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Thursday, June 5, 2014

राहुल बाबा चाहते क्या हैं?

हिंदू में सुरेंद्र का कार्टून
इतनी लल्लो-चप्पो शायद ही किसी नेता की की गई होगी। राजनीति में हार-जीत लगी रहती है, पर मौके पर सही फैसला करने वाले ही सफल होते हैं। राहुल गांधी को नेतृत्व करना है, तो पूरी तरह करना चाहिए। नहीं करना है तो शांति से अलग हो जाना चाहिए। लोकसभा में पार्टी का नेतृत्व किए बगैर वे किस तरीके की राजनीति करेंगे? सोलहवीं लोकसभा के पहले सत्र में वे कांग्रेस की सबसे पिछलीं बेंच में बैठे।

 कांग्रेस के भीतर असंतोष है, यह बात उजागर होने लगी है। दिल्ली में टूट-फूट का अंदेशा है। पार्टी की केरल शाखा केंद्रीय नेतृत्व के खिलाफ प्रस्ताव पास करने जा रही थी। आज के जागरण में छपी खबर से ऐसा लगता है कि दिल्ली में बची-खुची कसर पूरी होने वाली है। आज की कतरनों पर एक नजर

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Tuesday, June 3, 2014

रक्षा में विदेशी निवेश के अलावा विकल्प ही नहीं है

इस हफ्ते 4 जून से शुरू हो रहे संसद के पहले सत्र में नरेंद्र मोदी सरकार की नीतियों पर रोशनी पड़ेगी. संसद के संयुक्त अधिवेशन में राष्ट्रपति का अभिभाषण इस सरकार का पहला नीतिपत्र होगा. सरकार के सामने फिलहाल तीन बड़ी चुनौतियाँ हैं. महंगाई, आर्थिक विकास दर बढ़ाने और प्रशासनिक मशीनरी को चुस्त करने की. मंहगाई को रोकने और विकास की दर बढ़ाने के लिए सरकार के पास खाद्य सामग्री की सप्लाई और विदेशी निवेश बढ़ाने का रास्ता है. सरकार एफसीआई के पास पड़े अन्न भंडार को निकालने की योजना बना रही है. इस साल मॉनसून खराब होने का अंदेशा है, इसलिए यह कदम जरूरी है.

तेलंगाना में झगड़े अभी और भी हैं

छोटे राज्य बनने से विकास का रास्ता खुलेगा या नहीं यह बाद में देखा जाएगा अभी आंध्र के विभाजन की पेचीदगियाँ सिर दर्द पैदा करेंगी। तेलंगाना का जन्म अटपटे तरीके से हुआ है। झारखंड, छत्तीसगढ़ और उत्तराखंड का जन्म जितनी शांति से हुआ वैसा यहाँ नहीं है। कांग्रेस ने तेलंगाना बनाने का आश्वासन देकर 2004 का चुनाव तो जीत लिया, पर अपने लिए गले की हड्डी मोल ले ली, जिसने उसकी जान ले ली। एक माने में यह देश की सबसे पुरानी माँग है। अलग राज्य तेलंगाना बनाने की माँग देश के पुनर्गठन का सबसे महत्वपूर्ण कारक बनी थी। 1953 में पोट्टी श्रीरामुलु की आमरण अनशन से मौत के बाद तेलुगुभाषी आंध्र का रास्ता तो साफ हो गया था, पर तेलंगाना इस वृहत् आंध्र योजना में जबरन फिट किया गया। भाषा के आधार पर देश का पहला राज्य आंध्र ही बना था, पर उस राज्य को एक बनाए रखने में भाषा मददगार साबित नहीं हुई। राज्य पुनर्गठन आयोग की सलाह थी कि हैदराबाद को विशेष दर्जा देकर तेलंगाना को अलग राज्य बना दिया जाए और शेष क्षेत्र अलग आंध्र बने। नेहरू जी भी आंध्र और तेलंगाना के विलय को लेकर शंकित थे। उन्होंने शुरू से ही कहा था कि इस शादी में तलाक की संभावनाएं बनी रहने दी जाएं। और अंततः तलाक हुआ।

हड़बड़ी में बना राज्य
पन्द्रहवीं लोकसभा के आखिरी सत्र के आखिरी दिन तक इसकी जद्दो-जेहद चली। शोर-गुल, धक्का-मुक्की मामूली बात थी। सदन में पैपर-स्प्रे फैला, किसी ने चाकू भी निकाला। टीवी ब्लैक आउट किया गया। और अभी तय नहीं है कि शेष बचे राज्य का नाम सीमांध्र होगा या कुछ और। उसके मुख्यमंत्री चंद्रबाबू नायडू 8 जून को कहाँ शपथ लेंगे, विजयवाडा में या गुंटूर में। कर्मचारियों के बँटवारे का फॉर्मूला इस रविवार को ही बन पाया है। दोनों राज्यों की सम्पत्ति, जल तथा अन्य प्राकृतिक संसाधनों का बँटवारा समस्याएं पैदा करेगा।
हैदराबाद शहर दोनों राज्यों की राजधानी का काम करेगा, पर इससे तमाम समस्याएं खड़ी होंगी। नई राजधानी बनाने के लिए दस साल का समय है, पर उसके पहले भौगोलिक समस्याएं हैं। व्यावहारिक रूप से हैदराबाद तेलंगाना में है। तेलंगाना के समर्थक हैदराबाद को अपनी स्वाभाविक राजधानी मानते हैं, क्योंकि भौगोलिक और ऐतिहासिक रूप से यह शहर तेलंगाना की राजधानी रहा है। शेष आंध्र या सीमांध्र किसी भी जगह पर हैदराबाद से जुड़ा नहीं है। उसकी सीमा हैदराबाद से कम से कम 200 किलोमीटर दूर होगी। हैदराबाद राज्य का सबसे विकसित कारोबारी केन्द्र है। अब किसी नए शहर का विकास करने की कोशिश होगी तो उसमें काफी समय लगेगा। अविभाजित आंध्र प्रदेश का तकरीबन आधा राजस्व इसी शहर से आता है। सीमांध्र के पास इस किस्म का औद्योगिक आधार बनाने का समस्या है। यहाँ के कारोबारियों में ज्यादातर लोग गैर-तेलंगाना हैं।

प्राकृतिक साधनों का झगड़ा
केवल हैदराबाद की बात नहीं है, छोटे-छोटे गाँवों और कस्बों के लेकर भी विवाद हैं। तेलंगाना के शहरों में रहने वाली बड़ी आबादी की भावनाएं सीमांध्र से जुड़ी हैं। भविष्य की राजनीति में यह तत्व महत्वपूर्ण साबित होगा। चंद्रबाबू नायडू के तेलगुदेशम का प्रभाव तेलंगाना में भी है। पानी के ज्यादातर स्रोत तेलंगाना से होकर गुजरते हैं। कृष्णा और गोदावरी दोनों नदियां तेलंगाना से आती हैं, जबकि ज्यादातर खेती सीमांध्र में है। तेलंगाना के गठन के समय सीमांध्र को विशेष पैकेज देने की बात कही गई थी। यह पैकेज कैसा होगा, इसे लेकर विवाद खड़ा होगा। इधर पोलावरम बाँध को लेकर विवाद शुरू हो गया है। मुख्यमंत्री के चंद्रशेखर राव ने इस परियोजना के लिए खम्मम जिले के कुछ गांव सीमांध्र को देने का विरोध किया है, जबकि सरकार ने इन गांवों को लेकर अध्यादेश जारी किया है।
राजस्थान पत्रिका में प्रकाशित

Sunday, June 1, 2014

पीएमओ का सक्रिय होना

सरकार क्या करेगी और कितनी सफल होगी, कहना मुश्किल है, पर पीेमओ अब सक्रिय हुआ है और सरकार को दिशा दे रहा है, इसमें दो राय नहीं। ग्रुप ऑफ मिनिस्टर्स के रास्ते को त्याग कर सरकार ने अपने काम को पुरानी परम्परा से जोड़ा है। ग्रुप ऑफ मिनिस्टर्स की व्यवस्था भी हमें ब्रिटिश संसदीय व्यवस्था से मिली है, पर उस व्यवस्था में ऐसे ग्रुप की ज़रूरत कभी-कभार पड़ती है।यूपीए सरकार ने अपनी छवि सुधारने और प्रेस को ब्रीफ करने जैसे काम के लिए जीओएम बना दिए थे और बाकी काम राष्ट्रीय सलाहकार परिषद (एनएसी) को दे दिए। इससे सरकार निकम्मी हो गई। इस तरह के ग्रुपों की शुरूआत 1989 में केन्द्र में बहुदलीय सरकार बनने के बाद शुरू ही थी। एनडीए के कार्यकाल में 32 जीओएम बनाए गए और यूपीए-1 के कार्यकाल में 40। यूपीए-2 में बने समूहों की संख्या 200 तक बताते है। तमाम मसलों पर अलग-अलग राय होने के कारण आम सहमति बनाने के लिए मंत्रियों के छोटे ग्रुपों की ज़रूरत महसूस हुई। लगभग इसी वजह से संसदीय व्यवस्था में कैबिनेट की जरूरत पैदा हुई थी। जब तक ताकतवर प्रधानमंत्री होते थे तब तक कैबिनेट प्रधानमंत्री के करीबी लोगों की जमात होती थी। इससे व्यक्ति का रुतबा और रसूख जाहिर होता था। पर यूपीए के कार्यकाल में ये ग्रुप गठबंधन धर्म की मजबूरी और फैसले करने से घबराते नेतृत्व की ओर इशारा करने लगे। फिलहाल वर्तमान सरकार की गति तेज है। पर अभी तक यह कार्यक्रम तय करने के दौर में है। कार्यक्रम बनाना मुश्किल काम नहीं है। उनपर अमल करना दिक्कततलब होता है। कुछ समय बाद इस सरकार के कौशल का पता भी लग जाएगा।

नई सरकार कैसी होगी, यह बात एक हफ्ते के कामकाज को देखकर नहीं बताई जा सकती, पर उसकी गति तेज होगी और वह बड़े फैसले करेगी यह नज़र आने लगा है। नरेंद्र मोदी की सरकार बनने के पहले ही उसकी धमक दिल्ली की गलियों में सुनाई पड़ने लगी थी। सोमवार को शपथ ग्रहण समारोह हुआ। मंगलवार को नवाज शरीफ से बातचीत। बुधवार को अध्यादेश की मदद से भारतीय दूरसंचार विनियामक प्राधिकरण(ट्राई) के पूर्व अध्यक्ष नृपेंद्र मिश्र को प्रधान सचिव नियुक्त किया। नई सरकार का यह पहला अध्यादेश था। उसे लेकर राजनीतिक क्षेत्रों में विरोध व्यक्त किया गया है, पर मोदी सरकार ने इतना स्पष्ट किया कि फैसला किया है तो फिर संशय कैसा। ऐसा लगता है कि नरेंद्र मोदी के भरोसेमंद कई अन्य अफसर पीएमओ में आएंगे। स्वाभाविक है कि भरोसे के अफसर होने भी चाहिए। अलबत्ता यह याद दिलाया जा सकता है कि मनमोहन सिंह के पीएमओ के अफसरों की नियुक्ति में भी फैसले उनके नहीं थे। ऐसा नहीं लगता कि देश की नीतियों मे कोई बुनियादी बदलाव आने वाला है, पर इतना जरूर लगता है कि काम के तरीके में बुनियादी बदलाव आ चुका है।

Wednesday, May 28, 2014

और अब चुनौतियाँ

बादल छँटने के बाद अर्थव्यवस्था की वास्तविकता से सामना हिंदू में केशव का कार्टून

सरकार अब काम-काज के मोड में आ रही है। शपथ-ग्रहण समारोह के बाद दक्षेस के सात देशों और मॉरिशस के प्रतिनिधियों के आगमन ने माहौल को सरगर्म बना दिया। खासतौर से पाकिस्तान के प्रधानमंत्री की यात्रा से विमर्श का स्तर अच्छा हो गया। भारतीय मीडिया में पाकिस्तानी विशेषज्ञों ने आकर इस बातचीत को सार्थक बनाया। लगता है भारत और पाकिस्तान दोनों देशों की सरकारें मीडिया की बातों को घुमाने की प्रवृत्ति से घबराती हैं। कल विदेश सचिव सुजाता सिंह जिस तरह शब्दों को चुन-चुनकर बोल रहीं थीं, उससे लगता था कि उन्हें इस बात की घबराहट थी कि कहीं कुछ गलत मुँह से न निकल जाए। नवाज शरीफ ने अपना बयान पढ़कर सुनाया। उनकी ब्रीफिंग में सवाल-जवाब नहीं हुए। पर इतना तय है कि कुछ होता हुआ लग रहा है। क्या यह सरकार काम करेगी? इस बात के जवाब के लिए कुछ समय इंतज़ार करें, पर स्मृति ईरानी की पढ़ाई और जितेन्द्र सिंह के अनुच्छेद 370 वाले बयान ने विवादों की शुरूआत कर दी है। मीडिया से अपेक्षा थी कि वह वह कुछ महत्वपूर्ण नेताओं की शिक्षा के बारे में बताता मसलन के कामराज, जयललिता, राबड़ी देवी या सोनिया गांधी की शैक्षिक पृष्ठभूमि के बारे में बताया जाता। उपरोक्त नेताओं ने समय आने पर अपनी योग्यता को साबित किया। इस सरकार से काले धन को लेकर अपेक्षाएं हैं और कैबिनेट ने एक विशेष जाँच दल बनाने का फैसला किया है। रोचक बात है कि पिछली यूपीए सरकार ने सत्ता में आखिरी दिन तक इस जाँच दल को बनाने का विरोध किया था। सरकार ने पहला कदम उठाया है इसकी तार्किक परिणति सामने आने में समय लगेगा। देखना है कि स्विस सरकार के साथ सूचनाएं देने वाले समझौते की स्थिति क्या है। आज के टेलीग्राफ में राधिका रमाशेसन की खबर अच्छी है कि स्मृति, अरुण और निर्मला के नामों की चर्चा क्यों हो रही है।






Tuesday, May 27, 2014

मोदी के शपथ ग्रहण की भड़कीली कवरेज

नरेंद्र मोदी का शपथ ग्रहण समारोह जबर्दस्त मीडिया ईवेंट साबित होना ही था। पर पत्रकारों की समझदारी इस बात में थी कि वे अंतर्विरोधों को कितनी बारीकी से पकड़ते हैं। हिंदी के ज्यादातर अखबारों ने भक्तिभाव से कवरेज की और ज्यादा प्रभाव डिजाइन से डालने की कोशिश की। मास्टहैड की तस्वीर को लेकर कोई रचनात्मक योजना दिखाई नहीं पड़ी। ज्यादातर मुहावरे राजतिलक, राज्याभिषेक तक सीमित हैं। इनसे तो एक्सप्रेस का He Signs in बेहतर है। अंतर्कथाएं भी नहीं हैं। खबरों में भी दिल्ली के एक्सप्रेस और कोलकाता के टेलीग्राफ में नयापन था। खासतोर से टेलीग्राफ में शंकर्षण ठाकुर की रपट। अलबत्ता पाकिस्तान के अखबारों ने आज इस खबर को जैसा महत्व दिया है, वह ध्यान खींचता है। आज की कुछ कतरनें





The Telegraph



Indian Express

Pakistan


                                               
                                            





Monday, May 26, 2014

कयासबाजी का शिकार मीडिया



आज पूरा मीडिया मोदी के शपथ ग्रहण को लेकर अभिभूत है। इलेक्ट्रॉनिक मीडिया की सीमा है कि वह रचनात्मक विमर्श और सूचनाएं देने में पूरी तरह समर्थ नहीं है। बेशक उसके पास इतने साधन हैं कि वह काफी प्रभावशाली जानकारी दे सकता है। पर दो कारणों से वह अधकचरी सामग्री परोस कर संतुष्ट हो जाता है। एक तो दर्शक को अच्छे और खराब का अंतर नहीं मालूम। वह सनसनी के खेल में उलझ कर रह जाता है। कल शाम कुछ चैनल भारत और पाकिस्तान के दर्शकों और विशेषज्ञों को बैठाकर  बात कर रहे थे। पर सारी बात पर बेवजह के विवाद हावी थे। तमाम बातों से लोग नावाकिफ थे। लोगों को पता नहीं कि कश्मीर समस्या क्या है, संयुक्त राष्ट्र प्रस्ताव क्या था, सियाचिन का विवाद क्या है और जनरल मुशर्रफ के साथ जिस समझौते की सम्भावना थी वह क्या था। दूसरी ओर भारत को लेकर पाकिस्तान की जनता की शिकायत क्या है, इसे भी समझना चाहिए। होमवर्क बहुत खराब स्तर का है। पर यह अवधारणा बेहतरीन है। दोनों देशों का मीडिया मिलकर काम करे तो परिणाम चमत्कारी हो सकते हैं। आज के टेलीग्राफ ने शपथ ग्रहण समारोह के सिलसिले में राष्ट्रपति भवन के प्रांगण का विहंगम चित्र देकर आसपास की इमारतों का जो परिचय दिया है, वह रचनात्मक पत्रकारिता का परिचायक है। मोदी संरकार की संरचना क्या होगी, इसे लेकर मीडिया में कयास ही कयास हैं। मोदी के नेतृत्व ने खबरों को लीक होने से रोककर मीडिया को हतप्रभ किया है। सबसे बड़ा सस्पेंस किसे क्या  मिलने वाला है? सम्भावित मत्रियों के नामों की सूची मीडिया के पहले सिक्योरिटी को मिली। मीडिया चूकि कयासबाज़ी से जुड़ी खबरें देने का आदी है इसलिए शासन की नीतियों को लेकर अभी तक अच्छी खबरें सामने नहीं आईं हैं।

भारतीय समाज इस वक्त मीडिया से काफी प्रभावित है। हालांकि हमारे मीडिया की आलोचना भी होती है, पर इसमें दो राय नहीं कि छोटे से छोटे शहर में भी भारतीय भाषाओं के अखबारों क पहुँचने और भारी संख्या में समाचार चैनलों के शुरू होने से जानकारी का विस्फोट हो रहा है। न्यूयॉर्क टाइम्स के भारत केंद्रित ब्लॉग India Ink में आज Max Bearak  के आलेख में भारतीय मीडिया कारोबार की बढ़ती सम्भावनाओं का जिक्र है। क्या भारत में एक और मीडिया क्रांति की सम्भावना है। आलेख में कहा गया हैः-

Newspaper is everywhere in India. Print readership, especially of the country’s vernacular press, is continuing to rise.
At breakfast tea joints in Indian cities, people sip chai and unfold their broadsheets, which they lay out over older newspapers, used as a tablecloth, before reaching for samosas packed in makeshift to-go bags, themselves fashioned out of folded and stapled newsprint.
Samir Patil, a longtime Indian media entrepreneur, recounted a quote he once heard attributed to Immanuel Kant. “In modern city life, it has been said that the secular ritual of reading the newspaper replaces the morning prayer.” While that observation may no longer be valid in much of the West, it’s still an apt description of media consumption in India.
पूरा आलेख पढ़ें यहाँ


Sunday, May 25, 2014

कैसा होगा मोदी का ‘ब्रांड इंडिया’

नरेंद्र मोदी की सरकार के बारे में माना जा रहा है कि यह काम करने वाली और साफ बोलने वाली सरकार होगी। चुनाव प्रचार के दौरान वे कई बार ब्रांड इंडिया को चमकाने की बात करते रहे हैं। उनका यह भी कहना था कि यह सदी भारत के नाम है। दुर्भाग्य है कि हम इस दशक की शुरुआत य़ानी सन 2010 से पराभव का दौर देख रहे हैं। सन 2010 में हमने कॉमनवैल्थ गेम्स का आयोजन किया। उसका उद्देश्य भारत की प्रगति को शोकेस करना था। पर हुआ उल्टा। कॉमनवैल्थ गेम्स हमारे लिए कलंक साबित हुआ। टू-जी हमारी तकनीकी प्रगति का संकेतक था। सन 1991 के बाद शुरू हुई आर्थिक क्रांति का पहला पड़ाव था टेलीकम्युनिकेशन की क्रांति। पर यह क्रांति हमारे माथे पर कलंक का टीका लगा गई। जरूरी है कि भारत अपनी उद्यमिता और मेधा को साबित करे। पिछले साल हमारे वैज्ञानिकों ने मंगल ग्रह की ओर एक यान भेजा है। इस साल सितम्बर में यह यान मंगलग्रह की कक्षा में प्रवेश करेगा। हमें मानकर चलना चाहिए कि ऊँचे आसमान से प्रकाशमान होकर यह भारत का नाम इस साल जगमग करेगा।  

Saturday, May 24, 2014

लालू-नीतीश एकता का प्रहसन

बिहार की राजनीति निराली है। वहाँ जो सामने होता है, वह होता नहीं और जो होता है वह दिखाई नहीं देता। जीतनराम मांझी की सरकार को सदन का विश्वास यों भी मिल जाना चाहिए था, क्योंकि सरकार को कांग्रेस का समर्थन हासिल था। ऐसे में लालू यादव के बिन माँगे समर्थन के माने क्या हैं? फिरकापरस्त ताकतों से बिहार को बचाने की कोशिश? राजद की ओर से कहा गया है कि राष्ट्रीय जनता दल की ओर से कहा गया है कि यह एक ऐसा वक़्त है जब फिरकापरस्त ताकतों को रोकने के लिए धर्मनिरपेक्ष ताकतों को छोटे-मोटे मतभेदों को भुलाकर एकजुट हो जाना चाहिए। क्या वास्तव में नीतीश कुमार और लालू यादव के बीच छोटे-मोटे मतभेद थे? सच यह है कि दोनों नेताओं के सामने इस वक्त अस्तित्व रक्षा का सवाल है। दोनों की राजनीति व्यक्तिगत रूप से एक-दूसरे के खिलाफ है। इसमें सैद्धांतिक एकता खोजने की कोशिश रेगिस्तान में सूई ढूँढने जैसी है। जो है नहीं उसे साबित करना।
प्राण बचाने की कोशिश
हाँ यह समझ में आता है कि फौरी तौर पर दोनों नेता प्राण बचाने की कोशिश कर रहे हैं। भला बिन माँगे समर्थन की जरूरत क्या थी? इसे किसी सैद्धांतिक चश्मे से देखने की कोशिश मत कीजिए। यह सद्यःस्थापित एकता अगले कुछ दिन के भीतर दरक जाए तो विस्मय नहीं होना चाहिए। राजद ने साफ कहा है कि मांझी-सरकार को यह समर्थन तात्कालिक है, दीर्घकालिक नहीं। ऐसी तात्कालिक एकता कैसी है? मोदी का खतरा तो चुनाव के पहले ही पैदा हो चुका था। कहा जा रहा है कि बीस साल बाद जनता परिवार की एकता फिर से स्थापित हो गई है। पर यह एकता भंग ही क्यों हुई थी? वे क्या हालात थे, जिनमें जनता दल टूटा? क्या वजह थी कि जॉर्ज फर्नांडिस के नेतृत्व में समता पार्टी ने भाजपा के साथ जाने का फैसला किया?

Friday, May 23, 2014

सोनिया ने मोदी को बधाई दी और नेहरू की विरासत भी सौंपी

हिंदू में केशव का कार्टून : गिलास आधा खाली

दिल्ली में सत्ता परिवर्तन के साथ कई और तरह के परिवर्तन दिखाई पड़ने लगे हैं। भले ही दबे स्वर में हों, पर कांग्रेस में राहुल गांधी के नेतृत्व को लेकर आवाजों उठने लगी हैं। राहुल की कोर टीम के एक सदस्य ने हमलावरों पर जवाबी हमला भी बोला है। आज के अखबारों ने इस खबर को जगह दी है। मुम्बई के डीएनए में यह रोचक खबर है कि कांग्रेस पार्टी के भीतर अपनी हार के लिए जापानी विज्ञापन एजेंसी देंत्सू की नाकामी के अलावा राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की तैयारी और इस्रायली खुफिया एजेंसी मोसाद को भी जिम्मेदार बताया जा रहा है। सारी दुनिया ने नरेंद्र मोदी को बधाई दे दी तो सोनिया गांधी को लगा कि अपुन भी बधाई दे दें। पर जिस खबर को आज कोलकाता के टेलीग्राफ ने प्रमुखता दी है वह है सोनिया गांधी का नेहरू संग्रहालय की अध्यक्षता से इस्तीफा। अब इस विरासत को नरेंद्र मोदी की सरकार सम्हालेगी। स्वाभाविक है कि नेहरू की विरासत राष्ट्रीय है। टेलीग्राफ की यह खबर भी रोचक है कि राष्ट्रपति भवन के शपथ ग्रहण समारोह के लिए तैयार किए गए तम्बू में जगह सिर्फ 1250 मेहमानों की है। इनमें 777 तो सांसद ही होंगे। बाकी के लिए जगह कितनी है? दैनिक भास्कर ने खबर दी है कि नरेंद्र मोदी आर्थिक नीति से जुड़े कुछ बड़े फैसलों के साथ-साथ गंगा की सफाई के लिए 25 हजार करोड़ की योजना की घोषणा भी करने वाले हैं। अखबारों में इस किस्म की खबरें हैं कि अगले 100 दिन में मोदी सरकार किस तरह से महंगाई पर रोक लगाएगी। नज़र डालें आज की कुछ खास खबरों पर
DNA

Telegraph




भास्कर



जागरण


Wednesday, May 21, 2014

राहुल की हँसी और केजरीवाल की पहलकदमी


आज के अखबारों में स्वाभाविक रूप से नरेंद्र मोदी का भावुक भाषण छाया है। कल शाम सारे चैनलों में इस विषय पर ही विमर्श हो रहा था। सरकार के सामने क्या काम हैं और सरकार किस तरह की बन रही है, ये सवाल कल शाम तक पटल पर नहीं थे। एकाध दिन यह और चलेगा। इसके बाद गाड़ी देश के सामने खड़े महत्वपूर्ण सवालों पर आएगी। आज की खबरों में दिल्ली में आम आदमी पार्टी की फिर से सरकार बनाने की पहलकदमी की खबर महत्वपूर्ण है। 'आप' के निहायत अपरिपक्व नेता अब अलोकप्रियता के शिखर पर जल्द से जल्द पहुँचने को आतुर हैं। उन्हें मान लेना चाहिए कि उनकी गाड़ी छूट चुकी है। जिस विधानसभा को भंग करने के लिए वे अदालत में जा चुकें हैं, उसे फिर से जगाने की कोशिश वे क्यों कर रहे हैं? यह सम्भव भी तभी है, जब कांग्रेस इसमें उनका साथ दे। क्या कांग्रेस उनका साथ देगी? आप अब रक्षात्मक मुद्रा में है। तीन महीने पहले उन्हें लगता था कि दुबारा चुनाव हुआ तो उन्हें पूर्ण बहुमत मिलेगा। पर अब उनका आत्मविश्वास डोल गया है। उन्होंने यों भी सिद्धांततः मान लिया है कि भ्रष्टाचार से ज्यादा बड़ी लड़ाई साम्प्रदायिकता के खिलाफ है। अब इस लड़ाई को तार्किक परिणति तक पहुँचाना चाहिए। बहरहाल देखिए क्या होता है। लखनऊ में सपा और बसपा ने चुनाव हारने के बाद कुछ लोगों को सज़ा देने का फैसला किया है। बसपा का यह फैसला रोचक है कि अब केवल मायावती जिन्दाबाद के अलावा किसी दूसरे नेता की जिन्दाबाद नहीं हो सकेगी। भारतीय लोकतंत्र प्रौढ़ होता जा रहा है। कुछ कतरनों पर गौर कीजिए।

पिताजी जीता कौन? हिंदू में सुरेंद्र का कार्टून। इस कार्टून का संदर्भ नीचे की तस्वीर से समझा जा सकता है। 

कोलकाता के टेलीग्राफ ने मंगलवार को यह तस्वीर छापी जिसमें राहुल गांधी की दो मुद्राएं दिखाई गई हैं। पिछले शुक्रवार को कांग्रेस की पराजय की खबरें आने के बाद संक्षिप्त से संवाददाता सम्मेलन में राहुल गांधी मुस्कराते हुए आए थे। इसके विपरीच सोमवार को कांग्रसे कार्यसमिति की बैठक में वे लगातार गुमसुम बैठे रहे। शायद अभी वे खुद को मौके के हिसाब से प्रतिक्रिया देने में सफल नहीं हो पाए हैं। 






Tuesday, May 20, 2014

मोदी-आंधी बनाम ‘खानदान’ गांधी

मंजुल का कार्टून
हिंदू में सुरेंद्र का कार्टून

कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक में सोनिया गांधी और राहुल गांधी के इस्तीफों की पेशकश नामंजूर कर दी गई। इस पेशकश के स्वीकार होने की कल्पना भी नहीं की जा सकती। गांधी परिवार के बगैर अब कांग्रेस का कोई मतलब नहीं है। कांग्रेस को जोड़े रखने का एकमात्र फैविकॉल अब यह परिवार है। संयोग से कांग्रेस की खराबी भी यही मानी जाती है। कांग्रेस के नेता एक स्वर से कह रहे हैं कि पार्टी फिर से बाउंसबैक करेगी। 16 मई को हार की जिम्मेदारी लेते हुए राहुल और सोनिया ने कहा था कि हम अपनी नीतियों और मूल्यों पर चलते रहेंगे। बहरहाल अगला एक साल कांग्रेस और एनडीए दोनों के लिए महत्वपूर्ण होगा। मोदी सरकार को अपनी छाप जनता पर डालने के लिए कदम उठाने होंगे, वहीं कांग्रेस अब दूने वेग से उसपर वार करेगी।  

अभी तक कहा जाता था कि वास्तविक सार्वदेशिक पार्टी सिर्फ कांग्रेस है। सोलहवीं लोकसभा में दस राज्यों से कांग्रेस का एक भी प्रतिनिधि नहीं है। क्या यह मनमोहन सिंह की नीतियों की पराजय है? एक मौन और दब्बू प्रधानमंत्री को खारिज करने वाला जनादेश? पॉलिसी पैरेलिसिस के खिलाफ जनता का गुस्सा? या नेहरू-गांधी परिवार का पराभव? क्या कांग्रेस इस सदमे से बाहर आ सकती है? शुक्रवार की दोपहर पार्टी अध्यक्ष सोनिया गांधी और राहुल गांधी ने एक संक्षिप्त संवाददाता सम्मेलन में अपनी हार और उसकी जिम्मेदारी स्वीकार की। पर पाँच मिनट के उस एकतरफा संवाद से ऐसा महसूस नहीं हुआ कि पार्टी अंतर्मंथन की स्थिति में है या उसे कोई पश्चाताप है। फिलहाल चेहरों पर आक्रोश दिखाई पड़ता है। पार्टी के नेता स्केयरक्रोयानी मोदी का डर दिखाने वाली अपनी राजनीति के आगे सोच नहीं पा रहे हैं। वे अब भी मानते हैं कि उनके अच्छे काम जनता के सामने नहीं रखे जा सके। इसके लिए वे मीडिया को कोस रहे हैं।

चुनाव परिणाम आने के दो दिन पहले से कांग्रेसियों ने एक स्वर से बोलना शुरू कर दिया था कि हार हुई तो राहुल गांधी इसके लिए जिम्मेदार नहीं होंगे। कमलनाथ ने तो सीधे कहा कि वे सरकार में नहीं थे। कहीं गलती हुई भी है तो सरकार से हुई है, जो अपने अच्छे कामों से जनता को परिचित नहीं करा पाई। यानी हार का ठीकरा मनमोहन सिंह के सिर पर। पिछले दो साल के घटनाक्रम पर गौर करें तो हर बार ठीकरा सरकार के सिर फूटता था। और श्रेय देना होता था तो राहुल या सोनिया की जय-जय।

Sunday, May 18, 2014

इन बुज़ुर्गों से कैसे निपटेंगे मोदी?

हिंदू में सुरेंद्र का कार्टून
भारतीय जनता पार्टी को मिली शानदार सफलता ने नरेंद्र मोदी के सामने कुछ चुनौतियों को भी खड़ा किया है। पहली चुनौती विरोधी पक्ष के आक्रमणों की है। पर वे उससे निपटने के आदी है। लगभग बारह साल से हट मोदी कैम्पेन का सामना करते-करते वे खासे मजबूत हो गए हैं। संयोग से लोकसभा के भीतर उनका अपेक्षाकृत कमज़ोर विपक्ष से सामना है। कांग्रेस के पास संख्याबल नहीं है। बड़ी संख्या में उसके बड़े नेता चुनाव हार गए हैं। तृणमूल कांग्रेस, बीजू जनता दल और अद्रमुक के साथ वे बेहतर रिश्ते बना सकते हैं। बसपा है नहीं, सपा, राजद, जदयू और वाम मोर्चा की उपस्थिति सदन में एकदम क्षीण है। इस विरोध को लेकर आश्वस्त हो सकते हैं।