ममता बनर्जी की छवि तैश में रहने वाली नेता की है।
मूलतः वे स्ट्रीट फाइटर हैं। उन्हें इस बात का श्रेय जाता है कि उन्होंने वाम
मोर्चा के मजबूत गढ़ को गिरा कर दिखा दिया। और यही तथ्य उन्हें लगातार उत्तेजित
बनाकर रखता है। वाम मोर्चा अब सत्ता से बाहर है, पर ‘ममता स्टाइल ऑफ पॉलिटिक्स’ की साख बनाए रखने के लिए उन्हें
कुछ न कुछ करते रहना पड़ता है। केंद्र सरकार के नोटबंदी कार्यक्रम ने उन्हें इसका मौका
दिया है।
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Sunday, December 4, 2016
Sunday, November 20, 2016
नोटबंदी साध्य नहीं, साधन है
नरेन्द्र मोदी ने 8 नवम्बर के
संदेश और उसके बाद के भाषणों में इस बात को कहा है कि सार्वजनिक जीवन में
भ्रष्टाचार के खिलाफ मैं बड़ी लड़ाई लड़ना चाहता हूँ। बहुत से लोगों को उनकी बात
पर यकीन नहीं है, पर जिन्हें यकीन है उनकी तादाद भी कम नहीं है। मोदी ने कहा है कि
मुझे कम से कम 50 दिन दो। भारतीय जनता के मूड को देखें तो वह उन्हें पचास दिन नहीं
पाँच साल देने को तैयार है, बशर्ते उस काम को पूरा करें, जिसका वादा है। सन 1971
और 1977 में देश की जनता ने सत्ताधारियों को ताकत देने में देर नहीं लगाई थी।
नोटबंदी की घोषणा होने के बाद से कांग्रेस सहित ज्यादातर
विरोधी दलों ने आंदोलन का रुख अख्तियार किया है। वे जनता की दिक्कतों को रेखांकित
कर रहे हैं। भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई लड़ने वाले अरविन्द केजरीवाल भी इस फैसले
के खिलाफ हैं। उनका कहना है कि यह फैसला खुद में बड़ा स्कैम है। कहा यह भी जा रहा
है कि बीजेपी ने नोटबंदी की चाल अपने राजनीतिक प्रतिस्पर्धियों को यूपी में मात
देने के लिए चली है। बीजेपी ने अपना इंतजाम करने के बाद विरोधियों को चौपट कर दिया
है।
Sunday, November 13, 2016
काले धन पर वार तो यह है
काफी लोगों को समझ में नहीं आ रहा
है कि नोटों को बदल देने से काला धन कैसे बाहर आ जाएगा। अक्सर हम काले धन का मतलब
भी नहीं जानते हैं। कुछ लोगों को लगता है कि बड़ी मात्रा में किसी के पास कैश हो तो वह काला धन है। कैश का
मतलब हमेशा काला धन नहीं है। पर प्रायः कैश के रूप में काला धन होता है। यदि नकदी
का विवरण किसी के पास है और वह व्यक्ति उसमें से उपयुक्त राशि टैक्स वगैरह के रूप
में जमा करता है तो वह काला धन नहीं है।
फिलहाल दुनिया में समझ यह बन रही है कि लेन-देन को नकदी के बजाय औपचारिक रिकॉर्डेड तरीके से करना सम्भव हो तो 'काले धन' का बनना कम हो जाएगा। इनफॉर्मेशन तकनीक ने इसे सम्भव बना दिया है। भारत में गरीबी, अशिक्षा और तकनीकी नेटवर्क के अधूरे विस्तार के कारण दिक्कतें हैं। उन्हें दूर करने की कोशिश तो करनी ही होगी।
Sunday, November 6, 2016
उम्मीद की किरण है जीएसटी
लम्बे अरसे से टलती
जा रही जीएसटी व्यवस्था आखिरकार शक्ल लेने लगी है। पिछले गुरुवार को जीएसटी कौंसिल
ने आम सहमति से टैक्स की चार दरों पर सहमति कायम करके एक बड़ा मुकाम हासिल कर लिया
है। अब जो सबसे जटिल मसला है वह यह कि इस राजस्व के वितरण का फॉर्मूला क्या होगा।
चूंकि इसे 1 अप्रैल 2017 से लागू होना है, इसलिए यह काम जल्द से जल्द निपटाना
होगा। चूंकि इस साल बजट भी अपेक्षाकृत जल्दी आ रहा है, इसलिए यह उत्सुकता बनी है
कि यह सब कैसे होगा।
Monday, October 31, 2016
सपा के तम्बू में वर्चस्व का संग्राम
कुछ दिन पहले तक समाजवादी पार्टी पर वंशवाद का आरोप था। अब
उसके भीतर प्रति-वंशवाद जन्म ले रहा है। ‘बारह दूने आठ’ का यह नया पहाड़ा वंशवाद का बाईप्रोडक्ट है। सवाल उत्तराधिकार का है।
समझना यह होगा कि सन 2012 में जब मुलायम सिंह ने अखिलेश को अपना उत्तराधिकारी
बनाया था तब वजह क्या थी और आज उन्हें अपने किए पर पछतावा क्यों है?
Sunday, October 23, 2016
रीता नहीं, राहुल की फिक्र कीजिए
रीता बहुगुणा जोशी के कांग्रेस से पलायन का निहितार्थ
क्या है? एक विशेषज्ञ का कहना है कि इससे न तो भाजपा को फायदा होगा और न कांग्रेस को
कोई नुकसान होगा। केवल बहुगुणा परिवार को नुकसान होगा। उनकी मान्यता है कि विजय
बहुगुणा और रीता बहुगुणा का राजनीतिक प्रभाव बहुत ज्यादा नहीं है। यह प्रभाव है या
नहीं इसका पता उत्तराखंड और उत्तर प्रदेश के चुनावों में लगेगा। मेरी समझ से
फिलहाल इस परिघटना को राहुल गांधी के कमजोर होते नेतृत्व के संदर्भ में देखना
चाहिए। पार्टी छोड़ने के बाद रीता बहुगुणा ने कहा, ‘कांग्रेस को विचार करना
चाहिए कि उसके बड़े-बड़े नेता नाराज़ क्यों हैं? क्या कमी है पार्टी में? क्या कांग्रेस की
कार्यशैली में बदलाव आ गया है?’ यह बात केवल एक नेता की
नहीं है। समय बताएगा कि कितने और नेता इस बात को कहने वाले हैं।
Sunday, October 16, 2016
पर्सनल लॉ : बहस है, युद्ध नहीं
‘तीन बार बोलकर तलाक’ देने और समान नागरिक संहिता के मामले में बहस के दो पहलू
हैं। एक पहलू भाजपाई है। भाजपा की राजनीति ‘मुस्लिम तुष्टीकरण’ की अवधारणा पर टिकी है। सन 1985 के शाहबानो मामले में
केन्द्र सरकार के रुख से ज़ाहिर हुआ कि सरकार कठोर फैसले नहीं करेगी। सन 1984 से
1989 के लोकसभा चुनाव के बीच बीजेपी की संसद में उपस्थिति बढ़ाने में मंदिर आंदोलन
की भूमिका जरूर थी, पर उस मनोदशा को बढ़ाने में जिन दूसरी परिघटनाओं का हाथ था,
उनमें एक मामला शाहबानो का भी था।
भारत में साम्प्रदायिक विभाजन
आजादी के करीब सौ साल पहले होने लगा था। पर चुनाव की राजनीति स्वतंत्रता के बाद की
देन है। राजनीतिक दलों के लिए ‘वोट’ सबसे बड़ी पूँजी है। वे
वोट के दीवाने हैं और उसके लिए संकीर्ण विचार को भी प्रगतिशील लिफाफे में रखकर पेश
करते हैं। सामाजिक बदलाव के लिए उनकी जिम्मेदारी नहीं है। बदलाव आसानी से होते भी नहीं।
उनकी प्रतिक्रिया होती है। उदाहरण दिए जाते हैं कि हमारे साथ ऐसा और उसके साथ वैसा
क्यों? हमारी राज-व्यवस्था धर्म निरपेक्ष है, पर यह धर्म-निरपेक्षता धार्मिक
संवेदनाओं का सम्मान करती है। इसी वजह से इसके अंतर्विरोध पैदा होते हैं। मंदिर
आंदोलन ने एक दूसरे किस्म की संवेदनशीलता को बढ़ावा दिया। विश्व हिन्दू परिषद और
शिवसेना जैसे संगठनों ने इसे हवा दी और नफरत की राजनीति को बढ़ावा दिया। अराजकता किसी एक तरफ से नहीं है।
Sunday, October 9, 2016
‘सर्जिकल स्ट्राइक’ पर सियासत
सेना ने जब ‘सर्जिकल स्ट्राइक’
की घोषणा की थी तो एकबारगी देश के सभी राजनीतिक दलों ने उसका स्वागत किया था। इस
स्वागत के पीछे मजबूरी थी और अनिच्छा भी। मजबूरी यह कि जनमत उसके साथ था। पर परोक्ष रूप से यह मोदी सरकार का समर्थन था, इसलिए अनिच्छा भी थी। भारतीय जनता पार्टी ने संयम बरता होता और इस कार्रवाई को भुनाने की कोशिश नहीं की होती तो शायद विपक्षी प्रहार इतने तीखे नहीं होते। बहरहाल अगले दो-तीन दिन में जाहिर
हो गया कि विपक्ष बीजेपी को उतनी स्पेस नहीं देगा, जितनी वह लेना चाहती है। पहले अरविन्द केजरीवाल ने पहेलीनुमा सवाल फेंका। फिर कांग्रेस के संजय निरूपम
ने सीधे-सीधे कहा, सब फर्जी है। असली है तो प्रमाण दो। पी चिदम्बरम, मनीष तिवारी
और रणदीप सुरजेवाला बोले कि स्ट्राइक तो कांग्रेस-शासन में हुए थे। हमने कभी श्रेय
नहीं लिया। कांग्रेस सरकार
ने इस तरह कभी हल्ला नहीं मचाया। पर धमाका राहुल गांधी ने किया। उन्होंने नरेन्द्र मोदी पर ‘खून की दलाली’
का आरोप जड़ दिया।
इस राजनीतिकरण की जिम्मेदारी बीजेपी पर भी है।
सर्जिकल स्ट्राइक की घोषणा होते ही उत्तर प्रदेश के कुछ शहरों में पोस्टर लगे।
हालांकि पार्टी का कहना है कि यह सेना को दिया गया समर्थन था, जो देश के किसी भी
नागरिक का हक है। पर सच यह है कि पार्टी विधानसभा चुनाव में इसका लाभ उठाना चाहेगी।
कांग्रेस और दूसरे विपक्षी दलों के लिए यह स्थिति असहनीय है। वे बीजेपी के लिए
स्पेस नहीं छोड़ना चाहते। हालांकि अभी यह बहस छोटे दायरे में है, पर बेहतर होगा कि हमारी संसद इन सवालों पर गम्भीरता से विचार करे। बेशक देश की सेना या सरकार कोई भी जनता के सवालों के दायरे से बाहर नहीं है, पर सवाल किस प्रकार के हैं और उनकी भाषा कैसी है यह भी चर्चा का विषय होना चाहिए। साथ ही यह भी देखना होगा कि सामरिक दृष्टि से किन बातों को सार्वजनिक रूप से उजागर किया जा सकता है और किन्हें नहीं किया जा सकता।
Sunday, October 2, 2016
‘सर्जिकल स्ट्राइक’ ने क्या दिया?
विसंगति है कि हम गांधी जयंती के दिन ‘सर्जिकल स्ट्राइक’ की बात कर रहे हैं। पर यह सवाल आज ही पूछा जा सकता
है कि क्या शांति-स्थापना का रास्ता युद्ध से होकर नहीं जाता है? खासतौर से तब जब कोई हथियार लेकर
सिर पर खड़ा हो? गुरुवार 28-29 सितम्बर की रात भारतीय सेना ने नियंत्रण रेखा पार करके आतंकवादियों
के सात लांच पैड पर हमले किए थे। यह प्रिवेंटिव कार्रवाई थी। हमले को रोकने की
पेशबंदी।
Sunday, September 25, 2016
स्टूडियो उन्माद से हासिल कुछ नहीं होगा
पाकिस्तानी कार्टून |
मीडिया का सबसे पसंदीदा विषय भारत-पाक तनाव है। जम्मू-कश्मीर के उड़ी इलाके में
फौजी कैम्प पर हुए आतंकवादी हमले की खबर आई नहीं कि दिनभर चैनलों पर तय होने लगा
कि भारत को करना क्या चाहिए। डिप्लोमैटिक दबाव डालें या फौजी हमला करें?
सिंधु संधि को रद्द कर दें? नदियों का रुख बदल दें? एक पूर्व जनरल ने सलाह
दी कि अपने फिदायीन दस्ते बनाएं। कुछ मीडिया नरेशों का सुझाव था कि जैसे म्यांमार
में नगा विद्रोहियों पर धावा बोला गया था वैसे ही लश्करे तैयबा के कैम्पों पर हमला
करना चाहिए।
Sunday, September 18, 2016
सवाल तो अब खड़े होंगे
देश के सबसे बड़े समाजवादी परिवार की कलह फिलहाल दबा
दी गई है, पर अपने पीछे कुछ सवाल छोड़ गई है। अखिलेश और शिवपाल यादव ने इस विवाद
को सार्वजनिक रूप से और ज्यादा न बढ़ाने का फैसला करके कलह पर पर्दा डाल दिया है,
पर किसी न किसी सतह पर विवाद कायम रहेगा। मुलायम सिंह यादव ने अखिलेश की महत्वाकांक्षा की आलोचना की है। उन्होंने शिवपाल को मंत्री के रूप में प्रतिष्ठित करने के साथ-साथ पार्टी का अध्यक्ष पद भी सौंपा है। पर एक इंटरव्यू में यह भी कहा है कि रामगोपाल यादव पार्टी में नम्बर 2 हैं। बहरहाल सपा के भीतर जो सवाल उठ रहे हैं वे केवल
समाजवादी पार्टी ही नहीं उन सभी पार्टियों के भीतर उठेंगे, जो व्यक्ति केन्द्रित
हैं। देश के ज्यादातर दल इस रोग के शिकार हैं।
Sunday, September 11, 2016
‘उड़न-खटोले’ पर कांग्रेस
खटिया खड़ी करना मुहावरा है। कांग्रेस पार्टी ने खटिया पे
चर्चा शुरू करके राजनीति में अपनी वापसी की कोशिशें शुरू की हैं। राहुल गांधी अपने
जीवन की सबसे लम्बी यात्रा पर निकले हैं। पार्टी के लिए यह दौर बेहद महत्वपूर्ण
है। उसे एक तरफ संगठनात्मक पुनर्गठन के काम को पूरा करना है और दूसरी ओर राष्ट्रीय
राजनीति में अपनी मौजूदगी को लगातार बनाए रखना है। कांग्रेस फिलहाल राष्ट्रीय
पहचान के लिए संघर्ष कर रही है। पर क्षेत्रीय आधार के बगैर वह अपनी राष्ट्रीय
पहचान किस तरह बचाएगी?
Sunday, August 28, 2016
कश्मीरी अराजकता पर काबू जरूरी
पाकिस्तान के प्रधानमंत्री नवाज शरीफ ने 22 सांसदों को अपने देश का दूत बनाकर दुनिया के देशों में भेजने का फैसला किया है जो कश्मीर के मामले में पाकिस्तान का पक्ष रखेंगे। हालांकि चीन को छोड़कर दुनिया में ऐसे देश कम बचे हैं जिन्हें पाकिस्तान पर विश्वास हो, पर मानवाधिकार के सवालों पर दुनिया के अनेक देश ऐसे हैं, जो इस प्रचार से प्रभावित हो सकते हैं। पिछले एक साल से कश्मीर में कुछ न कुछ हो रहा है। हमारी सरकार ने बहुत सी बातों की अनदेखी है। कश्मीर में बीजेपी-पीडीपी सरकार को इस बीच जो भी मौका मिला उसका फायदा उठाने के बजाए दोनों पार्टियाँ आपसी विवादों में उलझी रहीं।
जरूरत इस बात की है कश्मीर की अराजकता को जल्द से जल्द काबू में किया जाए। इसके लिए कश्मीरी आंदोलन से जुड़े नेताओं से संवाद की जरूरत भी होगी। यह संवाद अनौपचारिक रूप से ही होगा। सन 2002 में ही स्पष्ट हो गया था कि हुर्रियत के सभी पक्ष एक जैसा नहीं सोचते। जम्मू-कश्मीर में बीजेपी-पीडीपी ने इस पक्ष की उपेक्षा करके गलती की है, जबकि इन दोनों की पहल से ही अब तक का सबसे गम्भीर संवाद कश्मीर में हुआ था।
Sunday, August 14, 2016
सवाल उतने नहीं हैं, जवाब जितने हैं
आज़ादी के 69 साल
बहुत कड़ा है सफर, साथ चलो
जिस समय देश 70 वाँ स्वतंत्रता
दिवस मना रहा है, उस समय दिल्ली पर कुछ नापाक इरादों की नजरें गड़ी हैं। हवा में
अंदेशा तैर रहा है कि संदिग्ध आतंकी दिल्ली पुलिस और पैरा-मिलिट्री फोर्स को
निशाना बना सकते हैं। हमारे स्वतंत्रता दिवस पर कुछ लोग ‘काला दिन’ मना रहे हैं। उन्हें हमारी ‘आज़ादी’ से शिकायत है। हमारे
संविधान से नाराजगी है। वे भी ‘आज़ादी’ की माँग कर रहे हैं।
यह ‘आज़ादी’ हमारे खिलाफ है। क्या अन्याय कर
दिया हमने उनके साथ? यह बुनियादी मान्यताओं के बीच टकराव है। क्या हम जानते हैं कि हमारी बुनियादी
मान्यताएं क्या हैं? और क्या हम उनके
प्रतिबद्ध है?
Sunday, August 7, 2016
दिल्ली को लेकर इतना हंगामा क्यों है?
दिल्ली की केजरीवाल सरकार जिस मुद्दे को अपनी राजनीति का केन्द्रीय विषय बनाकर
चल रही है उसे तार्किक परिणति तक पहुँचने में अभी कुछ देर है। केन्द्र के साथ उसका
टकराव अभी खत्म होने वाला नहीं है। इस बीच सुप्रीम कोर्ट से अंतरिम राहत नहीं मिली
तो उनकी राजनीति कुछ कमजोर जरूर पड़ेगी। हाईकोर्ट के फैसले के बाद ‘आप’ नेता आशुतोष ने एक
वैबसाइट पर लिखा है, ‘हाईकोर्ट के फैसले ने
दिल्ली के नागरिकों की उम्मीदों को तोड़ा है, जिन्होंने आम आदमी पार्टी को 70 में
से 67 सीटें दीं।...यानी जनता द्वारा चुने गए मुख्यमंत्री का कोई मतलब नहीं है।...हम
दिल्ली में चुनाव कराते ही क्यों हैं? यदि सारी पावर एलजी के पास ही हैं तो चुनाव का तमाशा क्यों?’
Sunday, July 31, 2016
केजरीवाल की बचकाना राजनीति
अरविंद केजरीवाल सायास या अनायास खबरों में रहते हैं। कुछ
बोलें तब और खामोश रहें तब भी। नरेन्द्र मोदी के खिलाफ आग लगाने वाले बयान देकर वे
दस दिन की खामोशी में चले गए हैं। शनिवार को उन्होंने नागपुर के अध्यात्म केंद्र
में 10 दिन की विपश्यना के लिए दाखिला लिया है, जहाँ वे अखबार, टीवी या मीडिया के संपर्क में नहीं रहेंगे। हो सकता है कि वे
सम्पर्क में नहीं रहें, पर यकीन नहीं आता कि उनका मन मुख्यधारा की राजनीति से
असम्पृक्त होगा।
Sunday, July 24, 2016
कश्मीरी नौजवानों को कोई भड़का भी तो रहा है
कश्मीर मामले को पाकिस्तान
अंतरराष्ट्रीय फोरमों पर उठाने की तैयारी कर रहा है। वहाँ 20 जुलाई को जो ‘काला दिवस’ मनाया गया, जो इस योजना का हिस्सा था। नवाज शरीफ ने
पाकिस्तान वापसी के बाद शुक्रवार को राष्ट्रीय सुरक्षा समिति की बैठक बुलाई जिसमें
सेनाध्यक्ष राहिल शरीफ भी शामिल हुए। पिछले दो हफ्तों में पाकिस्तान ने अपने तमाम
दूतावासों को सक्रिय कर दिया है। संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के पाँच स्थायी
सदस्य देशों के साथ खासतौर से सम्पर्क साधा गया है। यह साबित करने की कोशिश की जा
रही है कि कश्मीर घाटी में ‘असाधारण जनांदोलन’ है।
कश्मीरी नौजवानों को कोई भड़का भी तो रहा है
कश्मीर मामले को पाकिस्तान
अंतरराष्ट्रीय फोरमों पर उठाने की तैयारी कर रहा है। वहाँ 20 जुलाई को जो ‘काला दिवस’ मनाया गया, जो इस योजना का हिस्सा था। नवाज शरीफ ने
पाकिस्तान वापसी के बाद शुक्रवार को राष्ट्रीय सुरक्षा समिति की बैठक बुलाई जिसमें
सेनाध्यक्ष राहिल शरीफ भी शामिल हुए। पिछले दो हफ्तों में पाकिस्तान ने अपने तमाम
दूतावासों को सक्रिय कर दिया है। संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के पाँच स्थायी
सदस्य देशों के साथ खासतौर से सम्पर्क साधा गया है। यह साबित करने की कोशिश की जा
रही है कि कश्मीर घाटी में ‘असाधारण जनांदोलन’ है।
Sunday, July 10, 2016
दक्षिण एशिया में आतंकी ज़हर
जम्मू-कश्मीर में
सुरक्षाबलों ने हिज्बुल मुज़ाहिदीन के कमांडर बुरहान वानी को मार गिराया। बुरहान
कश्मीर में हिज्बुल मुजाहिदीन का पोस्टर बॉय था। उसकी मौत के साथ आतंकवाद का एक
अध्याय खत्म हुआ तो दूसरा शुरू हो गया है। बुरहान को हिज्ब का टॉप कमांडर माना
जाता था, जिसने सोशल मीडिया के जरिए आतंकवाद को दक्षिणी कश्मीर में फिर से जिंदा कर
दिया है। उसकी मौत के बाद उसे अब शहीद के रूप में प्रचारित किया जा रहा है। अब तक
माना जाता था कि दक्षिण एशिया आतंक से मुक्त है, पर अब लगता है कि यहाँ आतंक का
जहर फैलाने की कोशिशें बढ़ रहीं हैं।
Sunday, July 3, 2016
दक्षिण एशिया में आईएस की दस्तक
ढाका-हत्याकांड में शामिल हमलावर बांग्लादेशी हैं। पर इस कांड की जिम्मेदारी दाएश यानी इस्लामिक स्टेट ने ली है। इसका मतलब है कि कोई स्थानीय संगठन आईएस से जा मिला है। सम्भावना इस बात की भी है कि जोएमबी नाम का स्थानीय गिरोह आईएस के साथ हो। बांग्लादेश सरकार की इस मामले में अभी टिप्पणी नहीं आई है, पर अभी तक वह आईएस की उपस्थिति का खंडन करती रही है। बहरहाल आईएस का इस इलाके में सक्रिय होना भारत के लिए चिंता का विषय है।
पेरिस, ब्रसेल्स
और इस्तानबूल के बाद ढाका। आइसिस ने एक झटके में सारे संदेह दूर कर दिए। उसकी निगाहें अब दक्षिण एशिया के सॉफ्ट टारगेट
पर हैं। पाकिस्तान के मुकाबले
बांग्लादेश की स्थिति बेहतर है। उसकी अर्थ-व्यवस्था तेजी से बढ़ रही है। जनसंख्या
में युवाओं का प्रतिशत बेहतर है। जमीन उपजाऊ है। यह 15 करोड़ मुसलमानों का देश भी
है। दुनिया में चौथी सबसे बड़ी मुस्लिम आबादी। अभी तक बांग्लादेश सरकार आइसिस को
लेकर ‘डिनायल मोड’ में थी। अब उसे स्वीकार करना चाहिए कि आइसिस और अल-कायदा दोनों
ने उसकी जमीन पर अपने तम्बू तान दिए हैं। अब शको-शुब्हा नहीं बचा।
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