Monday, January 29, 2018

बजट के केंद्र में होगा गाँव और गरीब

संसद के बजट सत्र का कार्यक्रम घोषित होते ही पहला सवाल ज़ेहन में आता है कि कैसा होगा इस साल का बजट? अगले लोकसभा चुनाव के पहले सरकार का यह आखिरी बजट होगा. पिछले साल का बजट ऐसे दौर में आया था, जब देश कैशलैश अर्थ-व्यवस्था की ओर कदम बढ़ा रहा था. नोटबंदी के कारण अर्थ-व्यवस्था की गति धीमी पड़ रही थी और सरकार जीएसटी के लिए तैयार हो रही थी. अब अर्थ-व्यवस्था ने सिर उठाना शुरू कर दिया है. क्या यह बजट इस बात का इशारा करेगा?  
बजट सत्र राष्ट्रपति के अभिभाषण से 29 जनवरी को शुरू होगा और उसी दिन आर्थिक सर्वेक्षण पेश किया जाएगा. यह दस्तावेज बताता अर्थ-व्यवस्था की सेहत कैसी है. केंद्रीय बजट में राज्यों के लिए भी कुछ संकेत होते हैं. केंद्रीय करों में राज्यों की हिस्सेदारी 14वें वित्तीय आयोग की संस्तुतियों के आधार पर बढ़ गई है. सन 2014-15 में राज्यों को जीडीपी के प्रतशत के रूप में 2.7 फीसदी की हिस्सेदारी मिल रही थी, जो पिछले साल के बजट अनुमानों में 6.4 फीसदी हो गई थी. केंद्रीय राजस्व में वृद्धि राज्यों के स्वास्थ्य के लिए अच्छी खबर होती है. जीएसटी के कारण अप्रत्यक्ष करों और नोटबंदी के कारण प्रत्यक्ष करों में किस दर से वृद्धि हुई है, इसका पता अब लगेगा.

Sunday, January 28, 2018

'गरीबी-हटाओ' बजट आएगा

सोमवार से संसद का बजट सत्र शुरू हो रहा है। पहले ही दिन सर्वेक्षण पेश होगा, जिससे हमें अपनी अर्थ-व्यवस्था की दशा-दिशा का पता लगेगा। एक जमाने में बजट का मतलब सस्ता और महंगा होता था। मध्य वर्ग की दिलचस्पी आयकर में रहती है। इस साल के विधानसभा चुनावों और अगले लोकसभा चुनाव के बरक्स लोक-लुभावन बातों की भविष्यवाणियाँ हो रहीं हैं। पर प्रधानमंत्री ने एक टीवी इंटरव्यू में कहा कि लोगों को मुफ्त की चीजें नहीं, ईमानदार शासन पसंद है। इसका मतलब क्या यह निकाला जाए कि सरकार कड़वी दवाई पिलाने वाली है?
इतना साफ है कि केंद्र सरकार वित्तीय अनुशासन नहीं तोड़ेगी, पर वह जोखिम भरे फैसले भी करेगी। वित्तमंत्री अरुण जेटली की प्राथमिकता राजकोषीय घाटे को 3.2 फीसदी पर रखने की है, जबकि यह 3.5 फीसदी को छू रहा है। इसे सीमा के भीतर रखने के लिए सरकार मुफ्तखोरी वाले लोक-लुभावन बस्तों को बंद ही रखेगी। चुनौती संतुलन बनाने की है।

Monday, January 22, 2018

शिक्षा की निराशाजनक तस्वीर

हम भारत को महाशक्ति के रूप में देखना चाहते हैं, तो उसके इस विकास-क्रम की तस्वीर पर भी नजर डालनी चाहिए। इस विकास-क्रम की बुनियाद पर देश की शिक्षा-व्यवस्था बैठी है, जो बहुत अच्छी तस्वीर पेश नहीं कर रही है। प्राथमिक स्तर पर देश की शिक्षा-व्यवस्था की  जानकारी देने का काम पिछले कुछ वर्षों से गैर-सरकारी संस्था 'प्रथम' ने अपने हाथ में लिया है। यह संस्था हर साल  एनुअल स्टेटस ऑफ एजुकेशन रिपोर्ट (असर) रिपोर्ट जारी करती है, जिसमें शिक्षा से जुड़ी कुछ बुनियादी जानकारियों का पता लगता है। संस्था की ओर से सालाना रिपोर्ट असर-2017 हाल में जारी हुई है, जिसका शीर्षक है 'बियॉण्ड बेसिक्स।' 

यह संस्था वर्ष 2005 से हर साल अपनी रिपोर्ट जारी करती आ रही है। वर्ष 2006 से असर रिपोर्ट 5 से 16 वर्ष की आयु के बच्चों पर केंद्रित रही है, पर 2017 में असर सर्वेक्षण 14 से 18 वर्ष के बच्चों पर केंद्रित है। यानी इस बार पढ़ने और गणित लगाने के अलावा बच्चों के बुनियादी कौशल (बोसिक डोमेन) की पड़ताल है। सन 2011 की जनगणना के मुताबिक इस वक्त देश में इस आयु वर्ग के दस करोड़ युवा हैं। 156 पेज की इस रिपोर्ट  के मुताबिक इसमें शामिल 73 प्रतिशत किशोरों ने पिछले एक सप्ताह में मोबाइल का इस्तेमाल किया था, पर उनमें से 25 फीसदी अपनी भाषा में एक सरल पाठ को धारा प्रवाह नहीं पढ़ सकते हैं। आधे से ज्यादा युवाओं को भाग का सरल सवाल करने में दिक्कत होती है। 14 आयु वर्ग के 47 फीसदी युवा अंग्रेजी वाक्य नहीं पढ सकते हैं।

Sunday, January 21, 2018

‘आम आदमी’ हैरान, स्तब्ध, शर्मसार!

आम आदमी पार्टी के सामने जो संकट आकर खड़ा हुआ है, उसके तीन पहलू हैं। न्यायिक प्रक्रिया, जनता के बीच पार्टी की साख और संगठन का आंतरिक लोकतंत्र। सबसे पहले इससे जुड़ी प्रशासनिक न्यायिक प्रक्रिया का इंतजार करना होगा। विधायकों की सदस्यता खत्म हो जाए, तब भी देखना होगा कि अदालत की कसौटी पर आखिरी फैसला क्या होगा। अंततः सम्भव है कि इन 20 पदों पर चुनाव हों। ऐसी नौबत आने के पहले पार्टी के भीतर बगावत का अंदेशा भी है। पिछले एक साल से खबरें हैं कि दर्जन से ज्यादा विधायक बगावत के मूड में हैं।
दिल्ली विधानसभा के चुनाव 2020 में होने हैं। क्या हालात ऐसे बनेंगे कि उसके पहले चुनाव कराने पड़ें? केवल 20 सीटों के ही उप-चुनाव हुए तो आम आदमी पार्टी की स्थिति क्या होगी? जीत या हार दोनों बातें उसका भविष्य तय करेंगी। मोटे तौर पर आम आदमी पार्टी जिस राजनीति को लेकर चली थी, उसकी विसंगतियाँ बहुत जल्दी सामने आ गईं। खासतौर से पार्टी नेतृत्व का बचकानापन।
इस सरकार के तीन साल पूरे होने में अभी कुछ समय बाकी है, पर इस दौरान यह पार्टी ऐसा कुछ नहीं कर पाई, जिससे लगे कि उसकी सरकार पिछली सरकारों से फर्क थी? इस दौरान हर तरह के धत्कर्म इस दौरान हुए हैं। हर तरह के आरोप इसके नेतृत्व पर लगे। दूसरे दलों की तरह इस पार्टी के आंतरिक लोकतंत्र का हाजमा खराब है और कार्यकर्ताओं की दिलचस्पी फायदे उठाने में है। विचारधारा और व्यवहार के बीच की दरार राज्यसभा चुनाव में प्रत्याशियों के चयन से साबित हो चुकी है।

Saturday, January 20, 2018

संकट में आम आदमी पार्टी

पांच साल में सबसे बड़े संकट में फँसी है 'आप'
प्रमोद जोशी
वरिष्ठ पत्रकार, बीबीसी हिंदी के लिए


आम आदमी पार्टी जितने क़दम आगे बढ़ा रही है, उसे उतनी ज़्यादा दलदली ज़मीन मिल रही है.

उसकी 'विशिष्ट' राजनीति के सामने दिन-ब-दिन ख़तरे खड़े होते जा रहे हैं और हर ख़तरा उसके वज़ूद पर सवालिया निशान लगा रहा है.

विधायकों की सदस्यता को लेकर चुनाव आयोग के फ़ैसले के दूरगामी परिणाम होने वाले हैं. इस फ़ैसले को अदालत में चुनौती देने की बातें शुरू हो गई हैं. उधर विशेषज्ञों ने अटकलें लगानी शुरू कर दी हैं कि 20 सीटों के चुनाव कब होंगे? ज़्यादा बड़ा सवाल है कि चुनाव 20 के लिए होंगे या पूरी विधानसभा के लिए?


अरविंद केजरीवाल ने ट्वीट किया है, ''जब आप सच्चाई और ईमानदारी पर चलते हैं तो बहुत बाधाएँ आती हैं...इतिहास गवाह है कि जीत अंत में सच्चाई की होती है.'' सवाल सच्चाई का है. क्या है सच? सच यह है कि पार्टी के पाँच साल के इतिहास का यह सबसे बड़ा संकट है.


हमदर्दी या प्रतिशोध?

यह परिघटना आम आदमी पार्टी का सफ़ाया भी कर सकती है या उसमें फिर से जान भी डाल सकती है. ऐसा तभी सम्भव होगा, जब वह वोटर को यह समझाने में कामयाब हो कि हमारे साथ अन्याय हुआ है.


उसे हमदर्दी का लाभ मिल भी सकता है, पर देखना होगा कि दिल्ली की जनता का भरोसा क्या अब भी बदस्तूर बना हुआ है. उसे हमदर्दी मिलेगी या प्रतिशोध?


दूसरी ओर यदि अदालती प्रक्रिया से पार्टी यह साबित करने में सफल हुई कि उसके साथ अन्याय हुआ है, तब भी उसे लाभ मिलेगा. फ़िलहाल वह संकट से घिरी हुई नज़र आती है.


दो दिन से यह ख़बर दिल्ली के राजनीतिक गलियारों में घूम रही थी कि मुख्य चुनाव आयुक्त का कार्यकाल पूरा होने के पहले संसदीय सचिवों को लेकर बहु-प्रतीक्षित फ़ैसला आ जाएगा. इधर गुरुवार को जीएसटी काउंसिल की तरफ़ से हुई डिनर पार्टी की तस्वीरें नमूदार हुईं.

इन तस्वीरों में वित्तमंत्री अरुण जेटली के साथ अरविंद केजरीवाल समेत 'आम आदमी पार्टी' के कुछ नेता खुशमिज़ाजी के साथ बैठे नज़र आए. इन तस्वीरों को पार्टी के ट्विटर हैंडल पर शेयर भी किया गया.

क्या फिर चुनाव होंगे?
दोनों पक्षों के टकराव को देखते हुए इन तस्वीरों पर कई तरह की अटकलें हैं. सबसे बड़ा कयास इसे लेकर है कि क्या दिल्ली पर एक और चुनाव का साया है? और चुनाव हुआ तो क्या 'आप' इस परीक्षा को पास कर पाएगी?


पिछले साल राजौरी गार्डन विधानसभा सीट के चुनाव प्रचार के दौरान केंद्रीय मंत्री स्मृति ईरानी ने कहा था कि छह महीने में दिल्ली में एक बार फिर विधानसभा चुनाव होंगे.

राजौरी गार्डन का परिणाम आने के पहले बवाना के विधायक वेद प्रकाश आम आदमी पार्टी को छोड़कर भारतीय जनता पार्टी में शामिल हो गए. बीजेपी के एक नेता ने तब दावा किया था कि क़रीब एक दर्जन विधायक पार्टी छोड़ेंगे. उन दिनों किसी ने कहा कि 30-35 विधायक नाराज हैं.

बीबीसी हिन्दी डॉट कॉम पर पढ़ें पूरा आलेख

आप की बर्बादी क्यों हुई?

Friday, January 19, 2018

हज सब्सिडी का राजनीतिकरण न करें

भारत सरकार ने हज सब्सिडी खत्म करने का जो फैसला किया है, वह अनायास नहीं हुआ. इसके लिए मई 2012 में सुप्रीम कोर्ट ने आदेश दिए थे. उसके पहले से भी यह बहस चल रही थी कि यह सब्सिडी धार्मिक रूप से उचित है भी या नहीं. मुसलमानों के ज्यादातर बड़े नेताओं ने इसे खत्म करने का समर्थन किया है. अलबत्ता धार्मिक तुष्टीकरण को लेकर बहस फिर से शुरू हो गई है. कहा जा रहा है कि बीजेपी ने अपने मतदाताओं को इस फैसले के मार्फत कोई संदेश दिया है.
जमीनी सच यह है कि हिन्दुओं और मुसलमानों को एक-दूसरे के धार्मिक रीति-रिवाजों को लेकर कोई आपत्ति नहीं है. आपत्तियाँ धार्मिक मसलों के राजनीतिकरण को लेकर हैं. हज यात्रा में सुधारों पर पिछले एक साल से विचार चल रहा है. पिछले साल बनी एक कमेटी की रिपोर्ट के संदर्भ में यह फैसला हुआ है. अल्पसंख्यक मामलों के केंद्रीय मंत्री मुख्तार अब्बास नक़वी के अनुसार इस साल 1.75 लाख मुसलमान बिना सब्सिडी के हज यात्रा करेंगे. पिछले साल 1.25 लाख लोग गए थे. हाल में सऊदी अरब सरकार ने भारत से हज यात्रा पर आने वालों के कोटे में वृद्धि भी की है.

Monday, January 15, 2018

राष्ट्रीय एकीकरण की धुरी भी है हमारी सेना

आज हम 70वाँ सेना दिवस मना रहे हैं. सन 1949 में 15 जनवरी को सेना के पहले भारतीय कमांडर-इन-चीफ लेफ्टिनेंट जनरल केएम करियप्पा ने आखिरी ब्रिटिश सी-इन-सी जनरल सर फ्रांसिस बूचर से कार्यभार संभाला था. सेना दिवस मनाने के पीछे केवल इतनी सी बात नहीं है कि भारतीय जनरल ने अंग्रेज जनरल के हाथों से कमान अपने हाथ में ले ली. देश स्वतंत्र हुआ था, तो यह कमान भी हमें मिलनी थी. महत्वपूर्ण था भारतीय सेना की भूमिका में बदलाव. 
अंग्रेजी शासन की सेना और स्वतंत्र भारत की सेना में गुणात्मक अंतर है. इस बदलाव को हमें देखना चाहिए. सेना केवल देश की रक्षा ही नहीं करती, बल्कि जीवन और समाज में भी उसकी भूमिका है. इस सेना की एक बड़ी विशेषता है, इसकी अ-राजनीतिक प्रकृति. तीसरी दुनिया के ज्यादातर देशों की सेनाओं की राजनीतिक भूमिका रही है. वे सत्ता चाहती हैं. हमारी सेना पूरी तरह अ-राजनीतिक है. अपने आप में यह विविध-विशाल भारत का लघु रूप है. यह देश की धार्मिक, जातीय और भाषागत विविधता का कुशलता और सफलता के साथ समन्वय करती है.  

Sunday, January 14, 2018

क्या 'दागी राजनीति' को भी कभी सजा मिलेगी?

हाल में लालू यादव और मधु कोड़ा जैसे नेताओं को सजा मिलने के बाद उम्मीद जागी है कि बड़ी मछलियाँ भी न्याय-व्यवस्था के घेरे में आएंगी। पिछले कई साल भ्रष्टाचार और अपराधों के खिलाफ लहरें तो बनती हैं, पर तार्किक परिणति तक पहुँचते-पहुँचते टूट जाती हैं। क्या अब माहौल बदलेगा? हाल में सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार के एक प्रस्ताव को हरी झंडी दिखाई है, जिसके तहत दागी राजनेताओं के मुकदमों का जल्द निपटारा करने के लिए 12 विशेष अदालतें बनेंगी। देश के अलग-अलग इलाकों में बनने वाली इन फास्ट ट्रैक अदालतों में 1,581 आपराधिक मामलों की सुनवाई एक साल के भीतर पूरी की जाएगी। यानी यदि 1 मार्च 2018 तक ये अदालतें गठित हो गईं और एक अदालत एक साल में 100 मुकदमों का फैसला भी कर पाई तो 1 मार्च 2019 तक 1200 मुकदमों का फैसला हो जाएगा। आंशिक रूप से ही सही, आपराधिक मामलों की तार्किक परिणति की ओर यह एक बड़ा कदम होगा।