Wednesday, May 27, 2015

कहाँ ले जाएगा शिक्षा का ‘मार्क्सवाद’?

सीबीएसई की 12वीं कक्षा की परीक्षा में इस साल टॉप करने वाली दिल्ली एम गायत्री ने कॉमर्स विषयों में 500 में से 496 अंक (अथवा 99.2 प्रतिशत) हासिल देशभर में टॉप किया. यानी पाँच विषयों में उनके कुल जमा चार अंक कटे. नोएडा की मैथिली मिश्रा और तिरुअनंतपुरम के बी अर्जुन संयुक्त रूप से दूसरे स्थान पर रहे. इन दोनों को 500 में 495 अंक (99 प्रतिशत) प्राप्त हुए.

इसके पहले सीबीएसई की 10 वें दर्जे की परीक्षा के परिणाम आए थे. आईसीएसई तथा देश के अलग-अलग राज्यों की बोर्ड परीक्षा के परिणाम आ रहे हैं या आने वाले हैं. बच्चे उन ऊँचाइयों को छू रहे हैं, जिनसे ऊँचा पैमाना ही नहीं है. हर साल तमाम विषयों में बच्चे 100 में से 100 अंक हासिल कर रहे हैं. इन बच्चों की तस्वीरें इन दिनों मीडिया में छाई हैं. बधाइयों और मिठाइयों का बाज़ार गर्म है. इन परिणामों के साथ इंजीनियरी, मेडिकल और दूसरे व्यावसायिक कोर्सों की प्रवेश परीक्षाओं के परिणाम आ रहे हैं.


बच्चे बधाई के हकदार हैं. ये बच्चे मेधावी हैं. पर ये परीक्षा परिणाम कुछ सवाल भी खड़े करते हैं. उच्चतर अंक-पद्धति से विश्वविद्यालयों में प्रवेश का कट ऑफ भी ऊँचा हो गया है. कम अंक पाने वालों के चेहरे पर मायूसी है. क्या साठ और चालीस फीसदी अंक पाने वाले बच्चों के लिए भी हमारे पास बधाई संदेश है? क्या वे बेकार हैं? क्या केवल यह अंक-पद्धति व्यक्ति की गुणवत्ता की पक्की कसौटी हैं? क्या यह अंक-पद्धति छात्र की मेधा को विकसित करने का दावा कर सकती है? क्या मूल्यांकन पद्धति में कोई खोट है?  

हम जिन बच्चों की तस्वीरों को देख रहे हैं, उनमें अधिकतर मध्य-वर्ग से आते हैं. इनके बीच उन गरीब बच्चों की कहानियाँ भी हैं, जिनके संरक्षक रिक्शा चलाकर, सब्जी बेचकर या मेहनत-मजदूरी करके अपने बच्चे को पढ़ाते हैं. यह एक नई तस्वीर है, पर ये एकाध मामले हैं, आम नहीं. समाज-व्यवस्था साहब के बेटे को साहब और चपरासी के बेटे को चपरासी बनाती है. दूसरी ओर यह मौलिक वैज्ञानिक, चिकित्सा विज्ञानी, विचारक और कलाकार बनाने का काम नहीं करती. अंकों पर केंद्रित इस नए मार्क्सवाद ने खुद को अंकों की कमाई तक सीमित कर दिया है.

सौ फीसदी अंक आईआईटी में प्रवेश की गारंटी नहीं देते, पर इतना माना जा सकता है कि वह छात्र लिखत-पढ़त में इतना काबिल तो होता ही है कि उसे वहाँ प्रवेश मिल जाए. पर इस बात का पता कैसे लगेगा कि उसके भीतर मौलिक रचनात्मक प्रतिभा है. एक मित्र ने कहा, सौ फीसदी अंक हासित करना इतना आम-फहम होना शक पैदा करता है कि इस व्यवस्था में कहीं कोई दोष है.

हाल में ग्रामीण इलाकों के बच्चों के बीच विज्ञान-चेतना का प्रसार करने वाले एक मित्र ने बताया कि हमें शहरी स्कूलों के बच्चों के अलावा ग्रामीण परिवेश के बच्चों के साथ काम करने का मौका भी मिलता है. विज्ञान को समझने में सफल वही होता है जो खुद प्रयोग करके देख सके. शहरी बच्चों के माता-पिता बच्चों को हाथ से काम करने से रोकते हैं. सुई में धागा तक डालने नहीं देते. ग्रामीण परिवेश में मजदूर का बच्चा कठोर काम करना जानता है. उसे प्रयोग से निकले निष्कर्ष जल्दी समझ में आते हैं. वह हवा, पानी, खेत, जंगल, नदी और प्राणियों के साथ खेलते हुए बड़ा होता है. उसे विज्ञान की अवधारणाएं समझाना आसान होता है, पर उसे बताने वाले नहीं होते. शिक्षा और उसके विषयों को लेकर विडंबनाओं के ढेर हैं.

परीक्षा में 100 फीसद नम्बर लाने वालों की बढ़ती तादाद से लगता है कि स्कूलों का स्तर ऊँचा हो गया है. यह भ्रम सन 2012 के पीसा टेस्ट में टूट गया. विकसित देशों की संस्था ओईसीडी हर साल प्रोग्राम फॉर इंटरनेशनल स्टूडेंट असेसमेंट (पीसा) के नाम से एक परीक्षण करती है. दो घंटे की इस परीक्षा में दुनियाभर के देशों के तकरीबन पाँच लाख बच्चे शामिल होते हैं. सन 2012 में भारत और चीन के शंघाई प्रांत के बच्चे इस परीक्षा में पहली बार शामिल हुए. चीनी बच्चे पढ़ाई, गणित और साइंस तीनों परीक्षणों में नम्बर एक पर रहे और भारत के बच्चे 72 वें स्थान पर रहे, जबकि कुल 73 देश ही उसमें शामिल हुए थे.

सन 2005 में शिक्षा-केन्द्रित भारतीय एनजीओ प्रथमने पता लगाने की कोशिश की कि बच्चे वास्तव में सीख क्या रहे हैं. सात से चौदह साल की उम्र के तकरीबन 35 फीसदी बच्चे एक सरल पैराग्राफ(दर्जा एक के स्तर का) पढ़ नहीं पाए. करीब 60 फीसदी बच्चे एक आसान कहानी(कक्षा दो के स्तर की) पढ़ने में असमर्थ रहे. सिर्फ 30 फीसदी बच्चे दूसरे दर्जे का गणित कर पाए(बेसिक भाग). छोटे दुकानदारों के लड़के-लड़कियाँ अपने माता-पिता की मदद के लिए इससे ज्यादा जटिल गणनाएं बगैर कागज-कलम के करते हैं. क्या स्कूलों ने उनके सीखे हुए को अनसीखा बना दिया?

दसवें और नवीनतम असर के अनुसार शिक्षा का अधिकार कानून (आरटीई) लागू होने के बाद स्कूलों की संख्या और उनमें दाखिले में भारी बढ़ोतरी हुई है, पर पढ़ाई-लिखाई की गुणवत्ता गिरी है. सर्वे के अनुसार सरकारी स्कूलों पर आम जनता का विश्वास घट रहा है. लोग बच्चों को प्राइवेट स्कूलों में भेजना चाहते हैं, भले ही उनका ताना-बाना घटिया है. पर जब हम सरकारी स्कूल में होने वाले राजनीतिक-प्रशासनिक हस्तक्षेपों को देखते हैं तब अंतर का पता लगता है. एक-दो कमरों के इन स्कूलों के भवन सरकारी स्कूलों से खराब हैं, पर वहाँ शिक्षकों की उपस्थिति बेहतर है. वे कम वेतन पाते हैं पर उनका मुख्य काम पढ़ाना है.

तब क्या हम सरकारी शिक्षकों को जिम्मेदार मानें? अभिजित बनर्जी और एस्थर ड्यूफ्लो ने अपनी किताब पुअर इकोनॉमिक्समें लिखा है कि देश के सबसे गरीब प्रदेशों में से एक उत्तर प्रदेश के पूर्वी क्षेत्र के जौनपुर जिले में प्रथमके कार्यकर्ताओं ने गाँव-गाँव जाकर बच्चों का परीक्षण किया और समुदायों को प्रेरित किया कि वे खुद देखें कि उनके बच्चे कितना जानते हैं और कितना नहीं जानते हैं. अंततः उनके बीच से ही अपने भाइयों-बहनों की मदद के लिए स्वयं सेवक निकले. वे कॉलेज-छात्र थे, जो शाम को क्लास लगाते थे. इस कार्यक्रम के पूरा होने पर सभी प्रतिभागी बच्चे, जो इसके पहले पढ़ नहीं पाते थे, कम से कम अक्षरों को पहचानने लगे.

इसी तरह अध्यापकों की सबसे ज्यादा गैर-हाजिरी की दर वाले प्रदेश बिहार में प्रथमने सुधारात्मक समर कैम्पों की श्रृंखला आयोजित की. इनमें सरकारी विद्यालयों के अध्यापकों को पढ़ाने के लिए आमंत्रित किया गया. इस मूल्यांकन के परिणाम आश्चर्यजनक थे. बदनाम सरकारी अध्यापकों ने वास्तव में अच्छा पढ़ाया और इसके परिणाम जौनपुर की ईवनिंग क्लासेज़ जैसे ही थे. यानी समस्याओं से घिरे होने के बावजूद हमारे पास समाधान भी हैं. क्या वजह है कि हम समाधानों से दूर हैं?


प्रभात खबर में प्रकाशित

1 comment:

  1. hamare waqt me distinction aa jaye wahi badi baat thi aajkal toh 90% numbers lana ek aam baat ho gayi hain. aur kal ka kya pta chale 100% marks aane lag gaye. :)

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