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Thursday, August 15, 2019

हमारी आजादी पर हमले करती ‘आजादी’!


इस साल स्वतंत्रता दिवस ऐसे मौके पर मनाया जा रहा है, जब कश्मीर पर पूरी दुनिया की निगाहें हैं. स्वतंत्रता के बाद कई मायनों में यह हमारी व्यवस्था की सबसे बड़ी परीक्षा है. आजादी के दो महीने बाद ही पाकिस्तानी सेना ने कबायलियों की मदद से कश्मीर पर हमला बोला था. वह लड़ाई तब से लगातार चल रही है. तकरीबन 72 साल बाद भारत ने कश्मीर में एक निर्णायक कार्रवाई की है. क्या हम इस युद्ध को उसकी तार्किक परिणति तक पहुँचाने में कामयाब होंगे?
तमाम विफलताओं के बावजूद भारत की ताकत है उसका लोकतंत्र. सन 1947 में भारत का एकीकरण इसलिए ज्यादा दिक्कत तलब नहीं हुआ, क्योंकि भारत एक अवधारणा के रूप में देश के लोगों के मन में पहले से मौजूद था. इस नई मनोकामना की धुरी पर है हमारा लोकतंत्र. पर यह निर्गुण लोकतंत्र नहीं है. इसके कुछ सामाजिक लक्ष्य हैं. स्वतंत्र भारत ने अपने नागरिकों को तीन महत्वपूर्ण लक्ष्य पूरे करने का मौका दिया है. ये लक्ष्य हैं राष्ट्रीय एकता, सामाजिक न्याय और गरीबी का उन्मूलन.
भारतीय राष्ट्र-राज्य अभी विकसित हो ही रहा है. कई तरह के अंतर्विरोध हमारे सामने आ रहे हैं और उनका समाधान भी हमारी व्यवस्था को करना है. कश्मीर भी एक अंतर्विरोध और विडंबना है. उसकी बड़ी वजह है पाकिस्तान, जिसका वजूद ही भारत-विरोध की मूल-संकल्पना पर टिका है. बहरहाल कश्मीर के अंतर्विरोध हमारे सामने हैं. घाटी का समूचा क्षेत्र इन दिनों प्रतिबंधों की छाया में है. कोई नहीं चाहता कि वहाँ प्रतिबंध हों, पर क्या हम जानते हैं कि अनुच्छेद 370 के फैसले के बाद वहाँ सारी व्यवस्थाएं सामान्य नहीं रह सकती थीं.

Sunday, August 11, 2019

प्रधानमंत्री की साफगोई


जम्मू-कश्मीर को अनुच्छेद 370 की छाया से मुक्त करने के बाद गुरुवार की रात प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के राष्ट्र के नाम संदेश की सबसे बड़ी बात है कि इसमें संदेश में न तो याचना है और न धमकी। सारी बात सादगी और साफ शब्दों में कही गई है। कई सवालों के जवाब मिले हैं और उम्मीद जागी है कि हालात अब सुधरेंगे। साथ ही इसमें यह संदेश भी है कि कुछ कड़े फैसले अभी और होंगे। इसमें पाकिस्तान के नाम संदेश है कि वह जो कर सकता है वह करे। जम्मू-कश्मीर का भविष्य अब पूरी तरह भारत के साथ जुड़ा है। अब पुरानी स्थिति की वापसी संभव नहीं। पर उनका जोर इस बात पर है कि कश्मीर के युवा बागडोर संभालें विकास के साथ खुशहाली का माहौल तैयार करें।
स्वतंत्रता दिवस पर लाल किले के संबोधन की तरह इस संबोधन को देश में ही नहीं, दुनिया भर में बहुत गौर से सुना गया। इस भाषण में संदेश कठोर है, और साफ शब्दों में है। उन्होंने न तो अतिशय नरम शब्दों का इस्तेमाल किया है और न कड़वी बात कही। उन्होंने अटल बिहारी वाजपेयी के प्रायः उधृत इंसानियत, जम्हूरियत और कश्मीरियत सिद्धांत का एक बार भी हवाला नहीं दिया। खुद दो साल पहले उन्होंने लालकिले से कहा था ना गोली से, ना गाली से, कश्मीर समस्या सुलझेगी गले लगाने से। पर इस बार ऐसी कोई बात इस भाषण में नहीं थी।

Tuesday, August 6, 2019

पहली चुनौती है कश्मीर में हालात सामान्य बनाने की


भारतीय राष्ट्र राज्य के लिए इतना बड़ा फैसला पिछले कई दशकों में नहीं हुआ है। सरकार ने बड़ा जोखिम उठाया है। इसके वास्तविक निहितार्थ सामने आने में समय लगेगा। फिलहाल लगता है कि सरकार ने प्रशासनिक और सैनिक स्तर पर इतनी पक्की व्यवस्थाएं कर रखी हैं कि सब कुछ काबू में रहेगा। अलबत्ता तीन बातों का इंतजार करना होगा। सरकार के इस फैसले को अदालत में चुनौती दी जाएगी। हालांकि सरकार ने सांविधानिक व्यवस्थाओं के अंतर्गत ही फैसला किया है, पर उसे अभी न्यायिक समीक्षा को भी पार करना होगा। खासतौर से इस बात की व्याख्या अदालत से ही होगी कि केंद्र को राज्यों के पुनर्गठन का अधिकार है या नहीं। इस फैसले के राजनीतिक निहितार्थों का इंतजार भी करना होगा। और तीसरे राज्य की व्यवस्था को सामान्य बनाना होगा। घाटी के नागरिकों की पहली प्रतिक्रिया का अनुमान सबको है, पर बहुत सी बातें अब भी स्पष्ट नहीं हैं। इन तीन बातों के अलावा अंतरराष्ट्रीय जनमत को अपने नजरिए से परिचित कराने की चुनौती है। सबसे ज्यादा पाकिस्तानी लश्करों की गतिविधियों पर नजर रखने की जरूरत है।

Tuesday, March 26, 2019

आतंकी लाइफ-लाइन को तोड़ना जरूरी

http://inextepaper.jagran.com/2083942/Kanpur-Hindi-ePaper,-Kanpur-Hindi-Newspaper-InextLive/26-03-19#page/12/1
पुलवामा के हत्याकांड और फिर बालाकोट में की गई भारतीय कार्रवाई की गहमागहमी के बीच हमने गत 7 मार्च को जम्मू के बस स्टेशन पर हुए ग्रेनेड हमले पर ध्यान नहीं दिया. घटना के फौरन बाद ही इसे अंजाम देने वाला मुख्य अभियुक्त पकड़ लिया गया, पर यह घटना कुछ बातों की तरफ इशारा कर रही है. पिछले नौ महीनों में इसी इलाके में यह तीसरी घटना है. आतंकवादी जम्मू के इस भीड़ भरे इलाके में कोई बड़ी हिंसक कार्रवाई करना चाहते हैं, ताकि जम्मू और कश्मीर घाटी के बीच टकराव हो. भारतीय सुरक्षाबलों की आक्रामक रणनीति के कारण पराजित होता आतंकी-प्रतिष्ठान नई रणनीतियाँ लेकर सामने आ रहा है.

पुलवामा के बाद जम्मू क्षेत्र में हिंसा भड़की थी. ऐसी प्रतिक्रियाओं का परोक्ष लाभ आतंकी जाल बिछाने वाले उठाते हैं. जम्मू में ग्रेनेड फेंकने वाले की उम्र पर गौर कीजिए. नौवीं कक्षा के छात्र को कुछ पैसे देकर इस काम पर लगाया गया था. आईएसआई के एजेंट किशोरों के बीच सक्रिय हैं. कौन हैं ये एजेंट? जमाते-इस्लामी और जम्मू-कश्मीर लिबरेशन फ्रंट पर प्रतिबंधों से जाहिर है कि अब उन सूत्रधारों की पहचान हो रही है. वे हमारी उदार नीतियों का लाभ उठाकर हमारी ही जड़ें काटने में लगे हैं. उन तत्वों की सफाई की जरूरत है, जो जहर की खेती कर रहे हैं.

गर्मियाँ आने वाली हैं, जब आतंकी गतिविधियाँ बढ़ती हैं. लोकसभा चुनाव के दौरान भी वे हरकतें करेंगे. उधर पाकिस्तान को लगता है कि अफ़ग़ानिस्तान में तालिबानियों के हाथ में फिर से सत्ता आने वाली है. आईएसआई के सूत्रधारों ने पूरे इलाके में भारतीय व्यवस्था के प्रति जहर भरना शुरू कर दिया है. कश्मीर में ही नहीं, वे पंजाब में खत्म हो चुके खालिस्तानी-आंदोलन में फिर से जान डालने का प्रयास कर रहे हैं. इसके लिए उन्होंने अमेरिका में सक्रिय कुछ लोगों की मदद से रेफरेंडम-2020 नाम से एक अभियान शुरू किया है. उन्हें अपना ठिकाना उपलब्ध कराया है. उनकी योजना करतारपुर कॉरिडोर बन जाने के बाद भारत से जाने वाले श्रद्धालुओं के मन में जहर घोलने की है.

Sunday, March 24, 2019

कश्मीर पर नई लाल रेखा

http://epaper.haribhoomi.com/?mod=1&pgnum=1&edcode=75&pagedate=2019-03-24
पिछले पाँच साल में कश्मीर को लेकर मोदी सरकार की नीतियाँ निरंतर सख्त होती गईं हैं और इस वक्त अपने कठोरतम स्तर पर हैं। इन पाँच वर्षों में सरकार ने नर्म रुख अख्तियार करने की कोशिश भी की, पर हालात ऐसे बने कि उसका रुख सख्त होता चला गया। पिछले हफ्ते की कुछ घटनाओं से लगता है कि सरकार ने राजनयिक स्तर पर एक और नई रेखा खींची है। यह रेखा हुर्रियत के खिलाफ है। हुर्रियत के दो महत्वपूर्ण घटकों जमाते-इस्लामी और अब जम्मू कश्मीर लिबरेशन फ्रंट (जेकेएलएफ) पर प्रतिबंध लगाया गया है। 


पाकिस्तान दिवस (23 मार्च) की पूर्व-संध्या पर दिल्ली में पाकिस्तानी उच्चायोग में हुए कार्यक्रम में भारत सरकार के मंत्री इसलिए शामिल नहीं हुए, क्योंकि हुर्रियत को बुलाया गया था। यह एक और रेड लाइन रेखा है। उधर प्रधानमंत्री ने इमरान खान के नाम बधाई संदेश भी भेजा है। इसे कुछ लोग संशय बता रहे हैं। ऐसा नहीं है। कश्मीर के मामले में भारत का कड़ा संदेश है और बधाई एक परम्परा के तहत है, जो दुनिया के सभी देश एक-दूसरे के साथ निभाते हैं। इन पत्रों का औपचारिक महत्व होता है आधिकारिक नहीं।  

Sunday, June 17, 2018

शुजात बुखारी की हत्या के मायने

राइजिंग कश्मीर के सम्पादक शुजात बुखारी की हत्या,जिस रोज हुई, उसी रोज सेना के एक जवान औरंगजेब खान की हत्या की खबर भी आई थी। इसके दो-तीन दिन पहले से कश्मीर में अचानक हिंसा का सिलसिला तेज हो गया था। नियंत्रण रेखा पर पाकिस्तानी गोलीबारी से बीएसएफ के चार जवानों की हत्या की खबरें भी इसी दौरान आईं थीं। हिंसा की ये घटनाएं कथित युद्ध-विराम के दौरान तीन हफ्ते की अपेक्षाकृत शांति के बाद हुई हैं। कौन है इस हिंसा के पीछे?भारतीय विशेषज्ञों का अनुमान है कि इसमें लश्कर या हिज्बुल मुजाहिदीन का हाथ है।

Wednesday, May 31, 2017

कश्मीर को बचाए रखने में सेना की भूमिका भी है

जनरल बिपिन रावत के तीखे तेवरों का संदेश क्या है? मेजर गोगोई की पहल को क्या हम मानवाधिकार उल्लंघन के दायरे में रखते हैं? क्या जनरल रावत का कश्मीरी आंदोलनकारियों को हथियार उठाने की चुनौती देना उचित है? उन्होंने क्यों कहा कि कश्मीरी पत्थर की जगह गोली चलाएं तो बेहतर है? तब हम वो करेंगे जो करना चाहते हैं। उन्होंने क्यों कहा कि लोगों में सेना का डर खत्म होने पर देश का विनाश हो जाता है? उनके स्वर राजनेता जैसे हैं या उनसे सैनिक का गुस्सा टपक रहा है?

कश्मीर केवल राजनीतिक समस्या नहीं है, उसका सामरिक आयाम भी है। हथियारबंद लोगों का सामना सेना ही करती है और कर रही है। वहाँ के राजनीतिक हालात सेना ने नहीं बिगाड़े। जनरल रावत को तीन सीनियर अफसरों पर तरजीह देकर सेनाध्यक्ष बनाया गया था। तब रक्षा मंत्रालय के सूत्रों ने कहा था कि यह नियुक्ति बहुत सोच समझ कर की गई है। नियुक्ति के परिणाम सामने आ रहे हैं। सेना ने दक्षिण कश्मीर के आतंक पीड़ित इलाकों में कॉम्बिंग ऑपरेशन चला रखा है। पिछले दो हफ्तों में उसे सफलताएं भी मिली हैं। 

Wednesday, October 26, 2016

कश्मीर में ट्रैक-टू वार्ता

पिछले दो दिनों से खबरें हैं कि यशवंत सिन्हा के नेतृत्व में पाँच सदस्यों की एक टीम इन दिनों कश्मीर में अलगाववादियों के साथ बातचीत कर रही है। इस शिष्टमंडल ने कट्टरपंथी हुर्रियत नेता सैयद अली शाह गिलानी और मीरवाइज उमर फारूक से श्रीनगर में मुलाकात की। सिन्हा के नेतृत्व में शिष्टमंडल ने हैदरपोरा इलाका स्थित गिलानी के घर पर उनसे मुलाकात की। गिलानी के साथ बैठक से पहले सिन्हा ने संवाददाताओं को बताया कि वे यहां किसी शिष्टमंडल के रूप में नहीं आए। उन्होंने कहा, ‘हम लोग सद्भावना और मानवता के आधार पर यहां आए हैं। इसका लक्ष्य लोगों के दुख दर्द और कष्टों को साझा करना है। अगर हम ऐसा कर सके तो खुद को धन्य महसूस करेंगे।’ मीरवाइज उमर फारूक और मोहम्मद यासिन मलिक जैसे अन्य अलगाववादी नेताओं से मिलने के बारे में पूछे जाने पर सिन्हा ने कहा कि वे हर किसी से मिलने की कोशिश कर रहे हैं। शिष्टमंडल के राज्य में अलगाववादी नेताओं से मिलने पर सरकारी सूत्रों के हवाले से कहा गया है कि न तो सरकार और न ही पार्टी (बीजेपी) का इससे कुछ लेना-देना है। यह उनका निजी दौरा है। गृहराज्य मंत्री किरण रिजीजू ने शिष्टमंडल के इस दौरे पर प्रतिक्रिया देते हुए कहा कि कुछ भी अगर स्वेच्छा से किया गया हो तो उसे रोका नहीं जा सकता है। रिजीजू ने कहा कि इसके आगे मेरे पास बोलने के लिए कुछ भी नहीं है। वहीं, यूपीए शासनकाल में रक्षा मंत्री रहे एके एंटनी ने कहा कि प्रतिष्ठा का ख्याल रखे बिना सरकार को हर किसी से बातचीत करनी चाहिए। बातचीत से समस्या का समाधान तलाशिए। सरकार को कश्मीर के युवाओं के मिजाज को समझना होगा।

Tuesday, August 30, 2016

जब 2010 में कश्मीर गया था सर्वदलीय शिष्टमंडल

कश्मीर में 52 दिन से लगा कर्फ़्यू हट जाने के बाद ज्यादा बड़ा सवाल सामने है कि अब क्या किया जाए? हिंसा का रुक जाना समस्या का समाधान नहीं है। वह किसी भी दिन फिर शुरू हो सकती है। इसका स्थायी समाधान क्या है? कई महीनों से सुनाई पड़ रहा है कि यह राजनीतिक समस्या है और कश्मीर के लोगों से बात करनी चाहिए। बहरहाल शांति बहाली और सभी पक्षों से वार्ता करने के लिए सभी दलों के प्रतिनिधि 4 सितंबर को कश्मीर जाएंगे। इस दल का नेतृत्व गृहमंत्री राजनाथ सिंह करेंगे। इसके सामने भी सवाल होगा कि किससे करें और क्या बात करें? इसके पहले सन 20 सितम्बर 2010 को इसी प्रकार का एक संसदीय दल कश्मीर गया था। उसने वहाँ किस प्रकार की बातें कीं, यह जानना रोचक होगा। 4 सितम्बर की यात्रा के पहले एक नजर सन 2010 के कश्मीर के हालात पर डालना भी उपयोगी होगा।

इस प्रतिनिधि मंडल की यात्रा की खबर पढ़ें हिन्दू की वैबसाइट में यहाँ। 20 सितम्बर 2010 की यह खबर टाइम्स ऑफ इंडिया की वैबसाइट में छपी है, जिसके मुख्य अंश इस प्रकार हैंः-

All-party delegation in Kashmir interacts with 'open mind'
SRINAGAR: Union Home Minister P Chidambaram on Monday said the all-party delegation has come to Jammu and Kashmir with an 'open mind' and hopes to 'carve out a path for taking the region out of its present cycle of violence'.
"The team has come with an open mind and the main purpose was to interact with people, listen to them patiently," said Chidambaram.
"We are here to listen to your views, we will give you a patient hearing, what you think we need to do, in order to bring to the people of Jammu and Kashmir, the hope and the belief that their honour and dignity and their future are secure as part of India," he added.
PDP President Mehbooba Mufti did not meet the delegation but sent senior leader Nizamuddin Bhatt. who told reporters later 'although we were given just 15 minutes to put our point' , we have told the delegation that "all suggestions from the mainstream or separatist quarters should be considered."

Sunday, August 28, 2016

कश्मीरी अराजकता पर काबू जरूरी

पाकिस्तान के प्रधानमंत्री नवाज शरीफ ने 22 सांसदों को अपने देश का दूत बनाकर दुनिया के देशों में भेजने का फैसला किया है जो कश्मीर के मामले में पाकिस्तान का पक्ष रखेंगे। हालांकि चीन को छोड़कर दुनिया में ऐसे देश कम बचे हैं जिन्हें पाकिस्तान पर विश्वास हो, पर मानवाधिकार के सवालों पर दुनिया के अनेक देश ऐसे हैं, जो इस प्रचार से प्रभावित हो सकते हैं। पिछले एक साल से कश्मीर में कुछ न कुछ हो रहा है। हमारी सरकार ने बहुत सी बातों की अनदेखी है। कश्मीर में बीजेपी-पीडीपी सरकार को इस बीच जो भी मौका मिला उसका फायदा उठाने के बजाए दोनों पार्टियाँ आपसी विवादों में उलझी रहीं। 

जरूरत इस बात की है कश्मीर की अराजकता को जल्द से जल्द काबू में किया जाए। इसके लिए कश्मीरी आंदोलन से जुड़े नेताओं से संवाद की जरूरत भी होगी। यह संवाद अनौपचारिक रूप से ही होगा। सन 2002 में ही स्पष्ट हो गया था कि हुर्रियत के सभी पक्ष एक जैसा नहीं सोचते। जम्मू-कश्मीर में बीजेपी-पीडीपी ने इस पक्ष की उपेक्षा करके गलती की है, जबकि इन दोनों की पहल से ही अब तक का सबसे गम्भीर संवाद कश्मीर में हुआ था।  

Sunday, July 24, 2016

कश्मीरी नौजवानों को कोई भड़का भी तो रहा है

कश्मीर मामले को पाकिस्तान अंतरराष्ट्रीय फोरमों पर उठाने की तैयारी कर रहा है। वहाँ 20 जुलाई को जो काला दिवस मनाया गया, जो इस योजना का हिस्सा था। नवाज शरीफ ने पाकिस्तान वापसी के बाद शुक्रवार को राष्ट्रीय सुरक्षा समिति की बैठक बुलाई जिसमें सेनाध्यक्ष राहिल शरीफ भी शामिल हुए। पिछले दो हफ्तों में पाकिस्तान ने अपने तमाम दूतावासों को सक्रिय कर दिया है। संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के पाँच स्थायी सदस्य देशों के साथ खासतौर से सम्पर्क साधा गया है। यह साबित करने की कोशिश की जा रही है कि कश्मीर घाटी में असाधारण जनांदोलन है।

कश्मीरी नौजवानों को कोई भड़का भी तो रहा है

कश्मीर मामले को पाकिस्तान अंतरराष्ट्रीय फोरमों पर उठाने की तैयारी कर रहा है। वहाँ 20 जुलाई को जो काला दिवस मनाया गया, जो इस योजना का हिस्सा था। नवाज शरीफ ने पाकिस्तान वापसी के बाद शुक्रवार को राष्ट्रीय सुरक्षा समिति की बैठक बुलाई जिसमें सेनाध्यक्ष राहिल शरीफ भी शामिल हुए। पिछले दो हफ्तों में पाकिस्तान ने अपने तमाम दूतावासों को सक्रिय कर दिया है। संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के पाँच स्थायी सदस्य देशों के साथ खासतौर से सम्पर्क साधा गया है। यह साबित करने की कोशिश की जा रही है कि कश्मीर घाटी में असाधारण जनांदोलन है।

Monday, May 30, 2016

कश्मीर की इस तपिश के पीछे कोई योजना है

कश्मीर में कई साल बाद हिंसक गतिविधियाँ अचानक बढ़ीं हैं. सोपोर, हंडवारा, बारामूला, बांदीपुरा और पट्टन से असंतोष की खबरें मिल रहीं है. खबरें यह भी हैं कि नौजवान और किशोर अलगाववादी युनाइटेड जेहाद काउंसिल के नियंत्रण से बाहर हो रहे हैं. सुरक्षा दलों के साथ मुठभेड़ में मारे गए अलगाववादियों की लाशों के जुलूस निकालने का चलन बढ़ा है. इस बेचैनी को सोशल मीडिया में की जा रही टिप्पणियाँ और ज्यादा बढ़ाया है. नौजवानों को सड़कों पर उतारने के बाद सीमा पार से आए तत्व भीड़ के बीच घुसकर हिंसक गतिविधियों को अंजाम दे रहे हैं.

Sunday, April 10, 2016

भारतीय राष्ट्र-राज्य ‘फुटबॉल’ नहीं है

एनआईटी श्रीनगर की घटना सामान्य छात्र की समस्याओं से जुड़ा मामला नहीं है। जैसे जेएनयू, जादवपुर या हैदराबाद की घटनाएं राजनीति से जोड़ी जा सकती हैं, श्रीनगर की नहीं। देश के ज्यादातर दलों के छात्र संगठन भी हैं। जाहिर है कि युवा वर्ग को किसी उम्र में राजनीति के साथ जुड़ना ही होगा, पर किस तरीके से? हाल में केरल के पलक्कड़ के सरकारी कॉलेज के छात्रों ने अपनी प्रधानाचार्या की सेवानिवृत्ति पर उन्हें कब्र खोदकर प्रतीक रूप से उपहार में दी। संयोग से छात्र एक वामपंथी दल से जुड़े थे। सामाजिक जीवन से छात्रों को जोड़ने के सबसे बड़े हामी वामपंथी दल हैं, पर यह क्या है?

संकीर्ण राष्ट्रवाद को उन्मादी विचारधारा साबित किया जा सकता है। खासतौर से तब जब वह समाज के एक ही तबके का प्रतिनिधित्व करे। पर भारतीय राष्ट्र-राज्य राजनीतिक दलों का फुटबॉल नहीं है। वह तमाम विविधताओं के साथ देश का प्रतिनिधित्व करता है। आप कितने ही बड़े अंतरराष्ट्रीयवादी हों, राष्ट्र-राज्य के सवालों का सामना आपको करना होगा। सन 1947 के बाद भारत का गठन-पुनर्गठन सही हुआ या नहीं, इस सवाल बहस कीजिए। पर फैसले मत सुनाइए। जेएनयू प्रकरण में भारतीय राष्ट्र-राज्य पर हुए हमले को सावधानी के साथ दबा देने का दुष्परिणाम श्रीनगर की घटनाओं में सामने आया है। भारत के टुकड़े करने की मनोकामना का आप खुलेआम समर्थन करें और कोई जवाब भी न दे।

चुनावी राजनीति ने हमारे सामाजिक जीवन को पहले ही काफी हद तक तोड़ दिया है। हमारे साम्प्रदायिक, जातीय और क्षेत्रीय अंतर्विरोधों को खुलकर खोला गया है। पर अब भारत की अवधारणा पर हमले के खतरों को भी समझ लेना चाहिए। यह सिर्फ संयोग नहीं था कि जेएनयू का घटनाक्रम असम, बंगाल और केरल के चुनावों से जुड़ गया? और अब कश्मीर में महबूबा मुफ्ती सरकार की सुगबुगाहट के साथ ही एनआईटी श्रीनगर में आंदोलन खड़ा हो गया। संघ और भाजपा के एकांगी राष्ट्रवाद से असहमत होने का आपको अधिकार है, पर भारतीय राष्ट्र-राज्य किसी एक दल की बपौती नहीं है। वह हमारे सामूहिक सपनों का प्रतीक है। उसे राजनीति का खिलौना मत बनाइए।

Sunday, February 14, 2016

मुख्यधारा की राजनीति का थिएटर बना जेएनयू

दिल्ली में दो जगह भारत विरोधी नारे लगे। इसके पहले कश्मीर से अकसर खबरें आती थीं कि वहाँ भारत विरोधी नारे लगे या भारतीय ध्वज का अपमान किया गया। कश्मीर के साथ पूरे देश का अलगाव अच्छी तरह स्पष्ट है। इस अलगाव का विकास हुआ है। जो स्थितियाँ 1947 में थी वैसी ही आज नहीं हैं। इसमें नब्बे के दशक में चले हिंसक आंदोलन की भूमिका भी है, जो अफगानिस्तान के तालिबानी उभार की पृष्ठभूमि में चला था। पाकिस्तानी राजनीति के केन्द्र में कश्मीर है। भारतीय राजनीति के केन्द्र में भी कश्मीर को होना चाहिए था, क्योंकि भारतीय धर्मनिरपेक्षता की सफलता तभी है जब हमारे बीच मुस्लिम बहुमत वाला कश्मीर राज्य हो। परिस्थितियाँ ऐसी रहीं कि कश्मीर स्वतंत्र देश के रूप में खड़ा नहीं हो पाया। पर जेएनयू प्रकरण का कश्मीरी सवाल से वास्ता नहीं है। वहाँ कश्मीर समस्या को लेकर बहस नहीं है, बल्कि खुलकर मुख्य धारा की राजनीति हो रही है। ऐसा ही हैदराबाद में हुआ, जहाँ असली सवाल पीछे रह गया। 

Thursday, August 20, 2015

भारत-पाक वार्ता में अड़ंगे क्यों लगते हैं?

23 अगस्त को भारत के सुरक्षा सलाहकार अजित डोभाल और पाकिस्तान के विदेशी मामलों के सलाहकार सरताज़ अजीज की बातचीत के ठीक पहले हुर्रियत के प्रतिनिधियों के साथ बातचीत रखकर पाकिस्तान ने क्या संदेश दिया है? एक, कश्मीर हमारी विदेश नीति का पहला मसला है, भारत गलतफहमी में न रहे। समझना यह है कि यह बात को बिगाड़ने की कोशिश है या सम्हालने की? भारत सरकार ने बावजूद इसके बातचीत पर कायम रहकर क्या संदेश दिया है?  इस बीच हुर्रियत के नेताओं को नजरबंद किए जाने की खबरें हैं, पर ऐसा लगता है कि हुर्रियत वाले भी चाहते हैं कि उनके चक्कर में बात होने से न रुके। कश्मीर का समाधान तभी सम्भव है जब सरहद के दोनों तरफ की आंतरिक राजनीति भी उसके लिए माहौल तैयार करे।

Saturday, October 18, 2014

संयुक्त राष्ट्र नहीं, महत्वपूर्ण है हमारी संसद का प्रस्ताव

जम्मू-कश्मीर के मामले में दो बातें समझ ली जानी चाहिए। पहली यह कि इस मामले को संयुक्त राष्ट्र में भारत लेकर गया था न कि पाकिस्तान। 1 जनवरी 1948 को भारत ने यह मामला उठाया और इसमें साफ तौर पर पाकिस्तान की ओर से कबायलियों और पाकिस्तानी सेना के जम्मू-कश्मीर में प्रवेश की शिकायत की गई थी। यह मसला अंतरराष्ट्रीय कानून के तहत किसी फोरम पर कभी नहीं उठा। भारत की सदाशयता के कारण पारित सुरक्षा परिषद के प्रस्ताव के एक अंश को पाकिस्तान आज तक रह-रहकर उठाता रहा है, पर पूरी स्थिति को कभी नहीं बताता। 13 अगस्त 1948 के प्रस्ताव को लागू कराने को लेकर पाकिस्तान संज़ीदा था तो उसी समय पाकिस्तानी सेना जम्मू-कश्मीर छोड़कर क्यों नहीं चली गई और उसने कश्मीर में घुस आए कबायलियों को वापस पाकिस्तान ले जाने की कोशिश क्यों नहीं कीप्रस्ताव के अनुसार पहला काम उसे यही करना था।

Sunday, August 24, 2014

कश्मीर में नई लक्ष्मण रेखा

पाकिस्तान के साथ 25 अगस्त को प्रस्तावित सचिव स्तर की बातचीत अचानक रद्द होने के बाद पहला सवाल पैदा होता है कि अपने शपथ ग्रहण समारोह में पूरे दक्षिण एशिया को निमंत्रित करने वाले नरेन्द्र मोदी बदले हैं या हालात में कोई बुनियादी बदलाव आ गया है? क्या पाकिस्तान सरकार दिखावा कर रही है? या कोई तीसरी ताकत नहीं चाहती कि दक्षिण एशिया में हालात सुधरें। बैठक रद्द होने का फैसला जितनी तेजी से हुआ उससे लगता है कि भारत ने जल्दबाज़ी की है। या फिर मोदी सरकार रिश्तों का कोई नया बेंचमार्क कायम करना चाहती है।

पहली नज़र में लगता है कि 18 अगस्त को पाकिस्तानी उच्चायुक्त के साथ शब्बीर शाह की बैठक के मामले को कांग्रेस ने उछाला। इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ने इसे दिन भर दिखाया। सरकार घबरा गई। पाकिस्तानी राजनीति में चल रहे टकराव को लेकर वह पहले ही असमंजस में थी। पर क्या भारत सरकार ने बगैर सोचे यह फैसला किया होगा? भारत सरकार इसके पहले भी हुर्रियत नेताओं के साथ पाकिस्तानी नेतृत्व की मुलाकातों की आलोचना करती रही है। हर बार औपचारिक विरोध भी दर्ज कराती रही है, पर इस तरह पूर्व निर्धारित बैठकें रद्द नहीं हुईं।

अनायास नहीं है नियंत्रण रेखा पर घमासान

जम्मू-कश्मीर की नियंत्रण रेखा से जो खबरें आ रहीं है वे चिंता का विषय बनती जा रही हैं। शुक्र और शनिवार की आधी रात के बाद से अर्निया और रघुवीर सिंह पुरा सेक्टर में जबर्दस्त गोलाबारी चल रही है। इसमें कम से कम दो नागरिकों के मरने और छह लोगों के घायल होने की खबरें है। पाकिस्तानी सुरक्षा बलों ने भारत की 22 सीमा चौकियों और 13 गाँवों पर जबर्दस्त गोलाबारी की है। पुंछ जिले के हमीरपुर सब सेक्टर में भी गोलाबारी हुई है। उधर पाकिस्तानी मीडिया ने भी सियालकोट क्षेत्र में भारतीय सेनाओं की और से की गई गोलाबारी का जिक्र किया है और खबर दी है कि उनके दो नागरिक मारे गए हैं और छह घायल हुए हैं। मरने वालों में एक महिला भी है।
सन 2003 का समझौता होने के पहले नियंत्रण रेखा पर भारी तोपखाने से गोलाबारी होती रहती थी। इससे सीमा के दोनों और के गाँवों का जीवन नरक बन गया था। क्या कोई ताकत उस नरक की वापसी चाहती है? चाहती है तो क्यों? बताया जाता है कि सन 2003 के बाद से यह सबसे जबर्दस्त गोलाबारी है। भारतीय सुरक्षा बलों ने इस इलाके की बस्तियों से तकरीबन 3000 लोगों को हटाकर सुरक्षित स्थानों तक पहुँचा दिया है। अगस्त के महीने में नियंत्रण रेखा के उल्लंघन की बीस से ज्यादा वारदात हो चुकी हैं। अंदेशा इस बात का है कि यह गोलाबारी खतरनाक स्तर तक न पहुँच जाए।
सुरंग किसलिए?
भारतीय सुरक्षा बलों ने इस बीच एक सुरंग का पता लगाया है जो सीमा के उस पार से इस पार आई है। इसका मतलब यह है कि पाकिस्तान की और से घुसपैठ की कोशिशें खत्म नहीं हुईं हैं। आमतौर पर सर्दियों के पहले घुसपैठ कराई जाती है। बर्फबारी के बाद घुसपैठ कराना मुश्किल हो जता है। दो-एक मामले ऐसे भी होते हैं जिनमें कोई नागरिक रास्ता भटक जाए या कोई जानवर सीमा पार कर जाए, पर उतने पर भारी गोलाबारी नहीं होती। आमतौर पर फायरिंग कवर घुसपैठ करने वालों को दिया जाता है ताकि उसकी आड़ में वे सीमा पार कर जाएं। अंदेशा इस बात का है कि पाकिस्तान के भीतर एक तबका ऐसा है जो अफगानिस्तान से अमेरिकी फौजों की वापसी का इंतज़ार कर रहा है। पाकिस्तान, अफगानिस्तान, इराक और सीरिया में वहाबी ताकत पुनर्गठित हो रही है। कहीं यह उसकी आहट तो नहीं?

Saturday, August 23, 2014

कश्मीर को लेकर क्या कोई नई लकीर खींचना चाहते हैं मोदी?

पाकिस्तान के साथ 25 अगस्त को होने वाली सचिव स्तर की वार्ता अचानक रद्द होने के बाद दो तरह की बातें दिमाग में आती हैं। पहली यह कि भारत ने जल्दबाज़ी की है। या फिर मोदी सरकार इन रिश्तों का कोई नया बेंचमार्क कायम करना चाहती है। दिल्ली में पाकिस्तानी उच्चायुक्त के साथ शब्बीर शाह की बैठक के मामले को कांग्रेस ने उछाला। इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ने इसे दिन भर दिखाया। सरकार इन बातों से घबरा गई। पाकिस्तानी राजनीति में चल रहे टकराव को लेकर वह पहले ही असमंजस में थी। पर क्या भारत सरकार ने बगैर सोचे जल्दबाज़ी में यह फैसला किया होगा? भारत सरकार हुर्रियत नेताओं के साथ पाकिस्तानी नेतृत्व की मुलाकातों की आलोचना करती रही है। औपचारिक विरोध दर्ज भी हुआ, पर बैठकें रद्द नहीं हुईं। जब हम दक्षिण एशिया में विकास और बदलाव की बात करते हैं तब कश्मीर जैसे मसलों को उनपर हावी नहीं होना चाहिए। भारत-पाकिस्तान रिश्तों को अब कश्मीर से हटकर भी देखा जाना चाहिए।

मार्च 1993 में हुर्रियत की स्थापना के बाद से पाकिस्तान सरकार और हुर्रियत के बीच लगातार संवाद चलता रहा है। मई 1995 में पाकिस्तानी राष्ट्रपति फारूक लेघारी जब दक्षेस बैठक के लिए दिल्ली आए तो इनसे मिले। सन 2001 में जब परवेज़ मुशर्रफ आगरा शिखर सम्मेलन के लिए आए तब मिले, अप्रैल 2005 में वे फिर मिले। अप्रैल 2007 में दिल्ली आए पाक प्रधानमंत्री शौकत अज़ीज इनसे मिले। कई मौकों पर इनकी पाकिस्तानी नेताओं से मुलाकात होती रहती है। हुर्रियत नेता 23 मार्च को होने वाले पाकिस्तान दिवस में शामिल होने के लिए दिल्ली आते हैं। 15 अप्रैल 2005 को भारतीय विदेश सचिव श्याम सरन से सवाल किया गया था कि दिल्ली में भारतीय प्रधानमंत्री से मिलने से पहले हुर्रियत नेताओं से राष्ट्रपति परवेज़ मुशर्रफ की मुलाक़ात पर भारत को क्या कोई समस्या है? उन्होंने कहाहम लोकतांत्रिक देश हैं। हमें इस तरह की मुलाक़ातों से कोई दिक़्क़त नहीं।”

सोमवार की सुबह विदेश सचिव सुजाता सिंह ने पाकिस्तान के उच्चायुक्त अब्दुल बासित को आगाह कर दिया था कि वे अलगाववादी नेताओं से न मिलें, वरना 25 अगस्त की बैठक रद्द कर दी जाएगी। इसके बावजूद उच्चायुक्त का अलगाववादियों से मिलना जितना विस्मयकारी है उतना ही विस्मयकारी है बैठक का रद्द होना। तब क्या माना जाए कि भारत सरकार ने जल्दबाज़ी में फैसला नहीं किया है, बल्कि मोदी सरकार पाकिस्तान के रिश्तों में कोई नई लक्ष्मण रेखा खींचना चाहती है।

अलगाववादियों के मुलाकात करने या न करने से इस मसले में कोई बुनियादी फर्क नहीं पड़ेगा। फर्क तब पड़ेगा जब हम अपने प्रकट सिद्धांत से हटें। भारत सरकार 1972 के शिमला समझौते की भावना के अनुरूप ही अब कश्मीर पर कोई समझौता करना चाहती है। सन 1999 में अटल बिहारी वाजपेयी की यात्रा के बाद जारी लाहौर घोषणापत्र में यह बात कही गई है। सन 2001 और 2005 में परवेज़ मुशर्रफ के साथ बातचीत के बाद दोनों देश इस दिशा में काफी आगे बढ़ गए थे। यूपीए सरकार ने पाकिस्तान के साथ कम्पोज़िट बातचीत की जो प्रक्रिया शुरू की है उसमें कश्मीर मसले को किनारे रखा गया है। उसमें व्यापारिक सम्पर्क, रेल और सड़क, नदियों के पानी से जुड़े विवाद, सांस्कृतिक, सामुदायिक और वैज्ञानिक-तकनीकी सहयोग तथा वीज़ा और पारगमन के मसले बातचीत में शामिल हैं। इस सारे मामलों में अब तक काफी प्रगति हो जाती, पर 26 नवम्बर 2008 को मुम्बई में हुए हमले ने तमाम शांति प्रक्रियाओं पर विराम लगा दिया। इन रिश्तों की अब एक बड़ी शर्त यह है कि मुम्बई पर हमले के दोषियों को जल्द से जल्द सज़ा मिले।  

अपने शपथ ग्रहण समारोह को दक्षिण एशिया सम्मेलन में तबदील करके नरेन्द्र मोदी ने जो शुरुआत की थी उसकी तार्किक परिणति 25 अगस्त की बैठक थी, जो भावी बैठकों की तैयारी की योजना बनाने के लिए थी। यह बैठक भारत की पहल पर हो रही थी। सुजाता सिंह ने अपनी तरफ से बातचीत का कार्यक्रम बनाया था। नवाज शरीफ की यात्रा से बातचीत के दरवाज़े खुले थे। अब दरवाजे बंद होते नज़र आ रहे हैं। खासकर ऐसे समय में जब नवाज़ शरीफ़ आंतरिक राजनीति में घिरे हैं। बातचीत से पहले हुर्रियत नेताओं और पाकिस्तानी उच्चायुक्त की मुलाक़ात की परम्परा को वे तोड़ते तो देश की राजनीति में उनकी फज़ीहत होती। पाकिस्तान में कोई भी राजनीतिक नेता खुले आम यह कहने की हिम्मत नहीं रखता कि हुर्रियत नेताओं से संवाद नहीं करेंगे।

माना जा रहा है कि अफगानिस्तान से अमेरिकी सेनाओं की वापसी के बाद पाकिस्तानी जेहादी कश्मीर की ओर रुख करेंगे। दूसरी और देश आर्थिक संकटों से घिरा है। जेहादी संस्कृति उसके गले में हड्डी बन गई है। इससे निपटने की जिम्मेदारी पाकिस्तानी राजनीति की है। नवाज़ शरीफ मई में जब भारत आए तो उन्होंने न तो कश्मीर का मुद्दा उठाया था और न ही वे हुर्रियत नेताओं से मिले। पाकिस्तान में उनकी आलोचना भी हुई। हाफिज़ सईद ने खुले आम कहा कि नवाज शरीफ को भारत नहीं जाना चाहिए। कहा जाता है कि पाकिस्तान की सेना नागरिक सरकार पर हावी है। हमें उनके अंतर्विरोधों को समझना होगा।

दो साल पहले भारत सरकार ने पाकिस्तान के निवेशकों पर भारत में लगी रोक हटाई थी। अब पाकिस्तानी निवेशक रक्षा, परमाणु ऊर्जा और अंतरिक्ष कार्यक्रमों के अलावा अन्य कारोबारों में निवेश कर सकेंगे। यह आर्थिक निर्णय है, पर इसके राजनीतिक पहलू भी हैं। पाकिस्तान में तबका भारत से रिश्ते बनाने में अड़ंगे लगाता है। पर खेल, संगीत और कारोबारी रिश्ते दोनों देशों को जोड़ते भी हैं। पाकिस्तान में अराजक स्थितियों के कारण पूँजी का पलायन हो रहा है। अमेरिका, यूरोप और दुबई जाने के अलावा भारत आना बेहतर होगा। अनेक पाकिस्तानी उद्यमी परिवारों की पृष्ठभूमि स्वतंत्रता से पहले की है। जब तक हमारे आर्थिक हित नहीं मिलेंगे हम एक-दूसरे की स्थिरता के प्रति ज़िम्मेदार नहीं बनेंगे। दोनों देशों के बीच युद्ध की आशंकाओं को दूर करने के लिए आर्थिक पराश्रयता विकसित करनी होगी। दोनों को एक-दूसरे की ज़रूरत होनी चाहिए। सब ठीक रहा तो कभी भारत-पाकिस्तान की संयुक्त कम्पनियाँ बनेंगी।

पाकिस्तान-भारत नहीं दक्षिण एशिया के संदर्भ में सोचें। पिछले दिनों श्रीलंका में हुए सार्क चैम्बर ऑफ कॉमर्स एंड इंडस्ट्रीज़ की बैठक में कहा गया कि दक्षिण एशिया में कनेक्टिविटी न होने के कारण व्यापार सम्भावनाओं के 72 फीसदी मौके गँवा दिए जाते हैं। इस इलाके के देशों के बीच 65 से 100 अरब डॉलर तक का व्यापार हो सकता है। ये देश परम्परा से एक-दूसरे के साथ जुड़े रहे हैं। म्यांमार यानी बर्मा अपनी भौगोलिक स्थिति के कारण आसियान में चला गया, अन्यथा यह पूरा क्षेत्र एक आर्थिक ज़ोन के रूप में काम कर सकता है। इसकी परम्परागत कनेक्टिविटी राजनीतिक कारणों से खत्म हो गई है। पाकिस्तान को बांग्लादेश, भूटान, नेपाल और श्रीलंका से जोड़ने में भारत की भूमिका हो सकती है। भारत को अफगानिस्तान से जोड़ने में पाकिस्तान की। पर उसके पहले अपने राजनीतिक अंतर्विरोधों को सुलझाना होगा। इसकी शुरुआत भारत और पाकिस्तान से ही होगी।
DIFFERENT ACTORS, SAME SCRIPT: (clockwise from top left) Pervez Musharraf and Atal Bihari Vajpayee in Agra in 2001; Nawaz Sharif and Narendra Modi in New Delhi in May; Nawaz Sharif and Manmohan Singh in New York in September 2013; and YHouzaf Raza Gilani and Manmohan Singh in Sharm El-Sheikh.
DIFFERENT ACTORS, SAME SCRIPT: (clockwise from top left) Pervez Musharraf and Atal Bihari Vajpayee in Agra in 2001; Nawaz Sharif and Narendra Modi in New Delhi in May; Nawaz Sharif and Manmohan Singh in New York in September 2013; and YHouzaf Raza Gilani and Manmohan Singh in Sharm El-Sheikh.