कर्नाटक के चुनाव ने 2019 के लोकसभा चुनाव के
नगाड़े बजा दिए हैं. बुधवार को बेंगलुरु के कांतिवीरा स्टेडियम में होने वाला
समारोह एक प्रकार से बीजेपी-विरोधी मोर्चे का उद्घाटन समारोह होगा. एचडी कुमारस्वामी
ने समारोह में राहुल गांधी, सोनिया गांधी, ममता बनर्जी, शरद पवार, नवीन पटनायक, चंद्रबाबू नायडू, के चंद्रशेखर राव, मायावती, अखिलेश यादव, तेजस्वी यादव, एमके स्टालिन, अजित सिंह जैसे तमाम
राजनेताओं को बुलावा भेजा है. इसमें शायद शिवसेना भी शामिल होगी, जो औपचारिक रूप
से एनडीए के साथ है. समारोह में शिरकत मात्र से गठबंधन नहीं बनेगा, पर ‘मूमेंटम’ जरूर बनेगा.
Tuesday, May 22, 2018
Sunday, May 20, 2018
कर्नाटक में हासिल क्या हुआ?
येदियुरप्पा की पराजय के बाद सवाल है कि क्या
कर्नाटक-चुनाव की तार्किक परिणति यही थी? एचडी कुमारस्वामी की सरकार बन जाने के बाद क्या
मान लिया जाए कि कर्नाटक की जनता उन्हें राज्य की सत्ता सौंपना चाहती थी? इस सवाल
का जवाब मिलने में कुछ समय लगेगा, क्योंकि राजनीति में तात्कालिक परिणाम ही अंतिम नहीं
होते।
बीजेपी की दृष्टि से देखें तो कांग्रेस और
जेडीएस का गठबंधन अपवित्र है। येदियुरप्पा ने कांग्रेस और जेडीएस के विधायकों से
अंतरात्मा की आवाज पर समर्थन माँगा था, जिसमें विफल रहने के बाद उन्होंने इस्तीफा
दे दिया। उधर कांग्रेस-जेडीएस के नज़रिए से देखें, तो दो धर्मनिरपेक्ष दलों ने
साम्प्रदायिक भाजपा को रोकने के लिए गठबंधन किया। यह राजनीति अब से लेकर 2019 के
चुनाव तक चलेगी। बीजेपी के विरोधी दल एक साथ आएंगे।
उपरोक्त दोनों दृष्टिकोणों के अंतर्विरोध हैं। बीजेपी
का पास स्पष्ट बहुमत नहीं था। निर्दलीयों और अन्य दलों के सदस्यों की संख्या इतनी
नहीं थी कि बहुमत बन पाता। ऐसे में सरकार बनाने का दावा करने की कोई जरूरत नहीं
थी। अंतरात्मा की जिस आवाज पर वे कांग्रेस और जेडीएस के विधायकों को तोड़ने की
उम्मीद कर रहे थे, वह संविधान-विरोधी है। संविधान की दसवीं अनुसूची का वह उल्लंघन
होता। दल-बदल कानून अब ऐसी तोड़-फोड़ की इजाजत नहीं देता। कांग्रेस और जेडीएस ने
समझौता कर लिया था, तो राज्यपाल को उन्हें ही बुलाना चाहिए था। बेशक अपने
विवेकाधीन अधिकार के अंतर्गत वे सबसे बड़े दल को भी बुला सकते हैं, पर येदियुरप्पा
सरकार के बहुमत पाने की कोई सम्भावना थी ही नहीं। ऐसे में सुप्रीम कोर्ट का
हस्तक्षेप सही हुआ।
कर्नाटक के बहाने राज्यपाल, स्पीकर और सुप्रीम
कोर्ट की भूमिकाओं को लेकर, जो विचार-विमर्श शुरू हुआ है, वह इस पूरे घटनाक्रम की
उपलब्धि है। कांग्रेस की याचिका पर अदालत में अब सुनवाई होगी और सम्भव है कि ऐसी
परिस्थिति में राज्यपालों के पास उपलब्ध विकल्पों पर रोशनी पड़ेगी कि संविधान की
मंशा क्या है। हमने ब्रिटिश संसदीय पद्धति को अपनाया जरूर है, पर उसकी भावना को
भूल चुके हैं। राज्यपालों और पीठासीन अधिकारियों की राजनीतिक भूमिका को लेकर सवाल
उठते रहे हैं। कर्नाटक के राज्यपाल पहले नहीं हैं, जिनपर राजनीतिक तरफदारी का आरोप
लगा है। सन 1952 से लेकर अबतक अनेक मौके आए हैं, जब यह भूमिका खुलकर सामने आई है।
विधायिका के पीठासीन अधिकारियों के मामले में
आदर्श स्थिति यह होती है कि वे अपना दल छोड़ें। आदर्श संसदीय व्यवस्था में जब
स्पीकर चुनाव लड़े तो किसी राजनीतिक दल को उसके खिलाफ प्रत्याशी खड़ा नहीं करना
चाहिए। हमारी संसद में चर्चा के दौरान जो अराजकता होती है, वह भी आदर्शों से मेल
नहीं खाती। कर्नाटक प्रकरण हमें इन सवालों पर विचार करने का मौका दे रहा है।
कर्नाटक का यह चुनाव सारे देश की निगाहों में था। इसके पहले शायद ही दक्षिण के
किसी राज्य की राजनीति पर पूरे देश की इतनी गहरी निगाहें रहीं हों। इस चुनाव की यह
उपलब्धि है। मेरा यह आलेख दैनिक हरिभूमि में प्रकाशित हुआ है। इसका यह इंट्रो मैंने 20 मई की सुबह लिखा है। इस प्रसंग को ज्यादा बड़े फलक पर देखने का मौका अब आएगा।
हमें कोशिश करनी चाहिए कि यथा सम्भव तटस्थ रहकर
देखें कि इस चुनाव में हमने क्या खोया और क्या पाया। राजनीतिक शब्दावली में हमारे
यहाँ काफी प्रचलित शब्द है जनादेश। तो कर्नाटक में जनादेश क्या था? कौन जीता और
कौन हारा? चूंकि किसी को स्पष्ट बहुमत नहीं मिला, तो किसी की जीत
नहीं है। पर क्या हार भी किसी की नहीं हुई? चुनाव में विजेता की
चर्चा होती है, हारने वाले की चर्चा भी तो होनी चाहिए। गठबंधन की सरकार बनी, पर यह
चुनाव बाद का गठबंधन है।
Wednesday, May 16, 2018
हाथी निकला, पूँछ रह गई
टी-20 क्रिकेट की तरह आखिरी ओवर में कहानी बदल गई. कर्नाटक के चुनाव
परिणाम जब क्लाइमैक्स पर पहुँच रहे थे तभी उलट-फेर हो गया. बीजेपी सबसे बड़ी
पार्टी बनने में तो सफल हो गई, पर बहुमत से पाँच छह सीटें दूर रहने की वजह से पिछड़
गई. उसके पास कोई विकल्प नहीं बचा. पहले से अनुमान था जेडीएस ‘किंगमेकर’ बनेगी. अब कोई पेच पैदा नहीं हुआ तो एचडी कुमारस्वामी के नेतृत्व में
कांग्रेस के समर्थन से सरकार बनेगी. कुमारस्वामी ने अपना दावा भी पेश कर दिया है. उधर
येदियुरप्पा का भी दावा है. राज्यपाल के पास सबसे बड़े दल को बुलाने का विकल्प है,
पर कुमारस्वामी बहुमत दिखा रहे हैं, तो सम्भव है कि उन्हें ही बुलाया जाए.
फिलहाल बैकफुट पर है भाजपा
कर्नाटक चुनाव ने एक साथ कई विसंगतियों को जन्म दिया है। कांग्रेस
पार्टी चुनाव हारने के बाद सत्ता पर काबिज रहना चाहती है। तीसरे नम्बर पर रहने के
बाद भी एचडी कुमारस्वामी अपने सिर पर ताज चाहते हैं। जैसे कभी मधु कोड़ा थे, उसी
तरह वे भी कांग्रेस के रहमोकरम पर मुख्यमंत्री पद की शोभा बढ़ाएंगे। कांग्रेस बाहर
से राज करेगी या भीतर से, यह सब अभी तय नहीं है।
मंगलवार की दोपहर लगने लगा कि बीजेपी न केवल सबसे बड़ी पार्टी बनकर
उभरी है, बल्कि बहुमत के करीब पहुँच रही है. तभी सस्पेंस थ्रिलर की तरह कहानी में
पेच आने लगा। उधर कांग्रेस हाईकमान ने बड़ी तेजी से कुमारस्वामी को बिना शर्त
समर्थन देने का फैसला किया। सोनिया गांधी ने एचडी देवेगौडा से बात की और शाम होने
से पहले राज्यपाल के नाम चिट्ठी भेज दी गई। इस तेज घटनाक्रम के कारण बीजेपी बैकफुट
पर आ गई।
Sunday, May 13, 2018
राहुल गांधी का पहला इम्तहान
कर्नाटक की रैलियों में नरेन्द्र मोदी ने कहा कि इस चुनाव के बाद
कांग्रेस ‘पीपीपी (पंजाब,
पुदुच्चेरी और परिवार) पार्टी’ बनकर रह जाएगी। उधर राहुल गांधी ने कहा, हम मुद्दों पर चुनाव लड़ रहे हैं और राज्य
में अपनी जीत को लेकर आश्वस्त हैं। दो दिन बाद पता चलेगा कि किसकी बात सच है।
बीजेपी के मुकाबले यह चुनाव कांग्रेस के लिए न केवल प्रतिष्ठा का बल्कि जीवन-मरण
का सवाल है। कांग्रेस को अपनी 2013 की जीत को बरकरार रख पाई, तभी साल के अंत में
चार राज्यों के विधानसभा चुनाव में सिर उठाकर खड़ी हो सकेगी।
2014 के लोकसभा चुनाव
के बाद से कांग्रेस के सिर पर पराजय का साया है। बेशक उसने इस बीच पंजाब में जीत
हासिल की है, पर एक दर्जन से ज्यादा राज्यों से हाथ धोया है। सन 2015 में बिहार के
महागठबंधन को चुनाव में मिली सफलता पिछले साल हाथ से जाती रही। उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी के साथ
गठबंधन के बावजूद पार्टी सात सीटों पर सिमट गई। पिछले साल गुजरात के चुनाव में
पार्टी तैयारी से उतरी थी, पर सफलता नहीं मिली।
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