कुछ दिन के लिए मै लखनऊ चला गया। वहाँ नवीन जोशी के पुत्र हर्ष के विवाह समारोह में रूपरेखा वर्मा, नरेश सक्सेना, राजीव लोचन साह, वीरेन्द्र यादव, मुद्राजी, सुनील दुबे, अश्विनी भटनागर, दिलीप अवस्थी, गुरदेव नारायण, शरत प्रधान, ज्ञानेन्द्र शर्मा, घनश्याम दुबे, रवीन्द्र सिंह, मुदित माथुर, विजय दीक्षित, मुकुल मिश्रा समेत अनेक पुराने मित्रों से मिलने का मौका मिला। लखनऊ में या दिल्ली में मुझे जहाँ भी किसी से बात करने का अवसर मिला हर जगह एक बेचैनी है। इस बेचैनी के पीछे कोई एक कारण नहीं है। इन कारणों पर मैं भविष्य में कभी लिखूँगा। लखनऊ से पोस्ट लिखने का मौका नहीं मिला। आज मैं चीनी प्रधानमंत्री की यात्रा के संदर्भ में कुछ लिख रहा हूँ। साथ ही अपने कुछ पुराने लेखों की कतरनें लगा रहा हूँ जो पोस्ट नहीं कर पाया था।
चीन के संदर्भ में मेरी राय यह है कि हमें और चीन को आपस में समझने में कुछ समय लगेगा। सन 2012 में चीन का नया नेतृत्व सामने आएगा। तब तक भारतीय व्यवस्था भी कोई नया रूप ले रही होगी। 2014 के भारतीय चुनाव एक बड़ा बदलाव लेकर आएंगे। मैं कांग्रेस या गैर-कांग्रेस के संदर्भ में नहीं सोच रहा हूँ। ज्यादातर राजनैतिक दल जिस तरीके से अपराधी माफिया और बड़े बिजनेस हाउसों के सामने नत-मस्तक हुए हैं उससे लगता है कि जनता इन्हें ज्यादा बर्दाश्त नहीं करेगी। बहरहाल..
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वन जियाओबाओ की यह दूसरी भारत यात्रा थी। इसके पहले वे 2005 में भारत आ चुके हैं। चीनी सत्ता के पायदान पर वे दूसरे नम्बर के नेता हैं। हू जिन ताओ नम्बर एक नेता हैं। वे भी 2008 में भारत आए थे, पर भारत के साथ रिश्ते बेहतर बनने में वन जियाओबाओ की भूमिका ज्यादा महत्वपूर्ण लगती है। यों चीन की व्यवस्था केवल कुछ व्यक्तियों पर निर्भर नहीं है। इस बार स्टैपल्ड वीज़ा को लेकर भारत की शिकायत के पहले ही वन जियाओबाओ ने वह मसला उठाकर यह आभास तो करा दिया कि चीन अपनी नीति को बदलेगा। हाँ वह पाकिस्तान को हमारे बरक्स ज्यादा महत्वपूर्ण मानता है, इसमें दो राय नहीं।
चीन इस वक्त हमारा सबसे बड़ा कारोबारी मित्र है। इस साल दोनों देशों के बीच 60 अरब डालर का कारोबार होगा। दोनों देशों ने सन 2015 तक इसे 100 अरब डालर तक पहुँचाने का फैसला किया है। चीन भारत के साथ मुक्त व्यापार का समझौता भी चाहता है, पर भारत जल्दवाज़ी नहीं चाहता। 2015 तक व्यापार का जो लक्ष्य रखा है, संभावनाएं उससे भी ज्यादा की हैं, पर दोनों देशों ने फिलहाल धीरे चलने का निश्चय किया है।
भारतीय विदेश-नीति के सामने तात्कालिक चुनौती पाकिस्तान के साथ रिश्तों को लेकर है। पाकिस्तान के साथ हमारे कारोबारी रिश्ते बढ़ेंगे तभी इस इलाके में बेहतर हालात बनेंगे। पाकिस्तानी व्यवस्था भी तभी ठीक होगी जब वहाँ कट्टरपंथी पीछे जाएंगे। वहाँ लोकतांत्रिक व्यवस्था का अगला दौर इस दिशा में बेहतर साबित होगा। भारत की आर्थिक प्रगति पाकिस्तान के लिए उत्प्रेरक का काम करेगी। चीनी सरकार पाकिस्तान से दोस्ती के प्रयास में भारत के साथ अपने आर्थिक हितों की बलि नहीं देगी। इधर भारत के जापान, मलेशिया और वियतनाम जैसे देशों के साथ बेहतर कारोबारी रिश्ते बन रहे हैं।
भारतीय व्यवस्था को आर्थिक बदलाव की होड़ में शामिल होने के साथ अपनी अंदरूनी राजनीति को भी ठीक करना होगा। ग्रामीण और पिछड़े इलाकों में शिक्षा, स्वास्थ्य, परिवहन और आवास की योजनाओं को तेजी से लागू करना चाहिए। नक्सली आंदोलन कोई साजिश नहीं है, बल्कि देश के सत्ताधारियों की बेरुखी और बेगैरती से उपजी समस्या है। भारत को सुरक्षा परिषद में स्थायी सीट न अमेरिका दिला पाएगा और न चीन रोक पाएगा। हम अपने देश के आवाम को मजबूत करें तो वे अपने आप सब कुछ हासिल कर लेंगे। अभी रूस के राष्ट्रपति और आने वाले हैं। उस दौरान रक्षा समझौते होंगे। इन समझौतों के साथ घोटालों का इतिहास भी है। फौज की ज़रूरत व्यवस्था को चलाए रखने के लिए होती है, पर उसकी आड़ में बेईमानी भी खूब होती है। शायद वह वक्त आएगा, जब जनता सुरक्षा और अपनी बेहतरी के बारे में खुद फैसले कर पाएगी। फिलहाल तमाम बातें अंधेरे में हैं।
नीचे हिन्दुस्तान में छपे मेरे कुछ लेखों की कतरनें हैं। इन्हें मैं हाल की अपनी पोस्टों में लगा नहीं पाया था। इन्हें आप पढ़ना चाहें तो कतरन पर क्लिक करें
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