्रमुख के रूप में लेफ्टिनेंट जनरल शु छीलिंग को भेजा था, जो उनके सबसे विश्वस्त अधिकारी है। पता नहीं वे टकराव को टालना चाहते थे या बढ़ाना, पर टकराव के बाद दोनों देशों जो प्रतिक्रिया है, उसे देखते हुए लगता है कि फिलहाल लड़ना नहीं चाहते।
टकराव होगा, पर कहाँ?
दोनों की इस झिझक के बावजूद ऐसे विशेषज्ञों की कमी नहीं, जो मानते हैं कि भारत-चीन के बीच एक बार जबर्दस्त लड़ाई होगी, जरूर होगी। युद्ध हुआ, तो न हमारे लिए अच्छा होगा और न चीन के लिए। चीन के पास साधन ज्यादा हैं, पर हम इतने कमजोर नहीं कि चुप होकर बैठ जाएं। हमारी फौजी ताकत इतनी है कि उसे गहरा नुकसान पहुँचा दे। हमारा जो होगा, सो होगा। जरूरी नहीं कि टकराव अभी हो और यह भी जरूरी नहीं कि हिमालय में हो।