लोकसभा क्षेत्र: लखनऊ
रायबरेली और अमेठी के अलावा मध्य उत्तर प्रदेश के अवध क्षेत्र में लखनऊ को वीआईपी सीट माना जाता है. यहाँ से चुने गए ज्यादातर राजनेताओं की पहचान राष्ट्रीय-स्तर पर होती रही है. इनमें विजय लक्ष्मी पंडित, हेमवती नंदन बहुगुणा, अटल बिहारी वाजपेयी और राजनाथ सिंह जैसे नाम शामिल हैं.
इस शहर की खासियत है कि वह जब किसी में कुछ खास
बात देख लेता है, तो उसका मुरीद हो जाता है. नवाबी दौर में उसने तमाम मशहूर
शायरों, गायकों, संगीतकारों और यहाँ तक कि खान-पान विशेषज्ञों तक को अपने यहाँ
बुलाकर रखा. पिछले 72 साल में इस चुनाव-क्षेत्र ने जिन 12 प्रत्याशियों को लोकसभा
भेजा है, उन सबमें कोई खास बात उसने देखी, तभी उन्हें चुना.
आनंद नारायण मुल्ला
सच है कि राजनीति के मैदान में तमाम फैक्टर काम
करते हैं, फिर भी लखनऊ का लोकतांत्रिक अंदाज़े बयां कुछ और है. यह बात मैंने 1967
के लोकसभा चुनाव में देखी, जो इस शहर के लोकतांत्रिक-मिजाज के साथ मेरा पहला अनुभव
था. उस साल यहाँ से निर्दलीय प्रत्याशी आनंद नारायण मुल्ला जीते, जो हाईकोर्ट के
पूर्व न्यायाधीश रह चुके थे और अपने दौर के नामचीन शायर थे.
1967 के चुनाव में उन्होंने कांग्रेस के वीआर
मोहन और जनसंघ के आरसी शर्मा को हराया. उनके सामने खड़े दोनों प्रत्याशियों के पास
संगठन-शक्ति थी, साधन थे. मुल्ला के पास जनता का समर्थन था. लखनऊ की खासियत है
उसका गंगा-जमुनी मिजाज.
लंबे अरसे से लखनऊ भारतीय जनता पार्टी के प्रत्याशियों को जिताकर लोकसभा में भेज रहा है, पर जीतने वाले कट्टर हिंदूवादी नहीं हैं. और यह लखनऊ की सिफत है कि यहाँ के मुसलमान मतदाताओं का एक बड़ा तबका अटल बिहारी वाजपेयी, लालजी टंडन और राजनाथ सिंह को वोट देता रहा है.
अटल बिहारी वाजपेयी
एक मायने में लखनऊ अटल बिहारी वाजपेयी की
कर्मभूमि बना. पत्रकार और राजनेता दोनों रूपों में. भारतीय जनता पार्टी को दिल्ली
की कुर्सी पर बैठाने में उत्तर प्रदेश की जितनी बड़ी भूमिका है, उतनी ही बड़ी
भूमिका बीजेपी के पहले प्रधानमंत्री के रूप में अटल बिहारी वाजपेयी को संसद में
भेजने में लखनऊ की है.
अटल जी ने अपने जीवन में लखनऊ, ग्वालियर,
दिल्ली, मथुरा और नई दिल्ली से चुनाव लड़े. इनमें सबसे ज्यादा बार वे लखनऊ से
जीते. 1991 के बाद तो वे लगातार पाँच बार लखनऊ से चुने गए. उनकी बनाई साख है कि
उनके राजनीतिक संन्यास के बाद हुए पिछले तीन चुनावों में वहाँ से बीजेपी के
प्रत्याशी ही जीते हैं.
2004 के चुनाव तक अटल जी इस चुनाव क्षेत्र के जीते
थे. उनके बाद 2009 में बीजेपी के टिकट से इस सीट पर लालजी टंडन को जीत मिली. पिछले
दो चुनावों से राजनाथ सिंह लखनऊ का प्रतिनिधित्व कर रहे हैं.
सीरत-पसंद वोटर
लखनऊ के वोटर प्रत्याशी के गुणों को ध्यान में
रखते हैं. वे यह नहीं देखते कि वह कितना बड़ा सेलिब्रिटी है. फिल्मी दुनिया के मुज़फ्फर
अली, जावेद ज़ाफरी और राज बब्बर, पूर्व मिस इंडिया नफ़ीसा अली, वकील राम जेठमलानी और
कश्मीर के राजघराने से आए डॉ. कर्ण सिंह और वरिष्ठ नेता बलराज मधोक, चुनाव हारकर
यहां से गए.
1951-52 के पहले लोकसभा चुनाव में लखनऊ से
विजयलक्ष्मी पंडित को कांग्रेस का टिकट मिला. इसके पहले वे 1937-39 में संयुक्त
प्रांत की सरकार में कैबिनेट मंत्री का पद लेकर देश में पहली महिला मंत्री होने का
श्रेय प्राप्त कर चुकी थीं. 1952 का चुनाव जीतने के दो साल बाद उन्हें संयुक्त
राष्ट्र महासभा की पहली महिला अध्यक्ष बनने का गौरव प्राप्त हुआ और उन्होंने
सदस्यता से त्यागपत्र दे दिया.
उनकी रिक्त सीट को भरने के लिए 1955 में हुए
उपचुनाव में स्वतंत्रता सेनानी श्रीमती शिवराजवती नेहरू को सफलता मिली. वे भी
नेहरू परिवार से जुड़ी हुई थीं. उस चुनाव में अटल बिहारी वाजपेयी और प्रसोपा के त्रिलोकी सिंह प्रत्याशी थे, जो पराजित हो गए.
1957 में लखनऊ से कांग्रेस के पुलिन बिहारी
मुखर्जी जीतकर लोकसभा में गए. उन्होंने भी अटल बिहारी को परास्त किया था. अटल जी
ने उस साल लखनऊ के अलावा बलरामपुर और मथुरा से भी चुनाव लड़ा. बलरामपुर से जीतकर
वे पहली बार सांसद बने, पर लखनऊ की तरह मथुरा में भी उन्हें हार का सामना करना
पड़ा.
1962 में लखनऊ से कांग्रेस के प्रत्याशी वीके
धवन को विजय मिली. इस चुनाव में भी अटल बिहारी वाजपेयी जनसंघ के प्रत्याशी थे, पर
उन्हें सफलता नहीं मिली.
इंदिरा गांधी की मामी
इंदिरा गांधी की बुआ से शुरुआत करने के बाद 1971
के चुनाव में कांग्रेस की ओर से इंदिरा गांधी की मामी शीला कौल मैदान में थीं. वह
चुनाव इंदिरा गांधी के ‘गरीबी हटाओ’ नारे से
प्रेरित-प्रभावित था. उस चुनाव में जनसंघ के प्रत्याशी थे पुरुषोत्तम दास कपूर और
भारतीय लोकदल के प्रत्याशी थे डीपी बोरा. शीला कौल को 71 फीसदी से ज्यादा वोट
मिले.
1971 के विपरीत 1977
में कांग्रेस-विरोधी लहर थी. बहुत से पुराना कांग्रेसी पार्टी छोड़कर कांग्रेस के
खिलाफ मैदान में आ गए थे. इनमें हेमवती नंदन बहुगुणा भी थे, जिन्हें 72 फीसदी से ज्यादा वोट मिले और शीला कौल पराजित
हो गईं. इसके बाद 1980 और 1984 में कांग्रेस के टिकट पर
शीला कौल फिर जीतीं.
1980 में उन्होंने जनता पार्टी के महमूद बट को
हराया, जो उत्तर प्रदेश के मुख्य सचिव के पद से सेवानिवृत्त हुए थे. वे बेहद
ईमानदार और कड़क अधिकारी के रूप में प्रसिद्ध थे. उनका वोट प्रतिशत घट रहा था। 1971 में जहाँ उन्हें 71 प्रतिशत वोट
मिले थे, वहीं 1980 में उन्हें करीब 47 फीसदी वोट मिले.
1984 में भी शीला कौल जीतीं, इंदिरा गांधी की
हत्या के कारण उमड़ी हमदर्दी के कारण उनका वोट प्रतिशत कुछ बढ़ा और उन्हें करीब 55
फीसदी वोट मिले. उनके सामने लोक दल के मोहम्मद युनुस सलीम और भारतीय जनता पार्टी
के लालजी टंडन और जनता पार्टी के डीपी बोरा थे.
1989 का लोकसभा चुनाव विश्वनाथ प्रताप सिंह की
बगावत और बोफोर्स मामले की पृष्ठभूमि में हुआ. उस चुनाव में शिक्षक संघ के नेता मांधाता
सिंह को जनता दल का टिकट मिला. वे साझा विपक्ष के उम्मीदवार थे, जिसमें बीजेपी भी
शामिल थी. अटल बिहारी वाजपेयी ने उनका समर्थन किया था.
उन्होंने कांग्रेस के दाऊजी गुप्त को हराया. इस
चुनाव में बलराज मधोक भी निर्दलीय उम्मीदवार के रूप में उतरे थे. हालांकि उन्हें
73839 वोट मिले, पर वे दाऊजी के बाद तीसरे स्थान पर रहे.
अटल-युग आया
1991 के चुनाव में अटल विहारी वाजपेयी एकबार
फिर से लखनऊ के मैदान से उतरे. उनके मुकाबले में कांग्रेस के रणजीत सिंह थे. जनता
पार्टी की हीरू सक्सेना और जनता दल के मांधाता सिंह भी मैदान में थे. इस चुनाव में
लखनऊ से 31 प्रत्याशी मैदान में उतरे थे. 1,94,886 वोट पाकर अटल बिहारी सबसे आगे
रहे.
1996 के चुनाव में समाजवादी पार्टी ने फिल्म
अभिनेता राज बब्बर को मुकाबले के लिए उतारा, पर 3,94,865 वोट पाकर अटल बिहारी
वाजपेयी आसानी से चुनाव जीत गए. इस चुनाव में लखनऊ से 58 प्रत्याशी मैदान में थे.
इस चुनाव के बाद पहली बार अटल बिहारी 13 दिन के लिए प्रधानमंत्री बने.
यह वह समय था, जब उत्तर प्रदेश में कांग्रेस का
क्षय और समाजवादी पार्टी का उभार हो रहा था. 1998 के चुनाव में सपा ने लखनऊ से अटल
बिहारी के सामने फिल्म निर्देशक मुज़फ्फर अली को उतारा. अटल बिहारी 4,31,738 वोट
पाकर आसानी से जीत गए. मुज़फ्फर अली दूसरे, बसपा के टिकट पर दाऊजी तीसरे और
कांग्रेस के रणजीत सिंह चौथे स्थान पर रहे.
1998 के चुनाव के बाद बीजेपी ने शिवसेना,
अकाली दल, समता पार्टी, अद्रमुक
और बीजू जनता दल के सहयोग से सरकार बनाई और अटल बिहार वाजपेयी फिर से प्रधानमंत्री
की कुर्सी पर बैठे. यह सरकार 13 महीने चली और अद्रमुक के समर्थन वापस लेने के बाद गिर
गई.
1999 में फिर चुनाव हुए और अटल बिहारी के सामने
लखनऊ से कांग्रेस ने कश्मीर राजघराने के वारिस डॉ कर्ण सिंह को उतारा. 3,62,709
वोट हासिल करके अचल बिहारी फिर संसद में पहुँचे और सरकार बनाई.
2004 के चुनाव में अटल बिहारी के सामने सपा की
मधु गुप्ता थीं. उनके अलावा निर्दलीय उम्मीदवार के रूप में राम जेठमलानी भी मैदान
में उतरे. इस चुनाव में भी अटल बिहारी आसानी से जीत गए, पर इसके बाद खराब
स्वास्थ्य के कारण वे सक्रिय राजनीति से दूर होते चले गए. दूसरी तरफ केंद्र में
यूपीए की सरकार बनने के कारण राष्ट्रीय नेता के रूप में उनकी भूमिका भी कम हो गई.
अटलजी के बाद
2009 के चुनाव में यहाँ से बीजेपी के लालजी
टंडन जीते, जिन्होंने कांग्रेस की रीता बहुगुणा जोशी को हराया. तीसरे स्थान पर
बसपा के अखिलेश दास और चौथे स्थान पर सपा की नफ़ीसा अली रहीं.
2014 और 2019 में यहाँ से राजनाथ सिंह जीतकर आए
हैं. 2014 में उन्हें 5,61,106 और कांग्रेस की उम्मीदवार रीता बहुगुणा जोशी को 2,88,357
वोट मिले. इस चुनाव में आम आदमी पार्टी ने फिल्म अभिनेता जावेद ज़ाफरी को उतारा,
जो चौथे स्थान पर रहे.
2019 के चुनाव में राजनाथ सिंह के सामने
समाजवादी पार्टी ने फिल्म अभिनेता शत्रुघ्न सिन्हा की पत्नी पूनम सिन्हा को टिकट
दिया. राजनाथ सिंह को 6,33,026 और पूनम सिन्हा को 2,85,724 वोट मिले. कांग्रेस के
प्रत्याशी आचार्य प्रमोद कृष्ण 1,80,011 वोट हासिल कर पाए.
लखनऊ से
लोकसभा सदस्य
1951 |
विजय लक्ष्मी पंडित (कांग्रेस) |
1955 |
शिवराजवती नेहरू
(कांग्रेस) |
1957 |
पुलिन बिहारी बनर्जी
(कांग्रेस) |
1962 |
बीके धवन (कांग्रेस) |
1967 |
आनंद नारायण मुल्ला (निर्दलीय) |
1971 |
शीला कौल (कांग्रेस) |
1977 |
हेमवती नंदन बहुगुणा
(जनता पार्टी) |
1980 |
शीला कौल (कांग्रेस) |
1984 |
शीला कौल (कांग्रेस) |
1989 |
मांधाता सिंह (जनता
दल) |
1991 |
अटल बिहारी वाजपेयी
(भाजपा) |
1996 |
अटल बिहारी वाजपेयी
(भाजपा) |
1998 |
अटल बिहारी वाजपेयी
(भाजपा) |
1999 |
अटल बिहारी वाजपेयी
(भाजपा) |
2004 |
अटल बिहारी वाजपेयी
(भाजपा) |
2009 |
लालजी टंडन (भाजपा) |
2014 |
राजनाथ सिंह (भाजपा) |
2019 |
राजनाथ सिंह (भाजपा) |
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