नोटबंदी के बाद करीब तीन महीने के मंदे के बावजूद लोगों की
उम्मीदें सकारात्मक बदलावों पर टिकी हैं। केंद्र सरकार के लिए सन 2019 के चुनाव के
पहले अगले दो साल के बजट बेहद महत्वपूर्ण हैं। इसबार का बजट पाँच राज्यों के चुनाव
के ठीक पहले है। देखना होगा कि सरकार लोक-लुभावन रास्ता पकड़ेगी या अर्थ-व्यवस्था
को सुदृढ़ करते हुए दीर्घकालीन रणनीति का। चूंकि चुनाव के ठीक पहले बजट आ रहा है
इसलिए सुप्रीम कोर्ट और चुनाव आयोग की चेतावनियों की तलवार भी उसपर लटक रही है। पर
राजनीति का तकाजा है कि सरकार किसी न किसी रूप में रियायतों का पिटारा खोलेगी। पर देश
को इंतजार उस आर्थिक उछाल का है, जिसमें हमारी समस्याओं का समाधान निहित है।
Sunday, January 29, 2017
Saturday, January 28, 2017
बेदम हैं यूपी में कांग्रेसी महत्वाकांक्षाएं
सुदीर्घ अनिश्चय के बाद
कांग्रेस ने प्रियंका गांधी को राजनीति के सक्रिय मैदान में उतारने का फैसला कर
लिया है। प्रियंका अभी तक निष्क्रिय नहीं थीं, पर पूरी तरह मैदान में कभी उतर कर
नहीं आईं। अभी यह साफ नहीं है कि वे केवल उत्तर प्रदेश में सक्रिय होंगी या दूसरे
प्रदेशों में भी जाएंगी। उत्तर प्रदेश का चुनाव कांग्रेस के लिए बड़ा मैदान जीतने का
मौका देने वाला नहीं है। वह दूसरी बार चुनाव-पूर्व गठबंधन के साथ उतर रही है। यह
गठबंधन भी बराबरी का नहीं है। गठबंधन की जीत हुई भी तो मुख्यमंत्री अखिलेश यादव
बनेंगे। कांग्रेस के लिए इतनी ही संतोष की बात होगी। और उससे बड़ा संतोष तब होगा,
जब उसके विधायकों की संख्या 50 पार कर जाए। बाकी सब बोनस।
Friday, January 27, 2017
जल्लीकट्टू बनाम आधुनिकता
तमिलनाडु में जल्लीकट्टू आंदोलन ने
कई तरह के सवाल खड़े किए हैं. पहला सवाल आधुनिकता और परंपरा के द्वंद्व का है.
उससे ज्यादा बड़ा सवाल सांविधानिक मर्यादा का है. मामला सुप्रीम कोर्ट में होने के
बावजूद राज्य सरकार ने अध्यादेश लाने की पहल की. इसके पहले जनवरी 2016 में केंद्र
सरकार ने कुछ पाबंदियों के साथ जल्लीकट्टू के खेल को जारी रखने की एक अधिसूचना
जारी की थी. अदालत ने उस अधिसूचना को न केवल स्थगित किया, बल्कि केंद्र सरकार से अपनी
नाराजगी भी जाहिर की थी.
हम लाए हैं तूफान से कश्ती निकाल के...
आज के दोष कल दूर होंगे
संयोग है कि इस
साल के गणतंत्र दिवस के आसपास राष्ट्रीय महत्व की दो परिघटनाएं और हो रही हैं।
पहली है विमुद्रीकरण की प्रक्रिया, जो दुनिया में पहली बार अपने किस्म की सबसे
बड़ी गतिविधि है। यह ऐसी गतिविधि है, जिसने प्रत्यक्ष या परोक्ष देश के प्रायः
हरेक नागरिक को छुआ है, भले ही वह बच्चा हो या बूढ़ा। इस अनुभव से हम अभी गुजर ही
रहे हैं। इसके निहितार्थ क्या हैं, इसमें हमने क्या खोया या क्या पाया, यह इस लेख
का विषय नहीं है। यहाँ केवल इतना रेखांकित करने की इच्छा है कि हम जो कुछ भी करते
हैं, वह दुनिया की सबसे बड़ी गतिविधि होती है, क्योंकि हम दुनिया के सबसे बड़े
लोकतंत्र हैं।
बेशक चीन की
आबादी हमसे ज्यादा है, पर वहाँ लोकतंत्र नहीं है। लोकतंत्र के अच्छे और खराब
अनुभवों से हम गुजर रहे हैं। लोकतंत्र के पास यदि वैश्विक समस्याओं का समाधान है
तो वह भारत से ही निकलेगा, अमेरिका, यूरोप या चीन से नहीं। क्योंकि इतिहास के एक
खास मोड़ पर हमने लोकतंत्र को अपने लिए अपनाया और खुद को गणतंत्र घोषित किया।
गणतंत्र माने जनता का शासन। यह राजतंत्र नहीं है और न किसी किस्म की तानाशाही।
भारत एक माने में और महत्वपूर्ण है। दुनिया की सबसे बड़ी विविधता इस देश में ही
है। संसार के सारे धर्म, भाषाएं, प्रजातियाँ और संस्कृतियाँ भारत में हैं। इस
विशाल विविधता को किस तरह एकता के धागे से बाँधकर रखा जा सकता है, यह भी हमें
दिखाना है और हम दिखा रहे हैं।
Monday, January 23, 2017
गणतंत्र दिवस के बहाने...
पिछले कुछ समय से
तमिलनाडु के जल्लीकट्टू आयोजन पर लगी अदालती रोक के विरोध में आंदोलन चल रहा था. विरोध इतना
तेज था कि वहाँ की पूरी सरकारी-राजनीतिक व्यवस्था इसके समर्थन में आ गई. अंततः केंद्र
सरकार ने राज्य के अध्यादेश को स्वीकृति दी और जल्लीकट्टू मनाए जाने का रास्ता साफ
हो गया. जनमत के आगे व्यवस्था को झुकना पड़ा. गणतंत्र दिवस के कुछ दिन पहले संयोग से
कुछ ऐसी घटनाएं हो रही हैं, जिनका रिश्ता हमारे लोकतंत्र की बुनियादी धारणाओं से
है. हमें उनपर विचार करना चाहिए.
Sunday, January 22, 2017
असमंजस में कांग्रेस
जिस तरह पाँच राज्यों के विधानसभा चुनाव बीजेपी के लिए मध्यावधि जनादेश का काम
करेंगे उसी तरह वे कांग्रेस को भी अपनी ताकत को तोलने का मौका देंगे। सन 2014 के
बाद से उसकी लोकप्रियता में लगातार गिरावट आई है। यह पहला मौका है जब पार्टी को सकारात्मकता
दिखाई पड़ती है। उसे पंजाब में अपनी वापसी, उत्तराखंड में फिर से अपनी सरकार और
उत्तर प्रदेश में सुधार की संभावना नजर आ रही है। गोवा में भी उसे अपनी स्थिति को
सुधारने का मौका नजर आता है। पर उसके चारों सपने टूट भी सकते हैं। जिसका मतलब होगा
कि 2019 के सपनों की छुट्टी। रसातल में जाना सुनिश्चित।
Saturday, January 21, 2017
अपनी उपस्थिति दर्ज कराता रहेगा संघ
जयपुर लिटरेचर
फेस्टिवल में आरएसएस के अखिल भारतीय प्रचार प्रमुख मनमोहन वैद्य ने आरक्षण के बारे
में जो कहा है, वह संघ के परंपरागत विचार के विपरीत नहीं है. संघ लंबे अरसे से कहता
रहा है कि आरक्षण अनंतकाल तक नहीं चलेगा. संविधान-निर्माताओं की जो मंशा थी हम उसे
ही दोहरा रहे हैं.
इस वक्त सवाल
केवल यह है कि मनमोहन वैद्य ने इन बातों को कहने के पहले उत्तर प्रदेश के चुनावों
के बारे में सोचा था या नहीं. अमूमन संघ के वरिष्ठ पदाधिकारी बगैर सोचे-समझे बातें
नहीं करते और जो बात कहते हैं वह नपे-तुले शब्दों में होती है. ऐसे बयान देकर वे
अपनी उपस्थिति को रेखांकित करने का मौका खोते नहीं हैं.
Sunday, January 15, 2017
चुनावी पारदर्शिता के सवाल
पाँच राज्यों के विधानसभा चुनाव राजनीतिक दलों के लिए सत्ता
की लड़ाई है। वोटर के लिए उसका मतलब क्या
है? चुनाव-प्रक्रिया में सुधार जीवन में बदलाव लाने का महत्वपूर्ण रास्ता है।
बावजूद इसके चुनाव सुधारों का
मसला चुनावों का विषय नहीं बनता। तमाम नकारात्मक बातों के बीच यह सच है कि पिछले
दो दशक में हमारी चुनाव-प्रणाली में काफी सुधार हुए हैं। एक जमाने में बूथ
कैप्चरिंग और रिगिंग का बोलबाला था। अब प्रत्याशियों की जवाबदेही बढ़ी है। क्यों न
इन चुनावों में हम पारदर्शिता के सवाल उठाएं।
Saturday, January 14, 2017
‘गरीब-मुखी’ राजनीति: मोदी कथा का दूसरा अध्याय
पाँच राज्यों के विधानसभा चुनाव एक तरह से मध्यावधि जनादेश का काम करेंगे। सरकार के लिए ही नहीं
विपक्ष के लिए भी। चूंकि सोशल मीडिया की भूमिका बढ़ती जा रही है, इसलिए इन चुनावों
में ‘आभासी माहौल’ की भूमिका कहीं ज्यादा होगी। कहना मुश्किल है
कि छोटी से छोटी घटना का किस वक्त क्या असर हो जाए। दूसरे राजनीति उत्तर प्रदेश की
हो या मणिपुर की सोशल मीडिया पर वह वैश्विक राजनीति जैसी महत्वपूर्ण बनकर उभरेगी।
इसलिए छोटी सी भी जीत या हार भारी-भरकम नजर आने लगेगी।
बहरहाल इस बार स्थानीय सवालों पर राष्ट्रीय प्रश्न हावी
हैं। ये राष्ट्रीय सवाल दो तरह के हैं। एक, राजनीतिक गठबंधन के स्तर पर और दूसरा
मुद्दों को लेकर। सबसे बड़ा सवाल है कि नरेंद्र
मोदी की लोकप्रियता का ग्राफ क्या कहता है? लोकप्रियता बढ़ी है या घटी? दूसरा सवाल है कि
कांग्रेस का क्या होने वाला है? उसकी गिरावट रुकेगी या
बढ़ेगी? नई ताकत के रूप में आम आदमी पार्टी की भी परीक्षा
है। क्या वह गोवा और पंजाब में नई ताकत बनकर उभरेगी? और जनता
परिवार का संगीत मद्धम रहेगा या तीव्र?
Monday, January 9, 2017
साइंस की उपेक्षा मत कीजिए
पिछले हफ्ते तिरुपति में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 104वीं भारतीय साइंस कांग्रेस का उद्घाटन करते हुए कहा कि भारत
2030 तकनीकी विकास के मामले में दुनिया के ‘टॉप तीन’ देशों में शामिल होगा. मन के बहलाने को गालिब ये ख्याल
अच्छा है, पर व्यावहारिक नजरिए से आज हमें एशिया के टॉप तीन देशों में भी शामिल होने
का हक नहीं है. एशिया में जापान, चीन, दक्षिण कोरिया, ताइवान, इसरायल और सिंगापुर
के विज्ञान का स्तर हमसे बेहतर नहीं तो, कमतर भी नहीं है.
Sunday, January 8, 2017
राष्ट्रीय सवालों का मध्यावधि जनादेश
फरवरी-मार्च में होने वाले पाँच राज्यों के विधानसभा चुनाव एक तरह से केंद्र में नरेंद्र मोदी की सरकार के लिए मध्यावधि जनादेश का काम करेंगे। आमतौर पर विधानसभा चुनावों में स्थानीय मुद्दे ज्यादा महत्वपूर्ण होते हैं। खासतौर से नब्बे के दशक से राज्यों के स्थानीय नेतृत्व का उभार हुआ है, जिसके कारण राज्य-केंद्रित मसले आगे आ गए हैं। पर इसबार लगता है कि चुनाव राष्ट्रीय मुद्दों पर लड़ा जाएगी। मणिपुर को छोड़ दें तो शेष चारों राज्यों की राजनीति फिलहाल केंद्रीय राजनीति के समांतर चल रही है। इसकी एक वजह बीजेपी की मोदी-केंद्रित रणनीति भी है।
नरेंद्र मोदी की सन 2014 की सफलता का प्रभाव अब भी कायम है। उसकी सबसे बड़ी परीक्षा इसबार उत्तर प्रदेश में होगी, जो राष्ट्रीय राजनीति के लिहाज से देश का सबसे महत्वपूर्ण राज्य है। इन चुनावों के राष्ट्रीय महत्व की झलक उस प्रयास में देखी जा सकती है, जो एनडीए के समांतर एक राष्ट्रीय गठबंधन बनाने की कोशिश कर रहा है। इन चुनावों के ठीक पहले आम बजट पेश होने वाला है। इसे लेकर विरोधी दलों की लामबंदी उस प्रयास का एक हिस्सा है। यही वजह है कि बजट-विरोधी मुहिम में तृणमूल कांग्रेस और शिवसेना जैसी पार्टियाँ आगे हैं।
नरेंद्र मोदी की सन 2014 की सफलता का प्रभाव अब भी कायम है। उसकी सबसे बड़ी परीक्षा इसबार उत्तर प्रदेश में होगी, जो राष्ट्रीय राजनीति के लिहाज से देश का सबसे महत्वपूर्ण राज्य है। इन चुनावों के राष्ट्रीय महत्व की झलक उस प्रयास में देखी जा सकती है, जो एनडीए के समांतर एक राष्ट्रीय गठबंधन बनाने की कोशिश कर रहा है। इन चुनावों के ठीक पहले आम बजट पेश होने वाला है। इसे लेकर विरोधी दलों की लामबंदी उस प्रयास का एक हिस्सा है। यही वजह है कि बजट-विरोधी मुहिम में तृणमूल कांग्रेस और शिवसेना जैसी पार्टियाँ आगे हैं।
तीन सर्वे, तेरह नतीजे
चुनाव-सर्वेक्षणों की
साख पर फिरता पानी
भारत के चुनाव सर्वेक्षणों का क्या रोना रोएं, इस बार
तो अमेरिका के पोल भी असमंजस में रहे। हिलेरी क्लिंटन की जीत की आशा धरी की धरी रह
गई। फिर भी पश्चिमी देशों के सर्वेक्षणों की साख बनी हुई है। हमारे यहाँ सर्वेक्षण
मनोरंजन के लिए पढ़े जाते हैं, गंभीर विवेचन के लिए नहीं। इन चुनाव-पूर्व
सर्वेक्षणों जैसी हवा सन 2015 के दिल्ली विधानसभा चुनाव में निकली थी, वैसी कभी
नहीं निकली होगी। पर ऐसा ज्यादातर होता रहा है जब तीन सर्वेक्षणों के तेरह तरह के
नतीजे होते हैं और परिणाम फिर भी कुछ और आता है।
अक्सर होता रहा है कि कभी किसी सर्वेक्षण का अनुमान
सही हुआ और कभी दूसरे का। पर कुल मिलाकर ज्यादातर सर्वे गलत साबित होते रहे हैं।
लगता है कि भारतीय मतदाता के दिल और दिमाग का पता लगाने वाली कोई पद्धति अभी तक
विकसित नहीं हुई है। पर उससे बड़ा सच यह है कि बार-बार गलत साबित होने के बाद भी
सर्वे हो रहे हैं और टीवी स्टूडियो में बैठे एंकर इन नतीजों के आधार पर गर्दन उठाकर
ऐसे सवाल करते हैं कि गोया वे किसी ‘ध्रुव सत्य’ की घोषणा कर रहे हैं।
Friday, January 6, 2017
बजट का विरोध गैर-वाजिब है
भारतीय राजनीति में लोक-लुभावन घोषणाएं ऐसे औजार हैं, जिनका
इस्तेमाल हरेक पार्टी करना चाहती है. पर दूसरी पार्टी को उसका मौका नहीं देना
चाहती.
केंद्र सरकार ने इस साल सितंबर में सिद्धांततः फैसला कर
लिया था कि अब से बजट तकरीबन एक महीना पहले पेश किया जाएगा. यह केवल इस साल की
व्यवस्था ही नहीं होगी. भविष्य में वित्त वर्ष भी बदलने का विचार है.
चर्चा तो इस बात पर होनी चाहिए कि यह विचार सही है या गलत.
पर हम चर्चा तो दूसरी बातों की सुन रहे हैं.
Thursday, January 5, 2017
इन चुनावों पर हावी रहेंगे राष्ट्रीय सवाल
यह साल सन 2019 के पहले चुनाव के लिहाज से सबसे महत्वपूर्ण साल है. चुनाव आयोग ने जिन पांच राज्यों में चुनाव की तारीखें घोषित की हैं उनके अलावा गुजरात और हिमाचल प्रदेश दो राज्य और बचे हैं, जहाँ साल के अंत में चुनाव होंगे. इस साल राष्ट्रपति और उप-राष्ट्रपति पद के चुनाव भी होने वाले हैं. इस लिहाज से चुनाव की जो बयार अब बहनी शुरू हुई है वह साल भर बहेगी. केवल बहेगी ही नहीं तमाम नेताओं का राजनीतिक भविष्य लिख कर जाएगी.
स्वाभाविक रूप से विधानसभा चुनाव स्थानीय मुद्दों पर होते हैं. चूंकि हर राज्य के अलग-अलग मसले हैं, इसलिए उनके आधार पर राष्ट्रीय स्तर पर एक राय नहीं बनाई जा सकती. फिर भी इस साल के चुनावों से जुड़े कुछ ऐसे सवाल हैं, जिनके जवाब सारे परिणाम आने के बाद ही मिलेंगे.
स्वाभाविक रूप से विधानसभा चुनाव स्थानीय मुद्दों पर होते हैं. चूंकि हर राज्य के अलग-अलग मसले हैं, इसलिए उनके आधार पर राष्ट्रीय स्तर पर एक राय नहीं बनाई जा सकती. फिर भी इस साल के चुनावों से जुड़े कुछ ऐसे सवाल हैं, जिनके जवाब सारे परिणाम आने के बाद ही मिलेंगे.
Sunday, January 1, 2017
इस साल राहें आसान होंगी
भारत के लिए गुजरा साल जबर्दस्त उठा-पटक वाला था। साल की शुरुआत पठानकोट पर
हमले के साथ हुई और अंत विमुद्रीकरण और यूपी में सपा के पारिवारिक संग्राम के साथ
हुआ। एक तरफ देश की सुरक्षा और विदेश नीति के सवाल थे, वहीं अर्थ-व्यवस्था और
राजनीति में गहमा-गहमी थी। हमने पथरीला रास्ता पार कर लिया है। यह साल सफलताओं का
साल साबित होने वाला है। अब राह आसान है और नेपथ्य का संगीत बदल रहा है।
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