Sunday, August 19, 2018

उदारता और सहिष्णुता की राजनीति

अटल बिहारी वाजपेयी करीब पाँच दशक तक देश की राजनीति में सक्रिय रहे। उनकी कुछ बातें उनकी अलग पहचान बनाती हैं। उन्हें पहचाना जाता है उनके भाषणों से, जो किसी भी सामान्य व्यक्ति को समझ में आते थे। इन भाषणों की शैली से ज्यादा महत्वपूर्ण वे तथ्य हैं, जिन्हें उन्होंने रेखांकित किया। उनकी लम्बी संसदीय उपस्थिति ने उन मूल्यों और मर्यादाओं को स्थिर करने में मदद की, जो भारतीय लोकतंत्र का आधार हैं।
अटल बिहारी ने जवाहर लाल नेहरू, लाल बहादुर शास्त्री, इंदिरा गांधी, राजीव गांधी, चंद्रशेखर, नरसिंहराव, देवेगौडा और गुजराल के प्रधानमंत्रित्व में विरोध की कुर्सियों पर बैठकर अपने विचार व्यक्त किए। उनके संसदीय भाषणों को पढ़ें तो आप पाएंगे कि उनमें कहीं कटुता नहीं है। विरोध में रहते हुए भी उन्होंने सत्तापक्ष की सकारात्मक गतिविधियों का समर्थन करने में कभी देर नहीं लगाई। नेहरू जैसे प्रखर वक्ता के मुकाबले न केवल खड़े रहे बल्कि उनकी प्रशंसा के पात्र भी बने।
अटल बहारी वाजपेयी की सबसे बड़ी सफलता इस बात में थी कि उन्होंने उदार और सहिष्णु राजनेता की जो छवि बनाई, वह विलक्षण थी। राजनीति की जटिलताओं को वे अपने लम्बे मौन से सुलझाते थे। उनके जीवन के तीन-चार बड़े फैसले एटमी परीक्षण, पाकिस्तान के साथ सम्बंध सुधारने की प्रक्रिया और अमेरिका के साथ रिश्तों को परिभाषित करने से जुड़े थे। उन्होंने आर्थिक उदारीकरण की प्रक्रिया को न केवल आगे बढ़ाया, बल्कि उसे तेज गति भी दी।

Saturday, August 18, 2018

अटल ने बीजेपी की स्थायी 'विरोधी' छवि को तोड़कर उसे सत्तारूढ़ बनाया

बीजेपी सत्ता में नहीं होती तो शायद अटल बिहारी वाजपेयी के निधन पर इतना जबर्दस्त शोक-प्रदर्शन न हुआ होता. इस शोक प्रदर्शन में कई तरह के लोग हैं, पर मोटे तौर पर दो तरह के लोगों को पहचाना जा सकता है. पहले हैं भारतीय जनता पार्टी और नरेन्द्र मोदी के समर्थक और दूसरे हैं भारतीय जनता पार्टी के विरोधी. अटल बिहारी वाजपेयी के प्रशंसकों में बड़ी संख्या उनके विरोधियों की भी रही है, पर आज काफी लोग वर्तमान स्थितियों के संदर्भ में भी अपनी राय व्यक्त कर रहे हैं. वे रेखांकित कर रहे हैं कि अटल क्यों गुणात्मक रूप से मोदी-व्यवस्था से भिन्न थे. यह फर्क अटल की समन्वयवादी रीति-नीति और देश की सामाजिक बहुलता के प्रति दृष्टि के कारण है. अटल बिहारी वाजपेयी ने यह साबित किया कि बीजेपी भी देश पर राज कर सकती है. उसे स्थायी विपक्ष के स्थान पर सत्ता-पक्ष बनाने का श्रेय उन्हें जाता है. उन्होंने वह सूत्र पकड़ा, जिसके कारण कांग्रेस देश की एकछत्र पार्टी थी. इस बात का विश्लेषण अभी लम्बे समय तक होगा कि देश की सामाजिक-सांस्कृतिक अस्मिता की प्रतिनिधि पार्टी कांग्रेस है या बीजेपी, पर यह भी सच है कि आजादी के ठीक पहले तक कांग्रेस को हिन्दू पार्टी माना जाता था. तब बीजेपी थी भी नहीं. उनका निधन ऐसे मौके पर हुआ है, जब बीजेपी के सामने कुछ बड़े सवाल खड़े हैं. बेशक अटल के नाम पर बीजेपी को राजनीतिक लाभ मिलेगा. देखना यह भी होगा कि पार्टी अटल की उदारता और सहिष्णुता की विरासत को आगे बढ़ाने के बारे में सोचेगी या नहीं.

अटल बिहारी वाजपेयी के निधन के बाद रात के टेलीविजन शो में बड़ी संख्या में ऐसे लोग भी, जो अटल बिहारी वाजपेयी के कटु आलोचक हुआ करते थे, तारीफ करते नजर आए. उनकी राय थी कि अटलजी उदार और व्यावहारिक नेता थे. हालांकि इनमें से काफी लोग उन्हें तब भी फासिस्ट बताते थे. आज वे उन्हें उदार मान रहे हैं, तो इसके दो कारण हैं. हमारी संस्कृति में निधन के बाद व्यक्ति की आलोचना नहीं करते, पर यह राजनीति का गुण नहीं है. पिछले डेढ़ दशक की राजनीति के ठोस सत्य से रूबरू होने के बाद यह वास्तव में दिल की आवाज है.

अटल बिहारी वाजपेयी का बड़ा योगदान है बीजेपी को स्थायी विरोधी दल से सत्तारूढ़ दल में बदलना. पार्टी की तूफान से घिरी किश्ती को न केवल उन्होंने बाहर निकाला, बल्कि सिंहासन पर बैठा दिया. देश का दुर्भाग्य है कि जिस वक्त उसे उनके जैसे नेता की सबसे बड़ी जरूरत थी, वे सेवा निवृत्त हो गए और फिर उनके स्वास्थ्य ने जवाब दे दिया. दिसम्बर 1992 के बाद बीजेपी ‘अछूत’ पार्टी बन गई थी. आडवाणीजी के अयोध्या अभियान ने उसे एक लम्बी बाधा-दौड़ में सबसे आगे आने का मौका जरूर दिया, पर मुख्यधारा की वैधता और राष्ट्रीय स्वीकार्यता दिलाने का काम अटल बिहारी ने किया.

Thursday, August 16, 2018

‘आप’ में बार-बार इस्तीफे क्यों होते हैं?


आशुतोष, आम आदमी पार्टी, AAP, Aam Aadmi Party, Ashutosh
आम आदमी पार्टी से उसके वरिष्ठ सदस्य आशुतोष का इस्तीफा ऐसी खबर नहीं है, जिसके गहरे राजनीतिक निहितार्थ हों. इस्तीफे के पीछे व्यक्तिगत कारण नजर आते हैं. और समय पर सामने भी आ जाएंगे. अलबत्ता यह इस्तीफा ऐसे मौके पर हुआ है, जब इस पार्टी के भविष्य को लेकर सवाल खड़े हो रहे हैं. एक सवाल यह भी है कि इस पार्टी में बार-बार इस्तीफे क्यों होते हैं?
आशुतोष ने अपने इस्तीफे की घोषणा ट्विटर पर जिन शब्दों से की है, उनसे नहीं लगता कि किसी नाराजगी में यह फैसला किया गया है. दूसरी तरफ अरविंद केजरीवाल ने जिस अंदाज में ट्विटर पर उसका जवाब दिया है, उससे लगता है कि वे इस इस्तीफे के लिए तैयार नहीं थे.
गमसुम इस्तीफा क्यों?
आशुतोष ने अपने ट्वीट में कहा था, हर यात्रा का एक अंत होता है.आपके साथ मेरा जुड़ाव बहुत अच्छा/क्रांतिकारी था, उसका भी अंत आ गया है. इस ट्वीट के तीन मिनट बाद उन्होंने एक और ट्वीट किया, जिसमें मीडिया के दोस्तों से गुज़ारिश की, मेरी निजता का सम्मान करें. मैं किसी तरह से कोई बाइट नहीं दूंगा.
आशुतोष अरविंद केजरीवाल के करीबी माने जाते रहे हैं. पिछले चार साल में कई लोगों ने पार्टी छोड़ी, पर आशुतोष ने कहीं क्षोभ व्यक्त नहीं किया. फिर भी तमाम तरह के कयास हैं. कहा जा रहा है कि पार्टी की ओर से राज्यसभा न भेजे जाने की वजह से वे नाराज चल रहे थे. शायद वे राजनीति को भी छोड़ेंगे वगैरह.  
आम आदमी पार्टी के ज्यादातर संस्थापक सदस्यों की पृष्ठभूमि गैर-राजनीतिक है. ज्यादा से ज्यादा लोग एक्टिविस्ट हैं, पर आशुतोष की पृष्ठभूमि और भी अलग थी. वे खांटी पत्रकार थे और शायद उनका मन बीते दिनों को याद करता होगा.

Tuesday, August 14, 2018

विरोधी-एकता के दुर्ग में दरार

राज्यसभा के उपसभापति चुनाव में पड़े वोटों के आधार पर राजनीति शास्त्र के शोधछात्र राहुल वर्मा का 2019 के चुनाव में बनने वाले सम्भावित गठबंधनों का अनुमान
राज्यसभा के उप-सभापति पद के चुनाव ने एकबारगी विरोधी दलों के अंतर्विरोधों को उजागर किया है। एनडीए प्रत्याशी हरिवंश की जीत इतनी आसानी से हो जाएगी, इसका अनुमान पहले से नहीं था। पिछले चार साल से विरोधी दल बीजेपी को केवल राज्यसभा में ही परेशान करने में सफल थे। पिछले कुछ समय से बीजेपी की स्थिति राज्यसभा में बेहतर हुई है, पर इतनी बेहतर वह फिर भी नहीं थी कि उसका प्रत्याशी आसानी से चुनाव जीत जाता। पिछले महीने लोकसभा में अविश्वास प्रस्ताव पर एनडीए की जीत के बाद यह दूसरी जीत उसका आत्मविश्वास बढ़ाएगी।

कांग्रेस समेत विरोधी दलों की रणनीति अलग-अलग राज्यों में संयुक्त प्रत्याशी खड़े करने की है, ताकि बीजेपी-विरोधी वोट बँटने न पाएं। यह रणनीति उत्तर प्रदेश, बिहार, कर्नाटक और एक हद तक महाराष्ट्र में अब भी कारगर है, पर उसके जिरह-बख्तरों की दरारें भी नजर आने लगी हैं। साफ है सत्तारूढ़ दल ने इस चुनाव को कुछ समय के लिए टालकर बीजू जनता दल और टीआरएस के साथ विचार-विमर्श पूरा कर लिया। यह विमर्श केवल राज्यसभा के उप-सभापति चुनाव तक सीमित नहीं है। अब यह 2019 के चुनाव तक जाएगा। कांग्रेस ने इस चुनाव को या तो महत्व नहीं दिया या उसे भरोसा था कि यह चुनाव इस सत्र में नहीं होगा। कांग्रेस के दो सांसदों का वोट न देना भी उसके असमंजस को बढ़ाने वाला है।

Sunday, August 12, 2018

गठबंधन-प्रति-गठबंधन

संसद के मॉनसून सत्र के पूरा होते ही राजनीतिक जोड़-घटाना शुरू हो गया है। जिस तरह महाभारत में युद्ध के पहले दोनों पक्षों की ओर से लड़ने वाले महारथियों के नाम सामने आने लगे थे, करीब उसी तरह राज्यसभा के उप-सभापति पद के चुनाव के बाद देश की राजनीतिक स्थिति नज़र आने लगी है। एनडीए प्रत्याशी हरिवंश की जीत की उम्मीद थी भी, तो इतनी आसान नहीं थी। सत्ता पक्ष ने पहले टाला और फिर अचानक चुनाव करा लिया। इस दौरान उसने अपने समीकरणों को ठीक कर लिया। फिलहाल एनडीए के चुनाव मैनेजमेंट की चुस्ती साबित हुई, वहीं विरोधी-एकता के अंतर्विरोध भी उभरे। अभी बहुत से किन्तु-परन्तु फिर भी बाकी हैं।

एनडीए जहाँ नरेन्द्र मोदी को आगे रखकर चुनाव मैदान में उतर रहा है वहीं विरोधी दलों का कहना है कि नेतृत्व का सवाल चुनाव परिणाम आने के बाद देखा जाएगा। कांग्रेस ने संकेत दिया है कि नेतृत्व को लेकर वह खुले मन से विचार कर रही है। उसे कोई दूसरा नेता भी स्वीकार हो सकता है। यानी कि ममता बनर्जी और मायावती के दावों को भी स्वीकार कर सकते हैं। अभी बातें संकेतों में हैं, जिन्हें स्पष्ट शब्दों में कहने के रणनीतिक जोखिम हैं। वस्तुतः अभी महागठबंधन की शक्ल भी साफ नहीं है। फिलहाल महागठबंधन का ‘कोर’ यानी कि केन्द्र नजर आने लगा है, पर यह भी करीब-करीब तय सा लग रहा है कि बीजद, टीआरएस और अद्रमुक इसके साथ नहीं है।