प्रणब मुखर्जी के बारे में निर्विवाद रूप से कहा जा सकता है कि स्वतंत्रता के बाद वे देश के सर्वश्रेष्ठ राजपुरुषों (स्टेट्समैन) में एक थे। विलक्षण राजनेता, योग्य प्रशासक, संविधान के ज्ञाता और श्रेष्ठ अध्येता के रूप में उनकी गिनती की जाएगी। उनका कद किसी भी राजनेता से ज्यादा बड़ा था, और उन्होंने बार-बार इस बात को रेखांकित किया कि राजनीति को संकीर्ण दायरे के बाहर निकल कर आना चाहिए।
बेशक
उन्हें वह नहीं मिला, जिसके वे हकदार थे। व्यावहारिक राजनीति और सांविधानिक मर्यादाओं का
उच्चतम समन्वय उनके व्यक्तित्व में देखा जा सकता है। विसंगतियों से मेल बैठाना
व्यवहारिक राजनीति है। प्रणब मुखर्जी को इस बात का श्रेय मिलना ही चाहिए कि वे
राजनीतिक दृष्टि में सबसे विकट वक्त के राष्ट्रपति बने। वे बुनियादी तौर पर कांग्रेसी
थे, पर
कांग्रेस की कठोरतम प्रतिस्पर्धी बीजेपी की मोदी सरकार के साथ उन्होंने काम किया
और टकराव की नौबत कभी नहीं आने दी।
देश ने उन्हें राष्ट्रपति बनाया और भारत रत्न से सम्मानित भी किया, पर वे प्रधानमंत्री नहीं बन पाए, जिसके वे अधिकारी थे। सामान्य परिस्थितियाँ होती, तो शायद सन 1984 में इंदिरा गांधी की हत्या के बाद ही उन्हें देश की बागडोर मिल जाती, पर कांग्रेस पार्टी ‘परिवार’ को अपनी नियति मान चुकी थी। उस वक्त उन्हें न केवल एक संभावना से वंचित रहना पड़ा हाशिए पर जाना पड़ा और कुछ समय के लिए पार्टी से बाहर भी रहे। सन 1991 में राजीव गांधी के निधन के बाद भी वे इस पद को पाने में वंचित रहे। तीसरा मौका सन 2004 में आया, जब परिवार से बाहर के व्यक्ति को यह पद मिला। तब भी उन्हें वंचित रहना पड़ा।