Friday, March 2, 2012

कुदानकुलम में नादानियाँ

हमारे स्वतंत्रता आंदोलन की दो बुनियादी बातें थीं। पहली थी स्वतंत्रता और दूसरी आत्म निर्भरता। स्वतंत्रता का मतलब अंग्रेजों की जगह भारतीय साहबों को बैठाना भर नहीं था। स्वतंत्रता का मतलब है विचार-अभिव्यक्ति, आस्था, आने-जाने, रहने, सभाएं करने वगैरह की आज़ादी। इसमें लोकतांत्रिक तरीके से प्रतिरोध की स्वतंत्रता बेहद महत्वपूर्ण है। सामाजिक न्याय और आर्थिक विकास तब तक सम्भव नहीं जब तक नागरिक को प्रतिरोधी स्वर व्यक्त करने की आज़ादी न हो। हमारे संविधान में मौलिक अधिकारों को जिस तरह कानूनी संरक्षण दिया गया है वह विलक्षण है, पर व्यवहार में वह बात दिखाई नहीं पड़ती। 1947 से आज तक यह सवाल बार-बार उठता है कि जनांदोलनों के साथ हमारी व्यवस्था और पुलिस जिस तरह का व्यवहार करती है क्या वह अंग्रेजी सरकारों के तरीके से अलग है?

सुप्रीम कोर्ट ने रामलीला मैदान पर बाबा रामदेव के अनुयायियों पर हुए लाठी चार्ज की निन्दा करके और दिल्ली पुलिस पर जुर्माना लगाकर इस बात को रेखांकित किया है कि शांतिपूर्ण प्रतिरोध लोकतंत्र का बुनियादी अधिकार है। उसके साथ छेड़खानी नहीं होनी चाहिए। संविधान में मौलिक अधिकारों पर युक्तियुक्त प्रतिबंध भी हैं, पर धारा 144 जैसे अधिकार सरकारों को खास मौकों पर निरंकुश होने का मौका देते हैं। रामलीला मैदान में सोते व्यक्तियों पर लाठी चार्ज बेहद अमानवीय और अलोकतांत्रिक था, इसे अदालत ने स्वीकार किया है। यह आंदोलन किस हद तक शांतिपूर्ण था या उसकी माँगें कितनी उचित थीं, यह विचार का अलग विषय है। शांतिपूर्ण आंदोलन की भी मर्यादाएं हैं। आंदोलन के अराजक और हिंसक होने का समर्थन नहीं किया जा सकता, पर सरकारी मशीनरी की अराजकता तो और भी भयावह है।


तमिलनाडु के कुदानकुलम परमाणविक बिजलीघर के विरोध में चल रहे प्रदर्शनों के संदर्भ में प्रधानमंत्री के वक्तव्य के बाद और शिद्दत से उठी है कि जिन मामलों को राजनीतिक समझ-बूझ से सुलझाया जाना चाहिए उन्हें घटिया सड़क छाप तरीके से क्यों सुलझाने की कोशिश की जाती है? यह सम्भव है कि इस बिजलीघर के खिलाफ व्यावसायिक कारणों से कोई आंदोलन को भड़का रहा हो। पर उससे निपटने की तरीका इतना भोंडा नहीं होना चाहिए। जापान के फुकुशीमा बिजलीघर में हुई दुर्घटना की जाँच के परिणाम सामने आ रहे हैं, जिनसे पता लगा है कि आपतकालीन स्थिति के लिए लगाए गए बैकअप जेनरेटरों के लिए सही जगह नहीं चुनी गई थी। बिजलीघर लगाने के लिए प्राइवेट एजेंसियाँ लगी थीं जो कार्टल बनाकर काम करती हैं। इसके दो साफ-साफ संदेश हैं। पहला परमाणविक बिजलीघर उतने असुरक्षित नहीं जितने समझे जा रहे हैं। दूसरा निजी क्षेत्र की भागीदारी पर गहरी नज़र रखने की ज़रूरत भी है।

बीटी बैंगन से लेकर परमाणु बिजलीघर तक विज्ञान और तकनीक का हमारे जीवन से गहरा रिश्ता है। आमतौर पर वैज्ञानिक समुदाय में मतभेद नहीं होने चाहिए। प्रधानमंत्री का यह कहना ठीक है कि हमारे आर्थिक विकास में विज्ञान और तकनीक की महत्वपूर्ण भूमिका है और हमें इसमें पीछे नहीं रहना चाहिए। पर इसके बारे में जनता को ज्यादा से ज्यादा जानकारी देने की जिम्मेदारी किसकी है? भारत में आज भी तमाम किस्म के डेटा के प्रकाशन पर रोक है। सरकार खुद पारदर्शिता बरतना नहीं चाहती। वैज्ञानिक रिसर्च का माहौल नहीं है। व्यावसायिक कारणों से भी वैज्ञानिकों के समूह बनते हैं। यह भी सच है कि बड़े-बड़े कॉरपोरेट हाउस एनजीओ का इस्तेमाल अपने और प्रतिस्पर्धियों के आर्थिक टकरावों के लिए करते हैं।

प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह आमतौर पर बोलने में जल्दबाज़ी नहीं करते। बोलते भी हैं तो सधे शब्दों में बोलते हैं। पर कुदानकुलम पर उनका वक्तव्य हताशा में दिया गया वक्तव्य लगता है। उन्हें पहले समझना चाहिए कि स्थिति क्या इतनी साफ है। बजाय आंदोलनकारियों पर दोष मढ़ने के उन्हें अपने साथ लाना चाहिए। तमिलनाडु सरकार को भी अपने साथ रखना चाहिए। तमिलनाडु की मुख्यमंत्री जयललिता पूरी तरह से आंदोलनकारियों के साथ हैं। ऐसा क्यों हो रहा है? जिस तरह सरकार ने अन्ना हजारे के आंदोलन के दौरान बचपना दिखाया तकरीबन वही स्थिति आज दिखाई पड़ रही है। भारत सरकार के पास इतनी अच्छी जानकारियाँ हैं तो उन्हें सामने लाना चाहिए। प्रधानमंत्री ने कहा है कि इस आंदोलन के पीछे विदेशी मदद से चलने वाले एनजीओ हैं। भारत के परमाणु ऊर्जा विभाग ने भारत के ख़ुफ़िया संगठनों से इस बात की जाँच करने का अनुरोध किया है कि विरोध प्रदर्शनों के लिए किन्हीं विदेशी संस्थाओं ने तो धन नहीं दिया। सरकार ने जल्दबाजी में एक जर्मन नागरिक को देश से बाहर कर दिया और कुछ एनजीओ के खिलाफ विदेशी मुद्रा के मामले दायर कर दिए। पर क्या इससे जनांदोलन खत्म हो जाएगा?

कुदानकुलम, हरिपुर और जैतापुर के अलावा अब जहाँ-जहाँ बिजलीघर लगाने की पेशकश हो रही है, वहाँ विरोध के स्वर हैं। हरियाणा के फतेहाबाद, मध्य प्रदेश के चुटका, गुजरात के जसपारा, मीठी विर्दी, खदरपुर, मांडवा, सोसिया और आंध्र के कोव्वाडा में विरोध के स्वर उठे हैं। फुकुशीमा दुर्घटना के बाद भारत में ही नहीं सारी दुनिया में नाभिकीय ऊर्जा को लेकर सवाल उठ रहे हैं। विरोध के स्वर एक हैं, पर कारण अनेक हैं। कुदानकुलम में आंदोलन का नेतृत्व पीपुल्स मूवमेंट अगेंस्ट न्यूक्लियर इनर्जी के हाथ में है। नाभिकीय ऊर्जा के खिलाफ बोलने वाले ताकतवर एनजीओ एक जगह आ गए हैं। इनमें मेधा पाटकर का संगठन भी शामिल है। सरकार ने समय रहते जनता को जानकारी देने की कोशिश नहीं की।

कुदानकुलम के आंदोलन के पीछे उस इलाके के निवासियों की दूसरी परेशानियाँ भी हैं। सबसे बड़ा कारण है भूमि अधिग्रहण। भूमि अधिग्रहण का विरोध करने वालों के पास भी केवल एक कारण नहीं होता। बड़ी संख्या में लोगों का विरोध मुआवजे को लेकर है। कुदानकुलम का इलाका सन 2004 की सुनामी का शिकार हुआ था। तब से अब तक इस इलाके में पुनर्वास के कार्यों को लेकर भी शिकायतें हैं। इसके अलावा स्थानीय शिकायतें अलग हैं। कुल मिलाकर प्रदेश और केन्द्र सरकार को रास्ते खोजने हैं। इसमें दोनों की भागीदारी है।

हमारी सरकारें समस्या उठने के बाद जागती हैं। कुदानकुलम में भी यह बात जाहिर हुई। इतने बड़े बिजलीघर पर बरसों से काम चल रहा था, कोई विरोध नहीं हुआ। इसलिए सरकारों ने भी ध्यान नहीं दिया। देश के शुरूआती एटमी बिजलीघर लगाने में विरोध के स्वर नहीं उठे। पर फुकुशीमा दुर्घटना और जैतापुर तथा हरिपुर के विरोध को देखते हुए यह बात समझ में आ जानी चाहिए थी कि कुदानकुलम में भी विरोध होगा। बिजलीघर के विरोध में आमरण अनशन शुरू हुआ तो केन्द्र सरकार का कोई मंत्री या अधिकारी घटनास्थल नहीं पहुँचा। नौ दिन बाद पीएमओ में राज्यमंत्री वी नारायणसामी आंदोलनकारियों से बात करने गए तो आंदोलनकारियों ने उनसे बात नहीं की। तब से अब तक सरकार तिकड़मों की मदद ले रही है।

कुदानकुलम के मामले में सरकार को सबसे पहले मुख्यमंत्री जयललिता और उनकी सरकार को अपने साथ लाना चाहिए। इसके बाद प्रतिरोधी आंदोलन को बदनाम करने के बजाय उसकी चिंताओं का जवाब देना चाहिए। सम्भव है कि बिजलीघर के विरोध में पेश किए जा रहे तर्कों में दम ही न हो। देश की ऊर्जा जरूरतों के लिए खड़ी की जा रही इतनी बड़ी परियोजना को खत्म नहीं किया जा सकता, पर जनता की लाशों पर भी तो उसे बनाया नहीं जा सकता। अफसोस इस बात का है कि यह राष्ट्रीय प्राथमिकता का प्रश्न बनने के बजाय जयललिता और करुणानिधि की संकीर्ण राजनीति में लिपट गया है। वास्तव में चेन्नई के पास कलपक्कम का परमाणविक बिजलीघर सफलतापूर्वक काम कर सकता है तो कुदानकुलम का क्यों नहीं करेगा?

सरकार को गलतफहमी है कि कोई एनजीओ कुछ करोड़ रुपए खर्च करके जनांदोलन खड़े कर सकता है। जनांदोलन के पीछे जनता की किसी स्तर पर नाराज़गी होती है। उसे समझने की कोशिश करनी चाहिए। बेशक एनजीओ संस्कृति को लेकर सावधान रहने की ज़रूरत है। उसकी समीक्षा होनी चाहिए। ऐसी सावधानी पूरे निजी क्षेत्र को लेकर भी बरतनी चाहिए। पर उसके पहले समझना चाहिए कि जनता की शिकायत क्या है।जनवाणी में प्रकाशित




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