वाराणसी को आप देश की सबसे प्रमुख लोकसभा सीट मान सकते हैं. वहाँ से नरेंद्र मोदी दो बार जीतकर प्रधानमंत्री बने हैं. मोदी के जीवन में वाराणसी की और वाराणसी नगर के आधुनिक इतिहास में, मोदी की महत्वपूर्ण भूमिका है.
दुनिया प्राचीनतम
नगरों में एक शिव की यह नगरी हिंदुओं के महत्वपूर्ण तार्थस्थलों में एक है. देश के
हरेक कोने से तीर्थयात्री यहाँ आते हैं. अब यह भारत की राजनीति का महत्वपूर्ण
केंद्र है.
2014 के चुनाव में
मोदी ने इस चुनाव-क्षेत्र को अपनाया, तो इसके अनेक मायने थे. देश और विदेश का हिंदू समाज वाराणसी
की ओर देखता है. इसे सामाजिक-मोड़ दिया जा सकता है. ‘माँ गंगा और
बाबा विश्वनाथ’ के उद्घोष से एक नई सांस्कृतिक चेतना जगाई
जा सकती है.
2014 के चुनाव परिणाम
आने के पहले तक अनेक पर्यवेक्षकों को लगता था कि त्रिशंकु संसद भी बन सकती है. हालांकि
ज्यादातर चुनाव पूर्व सर्वेक्षण यह भी कह रहे
थे कि एनडीए को सबसे ज्यादा सीटें मिलेंगी, पर पूर्ण बहुमत का अनुमान बहुत कम को
था.
उत्तर प्रदेश की भूमिका
एनडीए और खासतौर से बीजेपी को मिली जीत
अप्रत्याशित थी. इसमें सबसे बड़ी भूमिका उत्तर प्रदेश की थी, जहाँ की 80 में से 73
सीटें एनडीए को मिलीं. इनमें से 71 बीजेपी के नाम थीं. उत्तर प्रदेश की इस
ऐतिहासिक सफलता ने राष्ट्रीय राजनीति में बड़ा उलट-फेर कर दिया.
जून 2013 में गोवा में हुई पार्टी की राष्ट्रीय
कार्यकारिणी की बैठक के बाद यह स्पष्ट हो गया कि नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री पद के
प्रत्याशी होंगे. इसके पहले पार्टी अध्यक्ष राजनाथ सिंह ने अमित शाह को पार्टी का
महामंत्री बनाया और उत्तर प्रदेश का प्रभारी.
अमित शाह को अच्छा चुनाव प्रबंधक माना जाता था, पर उस समय तक उनका अनुभव केवल गुजरात का था. यूपी गुजरात के मुकाबले बड़ा प्रदेश तो था ही, साथ में वहाँ के पार्टी संगठन की दिलचस्पी नरेंद्र मोदी में कम थी. 2012 के विधानसभा चुनाव में मोदी को उत्तर प्रदेश में प्रचार के लिए बुलाया भी नहीं गया. उस चुनाव में बीजेपी को भारी विफलता का सामना करना पड़ा था.
‘प्रश्न प्रदेश’ का उत्तर
बीजेपी के लिए
वह ‘प्रश्न प्रदेश’ बन गया था. प्रदेश की बागडोर अमित शाह को देने का अर्थ, बहुत से लोग नहीं समझ पा
रहे थे. बाहर का एक व्यक्ति इस जटिल राज्य की गुत्थी को कैसे सुलझाएगा? बहरहाल उत्तर प्रदेश की चमत्कारिक विजय के सूत्रधार अमित
शाह ही बने, जो प्रदेश के मूल निवासी नहीं थे, और जिन्हें एक मजबूरी के कारण उत्तर
प्रदेश में प्रवास करना पड़ा.
2010 में वे सोहराबुद्दीन मामले में जेल गए थे.
जुलाई 2010 में
आरोप-पत्र दाखिल होने के बाद सीबीआई ने उन्हें गिरफ्तार कर लिया. तीन महीने बाद जब
उन्हें जमानत मिली, तो अदालत में एक याचिका डाली गई कि वे गवाहों को प्रभावित कर
सकते हैं. इसपर अदालत ने उन्हें गुजरात से बाहर जाने का आदेश दिया. वे दिल्ली आ गए.
दिल्ली में रहते हुए
अमित शाह ने उत्तर प्रदेश की यात्राएं कीं. उस दौरान वे विभिन्न वर्गों से मिले,
मठों में रातें गुजारीं, साधुओं और धार्मिक नेताओं से बातें कीं, पुराने
दस्तावेजों का अध्ययन किया.
अमित शाह की
यात्रा
सितंबर 2010 में जब अमित शाह पहली बार वाराणसी
गए, तब वे पार्टी के न तो अध्यक्ष थे और न महामंत्री. कहना मुश्किल है कि उनके मन
में उस समय चुनाव को लेकर कोई विचार था भी या नहीं. नरेंद्र मोदी के राष्ट्रीय
राजनीति में शामिल होने की संभावना भी उस समय नहीं थी.
अलबत्ता 2012 के
विधानसभा चुनाव के दौरान उन्होंने अपना समय उत्तर प्रदेश में बिताया. उस समय उनकी
कोई संगठनात्मक भूमिका नहीं थी. पार्टी के सामान्य कार्यकर्ता के रूप में वे
व्यक्तिगत रूप से उत्तर प्रदेश आए. यहाँ तक कि अपने आने-जाने और रहने की व्यवस्था
भी उन्होंने स्वयं ही की.
उस चुनाव में यह स्पष्ट
हो रहा था कि राज्य में पार्टी बिखर रही है. उन्हें यह भी स्पष्ट हो रहा था कि
दिल्ली का रास्ता उत्तर प्रदेश होकर जाता है. संभवतः उन्होंने ही नरेंद्र मोदी को
इस बात के लिए तैयार किया कि वे वाराणसी से चुनाव लड़ें.
पार्टी के आंतरिक
सर्वेक्षण बता रहे थे कि पश्चिमी उत्तर प्रदेश में उसकी जड़ें जरूर हैं, पर पूर्वी
उत्तर प्रदेश में वह अपेक्षाकृत कमज़ोर है. वाराणसी पूर्वी उत्तर प्रदेश का गढ़
है. वहाँ से मोदी के खड़ा होने पर पूर्वी उत्तर प्रदेश पर लोगों का ध्यान जाएगा. यह
आर्थिक रूप से भी पिछड़ा इलाका है. नरेंद्र मोदी विकास का मंत्र फूँक रहे थे,
जिसने इस इलाके के लोगों को आकर्षित किया.
वाराणसी का
महत्व
चुनाव के पहले सायास
या अनायास पैदा हुई नाटकीयता से भी वाराणसी का महत्व देखते ही देखते बढ़ गया. मोदी
के लिए वाराणसी नया क्षेत्र था. पता नहीं परिणाम क्या आए?
उन्होंने वडोदरा से भी मैदान में उतरने का निश्चय किया.
2009 में इस लोकसभा
क्षेत्र से पार्टी के वरिष्ठ नेता मुरली मनोहर जोशी जीते थे. बावजूद इसके वाराणसी
को खास राजनीतिक-महत्व नहीं मिल पाया. फरवरी-मार्च 2014 में होली के पहले ही यह
स्पष्ट होने लगा था कि मोदी वाराणसी से भी लड़ेंगे. वहाँ नारे लगने लगे, ‘बच्चा माँगे माँ की गोदी, काशी माँगे नरेंद्र मोदी.’
1952 में इस सीट का
नाम बनारस डिस्ट्रिक्ट सेंट्रल था. 1957 के चुनाव में
इसका नाम वाराणसी हो गया. 1952, 57 और 1962 के आम चुनाव में यहाँ
से कांग्रेसी नेता रघुनाथ
सिंह चुने गए. 1962 में उनके खिलाफ यहाँ से जनसंघ की ओर से
भाषा शास्त्री आचार्य रघुवीर खड़े हुए थे, जो बाद में जनसंघ के अध्यक्ष भी
बने.
1967 में यहां से पहली बार सीपीएम के सत्य नारायण सिंह ने चुनाव जीता. 1971 में कांग्रेस के राजाराम शास्त्री सांसद बने. 1977 की कांग्रेस विरोधी लहर
में चंद्रशेखर जनता पार्टी के टिकट पर जीते. 1980 में यहाँ से कांग्रेस के कमलापति
त्रिपाठी जीते, जिन्होंने केंद्र में रेलमंत्री और उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री पद
पर भी कार्य किया.
1984 में यहाँ से
कांग्रेस के श्यामलाल यादव जीते, जिन्होंने कम्युनिस्ट पार्टी के ऊदल को हराया. उन्हें
जब कांग्रेस ने प्रत्याशी बनाया, तो कहा गया कि कमलापति त्रिपाठी का टिकट काटकर
उन्हें दिया गया है. पर उन्होंने अपने प्रचार की शुरुआत कमलापति से ही आशीर्वाद
लेकर की. 1989 में यहाँ से लाल बहादुर शास्त्री के पुत्र अनिल
शास्त्री जनता दल के टिकट पर जीते.
भाजपा की पहली
जीत
1991 में यहाँ से भारतीय
जनता पार्टी के श्रीश चंद्र दीक्षित जीते, जो राज्य के पुलिस महानिदेशक भी रह चुके
थे. वाराणसी लोकसभा क्षेत्र से भाजपा के किसी प्रत्याशी की न केवल यह पहली जीत थी,
बल्कि उसके बाद से यहाँ पार्टी केवल एक बार परास्त हुई है.
श्रीश चंद्र दीक्षित
ने सीपीएम के राजकिशोर को पराजित किया. कांग्रेस के लोकपति त्रिपाठी इस चुनाव में
तीसरे स्थान पर रहे. 1996 में यहाँ से बीजेपी के शंकर प्रसाद जायसवाल को विजय
मिली. वे 1998 और 99 के चुनावों में भी यहाँ से जीते.
शंकर प्रसाद जायसवाल के
विजय रथ को 2004 में कांग्रेस के राजेश कुमार मिश्र ने रोका. इसके बाद 2009 में इस
सीट से बीजेपी ने मुरली मनोहर जोशी को उतारा. उन्होंने बसपा के मुख्तार अंसारी को
हराकर यह सीट जीती.
2014 में बीजेपी ने
यहाँ से नरेंद्र मोदी को खड़ा करने का फैसला किया और डॉ जोशी को कानपुर से टिकट
दिया गया. इस चुनाव की रोचकता तब और बढ़ी, जब आम आदमी पार्टी के सुप्रीमो अरविंद
केजरीवाल भी चुनाव में कूद पड़े. वाराणसी पहुंचे केजरीवाल ने गंगा में डुबकी लगाई,
मंदिरों के दर्शन किए और गंगाजल हाथ में लेकर कहा, मैं यहां सांसद
बनने नहीं आया हूं, मोदी से बनारस को बचाने आया हूं. और यह
भी कि कुछ भी हो जाए, मैं बनारस नहीं छोड़ूँगा.
उधर नरेंद्र मोदी ने कहा, 'न मुझे किसी ने भेजा है, न मैं आया हूं,
मुझे तो माँ गंगा ने बुलाया है.' मोदी
और केजरीवाल दोनों के रोडशो हुए. इस चुनाव में नरेंद्र मोदी को 5,81,022 और अरविंद केजरीवाल को
2,09,238 वोट मिले. कांग्रेस के अजय राय को 75,614 वोट मिले.
उस साल नरेंद्र मोदी
ने गुजरात के वडोदरा से भी चुनाव लड़ा था. वहाँ से उन्हें रिकॉर्ड मतों से जीत
मिली, पर उन्होंने वडोदरा की सीट को छोड़ने का निश्चय किया. तब से वाराणसी ही उनका
चुनाव-क्षेत्र बन गया है. नरेंद्र मोदी की अपनी वैबसाइट में काशी विकास-यात्रा एक
अलग कैटेगरी है, जिसमें वाराणसी से जुड़े विविध पहलुओं का विस्तार से विवरण दिया
गया है. पिछले दस वर्षों में वाराणसी एक विशिष्ट नगर के रूप में उभर कर आया है.
2019 के चुनाव में केजरीवाल
वाराणसी नहीं आए. कांग्रेस ने अजय राय को ही उतारा और समाजवादी पार्टी ने शालिनी
यादव को. भारी-भरकम रोड शो के बाद मोदी ने अपना नामांकन पत्र दाखिल किया. मोदी के
नामांकन के ठीक पहले खबर आई कि प्रियंका गांधी वाराणसी से चुनाव लड़ने नहीं जा रही
हैं. अलबत्ता इसके पहले पार्टी ने कभी यह नहीं कहा था कि प्रियंका वाराणसी से
लड़ेंगी.
2019 में भी विरोधी दल
मोदी के खिलाफ संयुक्त प्रत्याशी खड़ा करने में नाकाम रहे. इस चुनाव में मोदी को
6,74,664 वोट मिले. सपा की शालिनी यादव 1,95,159 वोट पाकर दूसरे और कांग्रेस के
अजय राय 1,52,548 वोट पाकर तीसरे स्थान पर रहे.
2024 के चुनाव में
राष्ट्रीय स्तर पर ‘इंडिया’
गठबंधन बना है. उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी ने कांग्रेस के लिए 17 सीटें
छोड़ी हैं. इनमें वाराणसी भी एक है. देखना होगा कि कांग्रेस पार्टी मोदी के खिलाफ
किसे उतारती है.
वाराणसी से
लोकसभा सदस्य
1952 |
रघुनाथ सिंह (कांग्रेस) |
1957 |
रघुनाथ सिंह (कांग्रेस) |
1962 |
रघुनाथ सिंह (कांग्रेस) |
1967 |
सत्य नारायण सिंह (सीपीएम) |
1971 |
राजाराम शास्त्री (कांग्रेस) |
1977 |
चंद्रशेखर (जपा) |
1980 |
कमलापति त्रिपाठी (कांग्रेस) |
1984 |
श्याम लाल यादव (कांग्रेस) |
1989 |
अनिल शास्त्री (जनता दल) |
1991 |
श्रीश चंद्र दीक्षित (भाजपा) |
1996 |
शंकर प्रसाद जायसवाल (भाजपा) |
1998 |
शंकर प्रसाद जायसवाल (भाजपा) |
1999 |
शंकर प्रसाद जायसवाल (भाजपा) |
2004 |
डॉ राजेश कुमार मिश्रा (कांग्रेस) |
2009 |
मुरली मनोहर जोशी (भाजपा) |
2014 |
नरेंद्र मोदी (भाजपा) |
2019 |
नरेंद्र मोदी (भाजपा) |
|
|
सटीक विश्लेषण।
ReplyDelete