Thursday, March 21, 2024

चौधरी चरण सिंह की कर्मभूमि बागपत


दिल्ली और हरियाणा की सीमा से सटे बागपत की धरती जाट-राजनीति का केंद्र है.  पहले यह क्षेत्र मेरठ का हिस्सा हुआ करता था. इस लोकसभा क्षेत्र में पाँच विधानसभा क्षेत्र आते हैं. बागपत, बड़ौत, छपरौली, मोदीनगर और सिवालखास.

इस सीट को चौधरी चरण सिंह की कर्मभूमि कहा जाता है, जिन्हें हाल में भारत सरकार ने  भारत रत्न अलंकरण से सम्मानित करने की घोषणा की है. पूर्व प्रधानमंत्री चरण सिंह की पहचान भूमिधर किसानों के नेता, महात्मा गांधी के अनुयायी और खेती से जुड़ी अर्थव्यवस्था विशेषज्ञ के तौर पर रही है. उनकी आधा दर्जन से ज्यादा किताबें इसका प्रमाण हैं. साफगोई उनकी दूसरी विशेषता रही है. कांग्रेस में रहते हुए भी वे जवाहर लाल नेहरू की आर्थिक-नीतियों के आलोचक थे.

भारतीय राजनीति में, खासतौर से सामाजिक-न्याय से जुड़ी ताकतों को, मुखर करने में भी उनकी बड़ी भूमिका रही. साठ के दशक के उत्तरार्ध में उन्होंने चौधरी कुंभाराम आर्य के साथ मिलकर भारतीय क्रांति दल की स्थापना की थी, जिसकी उत्तराधिकारी पार्टी भारतीय लोकदल थी, जिसके चुनाव चिह्न पर 1977 में जनता पार्टी ने चुनाव लड़ा.

पूरा थाना सस्पेंड

चौधरी चरण सिंह कठोर प्रशासक और अड़ियल राजनेता के रूप में वे प्रसिद्ध रहे हैं. उनसे जुड़ा एक प्रकरण काफी चर्चित है. 1979 में जब वे प्रधानमंत्री थे, एक व्यक्ति की शिकायत पर अचानक शाम को यूपी के इटावा में अकेले और फटेहाल, मजबूर किसान के रूप में एक थाने में पहुँचे और कहा, जेब कतरी की रपट लिखवानी है.

पुलिसकर्मियों ने कहा कि भागो, हमारा वक्त बर्बाद मत करो. काफी हुज्जत के बाद एक सिपाही ने उनसे कहा, रपट लिखवा देंगे, खर्चा-पानी लगेगा. कुछ रुपए पर सौदा हो गया. रपट लिखने के बाद मुंशी ने पूछा, बाबा दस्तखत करोगे या अँगूठा लगाओगे. उन्होंने कहा-दस्तखत करूँगा.

उन्होंने हस्ताक्षर में अपना नाम लिखा, चौधरी चरण सिंह और कुर्ते की जेब से एक मुहर निकाल कर दस्तखत के नीचे उसकी छाप लगाई, प्रधानमंत्री, भारत सरकार. पूरा थाना हक्का-बक्का रह गया. पूरा थाना सस्पेंड कर दिया गया.

चेयर सिंह

लोकप्रियता का उनका रिकॉर्ड भी अतुलनीय है, 1971 को छोड़ दें, तो वे किसी भी चुनाव में परास्त नहीं हुए. अलबत्ता उनके राजनीतिक जीवन में दो मौके ऐसे आए, जिनके कारण उन्हें उनके विरोधियों नेचेयर सिंह का नाम दिया.

पहला मौका था 1967, जब उन्होंने कांग्रेस पार्टी छोड़कर उत्तर प्रदेश में संयुक्त विधायक दल की सरकार के मुख्यमंत्री का पद संभाला. भारतीय राजनीति में बड़े स्तर पर दल-बदल की शुरुआत भी तभी से हुई थी. दूसरा मौका 1979 में आया, जब उन्होंने जनता पार्टी की सरकार का साथ छोड़कर अल्पमत प्रधानमंत्री बनना पसंद किया. वे 28 जुलाई 1979 से 14 जनवरी 1980 तक प्रधानमंत्री के पद पर रहे.

किसी का साथ नहीं

बागपत सीट की भी एक विशेषता यह भी है कि लंबे समय तक यह किसी का साथ नहीं देती. चौधरी चरण सिंह के पुत्र और पौत्र को उसने यहाँ से जिताया, तो हराकर भी दिखाया.

1957 और 1962 के चुनावों में यह क्षेत्र सरधना लोकसभा क्षेत्र में आता था. 1957 में यहाँ से प्रसिद्ध क्रांतिकारी विष्णु चंद्र दुबलिश कांग्रेस के टिकट पर चुने गए थे. उन्होंने प्रजा सोशलिस्ट पार्टी के पीतम सिंह को हराया था.

1962 में कांग्रेस के कृष्ण चंद्र शर्मा जीते थे, जिन्होंने निर्दलीय रघुवीर सिंह शास्त्री को पराजित किया था. 1967 में निर्दलीय रघुवीर सिंह शास्त्री ने कांग्रेस के कृष्ण चंद्र शर्मा को पराजित किया. शास्त्री 154518 वोट पाकर जीते. केसी शर्मा को 66960 वोट ही मिले.

1971 के चुनाव में यहाँ से कांग्रेस के रामचंद्र विकल खड़े हुए. उनके सामने रघुवीर सिंह भारतीय क्रांति दल के प्रत्याशी के रूप में खड़े हुए, पर हार गए. दोनों के बीच हार का अंतर करीब 158010 वोटों का रहा.

रामचंद्र विकल के प्रयास से 1974 में दिल्ली-सहारनपुर वाया शामली रेल लाइन का निर्माण हुआ था, जिसके लिए उन्हें आज भी याद किया जाता है. इस रेल लाइन के चालू होने से न केवल बागपत बल्कि दूसरे जिलों के भी लाखों लोगों का सफर आसान हो गया.

मुजफ्फरनगर में हारे

उधर 1971 में ही पड़ोस के मुजफ्फरनगर क्षेत्र में चौधरी चरण सिंह की हार हुई. उन्हें सीपीआई के विजयपाल सिंह ने 50,279 वोट से हराया था. इमर्जेंसी के बाद 1977 के चुनाव में चरण सिंह मुजफ्फरनगर की जगह बागपत सीट से चुनाव में उतरे. इस चुनाव में उन्होंने कांग्रेस के रामचंद्र विकाल पर 1,21,538 से बड़ी जीत दर्ज की.

चरण सिंह की जीत का सिलसिला यहीं नहीं रुका और वे इसके बाद 1980 और 1984 में भी सांसद चुने गए. 1980 में भी उन्होंने कांग्रेस उम्मीदवार रामचंद्र को मात दी. 1984 में उन्होंने कांग्रेस के महेश चंद को हराया था. दोनों के बीच का अंतर 85674 वोटों का रहा.

अजित सिंह का प्रवेश

1989 में हुए नौवीं लोकसभा के लिए चुनाव में चरण सिंह के पुत्र अजित सिंह यहाँ से जनता दल के प्रत्याशी के रूप में खड़े हुए. 1977 के बाद 1989 में  विश्वनाथ प्रताप सिंह के नेतृत्व में विरोधी दलों का राष्ट्रीय गठबंधन नेशनल फ्रंट के नाम से मैदान में उतरा था. इस मोर्चे को बीजेपी और वाममोर्चे का भी बाहरी समर्थन हासिल था.

उस चुनाव में जनता दल उम्मीदवार अजित सिंह बागपत से जीते. उन्होंने कांग्रेस के महेश शर्मा को भारी वोटों के अंतर से हराया. इसके बाद 1991 में भी उन्होंने जनता दल उम्मीदवार के प्रत्याशी के रूप में जीत हासिल की.

1991 के लोकसभा चुनाव में जनता दल से 11 सांसद चुने गए थे. इनमें से आठ एक-एक करके अजित सिंह का साथ छोड़ गए. सिर्फ दो सांसद उनके साथ रह गए थे. अजित ने अपने जनता दल का कांग्रेस में विलय कर दिया. इसके बाद 1996 में वे कांग्रेस प्रत्याशी के रूप में तीसरी बार सांसद चुने गए. उन्होंने ने सपा के मुखिया गुर्जर को 198891 वोटों के अंतर से हराया.

पहचान पर ज़ोर

अजित सिंह के कांग्रेस में शामिल होने की बात इलाके के जाट समुदाय के चौधरियों को पसंद नहीं आई. उन्होंने अजित सिंह पर दबाव बनाया कि वे अपनी अलग पहचान बनाए रखें. इसी बीच विधानसभा के चुनाव आ गए. टिकट के बँटवारे पर अजित की कांग्रेस से भी खटपट हुई और कुछ महीनों के बाद अजित सिंह ने कांग्रेस छोड़ दी और किसान नेता महेंद्र सिंह टिकैत की मदद से नई भारतीय किसान कामगार पार्टी बनाई.

कांग्रेस छोड़ने के साथ ही उनकी लोकसभा की सदस्यता भी चली गई. इस वजह से 1997 में इस क्षेत्र से उपचुनाव हुआ. अजित ने भाकिकापा के टिकट पर 1997 में उप चुनाव जीता. उधर केंद्रीय राजनीति में लगातार चल रहे बदलाव के कारण 1998 में फिर लोकसभा चुनाव हुए, जिसमें पहली बार बागपत से बीजेपी को सफलता मिली.

बीजेपी के टिकट पर सोमपाल सिंह शास्त्री ने अजित सिंह को हराया, जो भारतीय किसान कामगार पार्टी के प्रत्याशी के रूप में उतरे थे. सोमपाल को 264736 वोट मिले थे, वहीं अजित को 220030 वोट मिले थे.

राष्ट्रीय लोकदल

1998 में हारने के बाद अजित सिंह ने भाकिकापा का साथ छोड़ा और राष्ट्रीय लोक दल के नाम से अपनी पार्टी को फिर से संगठित किया, जिसे इन दिनों उनके पुत्र जयंत चौधरी संचालित कर रहे हैं. 1999 में अजित सिंह रालोद के टिकट पर बागपत से खड़े हुए और बीजेपी के सोमपाल शास्त्री को हराया.

सोमपाल शास्त्री को हराना उनके लिए उत्साहवर्धक जीत थी, क्योंकि एक साल पहले ही वे सोमपाल से हारे थे. अजित सिंह 1999 के बाद 2004 और  2009 में भी इस क्षेत्र से जीते.

उनकी यह विजय-यात्रा 2014 में रुक गई. 16वीं लोकसभा के चुनाव में बीजेपी ने फिर से यहाँ से फिर बाजी मारी. बीजेपी ने सत्यपाल सिंह को यहां से खड़ा किया, जिन्होंने उसे दूसरी बार जीत दिलाई. उस चुनाव में सपा के गुलाम मुहम्मद दूसरे और अजित सिंह तीसरे स्थान पर रहे.  

चौधरी अजित सिंह का 6 मई 2021 को निधन हो गया. उनके बाद 2019 के चुनाव में उनके बेटे जयंत चौधरी इस क्षेत्र से चुनाव में उतरे, पर उन्हें हार का सामना करना पड़ा. बीजेपी के सत्यपाल सिंह फिर यहां से चुने गए. जयंत चौधरी काफी छोटे अंतर से हारे, पर इस हार के बाद चौधरी चरण की विरासत पर असमंजस के बादल छाए रहे. इसबार उन्होंने बीजेपी के साथ गठबंधन किया है, पर रालोद के लिए दो सीटें ही छोड़ी गई हैं.

बागपत से लोकसभा सदस्य

1957

विष्णु शरण दुबलिश

1962

कृष्ण चंद्र शर्मा

1967

रघुवीर सिंह शस्त्री (निर्दलीय)

1971

रामचंद्र विकल (कांग्रेस)

1977

चौधरी चरण सिंह (जनता पार्टी)

1980

चौधरी चरण सिंह (जनता पार्टी-एस)

1984

चौधरी चरण सिंह (लोकतांत्रिक क्रांति दल)

1989

अजित सिंह (जनता दल)

1991

अजित सिंह (जनता दल)

1996

अजित सिंह (कांग्रेस)

1997

अजित सिंह (भाकिकापा)

1998

सोमपाल शास्त्री (भाजपा)

1999

अजित सिंह (राष्ट्रीय लोक दल)

2004

अजित सिंह (राष्ट्रीय लोक दल)

2009

अजित सिंह (राष्ट्रीय लोक दल)

2014

डॉ सत्यपाल सिंह (भाजपा)

2019

डॉ सत्यपाल सिंह (भाजपा)

 न्यूज़18 में प्रकाशित

 

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