इसके पहले तमिलनाडु के मुख्यमंत्री ने कहा था
कि हिंदी थोपकर केंद्र सरकार को एक और भाषा युद्ध की शुरुआत नहीं करनी चाहिए। हिंदी
को अनिवार्य बनाने के प्रयास छोड़ दिए जाएं और देश की अखंडता को कायम रखा जाए।
दोनों नेताओं ने यह बातें राजभाषा पर संसदीय समिति के अध्यक्ष और केंद्रीय गृह
मंत्री अमित शाह द्वारा राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू को हाल में सौंपी गई एक रिपोर्ट
पर प्रतिक्रिया में कहीं।
संसदीय समिति ने अपनी रिपोर्ट में आईआईटी,
आईआईएम, एम्स, केंद्रीय
विश्वविद्यालयों और केंद्रीय विद्यालयों में हिंदी को भी माध्यम बनाने की सिफारिश
की है। स्टालिन ने कहा कि संविधान की आठवीं अनुसूची में तमिल समेत 22 भाषाएं हैं।
इनके समान अधिकार हैं। कुछ समय पहले स्टालिन ने कहा था कि हमें हिंदी दिवस की जगह
भारतीय भाषा दिवस मनाना चाहिए। साथ ही ‘केंद्र को संविधान की आठवीं अनुसूची में
दर्ज सभी 22 भाषाओं को आधिकारिक भाषा घोषित कर देना चाहिए। हिंदी न तो राष्ट्रीय
भाषा है और न ही इकलौती राजभाषा।
स्टालिन ने कहा कि हिंदी की तुलना में दूसरी
भाषाओं के विकास पर बहुत कम संसाधन खर्च किए जाते हैं। केंद्र को इस फर्क को कम
करना चाहिए। स्टालिन ने राष्ट्रीय शिक्षा नीति के तहत सिर्फ हिंदी और संस्कृत को
ही बढ़ावा देने का आरोप भी केंद्र सरकार पर लगाया था।’
उधर हाल में अमित शाह ने सूरत में 14 सितंबर को हिंदी दिवस के मौके पर अखिल भारतीय
राजभाषा सम्मेलन में अमित शाह ने कहा था, ‘मैं एक बात साफ
कर देना चाहता हूं। कुछ लोग गलत जानकारी फैला रहे हैं कि हिंदी और गुजराती,
हिंदी और तमिल, हिंदी और मराठी प्रतिद्वंद्वी हैं।
हिंदी कभी किसी भाषा की प्रतिद्वंद्वी नहीं हो सकती है। हिंदी देश की सभी भाषाओं
की दोस्त है।
हिंदी-विरोध
हर साल हम 14 सितंबर को हिंदी दिवस इसलिए मनाते
हैं, क्योंकि 14 सितंबर 1949 को भारतीय संविधान सभा ने हिंदी को राजभाषा बनाने का
फैसला किया था। पिछले कुछ वर्षों से 14 सितंबर को इंटरनेट पर #StopHindiImposition
(हिंदी थोपना बंद करो) जैसे हैशटैग
ट्रेंड करने लगे हैं। 2018 के कर्नाटक विधानसभा चुनाव के पहले कांग्रेस के
नेता सिद्धारमैया ने कन्नड़-गौरव, हिंदी-विरोध और उत्तर-दक्षिण भावनाओं
को भड़काने सहारा लेकर कन्नड़-प्रेमियों का समर्थन हासिल करने का प्रयास किया।
बेंगलुरु में मेट्रो स्टेशनों के हिंदी में लिखे नाम मिटाए गए और अंततः हिंदी नाम
पूरी तरह हटा दिए गए। राष्ट्रीय स्तर पर कांग्रेस तीन भाषा सूत्र की समर्थक है,
पर बेंगलुरु मेट्रो में हिंदी-विरोध का उसने समर्थन किया।
हिंदी के प्रयोग को लेकर कुछ गैर-हिंदी राज्यों में आंदोलन चलाया जाता है। इस आंदोलन को अंग्रेजी मीडिया हवा देता है। कुछ समय पहले दक्षिण भारत में राष्ट्रीय राजमार्गों के नाम-पटों में हिंदी को शामिल करने के विरोध में आंदोलन खड़ा हुआ था। राम गुहा और शशि थरूर जैसे लोगों ने बेंगलुरु मेट्रो-प्रसंग में हिंदी थोपे जाने का विरोध किया। मेरी नज़र में यह एक तरह से भारतीय भाषाओं को आपस में लड़ाने की कोशिश है, साथ ही अंग्रेजी के ध्वस्त होते किले को बचाने का प्रयास भी। चूंकि इस समय इस कार्यक्रम को भारतीय जनता पार्टी की सरकार आगे बढ़ा रही है, इसलिए इसे राजनीतिक रंग देकर सामाजिक-टकराव वगैरह के रूप में भी देखा जा रहा है, हालांकि यह विरोध काफी पहले से चल रहा है और 1965 से तमिलनाडु में यह राजनीतिक पैंतरे का रूप ले चुका है।
उन दिनों शशि थरूर ने अपने ट्वीट में लिखा, हिंदी
देश की राष्ट्रभाषा नहीं है। बेशक हिंदी राष्ट्रभाषा नहीं है, पर वह देश की राजभाषा जरूर है। सांविधानिक व्यवस्था के अनुसार पहले
15 साल तक हिंदी के साथ अंग्रेजी को भी राजभाषा बने रहना था, पर हिंदी-विरोधी आंदोलन के कारण सन 1963 में राजभाषा अधिनियम पास
किया गया। हिंदी के साथ अंग्रेजी तबतक काम करेगी, जबतक
हिंदी स्वतंत्र रूप से राजभाषा नहीं बन जाती। राजनीति ने भारतीय भाषाओं को पीछे
धकेल दिया है। साथ ही अंग्रेजी-परस्त तबका हमें लड़ाने की कोशिश करता है।
हिंदी-विरोध तमिलनाडु की राजनीति का
केंद्र-बिंदु है। 1965 में हिंदी-विरोधी आंदोलन में भाग लेने वालों को तमिलनाडु
सरकार ने पेंशन देने की घोषणा की, जिसे अंततः सुप्रीमकोर्ट ने गैर-कानूनी करार दिया, पर वह
भावना आज भी कायम है।
हिंदी में मेडिकल किताबें
इस विरोध का तात्कालिक कारण है आगामी 16
अक्तूबर को भोपाल में होने वाला एक कार्यक्रम, जिसमें गृहमंत्री अमित शाह एमबीबीएस
कक्षाओं के पहले वर्ष की कक्षाओं के लिए हिंदी
पाठ्य पुस्तकों का विमोचन करेंगे। यानी कि मध्य प्रदेश में एमबीबीएस की पढ़ाई
हिंदी माध्यम से भी हो सकेगी। सरकार की योजना है कि हिंदी भाषी क्षेत्रों में मेडिकल
की पढ़ाई हिंदी में और अन्य राज्यों में वहाँ की क्षेत्रीय भाषाओं में हो।
तमिलनाडु और केरल के मुख्यमंत्री मानते हैं कि यह हिंदी थोपने का प्रयास है। अमित
शाह ने हाल में कहा था कि भारत में अंग्रेजी-मोह के कारण देश में उपलब्ध 95 फीसदी मेधा
का इस्तेमाल नहीं हो पाता है।
इस सिलसिले में चेन्नई के अखबार द हिंदू ने एक रिपोर्ट
प्रकाशित की है। इस रिपोर्ट में मध्य प्रदेश के मेडिकल शिक्षामंत्री विश्वास
सारंग को यह कहते हुए उधृत किया गया है कि ये पुस्तकें अंग्रेजी पाठ्य पुस्तकों का
अनुवाद हैं और इन्हें तैयार करने में पिछले आठ-नौ महीनों से 97 डॉक्टरों की एक
समिति काम कर रही थी। यह हिंदी चिकित्सा प्रकोष्ठ गत फरवरी से काम कर रहा है। श्री
सारंग ने बताया कि कुछ विशेषज्ञों ने इस विचार का विरोध भी किया है। बहरहाल हमने
तीन विषय शुरू में चुने हैं, क्योंकि पहले वर्ष इन्हें पढ़ाया जाता है।
इस कमेटी के एक सदस्य डॉ नीलकमल कपूर का कहना
है कि हम लोगों के दिमाग से यह बात निकाल देना चाहते हैं कि यह काम हो नहीं सकता।
जर्मनी में ऐसा हुआ, फ्रांसीसियों ने यह करके दिखाया और मकदूनिया ने किया। हमने ये
पुस्तकें उन छात्रों के लिए तैयार की हैं, जिन्होंने मेडिकल कक्षाओं में प्रवेश
लेने के पहले हिंदी माध्यम से पढ़ाई की है। यह एक तरह से ब्रिज कोर्स होगा।
12वीं तक हिंदी में पढ़ाई
ग्वालियर के गजरा राजा मेडिकल कॉलेज के छात्र
रूपेश वर्मा ने हिंदू के संवाददाता को बताया कि मैं रीवा के पास के एक गाँव का
रहने वाला हूँ। मेरी पढ़ाई का माध्यम हिंदी रही है। जब मैं मेडिकल कॉलेज में आया,
तो मुझे डिक्शनरी साथ लेकर पढ़ाई करनी पड़ी। मुझे यह समझने में समय लगता था कि
इसमें लिखा क्या है। मेरी मध्य प्रदेश के प्री-मेडिकल टेस्ट में 40वीं रैंक थी, पर
कॉलेज में बमुश्किल पास हुआ। मुझे पीजी में प्रवेश नहीं मिल पाने की क बड़ी वजह यह
भी थी।
इस पढ़ाई के व्यावहारिक पहलू को लेकर भी कुछ
लोगों ने शंकाएं व्यक्त की हैं। मध्य प्रदेश जूनियर डॉक्टर्स एसोसिएशन के पूर्व
अध्यक्ष आकाश सोनी का कहना है कि इसे अनिवार्य बनाया गया, तो मध्य प्रदेश के
डॉक्टरों को मध्य प्रदेश में ही काम मिलेगा। अमेरिका और इंग्लैंड में उन्हें
दिक्कत होगी। कुछ और छात्रों ने शंकाएं व्यक्त की हैं। वहीं पूर्वोत्तर के एक छात्र
ने कहा कि इस खिचड़ी भाषा से दिक्कत होगी।
मनोरोग विशेषज्ञ डॉ सत्यकांत त्रिवेदी भी इस
समिति के सदस्य हैं। उन्होंने कहा कि इस दिक्कत को देखते हुए हमने अंग्रेजी या
ग्रीक शब्दों को मूल रूप में ही रहने दिया है। हमने रीढ़ की हड्डी के लिए मेरुदंड और
वेंस के लिए शिरा शब्दों का इस्तेमाल नहीं किया है। अंग्रेजी शब्दों को ही
देवनागरी में लिखा है। सवाल है कि जब 12वें तक विज्ञान की पढ़ाई भारतीय भाषाओं में
संभव है, तो आगे क्यों नहीं?
यह परियोजना भोपाल के गांधी मेडिकल कॉलेज से
शुरू होगी और इसी सत्र में 13 सरकारी मेडिकल कॉलेजों में लागू कर दी जाएगी। डॉ
सारंग ने बताया कि आने वाले समय में और किताबों का अनुवाद किया जाएगा। मध्य प्रदेश
के मेडिकल शिक्षा निदेशक डॉ जितेन शुक्ला ने कहा कि इसे ‘हिंदी बनाम
अंग्रेजी’ के रूप में नहीं देखना चाहिए। राज्य की कोई
योजना अंग्रेजी किताबें हटाने की नहीं है। केवल उन छात्रों की सहायता करने का
विचार है, जिनकी पढ़ाई अबतक हिंदी माध्यम से हुई है। छात्र नीट (नेशनल एलिजिबिलिटी
कम एंटरेंस टेस्ट) हिंदी माध्यम से दे रहे हैं, तो यदि मेडिकल कॉलेज अनुमति देंगे,
तो वे इसके आगे भी हिंदी में जवाब दे सकेंगे।
नीट की
परीक्षा
दो साल पहले जब नीट की
परीक्षा देश की 12 भाषाओं में देने की अनुमति मिली थी, तब मैंने एक
लेख अपने ब्लॉग पर लिखा था। तत्कालीन शिक्षामंत्री रमेश पोखरियाल निशंक ने एक
ट्वीट में लिखा कि 'यह परीक्षा उन राज्यों की क्षेत्रीय भाषाओं
में भी कराई जाएगी जहां स्टेट इंजीनियरिंग कॉलेजों में प्रवेश क्षेत्रीय भाषाओं
में हुई परीक्षा के आधार पर लिए जाते हैं। ऐसे राज्यों की भाषाएं अब जेईई मेन
परीक्षा में शामिल की जाएंगी।' अभी तक जेईई मेन
हिन्दी, इंग्लिश और गुजराती में आयोजित होता रहा है, जबकि नीट का आयोजन कुल 11 भाषाओं में किया जाता है।
हालांकि अभी प्रवेश
परीक्षा की बात ही हुई है और आने वाले समय में इंजीनियरी की पढ़ाई भी भारतीय
भाषाओं कराने की बात है,
पर जिन्हें अंग्रेजी
का वर्चस्व खतरे में पड़ने का डर है, उन्होंने अभी से विलाप
करना शुरू कर दिया है। पहले यह हिन्दी थोपने के नाम पर होता था, पर अब चूंकि 12 भारतीय भाषाओं में यह परीक्षा होने जा
रही है, उन्हें अब उस पढ़ाई की गुणवत्ता को लेकर डर
लगने लगा है। वे चीन, जापान और कोरिया जैसे देशों के अनुभव को
स्वीकार करने को तैयार नहीं हैं। वे नहीं मानते कि अंग्रेजी के कारण हमारी
गुणवत्ता बढ़ी नहीं, कम हुई है। बहरहाल टाइम्स
ऑफ इंडिया में इस विलाप की प्रतिध्वनि सुनें। भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान (IIT) और राष्ट्रीय प्रौद्योगिकी संस्थान (NIT) भी छात्रों को
उनकी मातृ भाषा में इंजीनियरिंग की पढ़ाई कराएंगे।
अब दो सवाल हैं। पहला यह कि क्या यह हिंदी थोपना है? इसमें तो 12 भारतीय भाषाओं की बात है। दूसरा सवाल है कि क्या इन भाषाओं में पढ़ाई से गुणवत्ता प्रभावित नहीं होगी? इस आलेख की दूसरी कड़ी का आलेख पढ़ें यहाँ
नमस्ते,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा शुक्रवार 14 अक्टूबर 2022 को 'मंज़र वही पर रौनक़े-महफ़िल नहीं है' (चर्चा अंक 4581 ) पर भी होगी। आप भी सादर आमंत्रित है। 12:01 AM के बाद आपकी प्रस्तुति ब्लॉग 'चर्चामंच' पर उपलब्ध होगी।
नमस्ते,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा शुक्रवार 14 अक्टूबर 2022 को 'मंज़र वही पर रौनक़े-महफ़िल नहीं है' (चर्चा अंक 4581 ) पर भी होगी। आप भी सादर आमंत्रित है। 12:01 AM के बाद आपकी प्रस्तुति ब्लॉग 'चर्चामंच' पर उपलब्ध होगी।
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (15-10-2022) को "प्रीतम को तू भा जाना" (चर्चा अंक-4582) पर भी होगी।
ReplyDelete--
कृपया कुछ लिंकों का अवलोकन करें और सकारात्मक टिप्पणी भी दें।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
सुन्दर प्रस्तुति
ReplyDeleteसामयिक गंभीर आलेख
ReplyDeleteविचारणीय आलेख
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