पश्चिम एशिया में चल रही गज़ा की लड़ाई के बीच पिछले गुरुवार को अमेरिका और ब्रिटेन ने यमन में हूती विद्रोहियों के ठिकानों पर हमले करके लड़ाई के एक नया आयाम दे दिया है. यह गज़ा की लड़ाई का विस्तार है और इसके असर का दायरा ज्यादा बड़ा है.
शुरुआती जानकारियों के अनुसार यमन में हुए पहले
हमलों की वजह से हूती बागियों के ठिकानों पर 20 से 30 फीसदी का नुकसान हुआ है, पर
इतना नहीं कि वे हमले करने के काबिल नहीं रहें. इसके बाद कई और हमले हूती ठिकानों पर किए गए हैं और अमेरिका ने उनके संगठन को आतंकवादी घोषित किया है.
अमेरिका चाहता है कि लड़ाई को लाल सागर तक आने से रोका जाए, पर हूती बागियों का कहना है कि गज़ा में इसराइल अपनी कार्रवाई रोके, तो हम भी अपनी कार्रवाई रोक देंगे.
उनके हमलों की वजह से स्वेज़ नहर के रास्ते से
चल रहे कंटेनर-परिवहन में अचानक करीब 90 प्रतिशत की कमी आ गई है. अंतरराष्ट्रीय
समुद्री व्यापार-मार्ग पर हुए इन हमलों के कारण 55 देश प्रभावित हुए हैं. भारत के
लिए भी यह चिंता का विषय है, क्योंकि हमारा काफी कारोबार इस रास्ते से होता है.
जयशंकर ईरान में
इलाके के बदलते हालात के बरक्स विदेशमंत्री एस जयशंकर
अचानक ईरान गए हैं. वहाँ से वे युगांडा जाएंगे, जहाँ गुट निरपेक्ष देशों का
सम्मेलन होने वाला है. शिखर सम्मेलन 17 से 20 जनवरी तक होगा, उससे पहले 15 जनवरी
को विदेश मंत्रियों की बैठक होगी.
ईरान में उनकी मुलाकात वहाँ के विदेशमंत्री
हुसैन अमीर अब्दुल्लाहियान से होगी. इस बीच अमेरिकी विदेशमंत्री ब्लिंकेन के साथ भी
फोन पर उनकी बात हुई है. उनकी ईरान यात्रा अचानक हुई है, इसलिए लग रहा है कि वे
संभवतः इस टकराव को रोकने के सिलसिले में कोई महत्वपूर्ण संदेश लेकर गए हैं.
उधर अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडन ने कहा है कि
हूती विद्रोहियों को लेकर हमने ईरान को एक ‘प्राइवेट मैसेज’ दिया है. यह संदेश
क्या है, इसका विवरण नहीं दिया गया है.
इस टकराव की कड़ियां ईरान से भी जुड़ती हैं
क्योंकि हमास, हिज़बुल्ला और हूती विद्रोहियों को वह आर्थिक
और सैनिक मदद देता है. इसके बावजूद ईरान भी इस टकराव में सीधे शामिल होना नहीं
चाहेगा.
टकराव रोकने की कोशिशें
अमेरिका भी इस टकराव को लंबा चलाना नहीं
चाहेगा. इस साल वहाँ चुनाव भी हैं, इसलिए वह जो भी कदम उठाएगा, उसमें सावधानी
बरतेगा. बहरहाल अमेरिकी और ब्रिटिश सेना ने समुद्र और हवाई रास्ते से यमन के हूती
इलाकों पर 60 से ज्यादा हमले किए.
इसराइली पहचान वाले पोतों पर हूतियों के हमलों
के बाद शिपिंग और इंश्योरेंस की दरें पहले ही अचानक बढ़ गई थीं. पेट्रोलियम भी इसका
असर होगा, पर अब अमेरिकी कार्रवाई से यह असर और ज्यादा होगा. दुनिया को अब यह समझ
में आने लगा है कि ज़मीन पर होने वाली लड़ाई का असर उतनी दूर तक नहीं होता, जितना
समुद्री लड़ाई का हो सकता है.
वैश्विक-व्यवस्था
दुनिया की अर्थव्यवस्था का काफी विस्तार हो
चुका है और सभी देश वैश्विक-व्यवस्था के अंग बन चुके हैं. यह कारोबार ज्यादातर
समुद्री रास्तों से होता है. करीब-करीब 80 फीसदी माल समुद्री पर विचरण कर रहे
1,05,000 कंटेनर शिपों, टैंकरों और मालवाहक पोतों पर लदकर एक जगह से दूसरी जगह
जाता है.
ब्रिटिश पत्रिका ‘द इकोनॉमिस्ट’ के
अनुसार दुनिया के 62 फीसदी कंटेनर पोत एशिया और यूरोप की पाँच कंपनियों के
स्वामित्व में हैं. 93 फीसदी पोतों का निर्माण चीन, जापान और दक्षिण कोरिया की
कंपनियाँ करती है. कबाड़ हो चुके पुराने पोतों को तोड़ने का काम बांग्लादेश, भारत
और पाकिस्तान में होता है.
अंतरराष्ट्रीय-समुद्र के भीतर से होकर पेट्रोल
और गैस की पाइपलाइनें तथा इंटरनेट की फाइबर लाइनें गुजरती हैं. इनकी मदद से
वैश्विक-व्यवस्था चलती है. इस व्यवस्था में मामूली सी तोड़-फोड़ भी स्थितियों को
गंभीर बना सकती है.
अमेरिका की भूमिका
दूसरे विश्वयुद्ध के बाद संयुक्त राष्ट्र की
स्थापना हुई और फिर वैश्विक संधियाँ और नियम बने, फिर भी औपचारिक-व्यवस्था अभी
अपर्याप्त और प्रभावहीन है। अनौपचारिक रूप से इस व्यवस्था के सुरक्षित-संचालन का
काम अमेरिकी नौसेना अपने मित्र देशों की मदद से करती है.
वैश्विक-राजनीति में चीन के उदय के बाद से इस
व्यवस्था को चुनौती मिली है, जिसकी शुरुआत दक्षिण चीन सागर से हुई है. पश्चिम
एशिया की राजनीति में भी चीन ने प्रवेश किया है. चीन ने दक्षिण चीन सागर में संरा न्यायाधिकरण
के फैसले को मानने से इनकार करके इस व्यवस्था में छेद कर दिया है.
पाबंदियों का असर
अमेरिका ने ऐसी चुनौतियों का सामना करने के लिए
आर्थिक-पाबंदियों का सहारा लिया, तो जवाब में तस्करी की एक वैश्विक-व्यवस्था ने
जन्म ले लिया है. जहाजरानी के क्षेत्र में भी ‘डार्क फ्लीट’ जैसी व्यवस्था ने जन्म ले लिया है. बताया जाता है कि
दुनिया में चल रहे करीब दस फीसदी टैंकर इस ‘डार्क फ्लीट’ के अंग हैं. पिछले डेढ़-दो साल में इनकी संख्या दुगनी
हो गई है.
मिसाइल और ड्रोन तकनीक
के विकास ने छोटे बागी गिरोहों को ऐसे हथियार उपलब्ध करा दिए हैं, जो बड़ी
नौसेनाओं को गंभीर जख्म दे सकते हैं. राजनीतिक कारणों से इन गिरोहों को कुछ देशों
का सहारा है. अफ्रीका के कुछ इलाकों में आज भी राजनीतिक
अनिश्चय है.
हाल में सोमालिया से अलग हुए सोमालीलैंड ने
लैंडलॉक्ड इथोपिया को अपने बंदरगाह का इस्तेमाल करने की अनुमति दी है. यह इलाका
सोमालिया के अराजक लुटेरों की गतिविधियों के कारण बदनाम है. ऐसी परिघटनाओं का
दूरगामी असर क्या होगा, कहना मुश्किल है.
लड़ाई का दायरा
पिछले नवंबर के महीने से हूती विद्रोहियों ने लाल
सागर से गुज़रने वाले जहाज़ों को निशाना बनाना शुरू कर दिया है. इससे लड़ाई बढ़कर
इस तरफ आ गई है. इसे तीसरे विश्वयुद्ध की शुरुआत नहीं भी मानें, पर अंदेशा इस बात
का है कि कहीं लंबी चलने वाली लड़ाई की शुरुआत न हो जाए.
रूस और यूक्रेन के टकराव के कारण काला सागर
पहले से असुरक्षित क्षेत्र बन चुका है. उसकी वजह से
गेहूँ के लदान पर असर पड़ा है. अब
लाल सागर भी असुरक्षित होने का खतरा बढ़ गया है. उधर बाल्टिक और उत्तरी सागर
क्षेत्र से गुजर रही पाइपलाइनों और केबल लाइनों पर खतरा बढ़ रहा है.
अमेरिकी हमले
अमेरिकी और ब्रिटिश सेना ने यमन की राजधानी सना
के अलावा लाल सागर पर बने हुदैदा बंदरगाह,
धामार और उत्तर-पश्चिम में मौजूद हूती विद्रोहियों के गढ़ सदा पर
हमले किए गए हैं. इन हमलों में हूती रक्षा-प्रणाली के रेडार सिस्टम, एयर डिफेंस सिस्टम और हथियारों के भंडारों को निशाना बनाया गया है.
उन जगहों को निशाना बनाया गया है, जहाँ से हवाई ड्रोन हमले, क्रूज़ मिसाइल और बैलिस्टिक मिसाइल हमले लॉन्च किए जाते हैं.
अमेरिकी सेना की सेंट्रल कमांड का कहना है कि
हूती विद्रोहियों ने 17 अक्तूबर से लेकर अब तक लाल सागर में अंतरराष्ट्रीय समुद्री
रास्तों पर 27 जहाज़ों पर हमले किए हैं. इनमें लाल सागर और
अदन की खाड़ी में जहाज़ों पर ग़ैर-क़ानूनी एंटी शिप बैलिस्टिक मिसाइल, ड्रोन हमले और क्रूज़ मिसाइल हमले शामिल हैं.
वैश्विक-प्रतिक्रिया
रूस, ईरान और तुर्की ने अमेरिकी कार्रवाई को
अनुचित बताया है. वहीं ऑस्ट्रेलिया, बहरीन, कनाडा, डेनमार्क, जर्मनी,
नीदरलैंड्स, न्यूज़ीलैंड, कोरिया,
यूके और अमेरिका ने इन हमलों को सही बताते हुए साझा बयान जारी किया
है. पिछले महीने संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में एक प्रस्ताव लाया गया था,
जिसमें हूती विद्रोहियों से अपील की गई थी कि वे लाल सागर में माल
लाने-ले जाने वाले जहाज़ों पर हमले बंद करे.
यह जिम्मेदारी बड़ी ताकतों और इस इलाके के
देशों की है कि वे हालात को काबू से बाहर जाने से रोकें. चूंकि अमेरिकी नौसेना ने
अपना रुख यमन की तरफ किया है, इसलिए इस इलाके में सक्रिय समुद्री डाकू फिर से
सक्रिय हो गए हैं, जो पिछले पाँच-छह साल से निष्क्रिय हो गए थे.
लाल सागर में टकराव
अमेरिका और ब्रिटेन के इस हमले के पहले से ही
लाल सागर में टकराव शुरू हो गया था, जो भारत के समुद्री किनारे के पास आए एक पोत
पर हुए हमले के बाद हमारे लिए भी चिंता का विषय बन गया. हूती बागियों ने घोषणा की
थी कि लाल सागर और बाब-अल-मंदेब से होकर गुज़रने वाले इसराइली या इसरायल के साथ
किसी भी तरह से जुड़े जहाजों पर हम हमले करेंगे. उन्होंने हमले किए भी.
बाब-अल-मंदेब, अरब
प्रायद्वीप पर यमन, जिबूती और इरीट्रिया के बीच एक जलडमरूमध्य है, जो लाल सागर को
अदन की खाड़ी और हिंद महासागर से जोड़ता है. स्वेज नहर के ज़रिए हिंद महासागर और
भूमध्य सागर के बीच होने वाली लगभग सभी शिपिंग को यह चोक पॉइंट नियंत्रित करता है.
अरब देशों में मतभेद
अंदेशा है कि अरब देशों के बीच इस कार्रवाई को
लेकर मतभेद पैदा हो सकते हैं. ग़ज़ा में इसराइली हमले के ख़िलाफ़ पश्चिम एशिया के ज्यादातर
इस्लामिक देश एकमत नज़र आ रहे थे, पर इस लड़ाई में हूती विद्रोहियों के शामिल हो
जाने के बाद परिदृश्य बदल सकता है.
यमन में सऊदी अरब, हूती विद्रोहियों के ख़िलाफ़
काफी समय से लड़ाई लड़ रहा है. हूती विद्रोहियों को ईरान का समर्थन प्राप्त है. पिछले
साल चीनी मध्यस्थता में ईरान और सऊदी अरब के बीच राजनयिक संबंध फिर से स्थापित हो
जाने के बाद उम्मीद थी कि यमन के गृहयुद्ध को भी रोका जा सकेगा.
दूसरी तरफ पिछले साल ही इसराइल और सऊदी अरब के
बीच भी समझौता होने के आसार बन गए थे. ऐसे में 7 अक्तूबर को हमास की कार्रवाई ने
परिदृश्य बदल दिया है.
अरब-ईरान तल्ख़ी
1979 की ईरानी क्रांति के बाद से तेहरान और
रियाद के रिश्तों में तल्ख़ी आ गई है. इसका समूचे मुस्लिम-संसार पर असर पड़ा है. 1979 के पहले दोनों देश अमेरिकी खेमे में थे, पर 1979 में ईरानी शाह के पतन के बाद ईरान ने क्रांति के निर्यात का एक मॉडल
अपनाया, जो अरब देशों के राजतंत्र के मुआफिक नहीं बैठता
था.
उस परिघटना के करीब चार दशक बाद भी रिश्ते
तल्ख़ ही हैं. दोनों के बीच इराक, यमन, सीरिया
और लेबनॉन में छाया-युद्ध लड़े जा रहे हैं. दोनों देशों के बीच एक दूसरे के
अस्तित्व को स्वीकार करने पर सहमति फिर भी संभव है, जो पिछले
साल हुई बातचीत से रेखांकित हुई है.
अब गज़ा में हालात बिगड़ने के बाद से अनिश्चय
बढ़ गया है. हूतियों के लड़ाई में शामिल हो जाने के बाद मतभेद बढ़ने का अंदेशा ही
है.
सटीक विश्लेषण |
ReplyDelete