Wednesday, March 13, 2024

अफ़ग़ान-प्रशासन के साथ जुड़ते भारत के तार

 


देस-परदेस

अरसे से हमारा ध्यान अफ़ग़ानिस्तान की ओर से हट गया है, पर पिछले गुरुवार 7 मार्च को एक भारतीय प्रतिनिधिमंडल ने अफगानिस्तान के वरिष्ठ अधिकारियों से मुलाकात की, तो एकबारगी नज़रें उधर गई हैं. चीन, रूस, अमेरिका और पाकिस्तान समेत विश्व समुदाय के साथ तालिबान के संपर्कों को लेकर भी उत्सुकता फिर से जागी है.

तालिबानी सत्ता क़ायम होने के बाद भारत ने अफ़ग़ान नागरिकों को वीज़ा जारी करना बंद कर दिया है, लेकिन पिछले दो वर्षों में उसने आश्चर्यजनक तरीके से काबुल के साथ संपर्क स्थापित किया है.

अगस्त 2021 में काबुल पर तालिबानी शासन की स्थापना के बाद पिछले दो-ढाई साल में भारतीय अधिकारियों के दो शिष्टमंडल अफ़ग़ानिस्तान की यात्रा कर चुके हैं. जून, 2022 में काबुल में भारत का तकनीकी मिशन खोला गया, जो मानवीय कार्यक्रमों का समन्वय करता है.

पिछले गुरुवार को भारतीय विदेश मंत्रालय के संयुक्त सचिव स्तर के अधिकारी जेपी सिंह ने तालिबान के विदेशी मामलों को प्रभारी (वस्तुतः विदेशमंत्री) आमिर खान मुत्तकी तथा अन्य अफ़ग़ान अधिकारियों के साथ बातचीत की. प्रत्यक्षतः यह मुलाकात मानवीय सहायता के साथ-साथ अफ़ग़ान व्यापारियों द्वारा चाबहार बंदरगाह के इस्तेमाल पर भी हुई.

कंधार दफ्तर खुलेगा?

तालिबान-प्रवक्ता ने कहा कि भारतीय प्रतिनिधि ने अफ़ग़ान व्यापारियों को वीज़ा जारी करने के लिए जरूरी व्यवस्था करने का आश्वासन दिया है. इससे क़यास लगाया जा रहा है कि कंधार में भारत अपना वाणिज्य दूतावास खोल सकता है. अफ़ग़ानिस्तान ने कारोबारियों, मरीज़ों और छात्रों को भारत का वीज़ा देने का अनुरोध किया है.

हामिद करज़ाई या अशरफ ग़नी की सरकारों के साथ भारत के रिश्ते जैसे थे, वैसे या उसके आसपास की कल्पना करना अभी सही नहीं होगा, पर तालिबान के पिछले प्रशासन की तुलना में इस वक्त के रिश्ते बेहतर स्थिति में हैं. 1996 से 2001 के बीच दोनों देशों के बीच किसी किस्म का संवाद नहीं था. आज कम से कम भारतीय दूतावास तकनीकी दृष्टि से खुला है, और सीधे बातचीत संभव है.

भारतीय प्रतिनिधियों ने अफ़ग़ान सरकार के वरिष्ठ सदस्यों के अलावा पूर्व राष्ट्रपति हामिद करज़ाई, अफगानिस्तान में संयुक्त राष्ट्र सहायता मिशन (यूएनएएमए) के अधिकारियों और अफ़ग़ान-व्यापारियों से भी मुलाकात की. हामिद करज़ाई से मुलाकात महत्वपूर्ण है, क्योंकि अफ़ग़ानिस्तान की पिछली सरकार के वे सबसे महत्वपूर्ण व्यक्ति हैं, जिन्होंने काबुल में रहना स्वीकार किया है.

पाकिस्तान की भूमिका

अफ़ग़ानिस्तान को लेकर भारत की मूल चिंता पाकिस्तान की भूमिका को लेकर भी है. अतीत में भारत की समझ रही है कि तालिबान, पाकिस्तान-परस्त हैं. अंदेशा था कि तालिबान के आते ही पाकिस्तान का प्रभाव बढ़ जाएगा, पर ऐसा हुआ नहीं. हाल में पाकिस्तान ने अपने यहाँ अवैध तरीके से रह रहे विदेशियों को देश छोड़ने का आदेश दिया है. तब से इन रिश्तों में और ज्यादा खटास आ गई है.

पिछले कुछ समय से पाकिस्तान की पश्चिमोत्तर सीमा पर तहरीके तालिबान की गतिविधियाँ बढ़ गई हैं. हाल में तालिबान के उप विदेशमंत्री शेर मुहम्मद स्तानिकज़ाई ने कहा कि पाकिस्तान पश्तून जनजातियों पर डूरंड रेखा लागू नहीं कर सकता. इतना ही नहीं उन्होंने चेतावनी दी कि जिस तरह 1971 में पाकिस्तान के दो टुकड़े हुए थे, वैसा ही अब हो जाएगा.

कारोबार और सुरक्षा

नवीनतम मुलाकात के बाद जारी अफगानिस्तान सरकार के एक बयान में कहा गया है कि जेपी सिंह और मुत्तकी ने सुरक्षा, व्यापार और नशीले पदार्थों का मुकाबला करने के तरीकों से संबंधित मुद्दों पर चर्चा की. मानवीय सहायता के लिए भारत का आभार व्यक्त करते हुए मुत्तकी ने कहा कि अफगानिस्तान भारत के साथ राजनीतिक और आर्थिक संबंधों को मजबूत करना चाहता है.

उन्होंने अफगान व्यापारियों, मरीजों और छात्रों के लिए भारत द्वारा वीजा जारी करने की सुविधा प्रदान करने का आह्वान किया. दुनिया के शेष देशों की तरह भारत ने भी अभी तक तालिबान शासन को मान्यता नहीं दी है, पर हाल में चीन जिस तरह से तालिबान सरकार को अनौपचारिक-मान्यता दी है, उसके बाद हमें भी विकल्पों पर विचार करना चाहिए.

पश्चिम की आर्थिक पाबंदियों के कारण अफ़ग़ान नागरिकों के सामने संकट पैदा हो गया है. वहाँ जबर्दस्त बेरोज़गारी और भुखमरी है. अंतरराष्ट्रीय एजेंसियों का आकलन है कि वहाँ करीब एक करोड़ 30 लाख लोग (करीब 30 फीसदी जनसंख्या) जबर्दस्त खाद्य असुरक्षा के शिकार हैं. 

समावेशी सरकार

भारत की माँग है कि काबुल में समावेशी सरकार की स्थापना हो. इसका अर्थ है कि उसमें केवल पश्तूनों का वर्चस्व नहीं हो. ताजिक और हज़ारा जैसे दूसरे समुदायों की भागीदारी भी उसमें हो. इसके अलावा स्त्रियों को लेकर उसकी नीति में बदलाव हो. भारत इस बात पर भी जोर दे रहा है कि अफ़ग़ानिस्तान की ज़मीन का इस्तेमाल किसी भी देश के खिलाफ आतंकवादी गतिविधियों के लिए नहीं किया जाना चाहिए.

भारत को मध्य एशिया से कारोबार के लिए रास्ते की जरूरत है. पाकिस्तान हमें रास्ता देगा नहीं. हमने ईरान के रास्ते अफगानिस्तान को जोड़ने की योजना बनाई थी. भारत ने ईरान में चाबहार-ज़ाहेदान रेलवे लाइन का विकल्प तैयार किया. हमारे सीमा सड़क संगठन ने अफगानिस्तान में जंरंज से डेलाराम तक 215 किलोमीटर लम्बे मार्ग का निर्माण किया है, जो निमरोज़ प्रांत की पहली पक्की सड़क है.

ईरान के रास्ते कारोबार

भारत-ईरान और अफगानिस्तान ने 2016 में एक त्रिपक्षीय समझौता किया था, जिसमें ईरान के रास्ते अफगानिस्तान तक कॉरिडोर बनाने की बात थी. भारत ने अफगानिस्तान को इस रास्ते से गेहूँ भेजकर इसकी शुरुआत भी की थी.

इस प्रोजेक्ट को उत्तर-दक्षिण कॉरिडोर के साथ भी जोड़ने की बात है. अफगानिस्तान के ताजा घटनाक्रम के अलावा दो और तथ्य भारत की भूमिका को निर्धारित करेंगे. एक, भविष्य में ईरान के साथ हमारे रिश्तों की भूमिका और दूसरे इस क्षेत्र में चीन की पहलकदमी. ईरान की दिलचस्पी भी अफगानिस्तान में है.

तालिबान के दृष्टिकोण में भी बदलाव आया है. उन्हें पता है कि भारत ने अफगानिस्तान के विकास में मदद की है, जिसकी आज उन्हें जरूरत है. भारत ने पिछले 20 वर्ष में अफगानिस्तान के इंफ्रास्ट्रक्चर पर करीब तीन अरब डॉलर का पूँजी निवेश किया है. सड़कों, पुलों, बाँधों, रेल लाइनों, शिक्षा, चिकित्सा, खेती और विद्युत-उत्पादन की तमाम योजनाओं पर भारत ने काम किया है और जब भारत वहाँ से हटा था, तब काफी पर काम चल रहा था.

निर्माण ठप

सलमा बाँध और देश का संसद-भवन इस सहयोग की निशानी है. जिस वक्त तालिबानी शासन की वापसी हुई थी, उन दिनों काबुल नदी पर शहतूत बाँध पर काम शुरू ही हुआ था. सत्ता-परिवर्तन के साथ ही इन सभी परियोजनाओं पर काम रुक गया है और हजारों इंजीनियर तथा कर्मचारी भारत वापस चले गए.

2022 में पहले जून के महीने में और उसके बाद अक्तूबर में भारत के वरिष्ठ अधिकारियों की टीम ने अफ़ग़ानिस्तान का दौरा किया था. जून के बाद दूतावास में छोटी सी टीम भी तैनात कर दी गई, जिसका काम राजनयिक संपर्कों को बनाए रखना और खासतौर से मानवीय सहायता से जुड़े कामों को देखना है.

हालात बदले हुए हैं. तब तालिबान पुलों, बाँधों और सड़कों पर हमला करते थे. अब वे इनकी सुरक्षा की गारंटी दे रहे हैं. जून 2022 में जब भारत का पहला शिष्टमंडल वहाँ गया, तब अफगान नेताओं ने भारत से आग्रह किया है कि आप कम से कम 20 परियोजनाओं पर काम शुरू करें, जो अधूरी पड़ी हैं. मोटे तौर पर 400 से अधिक परियोजनाएं अफगानिस्तान के 34 प्रांतों में शुरू की गई थीं. ये फिलहाल बंद पड़ी हैं.

व्यावहारिक दिक्कतें

परियोजनाएं शुरू करना आसान नहीं है. बिजली, सड़क और संचार से जुड़ी परियोजनाओं के लिए उपकरण भेजना ही दिक्कत तलब है. मानवीय सहायता के रूप में गेहूं भेजने में काफी परेशानी हुई. पाकिस्तान हमें सड़क के रास्ते माल भेजने की अनुमति नहीं देता है.

अपने श्रमिकों और परियोजनाओं से जुड़े कर्मचारियों की सुरक्षा को लेकर भी भारत आश्वस्त होना चाहेगा. कारोबारों के लिए बीमा कवरेज अभी वहाँ उपलब्ध नहीं है. बैंकिंग व्यवस्था दुनिया से कटी हुई है. अफगानिस्तान की परियोजनाओं के अलावा भारत में पढ़ने वाले छात्रों के लिए वीज़ा वगैरह की सुविधाओं से जुड़े मसले भी हैं.

इस साल जनवरी में तालिबान विदेशमंत्री आमिर मुत्तकी ने 11 देशों के राजनयिकों की बैठक बुलाई, जिसमें भारत भी शामिल था. इसका उद्देश्य क्षेत्रीय सहयोग की व्यवस्था को बनाना था.

काबुल में चीन, पाकिस्तान, रूस समेत कुछ देशों के दूतावास चल रहे हैं. भारत की एक तकनीकी टीम वहाँ काम कर रही है. इसी तरह अफगानिस्तान के 14 दूतावास विभिन्न देशों में चल रहे हैं. इनमें पाकिस्तान, उज़्बेकिस्तान और ताजिकिस्तान हैं. भारत में हालांकि अफ़ग़ानिस्तान के अधिकृत दूतावास ने काम बंद कर दिया है, पर अफ़ग़ान कर्मियों के मार्फत अनौपचारिक व्यवस्था चल रही है. 

चीनी मान्यता?

इस बीच एक खबर ने दुनिया का ध्यान खींचा. गत 30 जनवरी को चीन ने चुपके से बिलाल करीमी को अफ़ग़ानिस्तान के राजदूत के रूप में स्वीकार कर लिया. चीन ने इसके फौरन बाद एक स्पष्टीकरण भी जारी किया कि राजदूत के परिचय पत्र को स्वीकार करने का मतलब देश के रूप में मान्यता देना नहीं है, पर स्पष्टीकरण और वास्तविकता में मेल नहीं है.

एक तरह से चीन ने तालिबान-प्रशासन को मान्यता दे दी है और ऐसा करने वाला वह अकेला दश है. विश्व समुदाय ने अभी तक मान्यता नहीं दी है. ज़ाहिर है कि चीन के इस कदम से तालिबान के साथ उसके रिश्ते उच्चतर धरातल पर पहुँच गए हैं. नब्बे के दशक में तालिबान की सरकार को सऊदी अरब, यूएई, क़तर और पाकिस्तान ने तो मान्यता दी थी, पर चीन ने नहीं दी थी, बावजूद इसके संपर्क तब भी बनाकर रखा था.

चीनी इरादे

चीन की दिलचस्पी दो कारणों से है. एक, सुरक्षा और दूसरे आर्थिक सहयोग. वीगुर विद्रोहियों की गतिविधियों पर निगाह रखने के लिए चीन ने मध्य एशिया के देशों के साथ रिश्ते बनाए हैं. चीन ही नहीं रूस की दिलचस्पी भी तालिबान के साथ बेहतर रिश्ते बनाकर रखने में है. अस्सी के दशक में जहाँ तालिबान की लड़ाई सोवियत सेना से थी, पर वह अतीत हो चुका है.

चीन के अलावा रूस, ईरान, तुर्की और भारत ने भी अपने हितों को देखते हुए तालिबान के साथ संपर्क बनाया है. इन देशों की मान्यता है कि तालिबान को खारिज करने से बेहतर है कि उसके साथ संवाद बनाकर रखा जाए. भारत जैसे देशों को यह भी समझ में आता है कि तालिबान को अकेला छोड़ने का मतलब है चीन की ओर धकेलना.

वीगुर और लीथियम

चीन के शिनजियांग प्रांत से जुड़ा तुर्किस्तान इस्लामिक पार्टी (टीआईपी) नामक वीगुर ग्रुप मध्य एशिया में सक्रिय है. इस ग्रुप का पहले नाम था ईस्ट तुर्किस्तान इस्लामिक मूवमेंट (ईटीआईएम). तालिबान का भी इस ग्रुप के साथ संपर्क है. चीन चाहता है कि तालिबान इस ग्रुप के खिलाफ कार्रवाई में उसका साथ दे, पर उसे सफलता मिलेगी या नहीं, कहना मुश्किल है.

चीन को औद्योगिक इस्तेमाल के लिए खनिजों की जरूरत है. वह अफ्रीका में खदानों को खरीद रहा है या पट्टे पर हासिल कर रहा है. अफ़ग़ानिस्तान में कई तरह के खनिज उपलब्ध हैं, जिनपर चीन की निगाहें हैं. दुनिया के सबसे बड़े ताँबे के भंडारों में से एक काबुल के दक्षिण-पूर्व में है.

उसके लीथियम-भंडार पर चीन की निगाहें हैं. पिछले साल अप्रेल में तालिबान की ओर से कहा गया था कि एक चीनी फर्म 10 अरब डॉलर के निवेश से लीथियम के खनन की योजना बना रही है, जिससे करीब एक लाख 20 हजार लोगों को काम मिल सकता है.

पिछले साल चीन की अनेक कंपनियों ने तालिबान के साथ कई तरह के समझौते किए हैं. इनमें सबसे प्रमुख है खनिज तेल निकालने का 25 वर्ष का समझौता. तालिबान की दिलचस्पी चीन-पाकिस्तान आर्थिक गलियारे में भी है.

आवाज़ द वॉयस में प्रकाशित

 

 

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