Friday, March 31, 2017

सर्वेश्वर की कहानी 'लड़ाई'

अभी फेसबुक पर किसी का स्टेटस पढ़ा, 'क्या कोई 100 फीसदी सच बोल सकता है?' पता नहीं गांधी जी ने सौ फीसदी सच बोला या नहीं और सत्यवादी हरिश्चंद्र का क्या रिकॉर्ड था, पर व्यावहारिक दुनिया में कई बार सच से ज्यादा जरूरी होता है झूठ बोलना। कई बार सच अमानवीय भी हो सकता है। बरसों पहले मैेने सर्वेश्वर दयाल सक्सेना की कहानी 'लड़ाई' पढ़ी थी। शायद अस्सी के दशक की शुरुआत थी। उसके बाद लखनऊ की संस्था दर्पण ने इस कहानी पर एक नाटक बनाया हरिश्चन्नर की लड़ाई। उर्मिल थपलियाल ने उसका निर्देशन किया था। काफी रोचक नाटक था और उसे देश भर में तारीफ मिली। उसके भी पहले  वीरेंद्र शर्मा ने  'कुमारिल' नाम से एक पत्रिका निकाली। उसका एक अंक ही निकला, जिसमें यह कहानी भी थी। अक्सर यह कहानी मुझे याद आती है। आपने यदि उसे नहीं पढ़ा है,  तो उसे एकबार पढ़ें जरूर।  कहीं और न मिले तो मेरे ब्लॉग पर पढ़ें , जिसका लिंक मैं नीचे दे रहा हूँ-

आँख खुलते ही उसने निश्चय किया कि वह सत्य के लिए लड़ेगा| न खुद कोई गलत काम करेगा, न दूसरों को करने देगा| इस निश्चय से उसे एक विचित्र प्रकार की शान्ति मिली| अचानक दुनिया छोटी लगने लगी और वह उसके लिए अपने को बड़ा महसूस करने लगा| अपने अंदर एक नयी ताकत उसने पायी| उसे लगा, उसकी कमर सीधी हो गयी है और लटकी हुई गर्दन उठ गयी है| वह ज़्यादा देर लेटा नहीं रह सका| बिस्तरे से कूदकर खड़ा हो गया| मुट्ठियाँ बांधकर और दोनों हाथ ऊपर उठाकर वह चिल्लाया  अब मैं सत्य के लिए लडूंगा|
उसकी आवाज़ सुनकर उसकी स्त्री जो रजाई में सुख की नींद सो रही थी, घबरा गयी| रजाई में से सिर निकालकर उसने पूछा 
यह तुम्हें क्या हो गया है?
मैंने निश्चय किया है कि मैं सत्य के लिए लड़ूंगा| चाहे जो कुछ हो| उसने दृढ़ स्वर में जवाब दिया|
स्त्री ने देखा, उसका चेहरा बदल गया है| आँखें जितना बाहर देख रही हैं, उतना ही भीतर भी देखने लगी हैं| सारी आकृति धनुष की तरह तन गयी है| उसे जाने कैसा डर लगने लगा| वह रजाई में उठकर बैठ गयी|
बाहर काफ़ी धूप निकल आयी थी| दिन चढ़ आया था| उसने दरवाज़ा खोला| सामने बंधा हुआ अखबार पड़ा था| उसने उसे उठाया और जेब से दियासलाई निकालकर उसमें आग लगा दी| अखबार भभककर जल उठा|
यह क्या कर रहे हो? घबराकर स्त्री चिल्लाई|
कुछ नहीं| लड़ाई शुरू हो गयी है| उसने सीधा-सा जवाब दिया|
लोग तुम्हें पागल कहेंगे|
झूठा होने से पागल होना बेहतर है| मैं कायर और ढोंगियों से नफ़रत करता हूँ| अखबार कायर और ढोंगियों की वकालत करते हैं| झूठे हैं| मैं उनसे निपटूंगा? उसने सख्त आवाज़ में कहा|
हाय! यह तुम्हें क्या हो गया है? तुम्हारा दिमाग कैसे खराब हो गया? मुसीबत में ही सही, ज़िंदगी तो किसी तरह कट रही थी| अब कैसे कटेगी? स्त्री की आँखों में आंसू आ गए|
मैं नहीं जानता कैसे कटेगी| पर न मैं खुद कोई गलत काम करूँगा, न दूसरों को करने दूंगा| उसने दोहराया|
फिर घर का क्या होगा? बच्चों का क्या होगा? मेरा क्या होगा? स्त्री ने पूछा|
जो भी हो| झूठ अब नहीं चलेगा| कुछ भी चलाने के लिए उसका सहारा मैं नहीं लूँगा| अब तय हो गया|
जला हुआ अखबार उड़ रहा था| उसकी कालिख उड़-उड़कर चारों ओर फैल रही थी  बाहर गली में, भीतर कमरे में| उसने पास उड़ते एक हल्के फूले हुए बेजान टुकड़े को पैर से दबा दिया| उतनी ज़मीन काली हो गयी|
फिर मुझे मेरे घर भेज दो|
तुम इस लड़ाई में मेरा साथ नहीं दोगी?
यह लड़ाई नहीं, पागलपन है| मैं पागल नहीं हूँ|
तो फिर तुम जाओ| मैं अकेले लड़ूंगा|
बच्चों की फ़ीस जानी है| महीने का राशन लाना है| दूध और सब्ज़ीवाले का हिसाब देना है| तुम सत्य के लिए लड़ाई लड़ोगे, तो यह लड़ाई कौन लड़ेगा?
इसी लड़ाई के लिए सत्य की लड़ाई ज़रूरी है| मेरे बच्चे इन गंदे स्कूलों में नहीं पढ़ेगें| मैं ही उन्हें पढ़ाऊंगा| आज से उनका स्कूल जाना बंद|
यह कहकर वह घर के बाहर खड़ा हो गया|
तो यह तुम्हारा पक्का फ़ैसला है?
हाँ|
तो आज शाम मैं बच्चों को लेकर यहाँ से चली जाउंगी| सत्य के लिए लड़ने का मतलब सारी दुनिया में आग लगाना नहीं है| बाल-बच्चों को भट्टी में झोंककर कोई सत्य की लड़ाई नहीं लड़ता| अब इस उमर में तुम्हारा दिमाग खराब हो गया है|
यही सही| और देखो, गलत काम मैं तुम्हें भी नहीं करने दूंगा, न बच्चों को|
बच्चे रजाई में पड़े-पड़े उसकी बात सुन रहे थे, जाग गए थे| एक की उम्र बारह वर्ष की थी और दूसरे की आठ|
पापा, तुम किससे लड़ोगे? आठ साल के बच्चे ने पूछा|
हर आदमी से, जो भी झूठ बोलेगा, बेईमानी करेगा, दूसरों को सताएगा, उसने समझाया|
तुम कहीं जा रहे हो क्या? पत्नी ने तनाव शांत करने के लिए बातचीत का मुख मोड़ा|
हाँ|
मुंह-हाथ धो लो| चाय पी लो| फिर जाना| वह तुरंत बिस्तरा छोड़कर खड़ी हो गयी| इतनी तत्परता वह पहले कभी नहीं दिखाती थी| नल के पास चौकी पर उसने जल्दी से पानी, साबुन और मंजन की शीशी रख दी| तौलिया खूँटी पर टांग दी| और उसने आवाज़ दी कि सारा सामान रखा है| अब वह चाय बनाने जा रही है|
वह चुपचाप नल के पास आकर खड़ा हो गया| मंजन देखते ही उसका चेहरा तमतमा आया| मंजन की शीशी पर लिखा था मसूड़ों की रक्षा करता है| पिछले दो साल से वह उसे लगा रहा था, पर मसूड़ों की रक्षा करने के बजाय दांत असमय एक-एक कर हिलने लगे थे| वह चिल्लाया  झूठे, बेईमान| मैं यह मंजन नहीं करूँगा| इसे कूड़े में फेंक दो| वह चिल्लाया  मैं अभी उस कंपनी को लिखता हूँ| उस पर जालसाज़ी का मुकदमा चलाऊंगा|
वह तेज़ी से बिना हाथ-मुँह धोए कमरे में आ गया| कागज़ उठाकर कंपनी के नाम उसने तुरंत एक शिकायती चिट्ठी लिखी| पत्नी चाय बनाकर उसके पास ले आयी| साथ में डबलरोटी के दो टुकड़े भी रख लाई कि जाने कब देर-सबेर घर लौटें| रोटी में उसने हाथ लगाया ही था कि उसने उसे रख दिया|
यह डबलरोटी कब आयी है?
रात, पास की बेकरीवाला दे गया था|
यह बासी है|
वह तो ताज़ा बता रहा था|
मैं उसे अभी बताता हूँ कि ताज़ा है कि बासी| दस आदमियों को ले जाऊंगा| इसमें बदबू तक आ रही है| वह उत्तेजित होकर खड़ा होने लगा| तभी पत्नी बोली रोटी न सही चाय तो पीते जाओ|
उसने चाय का एक घूँट लिया|
यह तो चीनी की चाय है|
हाँ|
चीनी कहाँ से आयी?
पड़ोस से ले ली है| उसके पास हमेशा फ़ालतू रहती है| समझदार आदमी है| राशनकार्ड में चार-छ: नाम ज़्यादा लिखा रखे हैं| ज़्यादा लालची भी नहीं है| एक किलो पर चार आने ही ज़्यादा लेते हैं| दूकान वाला तो ब्लैक में आठ आने ज़्यादा लेता है| मैंने वहीं से ले ली| बच्चों से फीकी व गुड़ की चाय नहीं चलती थी, ज़िद करते थे| कोई गलत काम तो नहीं किया| स्त्री ने उसे समझाते हुए कहा|
मैं यह चाय नहीं पीता| यह गलत काम नहीं है? वह चिल्लाया  यह चोर-बाज़ारी है| मैं चोरों से खरीद कर खुद चोर नहीं बनना चाहता| मैं पडोसी की रिपोर्ट करूँगा| उसकी तहकीकात करवाऊंगा|
उसका कुछ नहीं होगा| राशन का इंस्पेक्टर उसका दोस्त है| तुम अगर उससे नहीं लेना चाहते, तो खुद क्यों अपना राशनकार्ड नहीं बनवा लेते? महीने भर दफ़्तर की ख़ाक छान रहे हो| यहाँ इंस्पेक्टर आता है| एक दिन चाय पिला देते| एक रुपया जेब में बच्चों की मिठाई के लिए रख देते, तो, चार की जगह बीस का कार्ड आनन-फ़ानन में बनवा लेते| घर में चीनी-ही-चीनी होती|
बकवास बंद करो| ऐसी बेईमानी की बात यदि तुम्हारे दिमाग में आएगी, तो मैं तुमसे संबंध त्याग दूंगा| उसकी आवाज़ में गुस्सा और सख्ती थी|
संबंध रखकर भी क्या सुख दे रहे हो? घर में चूहे लोटते हैं| एक-एक चीज़ को तरसती हूँ| तुमसे कम पढ़े-लिखे, कम काम करके भी आराम की ज़िंदगी बिताते हैं| अच्छा खाते-पहनते हैं| उनके बच्चे हर चीज़ के लिए मन मारकर नहीं रहते| जब तक मैं हूँ, घिरस्ती चलाने का जो सही रास्ता है, वह ज़रूर बताऊंगी|
यह सही नहीं, गलत रास्ता है|
गलत ही सही पर ज़रुरी है| सभी उस पर चलते हैं|
मैं उस पर नहीं चलूँगा, न तुम्हें चलने दूंगा| मैं तय कर चुका हूँ|
तुम्हारे तय करने से क्या होता है? जो रास्ता ज़िंदा रहने के लिए ज़रुरी है, वही सही रास्ता है| मैं उसे कहूँगी, बार-बार कहूँगी| स्त्री की आवाज़ क्रोध से कांपने लगी, रोआंसी हो गई|
फिर तुम चलो अपने रास्ते पर| मैं जाता हूँ|

वह तेज़ी से घर से निकल, सड़क पर आ गया| उसका मुख तमतमाया हुआ था| पहली लड़ाई घर पर ही लड़नी होगी, यह वह नहीं जानता था| लेकिन कोई बात नहीं| सत्य के लिए सब कुछ छोड़ा जा सकता है  उसने सोचा और बिना घर की ओर दुबारा देखे, तेज़ी से आगे बढ़ गया|
एक कदम ही चला था कि एक साइकिल वाला अपने दायें से तेज़ी से साइकिल निकाल ले गया| वह टकराते-टकराते बचा| ज़ोर से चिल्लाया 
यह कौन-सा तरीका है?
अपना रास्ता नापिए जनाब? साइकिल वाला कहता हुआ रफ़ू-चक्कर हो गया| वह देखता ही रह गया|
चार कदम पर ही बच्चों का स्कूल था  मसीही पादरियों का स्कूल| स्कूल के अहाते में प्रिंसिपल साहेब रहते थे| उसके पैर उधर मुड़ गए| प्रिंसिपल साहेब बाहर लॉन की धूप में आराम कुर्सी पर बैठे अखबार पढ़ रहे थे| उसने पहुँचते ही कहा 
मैं सत्यव्रत शर्मा हूँ| अतुल शर्मा का पिता| वह आपके यहाँ दूसरी कक्षा में पढ़ता है|
हाँ, कहिये|
स्कूल में अपनी किताबें चोरी चली जाने की शिकायत उसने आपसे की| आपने उसकी शिकायत सुनने से इनकार कर दिया| कहा कि अंग्रेजी में कहो, तब तुम्हारी बात सुनी जायेगी| यह कौन-सा तरीका है? शिकायत तो अपनी भाषा में आप सुन ही सकते थे|
प्रिंसिपल साहेब की त्योरी चढ़ गयी| अंग्रेजी में जवाब देते हुए उन्होंने जो कुछ कहा, उसका मतलब था 
देखिए साहेब! स्कूल के मामलों में आप दखल नहीं दे सकते| यह हमारा अनुशासन है| यदि आपको हमारा अनुशासन पसंद नहीं, तो बच्चे को स्कूल से हटा सकते हैं| इससे ज़्यादा मैं कुछ नहीं कह सकता|
आप अपनी भाषा में, जिसे आप अच्छी तरह जानते हैं, जिसमें पले और बढ़े हैं, शिकायत भी नहीं ...|
मैंने कह दिया, मुझे इस विषय में कोई बात नहीं करनी है| आप सोच लीजिए| इतना कह कर प्रिंसिपल साहेब घर के भीतर चले गए| वह अपमानित-सा खड़ा रह गया| धीरे-धीरे स्कूल के बाहर आ गया| सड़क पर पड़ा गोबर उसने स्कूल के अंग्रेजी में लिखे बोर्ड पर दे मारा और आगे बढ़ गया|
मोड़ पर ही साइकिल पर बक्स लादे जाता हुआ रोटीवाला मिल गया|
तुम कल बासी रोटी दे आये| बेईमानी की आदत छोड़ दो| उसने कहा|
ज़बान संभालकर बात कीजिये साहेब! अगर आपको बासी लगती है तो मत लीजिए| बेईमान वगैरह कहा तो ठीक नहीं होगा|
मैं बेईमान को बेईमान कहूँगा|
कहकर देखिये|
तुम बेईमान हो|
रोटीवाला भिड़‍ गया| चारों ओर भीड़ लग गई| हाथा-पाई की नौबत देख, लोगों ने बीच-बचाव किया| भीड़ ने राय दी  बात ठीक है| आपको नापसंद हो न लीजिए, लेकिन किसी को बेईमान थोड़े ही कह सकते हैं|
मैं बेईमान को बेईमान नहीं कह सकता? उसने गुस्से में चीखकर भीड़ से पूछा| भीड़ की राय थी नहीं| सब लोग अपने रास्ते लग लिए| रोटीवाला पहले ही साइकिल बढ़ा चुका था| एक बुज़ुर्ग ने धीमे से कहा|
शरीफ़ आदमी हैं आप| कहाँ उलझते हैं| इस तरह लड़िएगा तो कैसा चलेगा? कहाँ तक लड़िएगा? किस-किस से लड़िएगा?
फिर क्या अन्याय स्वीकार करें?
और कर भी क्या सकते हैं| बुज़ुर्ग आदमी ने सिर झुकाकर दबी आवाज़ में कहा और आगे बढ़ गए|
वह खड़ा का खड़ा रह गया| उसकी समझ में नहीं आया कि लोग गलत को गलत क्यों नहीं कहने देते| और यदि कोई दूसरा ऐसा करता है तो बजाय उसका साथ देने के उसे रोकते क्यों हैं| उसका सिर चकरा रहा था|
उसे राशनकार्ड की याद आयी| उसने तय किया कि वह बड़े दफ़्तर जाकर राशन अधिकारी से शिकायत करे| दफ़्तर दूर था| सामने बस आती देख, वह बस पर सवार हो गया| भीड़ में किसी तरह वह अपने को संभाले हुए खड़ा था| अगले स्टाप पर उसने देखा, एक आदमी चुपचाप कंडक्टर के हाथ में एक सिक्का पकड़ाकर उतर गया| कंडक्टर ने बिना टिकट दिए सिक्का जेब के हवाले किया|
उसे टिकट दो| वह चिल्लाया|
दे दिया| आपसे मतलब? कंडक्टर ने आँखें तरेरकर देखा|
नहीं दिया| मैं देख रहा हूँ|
आप ख़ाक देख रहे हैं|
तुमने टिकट नहीं दिया है, पैसे लिए हैं|
ज़बान संभालकर बोलिए| पैसे आपके बाप ने लिए होंगे| पूछ लीजिए उससे, अभी नीचे खड़ा है|
वह आदमी नीचे से ही चिल्लाया  टिकट तो साल भर पहले ही ले चुका हूँ! और हँसने लगा| बस चल दी|
देख लिया आपने? कंडक्टर ने निपटने के लहजे में पूछा|
मैंने सब देख लिया है| मैं आगे तेरी जांच कराऊंगा|
जा, जा, तेरे जैसे बहुत देखे हैं| बड़ा आया जांच कराने वाला| तेरी तरह यहाँ चोर नहीं बसते हैं|
चोर तुम हो|
ज़बान खींच लूँगा| कंडक्टर ने गरदन पकड़ ली| पास खड़े एक आदमी ने शांत भाव से कहा  जब टिकट लेनेवाला कह रहा है कि उसने लिया, फिर आप क्या कर सकते हैं|
उसकी समझ में नहीं आया कि वह क्या करे| अगले स्टाप पर बस का इंस्पेक्टर चढ़ा| उसने उससे कहा: यह कंडक्टर गड़बड़ आदमी है| पैसे जेब के हवाले करता है, टिकट नहीं देता|
क्या आपको उसने टिकट नहीं दिया?
नहीं, मुझे तो दिया है| पिछले स्टाप पर एक आदमी से इसने पैसे खाए हैं|
क्यों भाई, क्या बात है? इंस्पेक्टर ने मुस्कुराते हुए बड़े इत्मीनान से कंडक्टर से पूछा|
बाबू साहब का दिमाग खराब है| और लोग भी हैं, पूछ लीजिए| कहकर कंडक्टर व्यंग्य से हँसने लगा| कोई कुछ नहीं बोला|
क्यों साहब? आप को कहते थे...!
मैं अपनी आँखों से देखा है| उसने सच बोलने के आवेश में आकर कहा|
अपनी आँखों का इलाज कराइए, वरना कोई आँखें निकाल लेगा| कंडक्टर आगे टिकट बांटते-बांटते वहीं से गुस्से में ज़ोर से चिल्लाया|
अपनी आँखों से देखी हुई बात भी झूठी हुई जा रही है| वह क्या, कैसे करे? उसकी समझ में नहीं आ रहा रहा था|
सरकारी कर्मचारियों के काम में बाधा डालना और उनसे लड़ना भी जुर्म है, यह आप जानते हैं| स्टाप पर उतरते हुए इंस्पेक्टर ने उससे कहा और कंडक्टर की ओर मुस्कराकर देखने लगा|
कंडक्टर आगे टिकट देकर पीछे आया| व्यंग्य भरे लहजे में विजय के उल्लास से बोला  क्यों साहब, आप क्या करेंगे? घर से लड़कर चले हो? शरीफ़ आदमी हो, शरीफ़ आदमियों की तरह रहो|
क्या शरीफ़ आदमी का काम आँख, कान, मुँह बंद करके रहना है?
जी नहीं| दूसरों को झूठा, चोर और बेईमान बताना है| कंडक्टर फिर तैश में आ गया था| बात दुबारा बढ़ती देख, पास के एक सज्जन ने कहा 
क्या फ़ायदा इस बहस से? शरीफ़ आदमी सचमुच आँख, कान, मुँह बंद करके रहता है| आपने ठीक फ़रमाया था| चुप कीजिये|
उसका स्टाप आ गया था| वह उतरने को हुआ कि कंडक्टर ने बस चला दी, साथ ही उतरते समय सबकी नज़र बचाकर इस तरह का धक्का दिया कि वह सड़क पर गिरते-गिरते बचा| कंडक्टर की एक भद्दी गाली उसे सुनायी दी और बस आगे निकल गयी|
उसने अपने को बुरी तरह अपमानित अनुभव किया| वह लज्जा और क्षोभ से भरा हुआ था| पैरों में हल्की मोच आ गयी थी| वह लंगड़ाता हुआ पटरी पर चढ़ रहा था और सोच रहा था, वह कुछ नहीं कर सका| एक गलत काम कितनी दिलेरी से उसके सामने हो गया| वह लंगड़ाता हुआ राशन-अधिकारी के दफ़्तर पहुंचा| घंटो बाहर बैठना पड़ा| भीतर से ठहाकों की आवाज़ आ रही थी| अधिकारी अपने मित्र से बातों में मशगूल थे| उसका धैर्य चुक गया| देर होते देख उससे नहीं रहा गया| वह चपरासी के सामने ज़ोर से चिल्लाया  मेरा समय फ़ालतू नहीं है| मैं घंटे भर से बैठा हुआ हूँ| भीतर जाकर कह दो, पहले जनता का काम करें, फिर अपनी बात करें|
चपरासी ने उसे इस तरह चिल्लाने से रोकना चाहा| लेकिन वह माना नहीं| तकरार बढ़ गयी| बाहर हंगामा देख, अधिकारी खुद चिक उठाकर बाहर आ गए|
क्या बात है? आप क्या चाहते हैं?
मैं आपसे बात करना चाहता हूँ|
बताइए|
पिछले एक महीने से मेरा राशनकार्ड पड़ा हुआ है| दफ़्तर के लोग घूस चाहते हैं| नहीं बना रहे हैं|
आपके पास क्या सबूत है कि घूस चाहते हैं|
फिर क्यों नहीं बना रहे हैं? महीने से ऊपर हो गया|
कोई बात होगी ही| आप अपनी शिकायत लिखकर शिकायत-पेटी में डाल जाइये| मैं देख लूँगा|
शिकायत-पेटी में शिकायत लिखकर कई बार डाल चुका हूँ, पर कुछ नहीं हुआ| शिकायत-पेटी धोखे की टट्टी है| फ़रेब है| काम न करने का, टालने का बहाना है|
अधिकारी ने अपने चपरासी से कहा कि उससे शिकायती चिट्ठी ले कर पेटी में डलवा दी जाये और उस पर भी हंगामा करे, तो दफ़्तर से बाहर निकाल दिया जाये| फिर वह चिक के भीतर चले गये|
थोड़ी देर बाद वह दफ़्तर के बाहर खड़ा था| उसे लगा कि शिकायत की पेटी एक ताबूत की तरह है, जिसमें हर चीज़ जाकर दफ़नाने के लिए लाश में बदल जाती है| उसके जी में आया वह उसमें, दफ़्तर में, सबमें आग लगा दे| पर वह बाहर निकाला जा चुका था और एक सही काम न करा सकने की अपनी असमर्थता पर ग्लानि से भरा हुआ था| अपनी असमर्थता का ज्ञान जितना ही उसे ज़्यादा होता जाता, सत्य के लिए लड़ने का उसका संकल्प उतना ही मज़बूत होता जाता| पैर की वह हल्की-सी मोच अभी भी उसे तकलीफ़ दे रही थी|
अचानक किसी ने पीछे से जाकर उसके कन्धों पर हाथ रक्खा और कहा  तुम यहाँ? अच्छे मिले| हम सत्यपथ का विशेषांक निकालने जा रहे हैं| स्वतंत्रता के बाद के भारतीय समाज की प्रगति पर तुम्हारा एक लेख चाहिए| अच्छा-सा लिख दो| सरकार की ज़्यादा कड़वी आलोचना न करना| सरकारी विज्ञापनों का सिलसिला शुरू होने वाला है|
तुम अपनी पत्रिका का नाम बदलकर असत्य पथ रख दो| तभी मैं उसमें लिख सकूंगा|
तुम तो नाराज़ हो जाते हो| पत्रिका की आर्थिक स्थिति भी तो ठीक करनी है| हम किसी को नाराज़ नहीं कर सकते| लिख दो लेख, क्या फ़रक पड़ता है| आखिर स्वतंत्रता के बाद कुछ तो प्रगति हुई है|
हाँ, लोग खुद को और दूसरों को और अधिक ठगना सीख गये हैं| चोरी, मक्कारी, झूठ, फ़रेब सबके दाम चढ़े हैं और लोग उन पर आदर्शों का अच्छे से अच्छा लेबल लगाना सीख गये हैं|
यह सब लिखो| यह सब लिखने को हम कब मना करते हैं| सत्यपथ है ही इसलिए कि सत्य कहा जाये| मेरा अनुरोध तो केवल इतना था, सरकार की किसी कारवाई पर सीधा आक्रमण न किया जाये| तुमने तो इतने दिनों पत्रकारिता की है, तुम्हें क्या बताना|
मैं नहीं लिखूंगा| इतना ही नहीं, आपकी पत्रिका बिकी हुई है| इसका अधिक से अधिक प्रचार करूँगा| मैं कोई भी गलत काम बिना विरोध के नहीं जाने दूंगा|
यहाँ बिका कौन नहीं है? आप भी बिके हैं| सारा देश बिका है| बिकना ही यहाँ टिकना है|
लेकिन हमारा फ़र्ज़ उसके खिलाफ़ आवाज़ उठाना है|
कौन सुनता है? किसको किसके लिए सुनाना है? तुम किस दुनिया में रहने लगे हो? कहता हुआ वह व्यक्ति आगे बढ़ गया|
लेकिन तुम अपनी पत्रिका पर सत्यमेव जयते लिखते हो| पर क्या यह नहीं मानते कि अंत में सत्य की विजय होगी|उसने कहा| उस आदमी ने थोड़ा रूककर पीछे घूमकर जवाब दिया  सत्यमेव जयते तो सारा देश लिखता है| कहाँ सत्यमेव जयते नहीं लिखा है? लेकिन सत्य वह ढाल है, जिसे लेकर हम झूठ की लड़ाई लड़ते हैं| आज़ादी के बाद यही हमने सीखा है, यही सिखाया गया है|
उसने देखा, एक इमारत पर मोटा-मोटा लिखा हुआ था  सत्यमेव जयते| उसे लगा कि एक घायल, पराजित, वृद्ध योद्धा की तरह सत्य उसी इमारत के नीचे मरा हुआ पड़ा है| और अकेले उसे ही उसकी लाश कन्धों पर उठाकर ले जानी है| वह कुछ देर तक जाने किस विचार में खोया रहा|

दिन के बारह बज रहे थे| सूरज सिर पर चढ़ आया था| सड़क पर लोग आ-जा रहे थे| सभी जाने किस दौड़ में थे| उसने सोचा, झूठ को दौड़कर चलने की आदत है| उसमें धैर्य नहीं होता| वह जल्दी मंजिल पर पहुंचना चाहता है| सुबह से कुछ भी न खाने के कारण उसे हल्की-सी भूख महसूस हुई| लेकिन मन के तूफ़ान के आगे भूख का अहसास तुरन्त खो गया| एक अजीब बेचैनी उसके मन में थी| गुस्से से वह भरा हुआ था| पैरों को आराम देने के लिए वह एक बिजली के खम्भे से टिक कर खड़ा हो गया| उसने कुछ देर के लिए आँखें बंद कर लीं| मन ही मन दोहराने लगा, जो कुछ भी हो, लड़ाई पूरी करनी होगी| समस्या सत्य के लिए लड़ने की नहीं, सत्य के लिए अकेले लड़ने की है|
अचानक उसके सामने एक स्कूटर रिक्शा घड़घड़ाता हुआ रुका| एक वृद्ध महिला उसमें से उतरीं| पैसे देने पर स्कूटरवाला झगड़ा करने लगा|
मैं रोज़ आती हूँ| दो रूपए ही बनते हैं|
तीन रूपए बने हैं|
मीटर तो है ही नहीं, तुम्हें कैसे मालूम?
मैं रात-दिन यही काम करता हूँ|
दो से ज़्यादा मैं दूँगी नहीं|
मैं तीन लेकर छोड़ूँगा| और स्कूटरवाला मत समझियेगा| आप जैसे रोज़ देखता हूँ|
उसकी समझ में नहीं आया कि सत्य क्या है? इन दोनों में कौन ठीक है?
वह आगे बढ़कर स्कूटरवाले से बोला  लेकिन मीटर क्यों नहीं है?
आप बीच में मत बोलिए| वह रोज़ आती हैं और इसी तरह तकरार करती हैं| मैं इन्हें अच्छी तरह जानता हूँ|
लेकिन मीटर न रखना भी तो जुर्म है| कैसे मालूम, कौन ठीक है?
मीटर है, लेकिन खराब हो गया है| फिर आप बीच में क्यों बोलते हैं?
यह बदमाश है| ठगना चाहता है| बुढ़िया ने कहा|
आपकी उम्र का लिहाज़ है, नहीं गरदन पकड़कर ले लेता| तीन रूपए सीधे-सीधे दे दीजिए| गाली वगैरह दी तो ठीक नहीं होगा|
मैं दो से ज़्यादा नहीं दूँगी| बुढ़िया अकड़ पर थी|
दो-चार आदमी और इकट्ठे हो गये|
आपने मीटर पहले नहीं देखा था? एक ने कहा|
आपने पहले कुछ तय किया था? दूसरे ने कहा|
अरे, कुछ और देकर खतम कीजिये| तीसरे ने कहा|
झगड़ा सुलझते न देख चौथे ने कहा  चौराहे के सिपाही से पूछ लीजिए|
सिपाही ने आते ही स्कूटरवाले का पक्ष लिया| बुढ़िया रोआंसी सूरत बनाये तीन रूपए देकर चली गयी| मामला रफ़ा-दफ़ा हो गया| थोड़ी देर बाद उसने देखा, वही स्कूटरवाला आया| चौराहे पर रूककर उसने सिपाही को कुछ दिया और सलाम करता हुआ दूसरी सड़क पर चला गया| उसकी सब समझ में आ गया| वह सिपाही के पास जा कर बोला  तुमने झूठ फ़ैसला दिया| घूस ली|
तुम क्या मेरे बाप हो?
मैं तुम्हारी तुम्हारे अफ़सरों से शिकायत करूँगा|
तुम यहाँ खड़े क्या कर रहे हो? सीधे चले जाओ| आदमी बदमाश मालूम पड़ते हो| क्या तहकीकात के लिए थाने भेजवाऊं|
मैं खुद थाने जाता हूँ|
सिपाही हँसने लगा| हंसकर बोला  तुम्हारा दिमाग खराब हुआ है|
कुछ दूर आगे बढ़ा ही था कि चलती सड़क की पटरी पर एक चारपाई पर रजाई ओढ़कर एक आदमी लेता हुआ दिखायी दिया| पास सिर झुकाए कुछ ग्रामीण बैठे थे| एक औरत सिसकियाँ भर रही थी|
क्या बात है? उसने पूछा|
यह बीमार है| एक ने संक्षिप्त उत्तर दिया|
अस्पताल क्यों नहीं ले जाते?
वहीं ले गये थे| दवा दे दी| भरती नहीं किया|
क्या बोले?
बोले जगह नहीं है|
क्या हुआ है इसे?
बुखार है| बीच-बीच में बेहोशी आ जाती है|
उसने देखा, चारपाई पर पड़े आदमी की हालत काफ़ी खराब थी| अस्पताल की इस लापरवाही पर उसे गुस्सा आया| उसने कहा  चलो मेरे साथ| मैं भरती कराता हूँ|
सभी उसे अशीषते हुए उठ खड़े हुए| चारपाई उन्होंने कन्धे पर उठायी और उसके पीछे-पीछे चल दिए| ड्यूटी पर जो डाक्टर था, उसने उससे पूछा  आप इसके कौन हैं?
कोई नहीं|
आप किसी सेवा संस्था या किसी राजनैतिक पार्टी के आदमी हैं?
इस सवाल पर उसे बहुत गुस्सा आया| उसने झल्लाकर कहा  मैं केवल आदमी हूँ| क्या सही बात कहने के लिए किसी संस्था या पार्टी का होना ज़रुरी है?
इस मरीज़ को हम भरती नहीं कर सकेंगे| डाक्टर ने दो टूक जवाब दिया|
क्यों?
जगह नहीं है|
बीमार और मरते हुए आदमी के लिए यदि अस्पताल में जगह नहीं होगी तो और कहाँ होगी? उसने कहा|
मजबूरी है| डाक्टर का संक्षिप्त उत्तर था|
ठीक है| मरीज़ यहीं है| जब जगह खाली हो, दे दीजियेगा| आखिर ये लोग बीस मील चलकर गाँव से आये हैं| अपढ़ हैं, गरीब हैं| शहर में मरता हुआ आदमी लिए कहाँ जायेंगे|
आप क्यों उनकी वकालत कर रहे हैं? हम भी अपना फ़र्ज़ जानते हैं| रोज़ न जाने कितने ऐसे मरीज़ आते हैं| किस मरीज़ के साथ क्या करना है, हम जानते हैं|
आप कुछ नहीं जानते| अपना फ़र्ज़ भी नहीं|
मैं जाऊंगा नहीं| यहीं रहूँगा| किसी दूसरे आदमी को आपने भरती किया, तब आपको देखूंगा|
आप बाहर तशरीफ़ रखिये| यहाँ शोर मत मचाइए|
तभी टेलीफोन की घंटी बज उठी| डाक्टर ने थोड़ी बातचीत के बाद कहा  हाँ भेज दीजिए| भरती कर लेंगे| थोड़ा आराम ज़रुरी है| फिर नर्स से बोला  बैड न॰ 17 ठीक कर दीजिए| मिनिस्टर साहब का आदमी आ रहा है|
पहले यह आदमी भरती होगा, मिनिस्टर का नहीं| वह चिल्लाया|
आप तशरीफ़ ले जाइए| अस्पताल के काम में दखल मत दीजिए| डाक्टर ने नरमी से कहा और मरीज़ को देखने के लिए आड़ में चला गया|
मैं देखता हूँ, आप उसे कैसे भरती करते हैं? वह चीख पड़ा|
बाहर आया| उसने देखा, औरत छाती पीट-पीटकर रो रही है| मरीज़ मर चुका था| उससे नहीं रहा गया| वह आपे से बाहर हो गया था| उसने चीख-चीखकर कहना शुरू किया  यह अस्पतालवाले हत्यारे हैं| इस आदमी की हत्या उन्होंने की है|
लेकिन उसकी बात पर कान देनेवाला कोई नहीं था| वहाँ जितने लोग थे, सबको अपनी-अपनी चिंता थी| सभी जाने थे डॉक्टरों को नाराज़ करना भगवान को नाराज़ करना है|
लाश को गांव ले जाओगे? अब क्या करोगे? उसने पूछा|
क्या करें साहब, डबडबाई आँखों से एक ने कहा| थोड़ी देर बाद उसने देखा, उन्होंने चारपाई उठाई और धीरे-धीरे चल दिए| औरत पीछे ज़ोर-ज़ोर से रोती जा रही थी तभी मिनिस्टर साहेब की गाड़ी आकर रुकी| एक स्वस्थ-सा आदमी उसमें से उतरा और डाक्टर ने स्वयं बाहर आकर सहारा दिया|
आपको यह बैड एक गरीब आदमी की जान लेकर दी जा रही है| वह तिलमिलाकर ज़ोर से चिल्लाया| तभी पीछे से पुलिस के दो आदमियों ने उसे पकड़ लिया और उसे खींचते हुए अस्पताल के बाहर ले गये| उसका मुँह दबा दिया गया था|
तुम लोग सच्चाई का गला घोंटते हो| बाहर आकर उसने सिपाहियों से कहा|
बकवास बंद करो एक सिपाही ने उसे बेंत जमाते हुए कहा|
यह बकवास नहीं है, सत्य है|
चुप रहो| दूसरा बेंत पड़ा|
मैं चुप नहीं रहूँगा| जो गलत है, उसे बारम्बार कहूँगा| आखिरी सांस तक कहूँगा| वह चिल्लाया|
वह ऐसे नहीं मानेगा| इसे थाने में ले जा कर बंद करना होगा| एक ने दूसरे से कहा|
कुछ देर बाद वह थाने में बंद था|
आप लोग सत्य की रक्षा नहीं करते| थाने के दरोगा से उसने कहा|
सत्य की रक्षा करना हमारा काम नहीं है| हम शान्ति और व्यवस्था की रक्षा करते हैं|
फिर सत्य की रक्षा कौन करेगा?
सत्य अपनी रक्षा अपने आप करेगा| तुम अब हंगामा न खड़ा करने का वचन दो, तो तुम्हें छोड़ा जा सकता है|
सत्य के लिए बोलना यदि हंगामा खड़ा करना है तो मैं हज़ार बार खड़ा करूँगा| तुम लोग सब झूठ का साथ देते हो| तुम्हारे आदमी पैसे खाते हैं| तुम केवल जो बड़े हैं, समर्थ हैं, उनके लिए हो जिससे कि वे तुम्हारे बल पर अपना झूठ चला सकें|
तुम्हारे उपदेश की हमें ज़रूरत नहीं है| उसका जवाब हमारे पास डंडा है| साफ़ बोलो, तुम यहीं रहना चाहते हो या जाना चाहते हो?
मैं यहाँ अपनी खुशी से नहीं आया हूँ| तुम लोग गैर कानूनी ढंग से मुझे यहाँ लाये हो| अपनी बात कहने का अधिकार हमें है| तुम मेरा यह अधिकार नहीं छीन सकते| देश में लोकतंत्र है, तानाशाही नहीं, पर तुम लोगों ने तानाशाही मचा रक्खी है| उसने कहा|
तुम्हारी ज़बान बंद नहीं होगी? दरोगा ने क्रोध में चिल्लाकर कहा|
मैं कोई गलत बात नहीं कह रहा हूँ|
तेरी सत्यवादी की...| दरोगा ने भद्दी गालियाँ दीं और कहा, इसे बीस बेंत लगाकर थाने के बाहर कर दो|

उस समय तीन बज रहे थे| सड़क पर भाग-दौड़ वैसी ही बनी हुई थी| उसका सिर चकरा रहा था| सारे शरीर में दर्द था| उससे खड़ा नहीं हुआ जा रहा था| बेंत के निशान जगह-जगह उभरे हुए थे| पुलिस को मुझे मारने का कोई हक नहीं है| वह कराह से क्षीण आवाज़ में बार-बार दोहरा रहा था| लेकिन कोई सुननेवाला नहीं था| सभी जल्दी में थे| सभी अपनी धुन में थे| थोड़ी देर बाद एक ठिगना-सा आदमी उसके पास आकर खड़ा हो गया था| उसके मुँह से शराब की बू आ रही थी| पान की पीक होठों के नीचे तक आकर जम गयी थी|
थाने में मार पड़ी है? उसने संवेदना से पूछा|
हाँ| पुलिस को मुझे मारने का कोई हक नहीं था| उसने फिर दोहराया|
चोट ज़्यादा लगी है? क्या किसी की जेब काटी थी?
नहीं|
चोरी की थी?
नहीं, नहीं|
फिर क्या किया था?
सच बोला था|
वह आदमी हँसने लगा| हँसने पर शराब की बू और तीखी हो गयी|
तब तो तुम सबसे बड़े बदमाश हो| लगता है, तुम भूखे हो| काफ़ी चोट खाये हुए हो| तुमसे खड़ा नहीं हुआ जा रहा है| तुम्हें मदद की ज़रूरत है? मेरे एक काम करोगे? मेरा यह थैला लेकर तुम थोड़ी देर, केवल आधे घण्टे, यहाँ बैठे रहो| आधे घण्टे बाद मेरा एक आदमी आकर इसे ले जायेगा| फिर तुम जो चाहोगे वह, वह तुम्हें देगा| कहाँ से आये हो?
इसी शहर में हूँ| कई महीनों से|
कभी दीखे नहीं| मैं सभी बदमाशों को जानता हूँ| बहरहाल इतना काम करो| कुछ लोग मेरा पीछा कर रहे हैं| तुम पर कोई शक नहीं करेगा| थैला रखकर वह आदमी जाने लगा|
इसमें क्या है?
अफ़ीम है|
मैं इसे नहीं लूँगा| मैं चोर-बदमाश नहीं हूँ| मैं अभी चिल्लाऊंगा कि तुम तस्करी करते हो| तुम्हारे पास अफ़ीम है|
वह चिल्लाने ही जा रहा था कि गुंडे ने उसे ज़ोर का धक्का दिया| उसे अपने पेट में गहरी चोट महसूस हुई| उसकी आँखों के सामने अँधेरा छा गया और वह लड़खड़ाकर गिर गया| गुंडा अपना थैला लिए गली में रफ़ूचक्कर हो गया|
उसे नहीं मालूम, वह कितनी देर बेहोश-सा पटरी पर पड़ा रहा| क्योंकि जब उसकी आँख खुली, तब उसने देखा कि सड़क पर आने-जाने वालों की भीड़ ज़्यादा हो गई है| लोग दफ़्तरों से छूटकर घर जा रहे हैं| धूप उतर रही है| हवा में ठंडक बढ़ रही है| उसके पास में ही एक भिखारी बैठा हुआ है|
पजामा-कमीज़ कहाँ से मिल गयी? भिखारी ने दांत निकल ही-ही कर हंसते हुए पूछा|
तुम भीख नहीं मांगते हो?
मांगता हूँ, दूसरों के लिए अक्ल की भीख|
घर नहीं है?
है|
यहाँ क्यों सो रहे हो?
सो नहीं रहा हूँ| दूसरों को जगा रहा हूँ|
भीख नहीं मांगते, तो यहाँ से उठ जाओ| अभी यहाँ तमाम भिखारी आ जायेंगे| एक सेठ शाम को यहाँ आता है| सबको रोटी देता है|
उसे फिर चक्कर-सा आने लगा| बदन में हवा लगने से दर्द बढ़ रहा था| वह उसी तरह बैठा रहा| धीरे-धीरे तमाम भिखारी वहाँ आकर जमा हो गये| सभी उसे देखकर आपस में कुछ कह रहे थे| यह भीख नहीं मांगता| पहले भिखारी ने दूसरों से कहा| दूसरों ने फिर उसे खींचकर पीछे डाल दिया| उसने एक बार खड़े होने की कोशिश की, पर उठ नहीं सका| उसे लगा जैसे उसकी संज्ञा लुप्त होती जा रही है| वह एक बदबूदार नाली में पड़ा है और चारों ओर घिनौने कीड़ों से घिरा हुआ है| सभी भिखारी आपस में गाली-गलौज, मार-पीट कर रहे थे|
दिन की रोशनी फीकी होना शुरू होते ही एक बड़ी गाड़ी रुकी और उससे उतरकर एक सेठानीजी भिखारियों को रोटी बांटने लगीं| सभी एक-दूसरे पर टूटने लगे| उसने जाने कहाँ से अपने अन्दर शक्ति महसूस की| किसी तरह उठ कर खड़ा हो गया और चिल्लाया  यह रोटी चोरबाज़ारी से कमाए हुए पैसे की है| इसे कोई मत लो| लेकिन भिखारी मक्खियों की तरह भिनभिना रहे थे| वह धीरे-धीरे वहाँ से चल दिया| लगा जैसे उसके शरीर का हर जोड़ उखड़ गया हो| अपनी गति के साथ-साथ उसे हर चीज़ लड़खड़ाती दिखायी दी| कहीं कोई टिकाव नहीं है| किसी भी क्षण कोई भी चीज़ उस पर गिर सकती है और वह उससे कुचल सकता है| पटरी पर खोंचेवाले बैठे थे| उन पर मक्खियाँ भिनभिना रही थीं|
सामान को ढांककर रक्खो| गन्दगी मत बेचो| उसने कहा|
नए इनिसपेट्टर आये हैं|
आखिर जब ढांकने का इंतजाम है, तब ढांकते क्यों नहीं हो? उसने कुछ तैश में आकर कहा|
क्या आपको खाना है जो क़ानून बघारते हैं? खोंचेवालों ने कहा|
यदि सफ़ाई से रक्खा होता तो खाता| उसने कहा|
आप जैसे खानेवाले बहुत देखे हैं| खानेवाला खाता है| सफ़ाई-गन्दगी नहीं देखता|
और सचमुच खानेवाले खा रहे थे| मिर्च मसाला देखते थे, सफ़ाई नहीं| क्या हो गया है लोगों को? सफ़ाई-मिलावट कुछ नहीं देखते, सिर्फ़ खाते हैं, खाते जाते हैं| दुनिया एक बहुत बड़ा पेट हो गयी है, जिसमें सभी कुछ समाता जा रहा है| वह सोच ही रहा था कि अचानक एक दस-बारह साल का लड़का जो सामने से आ रहा था, उस पर गिर पड़ा| उसने लड़के को संभाला, लड़का माफ़ी मांगता हुआ चला गया| उसे लगा, कहीं लड़का भूखा तो नहीं था| वह दुबला-पतला बेहद कमज़ोर लगता था| उसे अपने लड़के की याद आयी| उसने सोचा, ज़रूर भूखा होगा| उसे कुछ खिला दे| उसने जेब में हाथ डाला| जेब कटी हुई थी, पैसे नदारद थे| उसने लड़के को देखा वह चारों ओर कहीं नहीं था| उसके मन में पैसे जाने से ज़्यादा एक छोटे लड़के के खराब हो जाने का दुख था| वह उसे ढूँढकर उससे कुछ कहना चाहता था, पर वह कहीं नहीं था| कुछ स्कूली लड़के तंग पतलून पहने बस की प्रतीक्षा करती लड़कियों पर फबतियां कस रहे थे, छेड़ रहे थे| उससे नहीं रहा गया| लड़कों के पास जाकर उसने कहा: स्कूलों और कॉलेजों में यही सीखते हो तुम लोग?
नहीं, और भी बहुत-सी चीज़ें सीखतें हैं| एक बदमाश लड़के ने बनावटी गंभीरता से जवाब दिया|
क्या? उसने पूछा|
खड़ी जमाना| एक बोला|
पड़ी जमाना| दूसरे ने कहा|
तड़ी जमाना| तीसरा बोला|
छड़ी जमाना| चौथे ने कहा|
फिर सब ठठाकर हँसने लगे और लड़कियों के पास सरक गये|
मैं अभी पुलिस को बुलाता हूँ|
पागल है| सभी साथ मिलकर चिल्लाये| किसी ने पीछे से सिर पर एक तड़ी जमायी| फिर क्या था, सिर पर तड़ातड चपत पड़ने लगी| लड़के समवेत स्वर में चिल्लाते जाते 
पागल है| खड़ी जमाना, पड़ी जमाना, तड़ी जमाना, छड़ी जमाना| पागल है|
मिनटों में उसे सैकड़ों चपत पड़ गयीं| वह कहता ही रह गया  बदतमीजों, पुलिस को बुलाता हूँ  पुलिस को बदतमीजों...| लड़के नौ दो ग्यारह हो गये थे| लड़कियां हंस रही थीं और राह चलते उसे पागल समझ मुस्करा रहे थे|
उसका सिर भन्नाने लग गया था| कुछ छोटे बच्चों को भी जो दुकानों के पास खेल रहे थे, मनोरंजन का सामान मिल गया था| वह चिल्ला-चिल्लाकर भागने लगे  पागल है, पागल है| दूर से वह ढेले भी फेंकते| उसके प्रतिवाद करने पर उनकी हरकतें और बढ़ती जातीं| लड़कियों की हंसी रोके नहीं रुकती थी| उसकी समझ में नहीं आता, इस स्थिति का सामना कैसे करे| वह बार-बार कहता  बच्चों, मैं पागल नहीं हूँ| मैं एक सही बात कह रहा था|
पर उस गलत शोर में वह अपनी सही बात नहीं सुना पा रहा था| अपना भन्नाता हुआ सिर लिए वह आगे बढ़ गया| पागल है, पागल है का शोर निरंतर उसके कानों में गूँज रहा था| यह आने वाली पीढ़ी है, सत्य कहने वाले को पागल करार देती है उसने बार-बार सोचा| उसका मन खिन्न होता गया| उसे लगा, वह चारों ओर गलत बातों से घिरा हुआ है| एक बाढ़ में वह घिर गया है| सभी ने इन गलत बातों को स्वीकार कर लिया है, उनमें रस लेने लगे हैं| सत्य पर आग्रह के कारण वह सबके लिए अजनबी हो गया है| वह सड़क से हटकर पास के एक पार्क के एकान्त कोने में जाकर पड़ गया| हवा में ठंडक और बढ़ गयी थी| अँधेरा छाने लगा था| शरीर की नस-नस दुख रही थी  चटख रही थी| शारीरिक अशक्तता उसे घेर रही थी| आँखों के सामने चिनगारियां उड़ रही थीं| वह क्या करे? क्या यह लड़ाई अर्थहीन है? वह लौट जाये? क्या दुनिया को जिस तरह से चल रही है, चलने दे? सही और गलत के भेद की ज़रूरत उसे नहीं है?
वह काफ़ी देर अँधेरे में ठंडी घास पर पड़ा रहा| धीरे-धीरे उसे लगा, उसका शरीर जल रहा है| भीतर से लपट उठती है, ऊपर से कोई पानी डालता है| बगल के कुंज में पीछे से फुसफुसाहट आ रही थी|
पांच रूपए ले लो| पुरुष स्वर|
नहीं, इतना बहुत कम है| दोपहर से साथ हूँ| स्त्री स्वर|
अभी तो आधी रात तक...| पुरुष स्वर|
छोड़ो...दो और देना| स्त्री स्वर| चूड़ियों की खनक|
उसने चाहा, वह ज़ोर से चिल्लाए  दूसरे की मजबूरी का फ़ायदा मत उठाओ|
शायद वह चिल्लाया भी| उसने उठाना चाहा, पर वह लड़खड़ा गया| कुंज के पीछे से आती आहटें ख़ामोश हो गयीं थीं| वह धीरे-धीरे पार्क के बाहर आ गया था| चारों ओर विस्मय से देख रहा था| उसकी समझ में नहीं आया, वह कहाँ आ गया है| एक आदमी आस्तीन में कोई लंबी चीज़ छिपाए किसी की इंतज़ारी कर रहा था| उसके जी में आया कि वह पूछे, तुम्हारी आस्तीन में क्या है? पर उसकी आवाज़ नहीं निकली| वह पार्क की दीवार से टिक गया| वह आदमी भीतर गया| थोड़ी देर बाद तेज़ी से पार्क से निकलकर जा हुआ दिखायी दिया| उसकी आँखें रह-रहकर मुंद रही थीं| उसे चारों ओर चहल-पहल बढ़ती हुई दिखायी दी| लोग आ-जा रहे थे| फिर पुलिस आयी| पता चला, किसी ने किसी को चाकू मार दिया| घायल आदमी पार्क में पड़ा है| थोड़ी देर बाद पुलिस का आदमी उसके सामने खड़ा था 
तुम कौन हो? उसने उससे कड़ककर पूछा|
सत्यव्रत शर्मा| जिसने चाकू मारा है, वह उस तरफ गया है| उसे ढूँढो| मुझसे क्या पूछते हो|
तुमने उसे देखा है?
हाँ, पर ठीक से नहीं| उसका मुँह दूसरी तरफ था|
तुम यहाँ क्या कर रहे हो?
खड़ा हूँ| दुनिया को देख रहा हूँ|
तुमने उसे पकड़ा क्यों नहीं?
मैं उस समय कुछ सोच नहीं सका था| अब अनुमान लगाता हूँ| फिर पकड़ने का काम तुम्हारा है| लेकिन जिस तरह तुम मुझसे पूछ रहे हो उससे लगता है, तुम उसे नहीं पकड़ना चाहते| तुम सब उसे जानते हो| पर पकड़ोगे नहीं| उससे पैसे खाओगे|
तुम छंटे बदमाश लगते हो| सीधा जवाब नहीं देते|
सीधा जीता जो हूँ|
थाने चलो| वारदात के चश्मदीद गवाह हो तुम| सिपाही ने कहा|
मुझे जितना मालूम था, बता दिया| इससे ज़्यादा कुछ नहीं बता पाऊंगा|
तुम सब बताओगे पर मार खाकर|
सिपाही उसे खींचकर थाने ले गये|
यह वही सुबह वाला आदमी है| क्यों बे, अभी होश दुरुस्त नहीं हुआ? दरोगा ने पूछा|
मैंने क्या किया है? उसने कहा|
सही बात क्यों नहीं बता रहा है?
मैं सही बात ही बताता हूँ और कुछ नहीं| और कुछ न मैं जानता हूँ, न जानना चाहता हूँ|
क्या उस आदमी की बड़ी-बड़ी मूंछें थीं| दाहिनी आँखों के ऊपर भौंहों के पास कटे का निशान था| ठिगना कद और रंग सांवला था|
मैंने यह सब नहीं देखा|
उसे देखा और यह सब नहीं देखा|
नहीं| मैं आधी बेहोशी में था|
बंद करो इसे| यह चालाक आदमी है और उसी गिरोह का है|
मेरा कोई गिरोह नहीं है| मैं अकेला आदमी हूँ| सच बोलनेवाले का कोई नहीं होता| मैंने इसे समझ लिया है| मुझे तंग मत करो|
उसकी आँखों के सामने अँधेरा छाने लगा| वह दीवार के सहारे टिकना चाहता था पर लड़खड़ा गया| थोड़ी देर बाद उसे लगा, कोई उसके कानों पर चिल्ला रहा है| उसे झकझोर रहा है|
तुम होश में हो न? इस बयान पर दस्तखत करो| कलम उसके हाथ में दी गयी पर छूट गयी|
इसे तेज़ बोखार है| लगता है बेहोश हो जाएगा| एक आवाज़|
इसे दूध दो| दूसरी आवाज़|
इसके दस्तखत ज़रूरी हैं| तीसरी आवाज़|
अंगूठा लगवाओ| फिर बाहर छोड़ आओ| दारोगा की आवाज़|
जब आँख खुली तो वह अस्पताल में था| उस समय आधी रात हो रही थी| डाक्टर इंजेक्शन लगाकर चुके थे| उसकी पत्नी और उसके बच्चे सिरहाने खड़े थे|
तुम गयी नहीं?
तुम दिन भर घर क्यों नहीं आये?
काम में लगा था, छुट्टी नहीं मिली|
तुम्हारे न लौटने पर घबराकर थाने में खबर देने आयी थी| देखा तुम बोखार में बेहोश बाहर पड़े हो| शरीर पर मार के नीले-नीले निशान हैं| यहाँ अस्पताल ले आयी|
यह अस्पताल है| मैं यहाँ नहीं रहूँगा| यहाँ इलाज नहीं, हत्या की जाती है| वह चिल्लाने लगा|
नर्स ने बीवी-बच्चों से निकल जाने को कहा, आप लोग जाइए| सन्निपात में बक रहे हैं| सुबह आइयेगा| बात करने से मरीज़ की हालत खराब हो जायेगी|
वह रात भर बकता रहा  यहाँ इलाज नहीं हत्या की जाती है| मैं खूब जानता हूँ| मैं समझ लूँगा|
सुबह बोखार कम था, पर उसका बकना उसी तरह जारी था| सुबह डाक्टर ने आते ही उसे देखा और कहा 
अरे, यह वह आदमी है, जो कल सबेरे दंगा कर रहा था|
मैं दंगा नहीं कर रहा था, सही बात कह रहा था|
तुम्हें बैड मिल गया या नहीं?
ज़मीन पर डाल रक्खा है| यह बैड है? बैड मिनिस्टर के आदमियों को मिलता है|
तुम्हें पसंद नहीं है! घर जाना चाहते हो? अपनी ज़िम्मेदारी पर जा सकते हो|
मेरा कोई घर नहीं है| अपनी ज़िम्मेदारी पर कहीं जाऊंगा नहीं, पर सत्य ज़रूर कहूँगा|
उसकी पत्नी आ गयी थी| डाक्टर कह रहा था 
इन्हें कोई गहरा धक्का लगा है| दिमाग ठीक नहीं रहा| कब से इनकी यह हालत है? डाक्टर ने पत्नी से पूछा|
कल सुबह से आँख खुलते ही जाने क्या हो गया| चिल्लाने लगे  मैं सत्य के लिए लड़ूंगा| पत्नी ने जवाब दिया|
मैंने पूरे होश-हवास में यह कहा था| मुझे कुछ नहीं हो गया| उसने कहा|
डाक्टर ने उसकी बात अनसुनी करते हुए पत्नी से पूछा  फिर?
फिर दिन भर घर नहीं आये| आधी रात को थाने के पास बोखार में बेहोश पड़े मिले| पत्नी ने बताया|
अक्सर इन्हें ऐसा होता है? डाक्टर ने पूछा|
पहले कभी नहीं हुआ था| हाँ, झूठ और बेईमानी के काम से पहले भी चिढ़ते थे| खुद नहीं करते थे| पर करने वालों से लड़ते नहीं थे| गरीबी में गुज़ारा कर लेते थे| इधर लड़ने लगे थे| बड़े-बड़े लोगों की किताबें पढ़ते थे| हर समय उन्हीं की बात करते थे| क्या मालूम था, उसका नतीजा यह होगा| पत्नी आंसू भर लाई|
नर्वस ब्रेकडाउन| दवा दे रहे हैं| लेकिन आगे इन्हें हर ऐसी चीज़ से बचाना होगा जिससे तनाव पैदा हो, भड़कते हों| डाक्टर ने कहा|
ठीक कहते हो डाक्टर| अब ऐसा कुछ नहीं है जिसे देखकर गुस्सा न आता हो| शान्ति मुझे सच्चाई में मिल सकती है, पर वह कहीं नहीं है| जो गलत है उसको मैं गलत कहता हूँ, उसके लिए लड़ूंगा| मुझे जीवन नहीं चाहिए| तुमने कल एक आदमी को मार डाला| रोज़ कितनों को मारते हो, मैं नहीं जानता| तुम्हें देखकर मेरा खून खौल रहा है| तुम्हारे अस्पताल से मुझे नफ़रत है| मैं यह बात पागलपन में नहीं, पूरे होश-हवास में कह रहा हूँ| तुम सब खुशामदी हो| तुम लोगों में कहीं भी इंसानियत नहीं है| आदमी की कीमत तुम नहीं जानते| उसका चेहरा तमतमा आया|
देखिये, फिर कुछ इन्हें होने लगा| पत्नी ने घबराकर कहा|
इन्हें अकेला छोड़ना होगा|, जब तक यह पूरी तरह स्वस्थ नहीं हो जाते|
डाक्टर ने कहा और चला गया|
मैं स्वस्थ हूँ| मैं स्वस्थ हूँ| अस्वस्थ तुम सब हो| वह चिल्लाया| चिल्लाता रहा| उसके चिल्लाने की आवाज़ रह-रह कर आती रही| उसके बिस्तरे के चारों ओर आड़ कर दी गयी थी, जिससे वह दूसरों को न देख सके और न दूसरे ही उसे देख सकें| इस दुनिया में रहकर भी यह दुनिया उसकी दृष्टि से अलग कर दी गयी थी|
दो दिन इसी तरह रहने के बाद तीसरे दिन सुबह वह नहीं था| अस्पताल के लोग रोती हुई उसकी पत्नी को बता रहे थे,वह बात-बात पर लड़ता था| ठीक खाना न मिलने पर, पूरी दवा न मिलने पर चिल्लाता था| डाक्टर-नर्स कोई भी उसके पास नहीं फटकता था| ज़मीन पर डाले जाने के खिलाफ़ वह अंत तक चिल्लाता रहा| हम लोग रात-दिन उसका चिल्लाना सुनते थे| अभी भी उसकी आवाज़ कानों में गूंजती है  मुझे गलत जगह डाल दिया गया है| मुझे गलत जगह डाल दिया गया है|
डाक्टरों ने उसकी ठीक से देखभाल नहीं की| एक ने कहा|
सभी से लड़ता जो था| सब उससे ऊब गये थे दूसरे ने पूछा|
क्या सचमुच वह पागल था? तीसरे ने पूछा|
लड़ाकू था| चौथे ने हंसकर जवाब दिया|
ऐसे लोग भी इस दुनिया में होते हैं? पांचवां बोला|
और बेमौत मरते हैं| छठा हंस पड़ा|
मरते नहीं, मार डाले जाते हैं| सातवें ने कहा|

उसकी पत्नी आँखों में आंसू भरे उसके पास खड़ी थी| उसके कानों में अभी भी उसके शब्द घूम रहे थे और देखो, गलत काम मैं तुम्हें भी नहीं करने दूंगा, न बच्चों को|
उसकी समझ में नहीं आ रहा था, उसका अंतिम संस्कार वह कैसे करे!

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