Sunday, May 17, 2020

हम जरूर होंगे कामयाब


पिछले मंगलवार को राष्ट्र के नाम अपने संबोधन के माध्यम से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने एक पुरानी बहस को एक नए नाम से फिर से शुरू कर दिया है। उन्होंने कहा कि कोविड-19 संकट ने हमें स्थानीय उत्पादन और सप्लाई चेन के महत्व से परिचित कराया है। अब समय आ गया है कि हम आत्मनिर्भरता के महत्व को स्वीकार करें। उनका नया नारा है वोकल फॉर लोकल। प्रधानमंत्री ने अपने इस संदेश में बीस लाख करोड़ रुपये के एक पैकेज की घोषणा की, जिसका विवरण वित्तमंत्री निर्मला सीतारमण ने चार दिनों में दिया।

क्या यह पैकेज पर्याप्त है, उपयोगी है और क्या हम इसके सहारे डांवांडोल नैया को मँझधार से निकाल पाएंगे? ऐसे तमाम सवाल हैं, पर बुनियादी सवाल है कि क्या हम इस आपदा की घड़ी को अवसर में बदल पाएंगे, जैसाकि प्रधानमंत्री कह रहे हैं? क्या वैश्विक मंच पर भारत के उदय का समय आ गया है? दुनिया एक बड़े बदलाव के चौराहे पर खड़ी है। चीन की आर्थिक प्रगति का रथ अब ढलान पर है। कुछ लोग पूँजीवादी व्यवस्था का ही मृत्यु लेख लिख रहे हैं। अमेरिकी अर्थव्यवस्था का भी ह्रास हो रहा है। इस बीच जापान ने घोषणा की है कि बड़ी संख्या में उसकी कम्पनियाँ चीन में अपना निवेश खत्म करेंगी। चीन में सबसे ज्यादा जापानी कम्पनियों की सहायक इकाइयाँ लगी हैं। अमेरिकी कम्पनियाँ भी चीन से हटना चाहती हैं। सवाल है कि क्या यह निवेश भारत आएगा? जिस तरह सत्तर के दशक में चीन ने दुनिया की पूँजी को अपने यहाँ निमंत्रण दिया, क्या वैसा ही भारत के साथ अब होगा?

Tuesday, May 12, 2020

बदलता पेट्रो-डॉलर परिदृश्य


पिछले महीने सोमवार 20 अप्रेल को अमेरिकी बेंचमार्क क्रूड वेस्ट टेक्सास इंटरमीडिएट (डब्ल्यूटीआई) में खनिज तेल की कीमतें -40.32 डॉलर के नकारात्मक स्तर पर पहुँच गईं। कच्चे तेल के अंतरराष्ट्रीय वायदा बाजार में यह अजब घटना थी। ऐसा इसलिए हुआ, क्योंकि कोरोना वायरस के कारण अमेरिका सहित बड़ी संख्या में देशों में लॉकडाउन है। तेल की माँग लगातार घटती जा रही है। दूसरी तरफ उत्पादन जारी रहने के कारण भविष्य के खरीद सौदे शून्य होने के बाद नकारात्मक स्थिति आ गई। हालांकि यह स्थिति बाद में सुधर गई, फिर भी पेट्रोलियम के भावी कारोबार को लेकर उम्मीदें टूटने लगी हैं। उधर ओपेक देशों और रूस ने येन-केन प्रकारेण अपने उत्पादन को कम करने का फैसला करके भावी कीमतों को और गिरने से रोकने की कोशिश जरूर की है, पर इस कारोबार की तबाही के लक्षण नजर आने लगे हैं। सब जानते हैं कि एक दिन पेट्रोलियम का वर्चस्व खत्म होगा, पर क्या वह समय इतनी जल्दी आ गया है? क्या कोरोना ने उसकी शुरुआत कर दी है?  

कोरोना वायरस ने मनुष्य जाति के अस्तित्व को चुनौती देने का काम किया है।  आधुनिक विज्ञान और तकनीक को इस बात का श्रेय दिया जा सकता है कि उसने एकदम नए किस्म की इस बीमारी की पहचान करने और उसके इलाज के रास्ते खोजने की दिशा में तेजी से काम शुरू कर दिया है। इसकी पहचान करने वाले किट, रोकने वाली वैक्सीन और इलाज करने वाली दवाएं विकसित करने का काम तेजी से चल निकला है। करीब साढ़े तीन महीने पुरानी इस बीमारी को रोकने वाली वैक्सीन की पाँच-छह किस्मों का मनुष्यों पर परीक्षण चल रहा है। आशा है कि अगले एक वर्ष में इसपर पूरी तरह विजय पाई जा सकेगी, पर यह बीमारी विश्व-व्यवस्था के सामने कुछ सवाल लेकर आई है।

नई विश्व व्यवस्था
ये सवाल कम से कम तीन वर्गों में विभाजित किए जा सकते हैं। पहला सवाल पेट्रोलियम से ही जुड़ा है। क्या ऊर्जा के परम्परागत स्रोतों का युग समाप्त होने जा रहा है? विश्व-व्यवस्था और शक्ति-संतुलन में पेट्रोलियम की महत्वपूर्ण भूमिका है। पेट्रोलियम की भूमिका समाप्त होगी, तो उससे जुड़ी शक्ति-श्रृंखलाएं भी कमजोर होंगी। उनका स्थान कोई और व्यवस्था लेगी। हम मोटे तौर पर पेट्रो डॉलर कहते हैं, वह ध्वस्त होगा तो उसका स्थान कौन लेगा?  यह परिवर्तन नई वैश्विक-व्यवस्था को जन्म देगा। क्या पूँजीवाद और समाजवाद जैसे सवालों का भी अंत होगा?  क्या अमेरिका का महाशक्ति रूप ध्वस्त हो जाएगा? क्या भारत का महाशक्ति के रूप में उदय होगा? कोरोना से लड़ाई में राज्य को सामने आना पड़ा। क्या बाजार का अंत होगा? नब्बे के दशक से वैश्वीकरण को जो लहर चली थी, उसका क्या होगा? उत्पादन, व्यापार और पूँजी निवेश तथा बौद्धिक सम्पदा से जुड़े प्रश्नों को अब दुनिया किन निगाहों से देखेगी? इनके साथ ही वैश्विक-सुरक्षा के सवाल भी जुड़े हैं। वैश्विक-सुरक्षा की परिभाषा में जलवायु परिवर्तन और संक्रामक बीमारियाँ भी शामिल होने जा रही हैं, जो राजनीतिक सीमाओं की परवाह नहीं करती हैं। 

Monday, May 11, 2020

कोरोना की अफरातफरी में करोड़ों शिशु खतरे में


हाल में एक छोटी सी खबर पढ़ने को मिली कि कोविड-19 को देखते हुए 25 मार्च से माताओं और दो साल तक के बच्चों की ठप पड़ी टीकाकरण स्कीम फिर से शुरू हो गई है। पूरे देश में अभी सामान्य व्यवस्था कायम हुई नहीं है, इसलिए कहना मुश्किल है कि देशभर का क्या हाल हैं, पर इतना जाहिर है कि कोरोना वायरस के कारण छोटे बच्चों का टीकाकरण प्रभावित हुआ है। इस दौरान अप्रेल के अंतिम सप्ताह में हमने वैश्विक टीकाकरण सप्ताह भी मनाया, पर टीकाकरण की गाड़ी ठप पड़ी रही। कोविड-19 के खिलाफ लड़ाई में भारत का सकारात्मक पहलू है हमारा अनिवार्य टीकाकरण कार्यक्रम। माना जा रहा कि भारत के लोगों में कई प्रकार के रोगों की प्रतिरोधक शक्ति है। कम से कम 20 ऐसे रोग हैं, जिन्हें टीके की मदद से रोका जा सकता है।
इन दिनों हम कोरोना के खिलाफ जिन आंगनबाड़ी और आशा कार्यकर्ताओं की भूमिका की प्रशंसा कर रहे हैं, वे हमारे मातृ एवं शिशु कार्यक्रम की ध्वजवाहक हैं। उनकी तारीफ के साथ यह बताना भी जरूरी है कि कोविड-19 की अफरातफरी ने टीकाकरण कार्यक्रम को धक्का पहुँचाया है। केवल टीकाकरण की बात ही नहीं है। कोरोना के खिलाफ लड़ाई के इस दौर में जल्दबाजी, असावधानी या प्राथमिकताओं के निर्धारण में बरती गई नासमझी में सामान्य स्वास्थ्य की जो अनदेखी हुई है, अब उसकी तरफ भी ध्यान दिया जाना चाहिए।
स्वास्थ्य सेवाओं पर लॉकडाउन
लॉकडाउन के साथ-साथ अचानक दूसरी स्वास्थ्य सेवाओं की तरफ से हमारा ध्यान हट गया। ऐसे में कैंसर, हृदय, लिवर और किडनी और दूसरी बीमारियों से परेशान रोगियों के लिए आवश्यक सुविधाओं में कमी आ गई। कोविड-19 लिए विशेष अस्पतालों की व्यवस्थाओं को स्थापित करने के कारण अस्पतालों की ओपीडी सेवाएं बंद हो गईं। डायलिसिस और कीमोथिरैपी जैसी जरूरी चिकित्सा सुविधाएं भी प्रभावित हुईं। केवल स्वास्थ्य सुविधाएं ही नहीं दुनियाभर के बच्चों की पढ़ाई को नुकसान पहुँचा है। इन दिनों बच्चे और किशोर किस मनोदशा से गुजर रहे हैं, इसका अनुमान लगाना काफी मुश्किल है।

Sunday, May 10, 2020

शराब की मारामारी क्यों?


कोरोना संकट और लॉकडाउन के बीच कई राज्यों में शराब की बिक्री शुरू होने से एक नया संकट पैदा हो गया। हजारों-लाखों की संख्या में लोग शराब खरीदने के लिए निकल पड़े। चालीस दिन के लॉकआउट के बाद बिक्री शुरू होने और भविष्य के अनिश्चय को देखते हुए इस भीड़ का निकलना अस्वाभाविक नहीं था। लगभग ऐसी ही स्थिति लॉकडाउन शुरू होने के ठीक पहले जरूरी वस्तुओं के बाजारों की थी। मार्च के अंतिम सप्ताह में दिल्ली में प्रवासी मजदूरों के बाहर निकल आने से भी ऐसी ही स्थिति पैदा हुई थी। अनिश्चय और भ्रामक सूचनाओं के कारण ऐसी अफरातफरी जन्म लेती है। प्रवासी मजदूरों की परेशानी और सामान्य उपभोक्ताओं की घरेलू सामान की खरीदारी समझ में आती है, शराबियों की अफरातफरी का मतलब क्या है?

Monday, May 4, 2020

कब बनेगी सामाजिक बीमारियों की वैक्सीन?


इक्कीसवीं सदी के दूसरे दशक के अंत और तीसरे दशक की शुरुआत में ऐसे दौर में कोरोना वायरस ने दस्तक दी है, जब दुनिया अपनी तकनीकी उपलब्धियों पर इतरा रही है। इतराना शब्द ज्यादा कठोर लगता हो, तो कहा जा सकता है कि वह अपने ऐशो-आराम के चक्कर में प्रकृति की उपेक्षा कर रही है। कोरोना प्रसंग ने मनुष्य जाति के विकास और प्रकृति के साथ उसके अंतर्विरोधों को एकबारगी उघाड़ा है। इस घटनाक्रम में सकारात्मक और नकारात्मक दोनों प्रकार के संदेश छिपे हैं।
कोरोना के अचानक हुए आक्रमण के करीब साढ़े तीन महीने के भीतर दुनिया के वैज्ञानिकों ने मनुष्य जाति की रक्षा के उपकरणों को खोजना शुरू कर दिया है। इसमें उन्हें सफलता भी मिली है, वहीं वैश्विक सुरक्षाकी एक नई अवधारणा सामने आ रही है, जिसका संदेश है कि इनसान की सुरक्षा के लिए एटम बमों और मिसाइलों से ज्यादा महत्वपूर्ण हैं वैक्सीन और औषधियाँ। और उससे भी ज्यादा जरूरी है प्रकृति के साथ तादात्म्य बनाकर जीने की शैली, जिसे हम भूलते जा रहे हैं।