Sunday, April 15, 2018

न्याय-व्यवस्था की चुनौतियाँ

अक्सर कहा जाता है कि भारत में न्यायपालिका का ही आखिरी सहारा है। पर पिछले कुछ समय से हमारी न्यायपालिका को लेकर उसके भीतर और बाहर से सवाल उठने लगे हैं। उम्मीदों के साथ कई तरह के अंदेशे हैं। कई बार लगता है कि सरकार नहीं सुप्रीम कोर्ट के हाथ में देश की बागडोर है। पर न्यायिक जवाबदेही को लेकर हमारी व्यवस्था पारदर्शी नहीं बन पाई है। लम्बे विचार-विमर्श के बाद सन 2014 में संसद ने जजों की नियुक्ति के लिए कॉलेजियम की व्यवस्था के स्थान पर न्यायिक नियुक्ति आयोग या एनजेएसी कानून को बनाया, जिसे 2015 में सुप्रीम कोर्ट ने रद्द कर दिया।

इसमें दो राय नहीं कि न्यायपालिका को स्वतंत्र होना चाहिए और उसे सरकारी दबाव से बाहर रखने की जरूरत है। संविधान ने कानून बनाने और न्यायिक नियुक्तियों के अधिकार विधायिका और कार्यपालिका को दिए हैं। पर, न्यायपालिका जजों की नियुक्ति अपने हाथ में रखना चाहती है। दोनों बातों का व्यावहारिक निहितार्थ है कार्यपालिका का निर्द्वंद होना। यह भी ठीक नहीं है। घूम-फिरकर सारी बातें राजनीति पर आती हैं, जिसकी गैर-जिम्मेदारी भी जाहिर है। सांविधानिक व्यवस्था और पारदर्शिता के मसलों पर जबतक राजनीतिक सर्वानुमति नहीं होगी, हालात सुधरेंगे नहीं। 

Sunday, April 8, 2018

मज़ाक तो न बने संसदीय-कर्म

लोकतांत्रिक गतिविधियों में दो सबसे महत्वपूर्ण कार्य हैं, जिनके कारण यह व्यवस्था सफल है। एक, चुनाव और दूसरे संसदीय कर्म। जनता की भागीदारी सुनिश्चित करने और देश के सामने उपस्थित सवालों के जवाब खोजने में दोनों की जबर्दस्त भूमिका है। दुर्भाग्य से दोनों के सामने सवालिया निशान खड़े हो रहे हैं। चुनाव के दौरान सामाजिक-जीवन की विसंगतियाँ भड़काई जाने लगी हैं। लोकतंत्र की तमाम नकारात्मक भूमिकाएं उभर रहीं हैं। समाज को तोड़ने का काम चुनाव करने लगे हैं।
उधर संसदीय-कर्म को लेकर जो सवाल उभरे हैं, वे उससे भी ज्यादा निराश कर रहे हैं। संसदीय गतिरोधों के कारण जनता का विश्वास अपनी व्यवस्था पर से उठ रहा है। सामान्य नागरिक को समझ में नहीं आ रहा है कि इस सर्वोच्च लोकतांत्रिक मंच पर यह सब क्या होने लगा है? इस हफ्ते संसद के बजट सत्र का समापन बेहद निराशाजनक स्थितियों में हुआ है। पिछले 18 वर्षों का यह न्यूनतम उत्पादक सत्र था। इस सत्र के दौरान लोकसभा ने अपने मुकर्रर समय के 21 फीसदी और राज्यसभा ने 27 फीसदी समय में काम किया। बाकी वक्त बरबाद हो गया।

Sunday, April 1, 2018

राजनीति ने नागरिक को ‘डेटा पॉइंट’ बनाया

पिछले साल जब सुप्रीम कोर्ट ने व्यक्ति की निजता को उसका मौलिक अधिकार माना, तबसे हम निजी सूचनाओं को लेकर चौकन्ने हैं। परनाला सबसे पहले आधारपर गिरा, जिसके राजनीतिक संदर्भ ज्यादा थे। सामान्य व्यक्ति अब भी निजता के अधिकार के बारे में ज्यादा नहीं जानता। वह डेटा पॉइंट बन गया है, जबकि उसे जागरूक नागरिक बनना है। दूसरी तरफ हमारे वंचित और साधनहीन नागरिक अपनी अस्तित्व की रक्षा में ऐसे फँसे हैं कि ये सब बातें विलासिता की वस्तु लगती हैं। बहरहाल कैम्ब्रिज एनालिटिका के विसिल ब्लोवर क्रिस्टोफर वायली ने ब्रिटिश संसदीय समिति को जो जानकारियाँ दी हैं, उनके भारतीय निहितार्थों पर विचार करना चाहिए। विचार यह भी करना चाहिए कि हमारे विचारों और भावनाओं का दोहन कितने तरीकों से किया जा सकता है और इसकी सीमा क्या है। एक तरफ हम मशीनों में कृत्रिम मेधा भर रहे हैं और दूसरी तरफ इंसानों के मन को मशीनों की तरह काबू में करने की कोशिश कर रहे हैं। 

इस मामले के तीन अलग-अलग पहलू हैं, जिन्हें एकसाथ देखने की कोशिश संशय पैदा कर रही है। पिछले कुछ समय से हम आधार को लेकर बहस कर रहे हैं। आधार बुनियादी तौर पर एक पहचान संख्या है, जिसका इस्तेमाल नागरिक को राज्य की तरफ से मिलने वाली सुविधाएं पहुँचाने के लिए किया जाना था, पर अब दूसरी सेवाओं के लिए भी इस्तेमाल होने लगा है। इसमें दी गई सूचनाएं लीक हुईं या उनकी रक्षा का इंतजाम इतना मामूली था कि उन्हें लीक करके साबित किया गया कि जानकारियों पर डाका डाला जा रहा है। चूंकि व्यक्तिगत सूचनाओं का व्यावसायिक इस्तेमाल होता है, इसलिए आधार विवाद का विषय बना और अभी उसका मामला सुप्रीम कोर्ट के सामने है। 

Saturday, March 31, 2018

कांग्रेस है कहाँ, एकता-चिंतन के केन्द्र में या परिधि में?


बीजेपी-विरोधी दलों की लामबंदी के तीन आयाम एकसाथ उभरे हैं। एक, संसद में पेश विश्वास प्रस्ताव, दूसरा सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा के खिलाफ महाभियोग लाने की मुहिम और तीसरा, लोकसभा चुनाव से पहले विरोधी दलों का मोर्चा बनाने की कोशिश। इन तीनों परिघटनाओं को कांग्रेसी नेतृत्व की दरकार है। अभी साफ नहीं है कि कांग्रेस इन परिघटनाओं का संचालन कर रही है या बाहरी ताकतें कांग्रेस को चलाने की कोशिश कर रही हैं? सवाल यह भी है कि क्या देश की राजनीति ने बीजेपी और शेष के फॉर्मूले को मंजूर कर लिया है?

इस मुहिम के केन्द्र में कांग्रेस के होने का एक मतलब होगा। और परिधि में रहने का मतलब दूसरा होगा। संयोग से इसी दौर में कांग्रेस के भीतर बदलाव चल रहा है। राहुल गांधी कांग्रेस को बदलने के संकल्प के साथ खड़े हुए हैं, पर उन्होंने अभी तक नई कार्यसमिति की घोषणा नहीं की है। विरोधी-एकता की मुहिम के केन्द्र में कांग्रेस को लाने के लिए जरूरी होगा कि उसका मजबूत संगठन जल्द से जल्द तैयार होकर खड़ा हो। संसद का यह सत्र खत्म होने वाला है। राजनीतिक दृष्टि से इस दौरान कोई उल्लेखनीय बात हुई। यह शून्य वैचारिक संकट की ओर इशारा कर रहा है।  

ममता-सोनिया संवाद

बुधवार को जब ममता बनर्जी ने दिल्ली में सोनिया गांधी से मुलाकात की, तो इस बात की सम्भावनाएं बढ़ गईं कि विरोधी दलों का महागठबंधन बनाया जा सकता है। अभी तक विरोधी एकता के दो ध्रुव नजर आ रहे थे। अब एक ध्रुव की उम्मीदें पैदा होने लगी हैं। पर, ममता-सोनिया संवाद ने जितनी उम्मीदें जगाईं, उतने सवाल भी खड़े किए हैं। यूपीए की ओर से पिछले कुछ समय से विरोधी-एकता की जो भी कोशिशें हुईं हैं, उनमें तृणमूल कांग्रेस के प्रतिनिधि शामिल हुए हैं, पर ममता बनर्जी उनमें नहीं आईं। अब ममता खुद सोनिया के दरवाजे पर आईं और भाजपा-विरोधी फ्रंट में साथ देने का न्योता दिया। ममता के मन में भी द्वंद्व है क्या?

Sunday, March 25, 2018

पत्रकारिता माने मछली-बाजार नहीं

पिछले हफ्ते सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश जस्टिस दीपक मिश्रा ने जय शाह मामले की सुनवाई के दौरान कहा कि मीडिया को और ज्यादा जिम्मेदार होने की जरूरत है। उन्होंने अपनी बात को स्पष्ट करते हुए कहा, हम प्रेस की आवाज को नहीं दबा रहे हैं, लेकिन कभी-कभी पत्रकार कुछ ऐसी बातें लिखते हैं जो पूर्ण रूप से अदालत की अवमानना होती हैं। उन्होंने यह भी कहा कि कुछ उच्च पदों पर बैठे पत्रकार कुछ भी लिख सकते हैं। क्या यह वाकई पत्रकारिता है? हम हमेशा प्रेस की आजादी के पक्षधर रहे हैं, लेकिन किसी के बारे में कुछ भी बोल देना और कुछ भी लिख देना गलत है। इसकी भी एक सीमा होती है।