अभी फेसबुक पर किसी का स्टेटस पढ़ा, 'क्या कोई 100 फीसदी सच बोल सकता है?' पता नहीं गांधी जी ने सौ फीसदी सच बोला या नहीं और सत्यवादी हरिश्चंद्र का क्या रिकॉर्ड था, पर व्यावहारिक दुनिया में कई बार सच से ज्यादा जरूरी होता है झूठ बोलना। कई बार सच अमानवीय भी हो सकता है। बरसों पहले मैेने सर्वेश्वर दयाल सक्सेना की कहानी 'लड़ाई' पढ़ी थी। शायद अस्सी के दशक की शुरुआत थी। उसके बाद लखनऊ की संस्था दर्पण ने इस कहानी पर एक नाटक बनाया हरिश्चन्नर की लड़ाई। उर्मिल थपलियाल ने उसका निर्देशन किया था। काफी रोचक नाटक था और उसे देश भर में तारीफ मिली। उसके भी पहले वीरेंद्र शर्मा ने 'कुमारिल' नाम से एक पत्रिका निकाली। उसका एक अंक ही निकला, जिसमें यह कहानी भी थी। अक्सर यह कहानी मुझे याद आती है। आपने यदि उसे नहीं पढ़ा है, तो उसे एकबार पढ़ें जरूर। कहीं और न मिले तो मेरे ब्लॉग पर पढ़ें , जिसका लिंक मैं नीचे दे रहा हूँ-
आँख खुलते ही उसने निश्चय किया कि वह सत्य के लिए लड़ेगा| न खुद कोई गलत काम करेगा, न दूसरों को करने देगा| इस निश्चय से उसे एक विचित्र प्रकार की शान्ति मिली| अचानक दुनिया छोटी लगने लगी और वह उसके लिए अपने को बड़ा महसूस करने लगा| अपने अंदर एक नयी ताकत उसने पायी| उसे लगा, उसकी कमर सीधी हो गयी है और लटकी हुई गर्दन उठ गयी है| वह ज़्यादा देर लेटा नहीं रह सका| बिस्तरे से कूदकर खड़ा हो गया| मुट्ठियाँ बांधकर और दोनों हाथ ऊपर उठाकर वह चिल्लाया – “अब मैं सत्य के लिए लडूंगा|”
उसकी आवाज़ सुनकर उसकी स्त्री जो रजाई में सुख की नींद सो रही थी, घबरा गयी| रजाई में से सिर निकालकर उसने पूछा –
“यह तुम्हें क्या हो गया है?”
“मैंने निश्चय किया है कि मैं सत्य के लिए लड़ूंगा| चाहे जो कुछ हो|” उसने दृढ़ स्वर में जवाब दिया|
स्त्री ने देखा, उसका चेहरा बदल गया है| आँखें जितना बाहर देख रही हैं, उतना ही भीतर भी देखने लगी हैं| सारी आकृति धनुष की तरह तन गयी है| उसे जाने कैसा डर लगने लगा| वह रजाई में उठकर बैठ गयी|
बाहर काफ़ी धूप निकल आयी थी| दिन चढ़ आया था| उसने दरवाज़ा खोला| सामने बंधा हुआ अखबार पड़ा था| उसने उसे उठाया और जेब से दियासलाई निकालकर उसमें आग लगा दी| अखबार भभककर जल उठा|
“यह क्या कर रहे हो?” घबराकर स्त्री चिल्लाई|
“कुछ नहीं| लड़ाई शुरू हो गयी है|” उसने सीधा-सा जवाब दिया|
“लोग तुम्हें पागल कहेंगे|”
“झूठा होने से पागल होना बेहतर है| मैं कायर और ढोंगियों से नफ़रत करता हूँ| अखबार कायर और ढोंगियों की वकालत करते हैं| झूठे हैं| मैं उनसे निपटूंगा?” उसने सख्त आवाज़ में कहा|
“हाय! यह तुम्हें क्या हो गया है? तुम्हारा दिमाग कैसे खराब हो गया? मुसीबत में ही सही, ज़िंदगी तो किसी तरह कट रही थी| अब कैसे कटेगी?” स्त्री की आँखों में आंसू आ गए|
“मैं नहीं जानता कैसे कटेगी| पर न मैं खुद कोई गलत काम करूँगा, न दूसरों को करने दूंगा|” उसने दोहराया|
“फिर घर का क्या होगा? बच्चों का क्या होगा? मेरा क्या होगा?” स्त्री ने पूछा|
“जो भी हो| झूठ अब नहीं चलेगा| कुछ भी चलाने के लिए उसका सहारा मैं नहीं लूँगा| अब तय हो गया|”
जला हुआ अखबार उड़ रहा था| उसकी कालिख उड़-उड़कर चारों ओर फैल रही थी – बाहर गली में, भीतर कमरे में| उसने पास उड़ते एक हल्के फूले हुए बेजान टुकड़े को पैर से दबा दिया| उतनी ज़मीन काली हो गयी|










