अथर्ववेद कहता
है, "धरती माँ, जो कुछ भी तुमसे
लूँगा, वह उतना ही होगा जितना तू
फिर से पैदा कर सके। तेरी जीवन-शक्ति पर कभी आघात नहीं करूँगा।" मनु स्मृति
कहती है, “जब पाप बढ़ता है तो धरती काँपने लगती है।” प्रकृति हमारी संरक्षक है, पर तभी तक जब तक हम
उसका आदर करें। भूकम्प, बाढ़ और सूखा हमारे असंतुलित आचरण की परिणति हैं। अकुशल,
अनुशासनहीन, अवैज्ञानिक और अंधविश्वासी समाज प्रकृति के कोप का शिकार बनता है।
प्रकृति के करवट लेने से जीव-जगत पर संकट आता है, पर वह हमेशा इतना भयावह नहीं
होता। भूकम्प को रोका नहीं जा सकता, पर उससे होने वाले नुकसान को सीमित किया जा
सकता है।
इस भूकम्प का
केंद्र दिल्ली से तकरीबन आठ-साढ़े आठ सौ किलोमीटर दूर था। वह दिल्ली में होता तो
क्या होता? दिल्ली में तकरीबन
45 लाख मकान बने हैं। इनमें से बीस लाख से ऊपर इमारतें भूकम्पों को ध्यान में रखकर
नहीं बनाई गई हैं। वे जब बनी थीं तब हमारे मानक कुछ और थे। लगभग तीन चौथाई दिल्ली
में लोगों ने अपने मकानों का अवैध विस्तार कर लिया। डीडीए के तीन मंजिला मकानों पर
चौथी मंजिल बना ली। खाली जगहों पर छत डाल दी। बाल्कनी को कमरा बना दिया। जिन लोगों
की जिम्मेदारी इस अवैध निर्माण को रोकने की थी, उन्होंने आँखें बंद कर लीं। यह
आधुनिक ‘पाप’ है।
दिल्ली देश के
ज़ोन-4 पर स्थित है यानी खतरनाक इलाका। भाग्यवश यहाँ कोई बड़ा भूकम्प आया नहीं। मार्च
2012 में एक हल्की तीव्रता वाला भूकम्प दिल्ली के आसपास आया था, जिसका केंद्र
बहादुरगढ़ में था। उसकी तीव्रता कम थी। खास नुकसान नहीं हुआ। तकरीबन पचपन साल पहले
27 अगस्त 1960 को आए भूकम्प का केंद्र दिल्ली कैंट और गुड़गाँव के बीच कहीं था। वह
भूकम्प पाँच की तीव्रता का था। उसके कारण राष्ट्रपति भवन और लाल किले की इमारतों
को मामूली क्षति पहुँची थी। तब में और अब में काफी अंतर आ चुका है। उस जमाने में
दिल्ली में ऊँची इमारतें नहीं होती थीं। जिन जगहों पर तब खेत थे वहाँ ऊँची इमारतें
खड़ी हैं। आज वहाँ पाँच की तीव्रता का भूकम्प भी खतरनाक साबित होगा।
विशेषज्ञों के अनुसार
पहले दिल्ली में बहुमंजिला इमारतें नहीं बनती थीं लेकिन धीरे-धीरे खतरे को नजरंदाज
कर बहुमंजिला इमारतें बनने लगीं। वह भी कायदे-कानूनों को ताक पर रखकर। आज यह इलाका
भूकम्प के लिहाज से खतरनाक है। पूरा एनसीआर हाई राइज़ इमारतों का गढ़ है। सरकारी
एजेंसियों का दावा है कि ये इमारतें भूकम्प-रोधी तकनीक से बनाई गई हैं, पर इनका
परीक्षण कभी नहीं हुआ। इन्हें सेफ मान भी लिया जाए, पर नब्बे के दशक से पहले बनी
इमारतों का क्या होगा? या डीडीए की उन कॉलोनियों का क्या होगा, जहाँ छतों पर एक
अतिरिक्त मंजिल लोगों ने बगैर किसी अनुमति के बना ली है? आधी दिल्ली में अवैध
निर्माण हैं।
सबसे ज्यादा खतरा
लुट्यन्स दिल्ली की उन इमारतों पर मंडरा रहा है, जो सन 1920 से 1940 के बीच नई दिल्ली को बसाते वक्त बनाई गई
थीं। इनमें संसद भवन के साथ-साथ तमाम सरकारी इमारतें भी हैं। यमुना के किनारे बसे
इलाकों में ज्यादातर मकान बेतरतीब और बिना किसी इंजीनियरी के बनाए गए हैं। देश के दूसरे हिस्सों में भी कहानी ऐसी ही है। जान-माल का ज्यादातर
नुकसान भूकम्प के कारण नहीं गलत निर्माण-योजना के कारण होता है, जिसके मूल में होता
है भ्रष्टाचार। जहाँ आठ मंजिला बिल्डिंग बननी चाहिए वहाँ बिल्डरों ने बारह और चौदह
मंजिलें तक बनाईं। नेशनल बिल्डिंग कोड के अनुसार भवनों का नक्शा क्वालीफाइड
इंजीनियर बनाते और पास करते हैं। निर्माण के पहले मिट्टी का परीक्षण होता है।
निर्माण सामग्री की गुणवत्ता का परीक्षण होता है। पर निर्माण से जुड़ी व्यवस्था
भ्रष्टाचार की शिकार है।
इस भ्रष्टाचार की
पोल सन 2013 की उत्तराखंड आपदा में खुली। आपदा का वह रूप कुछ और था और इस बार का
रूप कुछ और है, पर काफी समानता है। इस बार के भूकम्प के बाद बिहार में कई तरह की
अफवाहें फैलीं। ह्वाट्सएप और ट्विटर पर इस आशय के संदेश भेजे गए कि अभी कितने बजकर
कितने मिनट पर फिर से झटके लगने का अंदेशा है। इन अंदेशों के कारण लोग-बाग़
रात-रात भर घर से बाहर रहे। अशिक्षित और अर्ध शिक्षित समाज खतरे को बढ़ा देता है।
शिक्षा और मीडिया अपनी जिम्मेदारी निभाने में फेल हुए हैं।
मार्च 2011 में
जापान में सुनामी आई थी। जापान ने उसका जिस तरीके से सामना किया उसे भी देखिए।
जापान हर साल कम से कम एक हजार भूकम्पों का सामना करता है। सुनामी की पहली खबरें
मिलने के बाद जापान सरकार की पहली प्रतिक्रिया थी, हम माल के नुकसान को गिन ही नहीं रहे हैं। हमें सबसे पहले
अपने लोगों की जान की फिक्र है। जापान हर साल 1 सितम्बर को विध्वंस-निरोध दिवस
मनाता है। 1923 में 1 सितम्बर को तोक्यो शहर में वह विनाशकारी भूकम्प आया था। इस
रोज जापानी लोग प्राकृतिक आपदा से बचने का ड्रिल देश भर में करते हैं। यह ड्रिल
उनके बच्चे-बच्चे के दिल-दिमाग पर काफी गहराई से छपा है।
स्कूल में जाते
ही बच्चों को सबसे पहले दिन यही सिखाया जाता है कि भूकम्प आए तो क्या करें। उनके
पास इमारतों के निर्माण की सर्वश्रेष्ठ टेक्नॉलजी है। 1995 के कोबे भूकम्प के बाद
वहां गगनचुम्बी इमारतें इस तरह की बनने लगीं हैं, जो भूकम्प के दौरान लहरा जाएं, पर गिरें नहीं। फाइबर रिइनफोर्स्ड पॉलीमर की
भवन सामग्री का इस्तेमाल बढ़ रहा है जो कपड़े की तरह नरम और फौलाद जैसी मजबूत होती
है। इन्हें पुलों और बहुमंजिला इमारतों के कॉलमों में इस्तेमाल किया जा रहा है।
जापान में अक्सर
सात से ज्यादा तीव्रता वाले भूकम्प आते हैं। पर उनके लिए यह बारिश और आँधी-पानी
जैसी एक प्राकृतिक परिघटना है। नेपाल के भूकम्प में दस हजार से ज्यादा मौतों का
अंदेशा है। ये मौतें न होतीं यदि वहाँ निर्माण भूकम्प को ध्यान में रखकर किया गया
होता। यह बात अब ध्यान में रखनी होगी, क्योंकि वहाँ पुनर्निर्माण होगा। पर असली
निर्माण भारत में होने वाला है। यह निर्माण वैज्ञानिक पद्धति से और ‘निष्पाप’ होना चाहिए। प्राकृतिक
आपदाएं चेतावनी दे रहीं हैं कि प्रशासनिक भ्रष्टाचार जानलेवा हो सकता है।
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